नंदीग्राम और अन्य स्थानों पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ़ हो रहे जन विरोधो के दबाव में केंद्र सरकार के मंत्रीसमूह ने पाँच अप्रैल 07 को हुई बैठक में सेज एक्ट में सुधार के जो सुझाव दिए हैं, वह लोगों का ध्यान समस्या से हटाने की एक चाल भर है। ताकि लोग इन छोटे-मोटे सुधारों के चक्कर में सरकार पर भरोसा रखें, दूसरी ओर सरकार अपने विदेशी मित्रों के स्वागत के लिए दरवाजे खोल सके- बिना किसी जन विरोध के।
मंत्रीसमूह के द्वारा दिए गये सुझावों को देखकर यह तो अब स्पष्ट है कि सेज के खिलाफ़ जन विरोध, मासूम लोगों की हत्याओं और हजारों-लाखों किसानों के उजाड़े जाने के बावजूद भी केंद्र सरकार सेज बनाने की अपनी नीति पर आमादा है। बस उसने किसानों से भूमि अधिग्रहण करने में राज्य सरकारों के हस्तक्षेप को खत्म कर दिया है। अब सीधे कम्पनियाँ यह तय करेंगी कि किसानों से कैसे और कौन सी जमीन लेनी है? पहले सेज के लिए न्यूनतम सीमा तो निर्धारित थी, अधिकतम सीमा तय नहीं थी; कितना भी बड़ा सेज बनाया जा सकता था। लेकिन अब सेज की अधिकतम सीमा 5 हजार हेक्टेअर तय कर दी गई है और इन क्षेत्रों के रियल एस्टेट में परिवर्तित होने के खतरों को देखते हुए सेज के अंदर उद्योग के लिए 35 फ़ीसदी जमीन के प्रयोग को बढ़ाकर 50 फ़ीसदी कर दिया गया है। 83 नये सेजों को मंजूरी दी जा रही है। इसके अलावा केन्द्र का यह भी सुझाव है कि इन सेजों के लिए जो किसान स्वेच्छा से जमीन दे देंगे, उनके परिवार में से कम से कम एक आदमी को संबध्द प्रोजेक्ट में रोजगार मिलेगा।
शायद केंद्र सरकार इस बात को समझ नहीं पा रही है कि जमीन की अधिकतम या न्यूनतम सीमा तय करना मात्र ही विरोध की वजह नहीं है। मूल मुद्दा यह भी नहीं है कि जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकारें करेंगी या फ़िर सीधे कम्पनियां? दरअसल सवाल बहुत गहरे हैं सेज का विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि उद्योग के नाम पर देश की लाखों हेक्टेअर बहुफसली जमीन किसानों से ली जा रही हैं, जो करोड़ों किसानों की जीविका और जीवन का आधार है। जमीन की अधिकतम सीमा को लेकर वामदलों ने भी चिंता जताते हुए उसे दो हजार हेक्टेअर करने की बात की है, लेकिन यह सीमा भी देश की सुरक्षा के लिए खतरा है। इस पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है कि एक कंपनी को एक से ज्यादा सेज बनाने का अधिकार होगा या नहीं। एक ही कंपनी अलग-अलग नामों से भी सेज बना सकती है, तब क्या होगा? क्या इस बारे में केन्द्र ने कुछ सोचा है?
