कितना विचित्र लगता है कि जो सुख-सुविधाएँ हमे आसानी से मिल जाना थी उसके लिए हमे भारी जद्दोजहद करना पड़ती है और आज तीव्र विकास के चलते हमे जहाँ होना चाहिये वहाँ नहीं पहुँच पाने का अवसाद झेलना पड़ता है। इन सब के पीछे सबसे महत्वपूर्ण एवं विकराल समस्या हमारी जनसंख्या में अंधाधुंध बढ़ोतरी है। हमारे देश की उतरोत्तर प्रगति में हमेशा से बाधक बनी रही जनसंख्या विस्फोट की समस्या इन दिनों अपने नए-नए जाल फैलाती जा रही है। विशेषकर अशिक्षा, जागरूकता के अभाव और समस्या की भयावहता से अपरिचित होने के कारण ग्रामीण जनसंख्या में भारी बढ़ोतरी हमारे सारे विकास कार्यक्रमों को पीछे धकेल रही है। पंचायती राज के तहत विकेन्द्रीकृत जमीनी स्तर की प्रशासन व्यवस्था तो लागू भी कर दी गई है और जनसंख्या में कमी लाने के प्रावधान भी विभिन्न तरीकों से किए जा रहे हैं। घर में अधिक जनसंख्या और उससे होने वाले प्रतिप्रभावों से महिलाएँ अधिक परिचित होती हैं इसलिए शासन द्वारा किए गए 33 प्रतिशत आरक्षण के द्वारा महिलाएँ भी जमीनी स्तर के प्रशासन से जुड़कर राज-काज में हिस्सा ले रही हैं, और देखा जाय तो स्थितियाँ निराशाजनक भी नहीं है।
पिछले दो दशकों में जनसंख्या में एक नया असंतुलन लिंग अनुपात में भारी बदलाव के तहत उभर कर सामने आया है। यह सही है कि वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर देश के प्रति हजार पुरुषों पर 933 महिलाएँ हैं जो कि वर्ष 1991 की जनगणना के 927 के आकड़े से अधिक है परंतु यदि शून्य से छ: वर्ष तक के बच्चों का लिंग अनुपात देखा जाय तो स्थिति की भयावहता स्पष्ट को जाती है। पिछले दस वर्षों में यह 945 से गिरकर 927 प्रति हजार पुरुष बच्चे तक पहँच गई है। छ: वर्ष से कम आयु वाला आबादी का यह वर्ग जिसे आज से 10-15 वर्ष बाद देश की वयस्क जनसंख्या में शामिल होना है तो उस समय का लिंगानुपात आज से भी कम होगा।
रीवा जिले के घुसउल ग्राम पंचायत की पंच विद्या मिश्र जो अशिक्षित हैं, से यह पूछने पर कि लड़की पैदा होने पर आप दुखी होती हैं तो उनका जवाब त्वरित आता है, ''सच पूछिये तो हम जब पंच नहीं बने थे तब जरूर हमारी भी लड़कियों के प्रति वही सोच थी जो दूसरे ग्रामीणों की है, परंतु पंच बनने के बाद और कई जगह घूमने के बाद मैं सोचती हँ लड़की होना भी बहुत अच्छा है....'' इसी तरह इसी पंचायत की एक आदिवासी पंच प्रेमवती बाई इस मसले पर कहती हैं, ''अब तो सरकार भी लड़कियों को बहुत सुविधा दे रही है और पढ़ने में मदद कर रही है.... साइकिलें दे रही है... फीस भी नहीं ली जाती है.... तो अब लड़के और लड़की में कोई खास फर्क नहीं है...।''
यदि हम राज्यगत ऑंकडों में जाते हैं तो स्थिति का थोड़ा बहुत खुलासा होता है। जनगणना 2001 के ऑंकडों के अनुसार शून्य से छ: वर्ष तक के बच्चों का लिंग अनुपात पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट््र, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडू, दिल्ली, चंड़ीगढ़ में विशेष रुप से बहुत खराब ही नहीं बल्कि कई जगह तो खतरे के निशान के भी नीचे चला गया है। ऐसे राज्य ''डिमारू'' राज्य की श्रेणी में आते हैं। यहाँ 'डि' का अर्थ 'डॉटर' और 'मारू' का अर्थ 'घातक'।
