हम सबने सुना कि अब बाजार में बीटी बैंगन के बीज आ रहे हैं। बहुत से शहरी लोग नहीं समझ पायेंगे कि ये बीटी बीज क्या होते हैं? तो इसका अर्थ यह है कि बैंगन के जहर बुझे बीज। बीटी बीज बनाने वाली कम्पनी का कहना है कि बैंगन या आलू की फसल को कीटों से बचाने के लिये ऊपर से कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है इसलिये समस्याओं से बचने के लिये कम्पनी ने बीज में ही कीटनाशक (यानी जहर) प्रवेश करा दिये हैं यह तकनीक कुछ और नहीं, केवल बीजों, कीटनाशकों और नई समस्याओं के समाधान का बाजार खोजने की रणनीति है। और भूमण्डलीकरण में आम लोगों के लिये इसी बाजार से निपटना सबसे बड़ी चुनौती है।
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भूमण्डलीकरण वास्तव में एक स्पष्ट रूप से नजर आने वाली वस्तु नहीं है। यह तो एक प्रक्रिया है और इसमें खास बात यह है कि जब तक हम इस पक्रिया के वर्तमान पहलुओं और सिध्दान्तों को समझ पाते हैं तब तक इसका रूप बदल चुका होता है। फिर भी जब हम कृषि के भूमण्डलीकरण की बात करते हैं तब यह साफ तौर पर दिखता है कि बाजार में बैठी हुई कम्पनियों का मकसद केवल लाभ कमाना है। इस आर्थिक लाभ को कमाने के लिये वे यह तर्क अपने तथा कथित अध्ययनों-विश्लेषणों से स्थापित करते हैं कि किसान जितने संसाधानों का उपयोग करते हैं, उसके अनुरूप फायदा नहीं कमा पाते हैं। सबसे ज्यादा हानि फसलों में अलग-अलग बीमारियों और कीटों के हमलों से होती है। और जब बीमारियाँ होती है तो किसानों को तरह-तरह के कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है, जिसमें खेती की लागत बढ़ती है। यह तर्क वास्तव में पूरी व्यवस्था की कमजोर नब्ज है जिस पर कम्पनियों ने अपना हाथ रख दिया। अब कम्पनियों ने जैव परिवर्ध्दित (जैनेटिकली मोडिफाईड बीज) बीजों का विकल्प खड़ा कर दिया है। जैव तकनीक के जरिये कम्पनियों ने बीजों के भीतर ही कीटनाशकों का प्रवेश करा दिया है। उनका दावा है कि यदि किसान उनकी कम्पनी के बीजों का उपयोग करेंगे तो उन्हें कीटनाशकों का उपयोग नहीं करना पड़ेगा। इससे कृषि की लागत कम होगी और उत्पादन भी बढ़ेगा।
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इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भूमण्डलीकरण की राजनीति के जरिये विकासशील देशों (खासतौर पर कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था पर आधारित भारत जैसे देशों) पर अपना शिकंजा कसना, क्योंकि यहॉ की जनतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां उन्हें रास आई। भ्रष्टाचार और तकनीकी जाल में उलझे सरकारी संस्थान भी अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के निर्देशों पर नीतियॉ बनाते हैं। रणनीति के तौर पर हमें इस राजनीति का विश्लेषण करना जरूरी है। अमेरिका हमेशा से आर्थिक उपनिवेशवाद का ध्वज वाहक रहा है। वह दुनिया में कहीं भी वास्तविक जनतंत्र का हिमायती नहीं रहा है। यही कारण है कि जैव तकनीक को सबसे पहले और सबसे ज्यादा अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने ही बढ़ावा दिया और अमेरिकी सरकार ने अपनी नीतियां भी उन्हें मदद करने वाली ही बताईं। इतना ही नहीं वह वैश्विक मंचों पर भी जैव तकनीक की वृध्दि का खुल कर पक्ष लिया।