मंत्रीसमूह की बैठक ने अपने निर्णय में भूमि अधिग्रहण मामले में राज्य सरकार के हस्तक्षेप को खत्म करके किसान को सीधे कंपनी से मोल-भाव के लिए छोड़ दिया, ताकि खुद जन-विरोध और मुआवजे आदि की चिंताओं से मुक्त हुआ जा सके। लेकिन क्या देश के किसानों की सुरक्षा का दायित्व केंद्र सरकार का नहीं हैं? या हम यह उम्मीद करें की विदेशी आकर देश और देश के किसानों का भला सोचेंगे और उनका स्वर्णिम भविष्य लिखेंगे? क्या इतिहास में कभी ऐसा हुआ है? देश के किसानों को भूखे भेड़ियों- बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे डालना क्या केन्द्र सरकार की समझदारी है? क्या ऐसा करके सरकार अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ रही है? शायद सत्ता के मद में कांग्रेस आज गांधी जी के वचनों को भी भूल रही है कि ''अगर किसानों को कोई भी आंच आती है तो वह देश के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होगा।''
इतना ही नहीं पुनर्वास कीे समस्या का समाधान किए बिना ही 83 नये सेजाें को मंजूरी देकर और लोगों को उजाड़ने की तैयारी की जा रही है, उस पर तुर्रा ये कि जो किसान स्वेच्छा से विस्थापन स्वीकार करेगा उसके ञ्र से एक आदमी को रोजगार मिलेगा; अब कोई सरकार से यह पूछे कि किसी ञ्र के 20 लोगों को उजाड़कर दाने-दाने के लिए मोहताज करके एक आदमी को रोजगार देने में कौन सी समझदारी हैं जमीन के असली मालिक को नौकर बना देना क्या सही होगा? यदि सेज कंपनियों ने जमीन के बदले रोजगार नहीं दिए तो इसके लिए ऐसे कौन से कानूनी प्रावधान किए गए हैं; जिससे कंपनियों को मजबूर किया जा सके। रोजगार देने के मसले में वादाखिलाफ़ी की स्थिति में क्या किसान की जमीन वापस की जाएगी? प्राय: यह धोखा ही साबित हुआ है, ऐसा होंडा मामले में हम देख ही चुके हैं।
डॉ वन्दना शिवा, मेधा पाटकर, डा बनवारीलाल शर्मा, जनता दल यू. और वामदलों का भी यह मानना है कि केंद्र सरकार ने शायद नंदीग्राम से कोई सबक नहीं लिया हैं वह पूरी तरह अपने विदेशी मित्रों की दलाल बन चुकी है। केंद्र को यह भी दिखाई नहीं दे रहा है कि इन फ़ैसलों से हमारी खाद्य सुरक्षा को खतरा होगा। बड़ी मात्रा में लोग खेती से बाहर हो जाएँगे। रोजगार और आजीविका तो खत्म ही हो जाएगी। लेकिन मामला सिर्फ़ बेरोजगारी और लोगों के बेघर होने तक ही सीमित नहीं है। सेज के माध्यम से देश के अंदर विदेशी इलाका बनाया जा रहा है। केंद्र सरकार द्वारा सेज को परिभाषित किया गया है कि ''सेज विस्तार से वर्णित शुल्क मुक्त एंक्लेव है और व्यापार क्रियाकलापों, शुल्कों और सीमाकरों की दृष्टि से उन्हें विदेशी इलाका माना जाएगा।'' संसद द्वारा सेज एक्ट-2005 का सेक्शन-53 कहता है ''सेज एक नियत दिन और उसके बाद से एक ऐसा क्षेत्र माना जाएगा जो भारत के सीमा शुल्क क्षेत्र से बाहर हो।'' 250 वर्ष पहले अंग्रेजों की कोठियों और फैक्ट्रियों में जैसी व्यवस्था चलती थी, कुछ वैसी ही व्यवस्था सेज के लिए बनाई गई हैं। कोठियों और फैक्ट्रियों में रहने वाले अंग्रेजों के लिए 1782 में कंपनी गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने अलग न्याय प्रणाली और 1793 में अलग सिविल सेवाओं और पुलिस की व्यवस्था बना दी थी। सेज देश के अंदर एक नये किस्म के विदेशी अड्डे होंगे, जहां देशी-विदेशी व्यापारी वैसी ही सुख-सुविधाएं पा सकेंगे जैसी विकसित देशों में मिलती हैं। यहाँ होने वाले विवादों के संबंध में देश की कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्था किसीे काम नहीं आएगी, क्योंकि इनके मामलों के निपटारे के लिए तो अलग न्यायालयों का गठन किया जाएगा। राज्य या केंद्र की तो पुलिस भी यहाँ प्रवेश नहीं कर सकतीं। ऐसे में हमारी न्याय व प्रशासनिक व्यवस्था के बेमानीपन पर केंन्द्र की सहमती ही मानी जानी चाहिए।
यहाँ सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय संसद को अधिकार है कि वह देश के अंदर विदेशी अड्डे कानून बनाकर स्थापित कर सकती है? भारत की संप्रभुता जनता में निहित है या इन संस्थाओं में? मसला सिर्फ़ यह ही नहीं है कि सेज कृषि योग्य जमीन पर बने या बंजर जमीन पर। जमीन सरकार ले या सीधे कंपनियां? हिंद महासागर में गार्सिया टापू पर अमेरिकी कब्जा क्या देश की सुरक्षा को खतरा नहीं हैं, जब दूर टापू पर विदेशी कब्जे से देश की सुरक्षा पर प्रश्न चिह्व लग सकता है, तो देश के अंदर विदेशियों के आकर बैठ जाने से देश की सुरक्षा कैसे प्रभावित नहीं होगी?