अभी भी कहा यह जाता है कि तमाम प्रयासों के पश्चात भी विकास की इस दौड़ में अक्सर हमारी आदिवासी महिलाएँ पिछड़ जाती हैं और मुख्य धारा से कटी रह जाती हैं। लेखक ने आदिवासी बहुल जिले मंडला और बालाघाट चुने और क्षेत्र के दौरे के पश्चात स्थितियों को देखा कि यहाँ सभ्य और विकसित कहे जाने वाले समाज से विपरीत लड़कियों को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। दोनों जिलों में गोंड़ और बैगा जनजातियाँ ही प्रमुखता से पाई जाती हैं और इनमें से भी बैगा जतजाति को केन्द्र से विशेष दर्जा प्राप्त है। प्रकृति की पूजा-आराधना करने वाली इन जनजातियों में अपनी परम्परा, अपने संस्कार, अपना संगीत, अपने आचार-विचार हैं और यही उन्हे दूसरों से अलग करते हुए अपना संसार रचने में मदद देते हैं। यहाँ दहेज उल्टे लड़के वालों को देना होता है।
मंड़ला जिले की बिछिया तहसील की खटिया पंचायत की महिला सरपंच सुखवती बाई जो मूलत: गोंड़ हैं और उनका गाँव बैगा बहुल है। वे दूसरी बार सरपंच चुनी गई हैं। उनसे लड़के व लड़कियों में भेदभाव के विषय में पूछने पर वे कहती हैं कि वैसे भी हमारे यहाँ कभी भी लड़की को बोझ नहीं माना गया है। पंचायत के सचिव बालकुमार यादव जो पिछली तीन पारियों से यहाँ के सचिव हैं कहते हैं, ''महिलाएँ अधिक संवेदनशील होती हैं और उनमें कार्य को सही ढ़ंग से करने का सलीका तथा प्रबंधन के नैसर्गिक गुण पाए जाते हैं इसलिए मैं उनके साथ कार्य करने में पुरूषों की तुलना में बहुत ज्यादा खुश रहता हूँ।''
हरियाणा में एक भी जिला ऐसा नहीं था जिसमें 800 से अधिक लिंगानुपात पाया गया हो। वास्तव में यह सब जनांकिकी (डेमोग्राफी) के सिध्दांतों के विपरीत ही है। ये सभी राज्य दूसरे राज्यों की तुलना में समृध्द राज्य हैं और जहाँ समृध्दी होगी वहाँ बेहतर शिक्षा व बेहतर आर्थिक सुरक्षा होगी तथा यही सब स्त्री-पुरुष के भेद को भी खत्म कर देगी। अच्छी शिक्षा का परिणाम तो यही होना चाहिये कि 'बेटा ही सब कुछ है' वाली पारम्परिक रुढ़ियों विनाश हो परंतु हमारे देश में इस सिध्दांत के विपरीत परिणाम सामने आए हैं। समृध्दी ने इतनी ताकत दे दी है कि जन्म से पूर्व ही खर्चिला लिंग परीक्षण कर कन्या होने की स्थिति में उसकी हत्या कर दी जाती है।
जहाँ तक मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचल का सवाल है कई महिला सरपंच जैसे धार जिले की दीतूबाई नरवे, सीधी जिले की सुनीता यादव, सतना जिले की रधियाबाई और उज्जैन जिले की माधुरी राठौर से लिंग परीक्षण के विषय में पूछने पर सभी लगभग अनभिज्ञता दर्शाती हैं और स्थिति को और अधिक स्पष्ट कर बताने पर वे इसे महापाप की श्रेणी में डालती हैं। उनके मुताबिक यह किसी की हत्या करने के बराबर है। वास्तव में गाँवों में इतना धन लगाने की शक्ति न होने और प्रचलित धार्मिक भावनाओं के चलते भी फिलहाल स्थिति इतनी खराब नहीं हुई है।
जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्रयुक्त 'हम दो और हमारे दो' का नारा भी इन दिनों हमारे लिए समस्या बनता जा रहा है क्योंकि हर परिवार को जहाँ तक हो सके अब दो लड़के ही चाहिये। एक भी लड़की का सीधा मतलब निकाला जाता है 'खर्च' और एक पुत्र का मतलब 'आमदानी।' यह सब उन समृध्द परिवारों में ज्यादा होता है जहाँ ज्यादा जायदाद होती है। एक गरीब परिवार आज भी उतना ध्यान इस गणित पर नहीं दे पाता है और न ही खर्चिले लिंग परिक्षण्ा को वह वहन कर सकता है। परम्परा और आधुनिक तकनीक का यह अवांछित गठजोड़ समाज में नई विकृति को जन्म दे रहा है।
लिंगानुपात को लेकर एक संशय हमेशा व्यक्त किया जाता है कि जनगणना से प्राप्त ऑंकडे क़ितने वास्तविकता के करीब हैं। जनगणना आयोग कितने ही आधुनिकता की दुहाई दे परंतु भारत जैसे विषद एवं विविधताओं को लिए इस देश में यह स्वाभाविक भी है। जब शहरों में जन्म-मृत्यु के ऑंकडे व्यवस्थित नहीं हैं तो गाँवों के हालातों के विषय में तो कहना भी लाजमी नहीं होगा। और तो और गाँवों में सत्तर प्रतिशत से अधिक जनसंख्या निवास करती हो।
कुल मिलाकर देख जाय तो आज जरुरत इस बात की है कि हमे अपनी योजनाओं की पुर्नव्याख्या करना होगी। आज हमारी आदत साँप निकल जाने के बाद लकडी पीटने की हो गई है। जबकि स्थितियाँ तेजी से बदल जाती है और हम अपने ढर्रों से ही नहीं निकल पाते है। लिंग परीक्षण के लिए कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है। उसके लिए कडे व मजबूत प्रबंधन एवं उसकी अनिवार्यता को भी लागू करने की भी आवश्यकता होती है। इस ओर हमारा ध्यान बहुत कम ही जा पाता है। इसी तरह जन्म-मृत्यु पंजीकरण की अनिवार्यता, लड़कियों को प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ावा और जन जागरुकता को प्रोत्साहन पर भी पूर्णकालीक ध्यान दिया जाना चाहिये। यही वे प्रयास होंगे जो हमे इस लिंगानुपात में असंतुलन की विनाशकारी विकृति से उबार सकेंगे।
पिछले दो दशकों में जनसंख्या में एक नया असंतुलन लिंग अनुपात में भारी बदलाव के तहत उभर कर सामने आया है। यह सही है कि वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर देश के प्रति हजार पुरुषों पर 933 महिलाएँ हैं जो कि वर्ष 1991 की जनगणना के 927 के आकड़े से अधिक है परंतु यदि शून्य से छ: वर्ष तक के बच्चों का लिंग अनुपात देखा जाय तो स्थिति की भयावहता स्पष्ट को जाती है। पिछले दस वर्षों में यह 945 से गिरकर 927 प्रति हजार पुरुष बच्चे तक पहँच गई है। छ: वर्ष से कम आयु वाला आबादी का यह वर्ग जिसे आज से 10-15 वर्ष बाद देश की वयस्क जनसंख्या में शामिल होना है तो उस समय का लिंगानुपात आज से भी कम होगा।
