एस.इ.जेड (सेज) का सच -प्र्भात कुमार

ग्लोबल कंपीटिशन, विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने और कुछ चुनिंदा वस्तुओं को निर्यातोन्मुखी बनाने आदि के लिए सरकार सेज बना रही है। इसके लिए निवेश करने वाले देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों को आमंत्रित किया जा रहा है। इसमें व्यापारियों को सस्ती जमीनें, बिजली, पानी के साथ-साथ निर्यात शुल्क, उत्पाद कर आदि की विशेष रियायत दी जा रही है। कहा तो यह जा रहा है कि सेज में कानून व्यवस्था पर स्थानीय प्रशासन का प्रभाव नहीं रहेगा। साथ ही श्रम कानून भी लागू नहीं होंगे।
कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 1999 के बाद से पिछले 7 वर्षों में लगभग 13 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि कार्य से हटाकर दूसरे काम में लगा दी गयी है। जाहिर है, इसका इस्तेमाल उद्योग आदि के लिए किया गया। सबसे चिन्ता का विषय यह है कि सेज भी कृषिभूमि को ही निगल रहे हैं। कारपोरेट जगत ने सरकार की साठगांठ से पूरे देश में जमीन की लूट का संगठित प्रयास चला रखा है। अब तक 30,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहीत हो चुकी है, जबकि 95,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहण करने की योजना पर काम जारी है।
सरकारें सेज के लिए दमन पर उतर आई हैं। उड़ीसा में टाटा स्टील को जमीन देने के नाम पर 12 आदिवासी मारे गये। कोलकाता के पास सिंगूर में टाटा का विरोध हो रहा है। नंदीग्राम में आए दिन सरकारें गोली चलवा रहीं हैं। महाराष्ट्र में रिलांयस द्वारा किये जा रहे अधिग्रहण के विरोध को बुरी तरह कुचल दिया गया। गाजियाबाद के समीप दादरी की उपजाऊ जमीन रिलायंस को आवंटित कर दी गयी। रैयत-दर-रैयत कानून के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के कारण आदिवासी पुस्त की जमीन से बिहार में बेदखल हो रहे हैं।
सेज की स्थापना को लेकर बड़ा विवाद तो किसानों के जीवन-यापन का साधन उनकी फसली जमीनों को सरकार द्वारा पूंजीपतियों को हस्तांतरण से उठा है। बिहार में भी सेज के लिए रास्ता बनाया जा रहा है। मंत्रीमंडल ने फैसला लिया है कि अधिग्रहित जमीन का ड़ेढ़ गुणा दाम दिया जाएगा। बिहार सरकार भी पूँजी निवेश विभिन्न क्षेत्रों में चाहती है। कुरसैला (कटिहार) में 200 एकड़ भूमि रिलायंस ने मक्का उगाने के लिए ली है। उत्तार बिहार के कई जिलों में फिल्म निर्देशक प्रकाश झा को जमीने दी गई हैं, जिसको प्रकाश झा बिल्डरों को देकर पैसा कमाने में लगे हुए हैं। बिहार में कृषि क्षेत्र 74.0 प्रतिशत आबादी की जीविका का आधार है, जबकि कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा मात्र 32.0 प्रतिशत है और राज्य सरकार के अनुसार 4 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। इसके बावजूद बिहार सरकार भी कान्ट्रेक्ट फार्मिंग एवं कारपोरेट कृषि की बात कर रही है। लेकिन बिहार की पिछली सरकार की भांति वर्तमान सरकार भी इस बात को समझ नहीं पा रही है कि निवेश वृद्वि पर आधारित उधार का माडल बिहार की समस्या का समाधान नहीं है।
