नोवार्टिस का चीनी दवा कंपनियों और भारतीय जयचंदों से गठजोड़ -मीनाक्षी अरोड़ा

पिछले वर्षों में भारत की कई दवा बनाने वालों ने विश्व में सस्ती और अच्छी दवाएँ बनाने के लिए ख्याति पाई है। एड्स की दवाएँ जो पहले केवल पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियाँ ही बनाती थीं, भारतीय सिपला जैसी कम्पनियों ने इन्हीं दवाओं को 10 गुने सस्ते दामों पर उपलब्ध कराया। कुछ वर्ष पहले जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने पश्चिमी देशों के बजाय भारत से बनी सस्ती दवाओं को खरीदना चाहा तो 39 बड़ी दवा कम्पनियों ने मिलकर दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर मुकदमा कर दिया। इस पर सारी दुनिया में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वोी गैर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनचेतना अभियान प्रारम्भ किया और दुनिया के विभिन्न देशों से लाखों लोगों ने इस अपील पर अपने दस्तखत किये। अपनी जनछवि को बिगड़ता देख कर घबरा कर बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने दक्षिण अफ्रीका सरकार पर किया मुकदमा वापस ले लिया।

नोवार्टिस की चाल
पर दवा में अकूत मुनाफे के लालच में पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने एक नई चाल चली; रक्त कैंसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर कर दिया कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी अदला-बदली करके किया गया है। इस पर नोवार्टिस ने भारत सरकार पर मुकदमा कर दिया है कि 'भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुध्द है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये।' पर काफी लड़ाइयों के बाद चेन्नई हाईकोर्र्ट में नोवार्टिस की याचिका खारिज कर दी।

चेन्नई हाईकोर्र्ट में याचिका खारिज होने के बाद नोवार्टिस एक बार फिर भारतीय पेटेंट कानून को कुछ और दांव-पेंच के साथ चुनौती देने की तैयारी कर रही है :-

इस बार नोवार्टिस अकेली नहीं है बल्कि माशेल्कर और शमनाद बशीर जैसे जयचंदों और चीन की 'ओपीटीआर' के दबाव से मुकदमा जीतने की तैयारी की जा रही है।
रोचक मोड़ तो यह है कि चेन्नई हाईकोर्ट में खाए हुए तमाचे के बाद बौखलायी नोवार्टिस ने तुरन्त यह घोषणा कर दी कि भारत में पेटेन्ट कानूनों पर कठोर प्रतिबन्धों के चलते यह चीन में निवेश करेगी।
नोवार्टिस को जब पेटेंट की मंजूरी नहीं मिली तो उसने भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियों सिपला आदि की दवा कीमतों को ही चुनौती देना शुरू कर दिया। हाल ही में 'द हिंदू' में सिपला को चुनौती देने वाले विज्ञापन ने इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नीच हथकण्डों की साजिश का पर्दाफाश कर दिया है।

गौरतलब है कि तीसरी दुनिया के सौ के करीब देश भारत से सस्ती दवाओं पर काफी हद तक निर्भर रहते हैं। इसके विपरीत नोवार्टिस जैसी कंपनियों का उद्देश्य दवाओं पर पेटेंट एकाधिकार कायम रखते हुए अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। लेकिन डब्ल्यूटीओ के ट्रिप्स समझौते के तहत भारतीय पेटेंट कानून में संशोधन करते हुए भारी जन दबाव के कारण यूपीए सरकार को यह प्रावधान करना पड़ा कि दवाओं के पेटेंट के लिए सदाबहार प्रक्रिया को इजाजत नहीं दी जाएगी और केवल उन्हीं दवाओं को पेटेंट किया जाएगा।

नोवार्टिस की मुकदमा
नोवार्टिस एजी और नोवार्टिस इंडिया लि. ने कोर्ट से अनुरोध किया था कि वह पेटेंट (संशोधन) कानून, 2005 के सेक्शन-3डी को असंवैधानिक करार दे, क्योंकि यह प्रावधान 'अस्पष्ट और पक्षपातपूर्ण' है। कानून का यह प्रावधान कहता है कि पुरानी दवा को तब तक पेटेंट नहीं दिया जा सकता, जब तक कि उसमें किया गया सुधार दवा को ज्यादा कारगर न बना दे। न्यायमूर्ति आर बालसुब्रमण्यम और न्यायमूर्ति और न्यायमूर्ति प्रभा श्री देवन की एक खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा, 'इस अदालत के पास यह निर्णय करने का अधिकार नहीं है कि संशोधित अनुच्छेद ट्रिप्स समझौते की धारा 27 का उल्लंघन करता है।' स्विस कंपनी की दलील थी कि भारतीय पेटेंट कानून का संशोधित अनुच्छेद ट्रिप्स समझौते को धता बताता है। नई दवा पहले वाली दवा से भिन्न न होने के कारण उसकी याचिका खारिज कर दी गई। नोवार्टिस ने यह दावा किया था कि उसकी नई दवा पहले वाली दवा से 30 फीसदी ज्यादा गुणकारी है लेकिन रोचक मोड़ तो तब आया जब नोवार्टिस को इस बात के प्रमाण साबित करने के लिये गया उस वक्त उसने जो रिपोर्ट पेश की उसके बारे में तो सुनकर भी हैरानी हुई कि इतनी बड़ी कम्पनी लाखों करोड़ों लोगों की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ कैसे कर सकती है, दरअसल दवा का परीक्षण चूहों पर किया गया था, चेन्नई हाई कोर्ट के माननीय न्यायाधीश ने स्वयं यह कहा कि ''यह दवा चूहों के लिये नहीं बल्कि लाखों इंसानों के लिये है।''