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सन् 2002 में विश्व खाद्य सम्मेलन में गरीबी-भुखमरी पर चर्चा र्हुई। और विकसित देशों ने कहा कि भूमण्डलीकरण से ही भुखमरी मिट सकती है और बायोटेक्नालॉजी के जरिये ही संकट को हल किया जा सकता है। तभी अमेरिका के कृषि सचिव ने यह विवाद भी खड़ा कर दिया कि सम्मेलन के घोषणा पत्र में सभी देश जीएम फसलों को बढ़ावा देने पर सहमति जाहिर करें और अपनी नीतियॉ इसी तरह बनायें। अमेरिका के दबाब में जैव परिवर्धित तकनीक को भुखमरी मिटाने के लिये जरूरी मानना पड़ा। यह स्वीकार न करने की स्थिति में अमेरिका ने धमकी तक दे दी थी कि वह विश्व खाद्य सम्मेलन के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर नहीं करेगा।
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यह एक सर्र्वमान्य तथ्य है कि कृषि पर जीवन निर्भर करता है कृषि पर बाजार कभी हावी नहीं रहा। ऐसे में इस पर नियंत्रण हासिल करने के लिये जैव तकनीक का सहारा लिया गया। जैव तकनीक अब बहुत तेजी से कृषि का बाजारीकरण्ा तो कर ही रही है परन्तु चिंताजनक तथ्य यह है कि इससे मानवता पर भी संकट छा रहा है। जिस कीट से फसल को बचाने के लिये बैक्टिरिया बीजों में प्रवेश कराया जा रहा है क्या वह उन लोगों पर असर नहीं करेगा जो जैव परिवर्धित बीजों से उपजाये गये फल या सब्जी खायेंगे। जैव परिवर्धित बीजों (बीटी बीज) के कितने खतरनाक प्रभाव पड़ते हैं इसके दो उदाहरण हमारे सामने आ चुके हैं। बीटी कपास की खेती करने वाले हजारों किसान घाटे में डूब कर कर्ज के जाल में फंसे और उन्हें आत्महत्या करना पड़ी। इसी फसल के पेड़ और कपास के फल खाकर 1600 भेड़ें मर गई। शुरूआत तो बीटी कपास से हुई थी परन्तु अब भारत सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रवुल कमेटी (जी ई ए सी) ने तो खाद्य फसलों के लिये भी जहर बुझे बीजों के उपयोग को अनुमति देना शुरू कर दिया है। बहुराष्ट्रीय बीज निर्माता कम्पनी मानसेंटो ने एक फर्जी अध्ययन कर बताया कि कीटों और बीमारियों के कारण हर वर्ष 22.1 करोड़ डालर का बैंगन उत्पादन बेकार हो जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि इतनी राशि का तो कुल बेंगन उत्पादन ही नहीं होता है। बैंगन के बीजों में मानसैटों कम्पनी ने वही बैक्टिरिया- क्राय1एसी जीन डाला है जो कपास के बीज में डाला गया था। वही कपास का बीज जितनी फसल को खाकर 1600 भेड़ें मर गई थीं। खाद्य बीजों, खास तौर पर बैंगन के बीजों में जिस क्राय1एसी जीन को प्रवेश कराया गया है, उसके प्रभावों का प्रयोग चूहों पर किया गया। उससे पता चला कि यह प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करता है और आंतों में चिपक जाता है। पूर्व के क्राय1एसी जीन के परीक्षण यह सिध्द करते हैं कि उससे जीवों में जबरदस्त एलर्जी होती है और यदि यह जीन लगातार मानव शरीर में प्रवेश करेगा तो वह कभी भी खतरनाक बीमारीयों से नहीं उबर पायेगा।
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जीएम खाद्य पदार्थों पर हुआ कोई भी अध्ययन यह सिध्द नहीं करता है कि ऐसे बीज या उत्पादन जानलेवा खतरनाक रसायनों और संकटों से मुक्त हैं। यही कारण है कि किसी भी विकसित देश ने अपने यहॉ जीएम खाद्यान्न को प्रोत्साहित नहीं किया है। बीटी बैंगन के बीजों में एनपीटी-2 जीन का भी प्रयोग किया गया है। वास्तव में यह जीन कैनामायसिन प्रतिरोध के रूप में जाना जाता है। इसके कारण मानव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता और कोशिकायें खत्म हो जाती है। यदि व्यक्ति बीटी बैंगन का उपयोग करता है तो उस पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर भी खत्म हो पायेगा। एक तरफ तो सरकार हेपेटाईटस-बी जैसी बीमारी से निपटने के लिये कार्यक्रम बना रही है तो वहीं दूसरी ओर इसी तरह की बीमारी फैलाने वाले कालीफ्लोवर मोसियेक वायरस की बीटी बैंगन के जरिये मानव शरीर में प्रवेश कराने की अनुमति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दे रही है।
