अगर गांव में छोटी-मोटी लड़ाई हो गई और एक-दूसरे को सबक सिखाने के लिए...अब, तुझे दिखाता हूं, समझता क्या है अपने आपको?...कहते हुए दोनों तरफ से बांहें ऊपर उठाते हुए आम लोग पुलिस थाने तक चले जाते हैं तो वहां पर पुलिस वाला उन्हें वकीलों के सुपुर्द कर देता है।
वकील साहब बहुत चतुर सुजान! मुवक्किल को भरोसा दिलाते है-बाबा चिंता मत करो, सामने वाले को ऐसा फिट करूंगा कि याद रखेगा।... और वास्तव में सालों तक पेशियां करते-करते वकील मुवक्किल को ऐसा फिट करता है कि वह बेचारा पानी मांगने लगता है। वकील साहब को कहता है- साहब मैं तो भूल ही गया कि लड़ाई क्या थी? आप ही फाईल से देखकर बताओ कि मुझे कहना क्या है?
फिर दस-बारह साल बाद अचानक एक दिन वकील साहब मुवक्किल को कहता है- बाबा तुम्हारे केस में कोई दम नहीं है, राजीनामा कर लो। मुवक्किल तो धक्क रह जाता है, आखिर मेरे केस का दम कहां चला गया? इतने साल जब तक मेरी जेब में दम था तो केस में भी दम था और आज जेब खाली तो केस का दम भी गायब!
इन गुजिश्ता दस-बारह सालों में जब तक केस चलता है, लगभग हर माह यह गांव का मांगीलाल नामक आम आदमी जो साधारण जनता का प्रतीक है, कोर्ट में पेशी पर आता है, घर से कपड़े में रोटी बांधकर लाता है और कचहरी में किसी नीम के पेड़ की छाया में मुंह फाड़े कोर्ट के चपरासी की आवाज की तरफ कान लगाए बैठा रहता है कि कहीं उसका नाम नहीं निकल जाए। इस साधारण भारतीय नागरिक मांगीलाल की समस्या यह है कि वह कोर्ट के चपरासी द्वारा रागिनी में गाकर ;वकै श्रीऽऽ...ऽऽ...ऽऽ... हाजिर हो ऽऽ...ध्द लगाई गई पुकार के 'रहस्य' को समझ नहीं पाता है, इसलिए समय से पूर्व कोर्ट परिसर में पहुंच कर चपरासी के सामने हाथ जोड़ कर कहता है- 'बाबूजी, आपकी बोली मुझे समझ में नहीं आती है, इसलिए जब मेरा नाम पुकारने लगो तो जरा हाथ से भी मेरी तरफ इशारा कर देना ताकि मैं समझ सकूं।' कोर्ट के सबसे नीचे के ये कर्मचारी महोदय मांगीलाल को पूरे रौब-दाब से आदेश देते है- 'ठीक है, मेरे लिए कचौरी और चाय लाओ।'
मांगीलाल वकील साहब के लिए फीस लाता है, मांगीलाल बस वाले के लिए घर से किराया लाता है और मांगीलाल कोर्ट के चपरासी के लिए ईशारा करने के बदले में कचौरी-समोसा और चाय लाता है, ये वही मांगीलाल है जिसे इस महान देश के सबसे विशाल लोकतंत्र की धुरी होने का गौरव प्राप्त है।
मांगीलाल कोर्ट में घुसता है तो देखता है कि जज साहब के बिल्कुल बगल में बैठकर बयान लिख रहे या पेशियां बदल रहे पेशकार ;प्रस्तुतकारध्द महोदय उसके वकील से कुछ रुपए स्वीकार कर रहे है, ऐसा, केवल एक वकील से नहीं, लगभग हर वकील से वे ले रहे है। मांगीलाल देखता है गौर से कि अभी जज साहब को मालूम पड़ेगी तो इस पेशकार की खैर नहीं, इसे डांट पड़ेगी, हो सकता है कि इसे नौकरी से ही निकाल दिया जाएगा, इस जुर्म में, कि यह आदमी न्याय की देवी के मंदिर को गंदला कर रहा था! मगर मांगीलाल निराश हो जाता है, क्योंकि कई बार जज साहब, पेशकार जी को धन लेते हुए कनखियों से देख लेते है मगर मौन ओढ़े बैठे रहते है। मांगीलाल की मनोदशा को भांपकर उसके वकील साहब उसे समझाते है- यह तो 'नजराना' है जिसे चुकाना हमारा फर्ज है और उसे उगाहना उनकी जिम्मेदारी है।
मौन का रहस्यमयी आवरण लपेटे न्यायाधीश महोदय और आंखों पर पट्टी बांध कर न्याय की तराजू लिए खड़ी न्याय की देवी बरसों से इस 'नजराना प्रथा' पर चुप है, मांगीलाल को उनकी खामोशी भयानक लगती है, इसलिए वह कोर्ट के कक्ष से बाहर निकल आता है। यह कहानी प्रतीकात्मक है पर पूरी न्यायिक व्यवस्था के बारे में एक झलक देती है, 'कचेड़ी में हेला पाड़े रे कोई तो मुण्डे बोलो, चोरीवाड़ो घणो हो ग्यो रहे कोई तो मुण्डे बोलो। ;कोर्ट में आवाजें लगाई जा रही है, कोई तो मुंह से बोलो, चोरियों और भ्रष्टाचार बहुत हो गया है कोई तो चुप्पी तोड़ोध्द मजदूर किसान शक्ति संगठन के कार्यकर्ता शंकर सिंह को अन्य साथियों के साथ जब भी इन पंक्तियों को उपरोक्त कथानक के सविस्तार वर्णन के साथ गाते और कहते सुनता हूं, देश की न्यायपालिका के प्रति बरसों से मन में बसा भरोसा दरकने लगता है। शायद मेरी ही तरह बहुतों का विश्वास उठने लगता है क्योंकि मांगीलाल का बिल्कुल भी विश्वास अब नहीं बच पाया है। मांगीलाल का भरोसा इसलिए टूटा क्योंकि हमारी कोर्टों में न केवल खुलेआम नजराना स्वीकारा जाता है, बल्कि वकील मुवक्किलों की जेबें सरेराह खाली करवाने में अपना कौशल समझते है, मुकदमों में तारीख-दर-तारीख पेशियां पड़ती रहती है, न्याय होता हुआ नहीं कई बार बिकता हुआ नजर आता है, अक्सर महज फैसले होते है इंसाफ नहीं होता है। जो आदरणीय लोग है, न्याय करने वाले कानून के रक्षक उनका आचरण संदेहास्पद नजर आने लगता है। कई स्थानों पर कोर्ट परिसरों में खुले आम ताश पत्तियां और सट्टे तक खेलने की खबरें पढ़ने में आती है। लोक अभियोजकों की नियुक्तियां राजनीतिक निष्ठाओं के तराजुओं पर तौल कर की जाती है और न्यायिक कर्मचारियों की नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद से लेकर भारी भ्रष्टाचार तक के आरोप देशभर में आम हो चुके है।