महाराष्ट्र का कोंकण, पश्चिम बंगाल का सिंगूर और नंदीग्राम, पंजाब का बरनाला और अमृतसर, हरियाणा का झज्जर और गुड़गाँव, छत्तीसगढ़ का चुरली और बांसी, उत्तर-प्रदेश का दादरी, उड़ीसा का कलिंग क्षेत्र सेज के प्रभावक्षेत्र बन गये हैं। अकेले नंदीग्राम में तीस गाँव तथा चालीस हजार परिवार विस्थापित हो रहे हैं, बाकी सेज क्षेत्रों से भी लाखों परिवार उजाड़े जाने हैं।
इस बात को लेकर किसानों में काफी रोष है कि 'सेज' अचानक 61 से बढ़कर 401 के करीब पहुंचा दिये गये हैं। विश्व में सबसे ज्यादा संख्या में सेज भारत में बनने जा रहे हैं। 2.80 लाख एकड़ भूमि इसके लिए निर्धारित की जा चुकी है। हड़बड़ी में देश के अन्दर कंपनियों का राज स्थापित करना देश के लिए घातक ही होगा।
इसके अलावा वित्तामंत्री पी. चिदम्बरम कहते हैं कि अगले 5 वर्षों में सेज से सरकार को 1,75,000 करोड़ रूपये के राजस्व हानि होगी। इस बात की आशंका भी है कि निवेशकों को आयात शुल्क में बहुत हद तक छूट देने से भारत में विदेशी वस्तुओं की 'डंपिग' हो जाएगी, जिसका असर लघु व शिल्प उद्योगों पर पड़ेगा। कृषिभूमि के बेहिसाब अधिग्रहण से खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ेगा। कृषि से जुड़ी बड़ी जनसंख्या बेरोजगार होगी। सरकार व कारपोरेट जगत के पास ऐसा कुछ नहीं है, जिससे वे वैकल्पिक रोजगार के अवसर प्रदान कर सकें।
सेज एवं अन्य संरचनाओं के विकास के लिए भूमि अधिग्रहण कानून का जिस तरह से उपयोग हो रहा है, उससे यह प्रतीत होता है कि यह एक औपनिवेशिक कानून है, जिसमें लोगों की जिन्दगी के अधिकार की कल्पना नहीं है। असंख्य लोगों के प्राकृतिक संसाधन, जल, जंगल, जमीन को छीन कर कच्चा माल बनाया जा रहा है। इस कानून में खेत मालिक तो हैं, पर इसमें बटाईदार, खेतिहर मजदूर, चरवाहा, बहेलिया, कारीगर, दस्तकार, कुम्हार शामिल नहीं है। पूंजी का अर्थशास्त्र लोगों की रोटी, कपड़ा और मकान का सवाल हल नहीं कर पा रहा है। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अनेक देश इन परेशानियाें से त्रस्त हैं। भारत के 29 करोड़ भूमिहीनों, खेतिहर मजदूरों और वंचितों के अधिकार और सम्मान को आज जो छीनने की कोशिश हो रही है, इसके लिए जिम्मेदार किसे माना जाए ?
दरअसल अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा एवं यूरोपीय देशों में पर्यावरण कानून इतने कठोर हैं कि इनमें बहुराष्ट्रीय कंपनियां घुस नहीं पा रही हैं। ऐसी स्थिति में भारत के प्राकृतिक संसाधन जो आदिवासी क्षेत्र में हैं, उन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर है। ये समझते हैं कि अधिकार चेतना का अभाव व लचर कानून व्यवस्था का इस्तेमाल कर आदिवासियों को बेदखल कर सकते हैं और सरकार पर दबाव डालकर एवं भ्रष्ट आचरण द्वारा 5 वीं अनुसूची, फोरेस्ट कंजरवेशन एक्ट, पर्यावरण सुरक्षा कानून, पंचायती राज तथा अन्य कानूनों में फेरबदल कर सकते हैं।
भूमि का अधिकार खाद्य-संप्रभुता की दृष्टि से केन्द्र-बिन्दु है। वैश्वीकरण के कारण भूमि सुधार बाधित हुआ है, इसे फिर से लागू करने की जरूरत है। ऐसी स्थिति में किसानों, मजदूरों, कारीगरों, दलितों, भूमिहीनों, महिलाओं और आदिवासियों के लिए भूमि, जल एवं जंगल का प्रश्न अधिक मुखर हो कर उठ खड़े हुए हैं। नक्सलवादी आन्दोलन का फैलाव राज्य के गरीब विरोधी चरित्र, प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार और सामाजिक विषमता की ही देन है।

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