इतना बड़ा तमाचा खाने के बाद भी नोवार्टिस को शर्म नहीं आ रही है, वह दोबारा मुकदमा दायर करने की तैयारी कर रही है। हालांकि स्विस सरकार ने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया है कि यह कंपनी और भारत का आपसी मामला है। भारतीय पेटेंट कानून ट्रिप्स के खिलाफ नहीं है, लेकिन नोवार्टिस अब भी भारतीय पेटेंट कानून को चुनौती देने पर आमादा है और हो भी क्यो नहीं? आखिर भारत में बैठे माशेल्कर और शमनाद बशीर जैसे दलालों ने उसके हौंसले जो बढ़ा दिये हैं।

दरअसल भारत सरकार ने एक गलती की कि पेटेंट मुद्दों पर अध्ययन के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दलाल माशेल्कर साहब की अध्यक्षता में एक समिति बना दी जिसमें चार अन्य विशेषज्ञ भी शामिल थे- प्रो गोवर्धन मेहता, असिस दत्ता, एनआर माधव मेनन और मूलचंद शर्मा। इस समिति को दो विवादित मुद्दों की जांच का काम सौंपा गया था- पहला-किसी दवा में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके उसे नई पहचान देने पर दिये गए पेटेंट को सीमित करना और दूसरा, सूक्ष्म जैव रूपों को पेटेंट के दायरे से बाहर करना, क्या ये परिवर्तन डब्लूटीओ के 'ट्रिप्स समझौते' के अनुकूल होंगे?

अब जरा सोचिये! भई चोर के हाथ में चाबी देंगे तो क्या होगा? अब माशेल्कर साहब को उस नमक का हक तो अदा करना ही था ना जो उन्होंने बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मोटी रकम के रूप में खाया था। फिर क्या था- विशेषज्ञों की समिति ने 1/1/2 वर्ष का समय लगाकर रिपोर्ट की नकल करने में। शमनाद बशीर द्वारा लिखे गए पेपर- 'लिमिटिंग द पेटेंटबिलिटि ऑव फार्मास्यूटिकल इंवेन्शंस एण्ड माइक्रो-आर्गेनिज्म: अ ट्रिप्स कम्पैटिबिलिटिरिव्यू' से शब्दश: चोरी की गई थी। शमनाद बशीर से यह रिपोर्ट यूरोपीय, अमरीकी और जापानी दवा अनुसंधान कंपानियों की स्विस असोसिएशन 'इंटरपेट' द्वारा पैसा देकर बनवाई गई थी। चोरी की पोल खुलने पर माशेलकर समिति ने दिस. 2006 में तकनीकी गड़बड़ी के नाम पर रिपोर्ट वापिस ले ली और संशोधित रूप में रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये तीन माह का समय मांगा था जिसे नकार दिया गया था। लेकिन अब एक बार फिर पर्दे के पीछे छिपे माशेलकर और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के रिश्ते जगजाहिर हो गए हैं। कमलनाथ मंत्रालय की सिफारिश पर 'संशोधित रूप में माशेल्कर समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही आगामी एक माह के भीतर गुपचुप तरीके से 'ड्रग एण्ड कॉस्मेटिक एक्ट' पारित करने की तैयारी की जा रही है। आम-आदमी को तो इसकी भनक तक नहीं होगी कि एक खतरनाक अधिनियम बिना किसी संसदीय बहस के गुपचुप तरीके से पारित किये जा रहा है। हैरानी की बात नहीं है जिस देश की वैज्ञानिक और अनुसंधान व्यवस्था के मुखिया माशेलकर जैसे लोग होंगे, उस देश के गरीब आदमी के पास आत्महत्या के अतिरिक्त और क्या विकल्प है?