सच तो यह है कि सेज के लिए जमीन 5000 हेक्टेअर हो या उससे कम; किसानों को मुँहमांगा दाम भी मिल जाए; पर जो भी सेज बनेगा वह ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही काम करेगा। क्या यह देश की जनता को मंजूर होगा? समस्या का हल सेज कानून में संशोधन नहीं बल्कि इसे पूरी तरह रद्द करना है।
मंत्रीसमूह के द्वारा दिए गये सुझावों को देखकर यह तो अब स्पष्ट है कि सेज के खिलाफ़ जन विरोध, मासूम लोगों की हत्याओं और हजारों-लाखों किसानों के उजाड़े जाने के बावजूद भी केंद्र सरकार सेज बनाने की अपनी नीति पर आमादा है। बस उसने किसानों से भूमि अधिग्रहण करने में राज्य सरकारों के हस्तक्षेप को खत्म कर दिया है। अब सीधे कम्पनियाँ यह तय करेंगी कि किसानों से कैसे और कौन सी जमीन लेनी है? पहले सेज के लिए न्यूनतम सीमा तो निर्धारित थी, अधिकतम सीमा तय नहीं थी; कितना भी बड़ा सेज बनाया जा सकता था। लेकिन अब सेज की अधिकतम सीमा 5 हजार हेक्टेअर तय कर दी गई है और इन क्षेत्रों के रियल एस्टेट में परिवर्तित होने के खतरों को देखते हुए सेज के अंदर उद्योग के लिए 35 फ़ीसदी जमीन के प्रयोग को बढ़ाकर 50 फ़ीसदी कर दिया गया है। 83 नये सेजों को मंजूरी दी जा रही है। इसके अलावा केन्द्र का यह भी सुझाव है कि इन सेजों के लिए जो किसान स्वेच्छा से जमीन दे देंगे, उनके परिवार में से कम से कम एक आदमी को संबध्द प्रोजेक्ट में रोजगार मिलेगा।
शायद केंद्र सरकार इस बात को समझ नहीं पा रही है कि जमीन की अधिकतम या न्यूनतम सीमा तय करना मात्र ही विरोध की वजह नहीं है। मूल मुद्दा यह भी नहीं है कि जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकारें करेंगी या फ़िर सीधे कम्पनियां? दरअसल सवाल बहुत गहरे हैं सेज का विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि उद्योग के नाम पर देश की लाखों हेक्टेअर बहुफसली जमीन किसानों से ली जा रही हैं, जो करोड़ों किसानों की जीविका और जीवन का आधार है। जमीन की अधिकतम सीमा को लेकर वामदलों ने भी चिंता जताते हुए उसे दो हजार हेक्टेअर करने की बात की है, लेकिन यह सीमा भी देश की सुरक्षा के लिए खतरा है। इस पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है कि एक कंपनी को एक से ज्यादा सेज बनाने का अधिकार होगा या नहीं। एक ही कंपनी अलग-अलग नामों से भी सेज बना सकती है, तब क्या होगा? क्या इस बारे में केन्द्र ने कुछ सोचा है?
मंत्रीसमूह की बैठक ने अपने निर्णय में भूमि अधिग्रहण मामले में राज्य सरकार के हस्तक्षेप को खत्म करके किसान को सीधे कंपनी से मोल-भाव के लिए छोड़ दिया, ताकि खुद जन-विरोध और मुआवजे आदि की चिंताओं से मुक्त हुआ जा सके। लेकिन क्या देश के किसानों की सुरक्षा का दायित्व केंद्र सरकार का नहीं हैं? या हम यह उम्मीद करें की विदेशी आकर देश और देश के किसानों का भला सोचेंगे और उनका स्वर्णिम भविष्य लिखेंगे? क्या इतिहास में कभी ऐसा हुआ है? देश के किसानों को भूखे भेड़ियों- बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे डालना क्या केन्द्र सरकार की समझदारी है? क्या ऐसा करके सरकार अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ रही है? शायद सत्ता के मद में कांग्रेस आज गांधी जी के वचनों को भी भूल रही है कि ''अगर किसानों को कोई भी आंच आती है तो वह देश के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होगा।''