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सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कुदृष्टि को भांप नहीं पा रही है। ये कम्पनियां नई तकनीक से बने बीजों के नकारात्मक प्रभावों को छिपाती रही है। जो कम्पनी बीटी बैंगन के बीजों का उत्पादन करवा रही है उसने पहले बीटी मक्का के घातक परिणामों को छिपाया है। बीटी मक्का के प्रयोंगों से पता चला था इससे किडनी में असमान्यता आ जाती है और खून में श्वेत रक्त कोशिकाओं का स्तर बढ़ जाता है। कम्पनियॉ कहती हैं कि उस बीज से बैंगन के बीज का सम्बंध नहीं है पर सच यह नहीं है। कई वरिष्ठ वैज्ञानिक मानते हैं कि जैव परिवर्धित बीजों का व्यापारिक उपयोग करने से पहले उसके प्रभावों का परीक्षण कई पीढ़ियों पर करना होगा ताकि इसके प्रभावों को जॉचा-परखा जा सके परन्तु लाभ कमाने को तत्पर बाजारू कम्पनियॉ इंसानी समाज के आस्तित्व को ही दांव पर लगा रही है। यह एक षडयंत्र है भारत की जैव विविधता को खत्म कर देने का। हमारे देश में चार हजार सालों से बैंगन का उत्पादन हो रहा है और इसकी मात्रा की किसी भी तरह से कम नहीं है। बीटी कम्पनियां जिस तरह से बीजों के चरित्र में रासायनिक गुणधर्मों में परिवर्तन कर रही हैं उससे भारत में खाद्य पदार्थों और सब्जियों के प्राकृतिक बीज खत्म हो जायेंगे। और तब हर किसान को कम्पनी के बीज पर ही निर्भर रहना होगा। यह तथ्य भी जान लेना जरूरी है कि बीटी बैंगन में उपयोग किये गया क्राय1एसी जीन तितलियों को खत्म कर देता है। क्या हम भारत की रंगबिरंगी तितलियों को खत्म कर देना चाहते है? संकट केवल बैंगन तक सीमित नही है। आलू का उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है यह तर्क बाजार ने फैला दिया है। और उत्पादन मेंं वृध्दि करने के लिये आलू के बीज में मकड़ी के जीन पवेश कराये गये हैं। तर्क यह दिया गया की इस आलू में प्रोटीन ज्यादा है और यह प्रोटीन गरीबों के लिये ज्यादा फायदेमंद हैं परन्तु इस दावे की तब हवा निकल गई जब हिमाचल प्रदेश के आलू में भी बहुत प्रोटीन की बात सिध्द हो गई। चावल अब केवल एम खाद्यान्न फसल नहीं है बल्कि दूसरी हरित क्रॉन्ति में बाजार में इसकी बहुत अहम भूमिका है इसीलिये चावल में बिच्छू के जीन शामिल किये गये हैं। इसी तरह अरहर, सरसों, टमाटर, मूॅगफली, मक्का जैसी 10 खाद्यान्न फसलों के लिये अनुमति की मॉग की गई है। खाद्यान्न फसलों की तो शुरूआत है परन्तु बीटी खाद्य को स्थापित करने के लिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने जो रणनीति अपनाई उसे हमें समझना होगा। ये कम्पनियॉ पेटैंट और एकाधिकार के नाम पर बाजार से देशी और स्थानीय बीजों पर रोक लगवा देती है। तब केवल उन्हीं का बीज बाजार में होता है और किसान की मजबूरी होती है कि वह हर कीमत पर इन्हें खरीदे। फिर चूॅकि यह बीज जैव परिवधित बीज हैं इसलिये इन पर केवल एक विशेष प्रकार के कीटनाशकों का ही असर होता है। और यह विशेष कीटनाशक भी वही खास कम्पनी बनाती है। इसे खरीदना भी किसान की मजबूरी हो जाती है।