नोवार्टिस की मंशा
नोवार्टिस की याचिका खारिज होने के बाद जहां एक ओर विभिन्न संगठन इसे 'पेटेंट पर मरीजों के अधिकारों की जीत' के रूप में देख रहे थे, वहीं नोवार्टिस के लिये यह मात्र एक व्यापार है, इसलिये उसने तुरन्त यह घोषणा कर दी कि ऐसे प्रतिबन्धाें और निर्णयों के चलते, भारतीय दवा कंपनियां आविष्कार और संशोधन जैसे प्रयासों के लिये, पूंजीनिवेश के लिये मोहताज हो जाएंगी, क्योंकि अब ये सब बड़ी-दवा कंपनियां भारत में नहीं बल्कि चीनी दवा उद्योग में पूंजी लगाएंगी। इसके ठीक विपरीत पेरिस में चार दिनों तक चले एक अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन में यह बात जोर-शोर से उठी कि 'पश्चिमी देशों की दवा निर्माता कंपनियाँ' के मुनाफे के लिए करोड़ों एड्सग्रस्त लोगों की ज़िंदगियों से खेल रही हैं और इसी सिलसिले में भारत में बन रही सस्ती दवाओं का स्वागत भी किया गया। ब्राज़ील के एक स्वयंसेवी संगठन ने सस्ती दवाओं की ज़रूरत पर जोर देते हुए बताया कि किस तरह वहाँ की सरकार कई भारतीय कंपनियों से जेनेरिक दवाएँ ख़रीदकर एड्सग्रस्त लोगों का इलाज करवा रही है। वहीं नाइजीरिया के एक डॉक्टर ने भारतीय कंपनियों की तारीफ़ करते हुए कहा कि भारतीय कंपनियों की बनाई हुई जेनेरिक दवाओं से अफ्रीका में एड्स से लड़ने में काफ़ी मदद मिल रही है। लेकिन भारत में एड्स की दवा बनाने वाली प्रमुख कंपनी रैनबैक्सी के अनुसार अब सस्ती दवाओं की माँग केवल ग़रीब देशों में ही नहीं रही., बल्कि अमीर देशों के गरीब भी भारत की तरफ सस्ती दवाओं के लिए देख रहे हैं।

अपना उल्लू सधता न देखकर भारतीय राजनीति के ठेकेदारों और नौकरशाही को हरकत में लाने के लिये नोवार्टिस 'गीदड़-धमकियां' देने पर उतर आई है, जब सीधी अंगुली से घी नहीं निकला तो उसने अंगुली टेढी कर ली है। चीन की ओपीटीआर (ऑप्टिमर फार्मास्यूटिकल और रिसर्च एण्ड डेवलपमेन्ट) को मोहरा बनाकर, अब भारतीय दवा उद्योग पर हमला करने की तैयारी की जा रही है। नोवार्टिस को शायद इस बात का गुमान है कि इनके दबाव में आकर, शायद भारत अपने पेटेंट कानून में बदलाव कर देगा। इस सबके लिये न केवल माशेल्कर और कमलनाथ जैसे दलालों को सीढ़ी बनाया गया है बल्कि लॉस एंजिल्स स्थित एएचएफ(एडस् हैल्थकेयर फाउंडेशन) जैसी संस्थाओं की सहायता से भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियों को बदनाम करने की नीच हरकतें शुरू कर दी गई है। हाल ही में एक मुख्य समाचार-पत्र में छपे, सिपला दवा कंपनी को चुनौती देने वाले विज्ञापन ने इन बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की हमारे देश की मीडिया को विज्ञापनों और उनसे मिलने वाले रुपये की चिन्ता तो है, पर उन लाखों-करोड़ों जिन्दगियों की कोई चिन्ता नहीं, जिनकी जिन्दगी से विदेशी कंपनियां, निहित स्वार्थों के लिये खिलवाड़ कर रही हैं। ऐसी मीडिया को देश का प्रहरी नहीं बल्कि 'मौत का सौदागर' ही का जा सकता है।

नोवार्टिस जैसी कंपनियों की तो मंशा ही यह है कि भारत में ज्यादा से ज्यादा दलाल खड़े करके, पेटेंट व्यवस्था में बदलाव के लिये दबाव बनाया जाए। नोवार्टिस के वाइस चेयरमैन डॉ रणजीत साहनी का कहना है कि वह न्यायालय के निर्णय से सहमत नहीं हैं। कंपनी के प्रवक्ता ने भी स्पष्ट स्वर में घोषणा की है कि ''न्यायालय के निर्णय से विवाद खत्म नहीं हुआ है, बल्कि हम लोग इस अभियान में उन सभी के साथ मिलकर काम करेंगे, जिनकी सम्बन्धित मुद्दे पर रूचि है। ''अब नोवार्टिस को इंतजार है 'बौध्दिक सम्पदा अधिकार, अपीलीय बोर्ड, दिल्ली के फैसले का।