इतना ही नहीं पुनर्वास कीे समस्या का समाधान किए बिना ही 83 नये सेजाें को मंजूरी देकर और लोगों को उजाड़ने की तैयारी की जा रही है, उस पर तुर्रा ये कि जो किसान स्वेच्छा से विस्थापन स्वीकार करेगा उसके ञ्र से एक आदमी को रोजगार मिलेगा; अब कोई सरकार से यह पूछे कि किसी ञ्र के 20 लोगों को उजाड़कर दाने-दाने के लिए मोहताज करके एक आदमी को रोजगार देने में कौन सी समझदारी हैं जमीन के असली मालिक को नौकर बना देना क्या सही होगा? यदि सेज कंपनियों ने जमीन के बदले रोजगार नहीं दिए तो इसके लिए ऐसे कौन से कानूनी प्रावधान किए गए हैं; जिससे कंपनियों को मजबूर किया जा सके। रोजगार देने के मसले में वादाखिलाफ़ी की स्थिति में क्या किसान की जमीन वापस की जाएगी? प्राय: यह धोखा ही साबित हुआ है, ऐसा होंडा मामले में हम देख ही चुके हैं।
डॉ वन्दना शिवा, मेधा पाटकर, डा बनवारीलाल शर्मा, जनता दल यू. और वामदलों का भी यह मानना है कि केंद्र सरकार ने शायद नंदीग्राम से कोई सबक नहीं लिया हैं वह पूरी तरह अपने विदेशी मित्रों की दलाल बन चुकी है। केंद्र को यह भी दिखाई नहीं दे रहा है कि इन फ़ैसलों से हमारी खाद्य सुरक्षा को खतरा होगा। बड़ी मात्रा में लोग खेती से बाहर हो जाएँगे। रोजगार और आजीविका तो खत्म ही हो जाएगी। लेकिन मामला सिर्फ़ बेरोजगारी और लोगों के बेघर होने तक ही सीमित नहीं है। सेज के माध्यम से देश के अंदर विदेशी इलाका बनाया जा रहा है। केंद्र सरकार द्वारा सेज को परिभाषित किया गया है कि ''सेज विस्तार से वर्णित शुल्क मुक्त एंक्लेव है और व्यापार क्रियाकलापों, शुल्कों और सीमाकरों की दृष्टि से उन्हें विदेशी इलाका माना जाएगा।'' संसद द्वारा सेज एक्ट-2005 का सेक्शन-53 कहता है ''सेज एक नियत दिन और उसके बाद से एक ऐसा क्षेत्र माना जाएगा जो भारत के सीमा शुल्क क्षेत्र से बाहर हो।'' 250 वर्ष पहले अंग्रेजों की कोठियों और फैक्ट्रियों में जैसी व्यवस्था चलती थी, कुछ वैसी ही व्यवस्था सेज के लिए बनाई गई हैं। कोठियों और फैक्ट्रियों में रहने वाले अंग्रेजों के लिए 1782 में कंपनी गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने अलग न्याय प्रणाली और 1793 में अलग सिविल सेवाओं और पुलिस की व्यवस्था बना दी थी। सेज देश के अंदर एक नये किस्म के विदेशी अड्डे होंगे, जहां देशी-विदेशी व्यापारी वैसी ही सुख-सुविधाएं पा सकेंगे जैसी विकसित देशों में मिलती हैं। यहाँ होने वाले विवादों के संबंध में देश की कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्था किसीे काम नहीं आएगी, क्योंकि इनके मामलों के निपटारे के लिए तो अलग न्यायालयों का गठन किया जाएगा। राज्य या केंद्र की तो पुलिस भी यहाँ प्रवेश नहीं कर सकतीं। ऐसे में हमारी न्याय व प्रशासनिक व्यवस्था के बेमानीपन पर केंन्द्र की सहमती ही मानी जानी चाहिए।
यहाँ सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय संसद को अधिकार है कि वह देश के अंदर विदेशी अड्डे कानून बनाकर स्थापित कर सकती है? भारत की संप्रभुता जनता में निहित है या इन संस्थाओं में? मसला सिर्फ़ यह ही नहीं है कि सेज कृषि योग्य जमीन पर बने या बंजर जमीन पर। जमीन सरकार ले या सीधे कंपनियां? हिंद महासागर में गार्सिया टापू पर अमेरिकी कब्जा क्या देश की सुरक्षा को खतरा नहीं हैं, जब दूर टापू पर विदेशी कब्जे से देश की सुरक्षा पर प्रश्न चिह्व लग सकता है, तो देश के अंदर विदेशियों के आकर बैठ जाने से देश की सुरक्षा कैसे प्रभावित नहीं होगी?
सच तो यह है कि सेज के लिए जमीन 5000 हेक्टेअर हो या उससे कम; किसानों को मुँहमांगा दाम भी मिल जाए; पर जो भी सेज बनेगा वह ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही काम करेगा। क्या यह देश की जनता को मंजूर होगा? समस्या का हल सेज कानून में संशोधन नहीं बल्कि इसे पूरी तरह रद्द करना है।
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