प्रबुध्द नागरिकता और जमीनी प्रजातंत्र में महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

राज दरबार खचाखच भरा था। कारण था एक अपराधी को राजा सजा सुनाएँगे। सभी के मन में कौतुहल मिश्रित उत्सुकता थी। राजा आए, अपराधी को लाया गया। राजा ने सिंह की सी आवाज में अपराधी से कहा, हम तुम पर रहम बरतते हैं क्योंकि आज हमारी बेटी का जन्मोत्सव है.....तुम्हे हम अपनी सजा स्वयं चुनने का मौका देते हैं। ये जो तीन तख्ते तुम्हारे सामने रखे हैं उनमें तुम्हारे लिए तीन सजाएँ लिखी हुई हैं......जो चाहो वो तुम चुन सकते हो। अपराधी खुश हुआ.... राजा ने भी एक लम्बा ठहाका लगाया। अपराधी ने एक तख्ता उठाया उस पर लिखा था मौत....। गुस्से में उसने दूसरा भी उठा लिया उस पर भी लिखा था मौत.... और तीसरा उठाया तो उस पर भी लिखा था मौत....।
मतलब साफ था कि अपराधी के पास कहने को तीन विकल्प थे, उनमें से एक को चुनना था। यह दर्शन हमारे आज के प्रजातंत्र पर पूर्ण रुप से फिट बैठता है। हमने नासमझी के चलते अपने विकल्प खत्म ही कर लिए हैं। जमीनी लोकतंत्र को ही देख लेते हैं। पंचायतों में चुनी गई महिलाओं से बात करने के दौरान पता चलता है कि चुनावों को कितना मशीनीकृत बना दिया गया है। सतना जिले के रामपुर बघेलन ब्लाक की इटमा पंचायत की सरपंच श्रीमती कमला कहती हैं कि ''कहने को तो पंचायतें दलगत राजनीति से दूर रखी गई हैं लेकिन वास्तव में राजनैतिक दलों का बहुत ज्यादा हस्तक्षेप इन चुनावों में होता है। मैं तो इस दलों के चक्कर से बचने के लिए निर्दलीय लड़ी और जीत कर दिखा दिया।'' कुल मिलाकर जमीनी स्तर पर लोगों के पास भी तमाम राजनैतिक प्रपंचों के चलते विकल्पों की कमी रही और जितने भी विकल्प रहे वे भी उपरोक्त उदाहरण की तरह ही थे। परिणामत: कई जगह निर्दलीय उम्मीदवारों को स्ािान मिला। बकौल शायर, 'तह के अंदर भी हाल वही है जो तह के उपर हाल/ मछली बचकर जाए कहाँ जब जल ही सारा जाल।'
दलगत राजनीति के चलते एक और बड़ी समस्या को न्यौता गया है। एक-ढेड़ हजार की जनसंख्या वाली पंचायतों में दलगत मतभेद होने पर दस से ग्यारह या उससे भी ज्यादा उम्मीदवार खड़े हो जाते हैं और हरेक उम्मीदवार को कुछेक सौ वोट मिल जाते हैं। इस तरह से कई बार महज सौ या उससे भी कम वोट पाने वाला व्यक्ति सरपंच तो बन जाता है लेकिन उसे एक विडंबना ही कहेंगे कि उसे हजार से अधिक लोगों का विरोध पूरे कार्यकाल में झेलना पड़ता है। कई बार तो विवाद इतने बढ़ जाते हैं कि विकास कार्य अवरूध्द होकर कोर्ट कचहरियों तक सिमट जाता है। एक धनात्मक पक्ष यह है कि जहाँ महिलाएँ खड़ी होती हैं वहाँ यह समस्या कम है क्योकि ज्यादातर मामलों में महिलाओं में चुनावी प्रतिद्वंदिता ज्यादा समय तक नहीं रहती हैं और वे अपने घरेलू प्रबंधन से इसका हल निकाल कर एकजुट हो जाती है। चाहे वह दूरस्थ मंडला जिले की खटिया पंचायत की सरपंच सुखवती बाई हो या राजोद, जिला धार की सरपंच दीतू बाई नरवे हो, या फिर रामपुर नैकिन, जिला सीधी की जनपद सदस्य प्रमीला बाई हो, सबने तमाम प्रतिद्वंदिताओं को भुलाकर विकास कार्य को आगे बढ़ाया है।