भारतीय-अमेरिकी बिजनेस संगठन 'युनाईटेड स्टेट्स इंडिया बिजनेस कांउसिल के डायरेक्टर ग्रेग कैलबॉघ ने वाशिंगटन में कहा कि कोर्ट के फैसले के बाद यह मसला अब भारत की विधायिका के सामने है। उम्मीद है कि इस पर जिम्मेदार बहस शुरू होगी और मेडिकल क्षेत्र में नई खोजों को प्रोत्साहित करने वाले नियम बनेंगे। दूसरी ओर सिपला फार्मास्यूटिकल कंपनी के चेयरमैन यूसुफ हामीद और 'मुम्बई कैंसर पेशेन्टस सप्पोर्ट ग्रुप के अध्यक्ष वाईके सप्रू ने कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए कहा ''यह न केवल घरेलू बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की जीत है। भारत में करीब 5 बिलियन डॉलर का दवा कारोबार है जिसमें से 65 फीसदी विकासशील और विकसित देशों के गरीब लोगों को जाता है, अगर कोर्ट का फैसला अन्यथा होता तो, उन गरीबों को सस्ती दवाएं मिलना बन्द हो जाती, कोर्ट के फैसले से यह आपदा टल गई है। ''

दवा उद्योग और 'ग्लोबल रिलीफ ऑगनाइजेशन्स भी इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं। आवश्यक दवाओं के लिये 'डॉक्टर्स विदाउट बोर्डर' अभियान के डायरेक्टर टिडो वॉन शुएन-एंजीरर ने इसे विकासशील देशों के लाखों मरीजों के लिये राहत का कदम बताया है। फिर भी सूरत-ए-हाल यह है कि नोवार्टिस अब भी भारतीय पेटेंट कानून को चुनौती देने पर आमादा है, वह इस सच्चाई से आंखें मूंद रही है कि भारतीय पेटेंट कानून की दोहा वार्ता में किये गए निर्णय के अनुसार काम कर रहा है। तो ऐसे में क्या नोवार्टिस को भारतीय पेटेंट कानून को चुनौती देने का अधिकार है? क्या एक दवा कंपनी की इतनी औकात हो गई है कि वह एक ऐसे कानून को चुनौती दे जो अन्तरराष्ट्रीय स्तर के दिग्गज मंत्रियों की उपस्थिति में तय किया गया था? यह चुनौती वास्तव में भारतीय कानून को नहीं डब्लूटीओ र्वात्ताओं और समझौतों को चुनौती है? यह चुनौती है उन सभी देशों के प्रतिनिधियाें के लिये, जो उस र्वात्ता में शामिल हुए थे।

ग्लीवाक दवा का मामला भारतीय पेटेंट कानून के लिए एक परीक्षा साबित होने जा रहा है। यदि नोवार्टिस ग्लीवाक पर पेटेंट हासिल कर लेती है, तब तमाम जीवन रक्षक दवाओं पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा पुन: पेटेंट लेने का दरवाजा खुल जायेगा और फिर ये दवाऐं सामान्य आदमी की पहुंच से बाहर हो जायेंगी। उदाहरण के लिए ग्लीवाक की घरेलू कीमत महज 8,000रुपया महीना पड़ती है जबकि नोवार्टिस द्वारा पेटेंट की हुई ग्लीवाक की कीमत 1,20,000 रुपया महीना बैठती है। ये दवाइयॉ 1995 से पहले भी ज्ञात थीं और इसी कारण भारत में इन दवाइयों पर अब पुन: पेटेंट नहीं दिया जा सकता। परन्तु दवा बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन दवाओं के फार्मूलों में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके, या दो दवाओं का मिश्रण बना कर और उसे नयी दवा का नाम देकर नया पेटेंट लेने की कोशिश कर रही है। ये चाल-बाजियां बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमेशा से करती रहती है जिससे उनका पेटेंट अधिकार 'एवरग्रीन' बना रहे। यदि नये भारतीय पेटेंट कानून में से सेक्शन 3(डी) निकाल दिया जाता है या उसे कमजोर कर दिया जाता है, जैसा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाें की मांग है, तो ये चाल बाजियां कामयाब हो जायेंगी और भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा की धज्जियां उड़ जायेगीं। इसका परिणाम होगा एड्स की दवाइयां 20-25 गुना महंगी हो जायेंगी।

घरेलू और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लाखों-करोड़ों लोगों की जिन्दगियों के बचाने के लिये बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की साजिशों को नाकाम करना ही होगा।

1 टिप्पणी:

Sunil Deepak ने कहा…

इस सारी घटना पर पूरा समाचार देने के लिए धन्यवाद. कई महीने पहले जब इस बात मैंने लिखा था तो मेशेल्कर साहब के किसी पुराने विद्यार्थी को विश्वास ही नहीं हुआ था और उन्होंने मुझसे पूछा था कि यह सच है.

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