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यदि वैश्विकीकरण तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि अब कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता जैसे शब्दों के अर्थ कभी नहीं खोजे जा सकेगे। अब किसान और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बीच नौकर और मालिक के रिश्ते होंगे जहॉ तक सरकार की भूमिका का सवाल है तो यह कड़वा सच है कि सरकार केवल दलाल की भूमिका निभायेगी।
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भूमण्डलीकरण वास्तव में एक स्पष्ट रूप से नजर आने वाली वस्तु नहीं है। यह तो एक प्रक्रिया है और इसमें खास बात यह है कि जब तक हम इस पक्रिया के वर्तमान पहलुओं और सिध्दान्तों को समझ पाते हैं तब तक इसका रूप बदल चुका होता है। फिर भी जब हम कृषि के भूमण्डलीकरण की बात करते हैं तब यह साफ तौर पर दिखता है कि बाजार में बैठी हुई कम्पनियों का मकसद केवल लाभ कमाना है। इस आर्थिक लाभ को कमाने के लिये वे यह तर्क अपने तथा कथित अध्ययनों-विश्लेषणों से स्थापित करते हैं कि किसान जितने संसाधानों का उपयोग करते हैं, उसके अनुरूप फायदा नहीं कमा पाते हैं। सबसे ज्यादा हानि फसलों में अलग-अलग बीमारियों और कीटों के हमलों से होती है। और जब बीमारियाँ होती है तो किसानों को तरह-तरह के कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है, जिसमें खेती की लागत बढ़ती है। यह तर्क वास्तव में पूरी व्यवस्था की कमजोर नब्ज है जिस पर कम्पनियों ने अपना हाथ रख दिया। अब कम्पनियों ने जैव परिवर्ध्दित (जैनेटिकली मोडिफाईड बीज) बीजों का विकल्प खड़ा कर दिया है। जैव तकनीक के जरिये कम्पनियों ने बीजों के भीतर ही कीटनाशकों का प्रवेश करा दिया है। उनका दावा है कि यदि किसान उनकी कम्पनी के बीजों का उपयोग करेंगे तो उन्हें कीटनाशकों का उपयोग नहीं करना पड़ेगा। इससे कृषि की लागत कम होगी और उत्पादन भी बढ़ेगा।
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इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भूमण्डलीकरण की राजनीति के जरिये विकासशील देशों (खासतौर पर कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था पर आधारित भारत जैसे देशों) पर अपना शिकंजा कसना, क्योंकि यहॉ की जनतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां उन्हें रास आई। भ्रष्टाचार और तकनीकी जाल में उलझे सरकारी संस्थान भी अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के निर्देशों पर नीतियॉ बनाते हैं। रणनीति के तौर पर हमें इस राजनीति का विश्लेषण करना जरूरी है। अमेरिका हमेशा से आर्थिक उपनिवेशवाद का ध्वज वाहक रहा है। वह दुनिया में कहीं भी वास्तविक जनतंत्र का हिमायती नहीं रहा है। यही कारण है कि जैव तकनीक को सबसे पहले और सबसे ज्यादा अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने ही बढ़ावा दिया और अमेरिकी सरकार ने अपनी नीतियां भी उन्हें मदद करने वाली ही बताईं। इतना ही नहीं वह वैश्विक मंचों पर भी जैव तकनीक की वृध्दि का खुल कर पक्ष लिया।
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सन् 2002 में विश्व खाद्य सम्मेलन में गरीबी-भुखमरी पर चर्चा र्हुई। और विकसित देशों ने कहा कि भूमण्डलीकरण से ही भुखमरी मिट सकती है और बायोटेक्नालॉजी के जरिये ही संकट को हल किया जा सकता है। तभी अमेरिका के कृषि सचिव ने यह विवाद भी खड़ा कर दिया कि सम्मेलन के घोषणा पत्र में सभी देश जीएम फसलों को बढ़ावा देने पर सहमति जाहिर करें और अपनी नीतियॉ इसी तरह बनायें। अमेरिका के दबाब में जैव परिवर्धित तकनीक को भुखमरी मिटाने के लिये जरूरी मानना पड़ा। यह स्वीकार न करने की स्थिति में अमेरिका ने धमकी तक दे दी थी कि वह विश्व खाद्य सम्मेलन के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर नहीं करेगा।