एक ओर हम कहते तो बहुत हैं कि जमीनी स्तर पर पंचायतों में साफ-सुथरा शासन होना चाहिये। और भी तमाम आदर्शों को अपनाने के लिए पंचायतों को आगे धकेला जाता है जबकि यह सब तो अधिक उन्नत, शिक्षित, समृध्द उपरी स्तर के प्रजातंत्र को करना चाहिये। एक साधाहरण से टिकट वितरण के लिए जितने सिर फुटव्वल, मारा-मारी, विरोध के जंगली तरीके एवं दल बदलने की घटनाएँ होती हैं उससे कोई बहुत अच्छे आदर्श तो हम स्थापित नहीं कर पाते हैं। अब इससे उस ग्रामीण लोकतंत्र पर क्या संदेश जाएगा, यह साफ है। चौफाल पंचायत जिला सीधी की सरपंच सुनीता यादव कहती हैं कि ''जब बडे-बडे लोग बिक जाते हैं और मरने मारने पर उतर आते हैं तो हमारी पंचायत तो बहुत छोटी है.... जैसे लोग देखेंगे वैसे लोग सीखेंगे....।'' शायर ने भी लिखा है, 'अपनी कमीनगी का सजावार मैं ही था/ खुद को मझधार में छोड़कर उसपार में ही था।' विडंबना तो फिर यही है कि जब यही सब भावी पीढ़ी और अधिक विध्वंसक रुप में करेगी तब नेंपथ्य से हम ही स्तब्ध खड़े रहने के अलावा कुछ नही कर सकेंगे। महिलाएँ जहाँ पंचायतों में खड़ी होती है वहाँ जरूर ऐसे घटनाक्रम कम ही होते हैं। रीवा से लगी हुई अजगरहा पंचायत की सरपंच माया देवी सिंह भी यही सोचती हैं और कहती हैं कि महिलाएँ होने से अराजक तत्व पहले-पहल तो खुद ही अलग हो जाते हैं और यदि कुछ करते भी हैं तो झेपते हैं। गांवों में महिलाओं के प्रति एक प्रकार की शर्म अभी भी रखी जाती है।
प्रबुध्द नागरिकता एवं प्रबुध्द प्रजातंत्र के प्रति तो हमारी सोच को ही ताला लग गया है। संपूर्ण मीडिया भी सूडो (छद्म) प्रजातंत्र की सतही स्तरों को ही कवर कर रहा है। समाज के महत्वपूर्ण पक्षों की समाज के प्रति भी बहुत प्रतिबध्दताएँ होती है। किसी से जोरदार प्रश्न भर पूछ कर या फिर प्रश्नों के घुमावदार, चतुराईपूर्ण उत्तर देकर ही हमारा दायित्व पूरा हो जाता है? हमारे यहाँ अनेक गणमान्य नेता कई मामलों में भ्रष्टाचार में संलग्न पाए गए। क्या हुआ उनका? सिवाय थोड़ी सी बदनामी के किसी का कुछ नहीं हो पाया....ऐसे में हर दूसरा आदमी नेता तो बनना चाहेगा ही। ऐसी ही प्रतिबध्दताओं के चलते एक और बात सामने आती है कि हम हमेशा चाहते हैं कि हमें सामने वाला व्यक्ति अच्छा ही मिले। एक व्यभिचारी पति भी चाहता है कि उसकी पत्नी शरीफ हो.....एक नशेबाज बाप भी अपनी बेटी के लिए सीधा-सादा दामाद ढूंढता है.....हम चाहे जितना भ्रष्टाचार कर रहे हों परंतु हमें अपने कार्य के लिए कोई भ्रष्टाचारी न मिले...कुल मिलाकर अपेक्षाएँ हैं..... लेकिन सबकुछ सामने वाले से ही स्वयं से नहीं। रीवा जिले की हर्दी पंचायत की सरपंच अरूणा देवी सरपंच रहने सं पूर्व से ही ग्रामीणों के मध्य सक्रीय रूप से कार्य कर रही हैं और कहती हैं कि ईमानदारी का फल यह है कि उनके स्वयं के बच्चे आज अच्छी जगहों पर सुखी हैं। वे कहती हैं कि ईमानदारी को कहा नहीं निभाया जाता है और परिणाम हमें अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होते हैं। इसी तरह चकदही पंचायत जिला सतना की सरपंच रधियाबाई प्रारंभ में परिवार के अन्य सदस्यों पर भरोसे व अनुभवहीनता के कारण किसी घोटाले का हिस्सा बन गई, लेकिन ग्राम सभा में सारी यथास्थिति स्पष्ट करते हुए गलती कबूल की व भरी सभा में ग्राम सभा से कहा कि उसे जो सजा दी जावेगी उसे स्वीकार है। ऐसी स्वीकारोक्ति कौनसा नेता आज के समय में करता है? यह हकीकत है कि आज जमीनी लोकतंत्र कई जगह आदर्श स्थापित करने में लगा है जो उपरी लोकतंत्र के लिए भी प्रेरणास्पद है। एक आम आदमी तो यही प्रार्थना कर सकता हैं कि हमारा प्रतिनिधि देवता नहीं तो कम व्यभिचारी, कम भ्रष्टाचारी, कम सत्ता लोलुप, कम बेईमान हो ...। कवि ने भी लिखा है, 'खुशी हो जाती है उनसे ही मिल कर/ जो शहर के दूसरे लोगों से कम झूठे हैं।'

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