न चाहते हुए भी कहना होगा कि न्यायपालिका अपनी चमकदार हैसियत खोने लगी है, जनहित याचिकाओं पर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाली अदालतें अब गरीब विरोधी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितकारी फैसले देने की न्यायिक सक्रियता के लिए जानी जाने लगी है।
न्यायपालिका और कार्यपालिका तथा विधायिका में टकराव होता रहता है, एक-दूसरे पर हावी होने की प्रवृत्ति साफ देखी जा सकती है। आजकल एक नया रूझान और भी उभरकर सामने आया है कि न्यायपालिका और प्रेस के मध्य भी टकराव होने लगा है। हाल ही में भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल साहब के आचरण को लेकर उठी आवाजों के मद्देनजर पूरे दस्तावेजी सबूतों को आधार बनाकर मिड डे नामक अखबार ने लेख छाप दिए, न्यायपालिका इस स्वस्थ आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाई, फलत: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक स्वत: स्फूर्त प्रसंज्ञान के जरिए मिड डे के चार पत्रकारों को कोर्ट की अवमानना करने के अपराध में चार-चार महीने की सजा सुना दी। कोर्ट की इस कार्यवाही को लेकर मीडिया की ओर से देशभर में जबरदस्त हल्ला मचा हुआ है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने सजा पर रोक लगा दी है मगर यह बहस तो छिड़ ही गई है कि- क्या न्यायपालिका निर्विवाद है, उस पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती है, क्या वह ईश्वरीय शक्ति संपन्न है! उसकी आलोचना करना क्या 'ईशनिंदा' है? क्या माननीय न्यायाधीशगण दैवीय ऊर्जा वाले विशिष्ट महामानव होते है कि उनके काम और आचरण पर प्रश्न ही नहीं खड़े किए जा सके?
अदालतें और न्यायाधिपतिगण तो कानून के रक्षक माने जाते है, उनकी जिम्मेदारी होती है कि वे कानूनों की ठीक से व्याख्या करें और उनकी पूरी पालना सुनिश्चित करावें, मगर इसके ठीक उलटा हो रहा है, शासन, प्रशासन में जवाबदेही और पारदर्शिता को स्थापित कर रहे क्रांतिकारी कानून सूचना के अधिकार की छाया से मुक्त होने के लिए न्यायपालिका छटपटा रही है, राजस्थान में न्यायालयों में लोक सूचना अधिकारी ही नहीं नियुक्त किए गए है, सूचना के अधिकार कानून के नियम भी नहीं बनाए गए है, चर्चा तो यहां तक है कि न्यायपालिका को भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर करवाने की कोशिश की जा रही है। इन सब बातों को देखकर ऐसा लगता है कि न्यायपालिका रहस्यमयता की गोपन संस्कृति को बरकरार रखना चाहती है और जवाबदेही से बचना चाहती है, उस पर कोई सवाल उठा दे तो अवमानना का डंडा चलाकर उन्हें चुप कराने की कोशिशें की जाती है।
आज न्यायपालिका, मीडिया, आम जनता और सूचना के अधिकार के अंर्तसंबंधों और अंर्तद्वंदों को ठीक से समझने की जरूरत का समय आ गया है क्योंकि लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए यह बहुत जरूरी हो गया है कि इसके सभी स्तंभ अपनी जिम्मेदारियों और जवाबदेहियों को ठीक से समझे तथा उनका निर्वहन करें।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस चौखंभा (न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका तथा प्रेस) लोकतंत्र को देश के आम माने जाने वाले नागरिक मांगीलाल की निगरानी में चलना पड़ेगा और उसके प्रति जवाबदेह बनना होगा। और अंतत: यह भी कि जो कानून को लागू करवाते है उन पर कानून सबसे पहले लागू होता है, इसे भूले बिना न्यायपालिका काम करे और अवमानना का ब्रह्मास्त्र का बेजा प्रयोग करके उसकी धार को कमजोर नहीं करें, तभी सभी स्तंभों का महत्व और सम्मान बना रहेगा, वरना करोड़ों मांगीलालों के इस प्रश्न का क्या जवाब है कि ऐसे कैसे और यह सब कब तक चलेगा मी लॉर्ड?
ऐसे कैसे चलेगा मी लॉर्ड ! - भंवर मेघवंशी
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