रीवा जिले के घुसउल ग्राम पंचायत की पंच विद्या मिश्र जो अशिक्षित हैं, से यह पूछने पर कि लड़की पैदा होने पर आप दुखी होती हैं तो उनका जवाब त्वरित आता है, ''सच पूछिये तो हम जब पंच नहीं बने थे तब जरूर हमारी भी लड़कियों के प्रति वही सोच थी जो दूसरे ग्रामीणों की है, परंतु पंच बनने के बाद और कई जगह घूमने के बाद मैं सोचती हँ लड़की होना भी बहुत अच्छा है....'' इसी तरह इसी पंचायत की एक आदिवासी पंच प्रेमवती बाई इस मसले पर कहती हैं, ''अब तो सरकार भी लड़कियों को बहुत सुविधा दे रही है और पढ़ने में मदद कर रही है.... साइकिलें दे रही है... फीस भी नहीं ली जाती है.... तो अब लड़के और लड़की में कोई खास फर्क नहीं है...।''
यदि हम राज्यगत ऑंकडों में जाते हैं तो स्थिति का थोड़ा बहुत खुलासा होता है। जनगणना 2001 के ऑंकडों के अनुसार शून्य से छ: वर्ष तक के बच्चों का लिंग अनुपात पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट््र, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडू, दिल्ली, चंड़ीगढ़ में विशेष रुप से बहुत खराब ही नहीं बल्कि कई जगह तो खतरे के निशान के भी नीचे चला गया है। ऐसे राज्य ''डिमारू'' राज्य की श्रेणी में आते हैं। यहाँ 'डि' का अर्थ 'डॉटर' और 'मारू' का अर्थ 'घातक'।
अभी भी कहा यह जाता है कि तमाम प्रयासों के पश्चात भी विकास की इस दौड़ में अक्सर हमारी आदिवासी महिलाएँ पिछड़ जाती हैं और मुख्य धारा से कटी रह जाती हैं। लेखक ने आदिवासी बहुल जिले मंडला और बालाघाट चुने और क्षेत्र के दौरे के पश्चात स्थितियों को देखा कि यहाँ सभ्य और विकसित कहे जाने वाले समाज से विपरीत लड़कियों को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। दोनों जिलों में गोंड़ और बैगा जनजातियाँ ही प्रमुखता से पाई जाती हैं और इनमें से भी बैगा जतजाति को केन्द्र से विशेष दर्जा प्राप्त है। प्रकृति की पूजा-आराधना करने वाली इन जनजातियों में अपनी परम्परा, अपने संस्कार, अपना संगीत, अपने आचार-विचार हैं और यही उन्हे दूसरों से अलग करते हुए अपना संसार रचने में मदद देते हैं। यहाँ दहेज उल्टे लड़के वालों को देना होता है।
मंड़ला जिले की बिछिया तहसील की खटिया पंचायत की महिला सरपंच सुखवती बाई जो मूलत: गोंड़ हैं और उनका गाँव बैगा बहुल है। वे दूसरी बार सरपंच चुनी गई हैं। उनसे लड़के व लड़कियों में भेदभाव के विषय में पूछने पर वे कहती हैं कि वैसे भी हमारे यहाँ कभी भी लड़की को बोझ नहीं माना गया है। पंचायत के सचिव बालकुमार यादव जो पिछली तीन पारियों से यहाँ के सचिव हैं कहते हैं, ''महिलाएँ अधिक संवेदनशील होती हैं और उनमें कार्य को सही ढ़ंग से करने का सलीका तथा प्रबंधन के नैसर्गिक गुण पाए जाते हैं इसलिए मैं उनके साथ कार्य करने में पुरूषों की तुलना में बहुत ज्यादा खुश रहता हूँ।''
हरियाणा में एक भी जिला ऐसा नहीं था जिसमें 800 से अधिक लिंगानुपात पाया गया हो। वास्तव में यह सब जनांकिकी (डेमोग्राफी) के सिध्दांतों के विपरीत ही है। ये सभी राज्य दूसरे राज्यों की तुलना में समृध्द राज्य हैं और जहाँ समृध्दी होगी वहाँ बेहतर शिक्षा व बेहतर आर्थिक सुरक्षा होगी तथा यही सब स्त्री-पुरुष के भेद को भी खत्म कर देगी। अच्छी शिक्षा का परिणाम तो यही होना चाहिये कि 'बेटा ही सब कुछ है' वाली पारम्परिक रुढ़ियों विनाश हो परंतु हमारे देश में इस सिध्दांत के विपरीत परिणाम सामने आए हैं। समृध्दी ने इतनी ताकत दे दी है कि जन्म से पूर्व ही खर्चिला लिंग परीक्षण कर कन्या होने की स्थिति में उसकी हत्या कर दी जाती है।