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यह एक सर्र्वमान्य तथ्य है कि कृषि पर जीवन निर्भर करता है कृषि पर बाजार कभी हावी नहीं रहा। ऐसे में इस पर नियंत्रण हासिल करने के लिये जैव तकनीक का सहारा लिया गया। जैव तकनीक अब बहुत तेजी से कृषि का बाजारीकरण्ा तो कर ही रही है परन्तु चिंताजनक तथ्य यह है कि इससे मानवता पर भी संकट छा रहा है। जिस कीट से फसल को बचाने के लिये बैक्टिरिया बीजों में प्रवेश कराया जा रहा है क्या वह उन लोगों पर असर नहीं करेगा जो जैव परिवर्धित बीजों से उपजाये गये फल या सब्जी खायेंगे। जैव परिवर्धित बीजों (बीटी बीज) के कितने खतरनाक प्रभाव पड़ते हैं इसके दो उदाहरण हमारे सामने आ चुके हैं। बीटी कपास की खेती करने वाले हजारों किसान घाटे में डूब कर कर्ज के जाल में फंसे और उन्हें आत्महत्या करना पड़ी। इसी फसल के पेड़ और कपास के फल खाकर 1600 भेड़ें मर गई। शुरूआत तो बीटी कपास से हुई थी परन्तु अब भारत सरकार की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रवुल कमेटी (जी ई ए सी) ने तो खाद्य फसलों के लिये भी जहर बुझे बीजों के उपयोग को अनुमति देना शुरू कर दिया है। बहुराष्ट्रीय बीज निर्माता कम्पनी मानसेंटो ने एक फर्जी अध्ययन कर बताया कि कीटों और बीमारियों के कारण हर वर्ष 22.1 करोड़ डालर का बैंगन उत्पादन बेकार हो जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि इतनी राशि का तो कुल बेंगन उत्पादन ही नहीं होता है। बैंगन के बीजों में मानसैटों कम्पनी ने वही बैक्टिरिया- क्राय1एसी जीन डाला है जो कपास के बीज में डाला गया था। वही कपास का बीज जितनी फसल को खाकर 1600 भेड़ें मर गई थीं। खाद्य बीजों, खास तौर पर बैंगन के बीजों में जिस क्राय1एसी जीन को प्रवेश कराया गया है, उसके प्रभावों का प्रयोग चूहों पर किया गया। उससे पता चला कि यह प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करता है और आंतों में चिपक जाता है। पूर्व के क्राय1एसी जीन के परीक्षण यह सिध्द करते हैं कि उससे जीवों में जबरदस्त एलर्जी होती है और यदि यह जीन लगातार मानव शरीर में प्रवेश करेगा तो वह कभी भी खतरनाक बीमारीयों से नहीं उबर पायेगा।
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जीएम खाद्य पदार्थों पर हुआ कोई भी अध्ययन यह सिध्द नहीं करता है कि ऐसे बीज या उत्पादन जानलेवा खतरनाक रसायनों और संकटों से मुक्त हैं। यही कारण है कि किसी भी विकसित देश ने अपने यहॉ जीएम खाद्यान्न को प्रोत्साहित नहीं किया है। बीटी बैंगन के बीजों में एनपीटी-2 जीन का भी प्रयोग किया गया है। वास्तव में यह जीन कैनामायसिन प्रतिरोध के रूप में जाना जाता है। इसके कारण मानव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता और कोशिकायें खत्म हो जाती है। यदि व्यक्ति बीटी बैंगन का उपयोग करता है तो उस पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर भी खत्म हो पायेगा। एक तरफ तो सरकार हेपेटाईटस-बी जैसी बीमारी से निपटने के लिये कार्यक्रम बना रही है तो वहीं दूसरी ओर इसी तरह की बीमारी फैलाने वाले कालीफ्लोवर मोसियेक वायरस की बीटी बैंगन के जरिये मानव शरीर में प्रवेश कराने की अनुमति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दे रही है।