जहाँ तक मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचल का सवाल है कई महिला सरपंच जैसे धार जिले की दीतूबाई नरवे, सीधी जिले की सुनीता यादव, सतना जिले की रधियाबाई और उज्जैन जिले की माधुरी राठौर से लिंग परीक्षण के विषय में पूछने पर सभी लगभग अनभिज्ञता दर्शाती हैं और स्थिति को और अधिक स्पष्ट कर बताने पर वे इसे महापाप की श्रेणी में डालती हैं। उनके मुताबिक यह किसी की हत्या करने के बराबर है। वास्तव में गाँवों में इतना धन लगाने की शक्ति न होने और प्रचलित धार्मिक भावनाओं के चलते भी फिलहाल स्थिति इतनी खराब नहीं हुई है।
जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्रयुक्त 'हम दो और हमारे दो' का नारा भी इन दिनों हमारे लिए समस्या बनता जा रहा है क्योंकि हर परिवार को जहाँ तक हो सके अब दो लड़के ही चाहिये। एक भी लड़की का सीधा मतलब निकाला जाता है 'खर्च' और एक पुत्र का मतलब 'आमदानी।' यह सब उन समृध्द परिवारों में ज्यादा होता है जहाँ ज्यादा जायदाद होती है। एक गरीब परिवार आज भी उतना ध्यान इस गणित पर नहीं दे पाता है और न ही खर्चिले लिंग परिक्षण्ा को वह वहन कर सकता है। परम्परा और आधुनिक तकनीक का यह अवांछित गठजोड़ समाज में नई विकृति को जन्म दे रहा है।
लिंगानुपात को लेकर एक संशय हमेशा व्यक्त किया जाता है कि जनगणना से प्राप्त ऑंकडे क़ितने वास्तविकता के करीब हैं। जनगणना आयोग कितने ही आधुनिकता की दुहाई दे परंतु भारत जैसे विषद एवं विविधताओं को लिए इस देश में यह स्वाभाविक भी है। जब शहरों में जन्म-मृत्यु के ऑंकडे व्यवस्थित नहीं हैं तो गाँवों के हालातों के विषय में तो कहना भी लाजमी नहीं होगा। और तो और गाँवों में सत्तर प्रतिशत से अधिक जनसंख्या निवास करती हो।
कुल मिलाकर देख जाय तो आज जरुरत इस बात की है कि हमे अपनी योजनाओं की पुर्नव्याख्या करना होगी। आज हमारी आदत साँप निकल जाने के बाद लकडी पीटने की हो गई है। जबकि स्थितियाँ तेजी से बदल जाती है और हम अपने ढर्रों से ही नहीं निकल पाते है। लिंग परीक्षण के लिए कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है। उसके लिए कडे व मजबूत प्रबंधन एवं उसकी अनिवार्यता को भी लागू करने की भी आवश्यकता होती है। इस ओर हमारा ध्यान बहुत कम ही जा पाता है। इसी तरह जन्म-मृत्यु पंजीकरण की अनिवार्यता, लड़कियों को प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ावा और जन जागरुकता को प्रोत्साहन पर भी पूर्णकालीक ध्यान दिया जाना चाहिये। यही वे प्रयास होंगे जो हमे इस लिंगानुपात में असंतुलन की विनाशकारी विकृति से उबार सकेंगे।
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