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सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कुदृष्टि को भांप नहीं पा रही है। ये कम्पनियां नई तकनीक से बने बीजों के नकारात्मक प्रभावों को छिपाती रही है। जो कम्पनी बीटी बैंगन के बीजों का उत्पादन करवा रही है उसने पहले बीटी मक्का के घातक परिणामों को छिपाया है। बीटी मक्का के प्रयोंगों से पता चला था इससे किडनी में असमान्यता आ जाती है और खून में श्वेत रक्त कोशिकाओं का स्तर बढ़ जाता है। कम्पनियॉ कहती हैं कि उस बीज से बैंगन के बीज का सम्बंध नहीं है पर सच यह नहीं है। कई वरिष्ठ वैज्ञानिक मानते हैं कि जैव परिवर्धित बीजों का व्यापारिक उपयोग करने से पहले उसके प्रभावों का परीक्षण कई पीढ़ियों पर करना होगा ताकि इसके प्रभावों को जॉचा-परखा जा सके परन्तु लाभ कमाने को तत्पर बाजारू कम्पनियॉ इंसानी समाज के आस्तित्व को ही दांव पर लगा रही है। यह एक षडयंत्र है भारत की जैव विविधता को खत्म कर देने का। हमारे देश में चार हजार सालों से बैंगन का उत्पादन हो रहा है और इसकी मात्रा की किसी भी तरह से कम नहीं है। बीटी कम्पनियां जिस तरह से बीजों के चरित्र में रासायनिक गुणधर्मों में परिवर्तन कर रही हैं उससे भारत में खाद्य पदार्थों और सब्जियों के प्राकृतिक बीज खत्म हो जायेंगे। और तब हर किसान को कम्पनी के बीज पर ही निर्भर रहना होगा। यह तथ्य भी जान लेना जरूरी है कि बीटी बैंगन में उपयोग किये गया क्राय1एसी जीन तितलियों को खत्म कर देता है। क्या हम भारत की रंगबिरंगी तितलियों को खत्म कर देना चाहते है? संकट केवल बैंगन तक सीमित नही है। आलू का उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है यह तर्क बाजार ने फैला दिया है। और उत्पादन मेंं वृध्दि करने के लिये आलू के बीज में मकड़ी के जीन पवेश कराये गये हैं। तर्क यह दिया गया की इस आलू में प्रोटीन ज्यादा है और यह प्रोटीन गरीबों के लिये ज्यादा फायदेमंद हैं परन्तु इस दावे की तब हवा निकल गई जब हिमाचल प्रदेश के आलू में भी बहुत प्रोटीन की बात सिध्द हो गई। चावल अब केवल एम खाद्यान्न फसल नहीं है बल्कि दूसरी हरित क्रॉन्ति में बाजार में इसकी बहुत अहम भूमिका है इसीलिये चावल में बिच्छू के जीन शामिल किये गये हैं। इसी तरह अरहर, सरसों, टमाटर, मूॅगफली, मक्का जैसी 10 खाद्यान्न फसलों के लिये अनुमति की मॉग की गई है। खाद्यान्न फसलों की तो शुरूआत है परन्तु बीटी खाद्य को स्थापित करने के लिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने जो रणनीति अपनाई उसे हमें समझना होगा। ये कम्पनियॉ पेटैंट और एकाधिकार के नाम पर बाजार से देशी और स्थानीय बीजों पर रोक लगवा देती है। तब केवल उन्हीं का बीज बाजार में होता है और किसान की मजबूरी होती है कि वह हर कीमत पर इन्हें खरीदे। फिर चूॅकि यह बीज जैव परिवधित बीज हैं इसलिये इन पर केवल एक विशेष प्रकार के कीटनाशकों का ही असर होता है। और यह विशेष कीटनाशक भी वही खास कम्पनी बनाती है। इसे खरीदना भी किसान की मजबूरी हो जाती है।
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यदि वैश्विकीकरण तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि अब कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता जैसे शब्दों के अर्थ कभी नहीं खोजे जा सकेगे। अब किसान और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बीच नौकर और मालिक के रिश्ते होंगे जहॉ तक सरकार की भूमिका का सवाल है तो यह कड़वा सच है कि सरकार केवल दलाल की भूमिका निभायेगी।
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