प्रॉपेगंडा और मतारोपण : नोम चोम्स्की

प्रश्न: एक ऐसे विषय के बारे में बात करते हैं जिस पर हम अक्सर लौटते रहे हैं, और वह है प्रॉपेगंडा और मतारोपण। बतौर एक शिक्षक आप लोगों को खुद सोचने के लिए प्रेरित कैसे कर सकते हैं? क्या आप ऐसा कर पाने के लिए कुछ 'औज़ार' भी दे सकते हैं?
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मेरे ख्याल से तो आप खुद काम करके ही सीखते हैं। मैं बहुत पहले से ड्यूयीवादी हूँ, बचपन के अनुभव से और पढ़ने से। आप खुद काम करके सीखते हैं, और आप दूसरों को काम करते देख कर समझते हैं कि क्या काम कैसे किया जाए। उदाहरण के लिए, इसी तरह आप अच्छे बढ़ई बनते हैं और इसी तरह आप एक अच्छा भौतिक वैज्ञानिक बनना सीखते हैं। कोई आपको नहीं सिखा सकता कि भौतिक विज्ञान कैसे किया जाए। आप प्राकृतिक विज्ञानों में काम करने का तरीका अकादमिक विषयों में नहीं सिखा सकते। सामाजिक विज्ञानों में आप सिखा सकते हैं। ऐसे किसी भी विषय में जहाँ कुछ अर्थवत्ता रखने वाली सामग्री है, आप कार्यविधि - काम करने का तरीका - नहीं सिखा सकते। आप सिर्फ दूसरों को काम करते हुए देखते हैं और उनके साथ काम में हिस्सा लेते हैं। जैसे किसी विज्ञान विषय के किसी सामान्य स्नातकीय सेमिनार में बस कुछ लोग होंगे जो साथ काम कर रहे होंगे, जो किसी कारीगर के किसी निपुण व्यक्ति के साथ काम करते हुए कारीगरी सीखने से कोई खास अलग परिस्थिति नहीं है। मेरे ख्याल से यह चीज़ इन बातों पर भी लागू होती है। मैं लोगों को कायल करने की कोशिश नहीं करता, कम से कम जानबूझकर तो नहीं। या शायद करता भी होऊँ। अगर ऐसा है तो यह मेरी गलती है। सही तरीका लोगों को इस बात का कायल बनाना नहीं है कि आप सही हैं, बल्कि उनको खुद ही सोच के देखने की चुनौती देना है। मानवीय मामलों में ऐसा कुछ भी नहीं है जिस के बारे में ज़बरदस्त विश्वास के साथ बात कर सकें, यहाँ तक कि ठोस प्राकृतिक विज्ञानों के लिए भी यह सही है। जटिल क्षेत्रों, जैसे कि मानवीय मामलों, में हम बहुत निश्चितता के साथ कुछ नहीं कह सकते, अक्सर तो इस निश्चितता या विश्वास का स्तर बहुत नीचा होता है। मानवीय मामलों में, अंतर्राष्ट्रीय मामलों में, पारिवारिक संबंधों में, या ऐसा कुछ भी लें, आप प्रमाण इकठ्ठे कर सकते हैं और आप चीज़ों का संबंध जोड़ कर उन्हें एक खास तरह से देख सकते हैं। कोई एक या दो व्यक्ति क्या करते हैं इसे परे रखते हुए, सही तरीका तो सीधे से यह है कि लोगों को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। ऐसा करने का तरीका है खुद करके देखना, खास तौर से यह दिखाने की कोशिश करना, हालांकि यह बहुत प्रभावी नहीं है, कि दुनिया में जो कुछ होता है उसके बारे में प्रचलित धारणाओं और अपनी इन्द्रियों के प्रमाण तथा लोगों की खोजबीन के बीच की खाई तुरंत दिखने लग जाएगी अगर इस पर गौर करना शुरू किया जाए तो। एक आम जवाब जो मुझे मिलता है, खास तौर से चैट नेटवर्कों जैसी जगहों पर, वो यह है कि मुझे विश्वास नहीं होता कि जो आप कह रहे हैं वो सही है। मैंने जो सीखा है और जिस पर हमेशा भरोसा किया है यह उसके बिल्कुल विपरीत है, और मेरे पास इतना समय नहीं है कि मैं सारे फ़ुटनोटों को पढ़ कर उनके सही-गलत होने की जाँच कर सकूँ। मैं कैसे मानूं कि जो आप कह रहे हैं वह सही है? यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। मैं लोगों से यही कहता हूँ कि सही तरीका यही है। आपको यह नहीं मानना चाहिए कि जो मैं कह रहा हूँ वही सही है। फुटनोट इसलिए हैं कि अगर चाहें तो जाँच सकें, पर अगर आप परेशानी नहीं उठाना चाहते तो कुछ किया नहीं जा सकता। आपके दिमाग में कोई सच उड़ेलने नहीं जा रहा है। यह तो ऐसी चीज़ है जो आपको खुद ही पता लगानी होगी।
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प्रश्न.: एक अन्य टिप्पणी जो मैंने इस विषय में बात करते हुए लोगों से सुनी है, मैं कोई नोम चोम्स्की नहीं हूँ। मेरे पास साधन नहीं हैं। मैं लोगान हवाई अड्डे पर 9 से 5 तक काम करता हूँ। मुझे कर्ज़ चुकाना है। मेरी पहुँच नहीं है और न ही मेरे पास क्षमता है। क्या इसके लिए विशेष रूप से बुद्धिमान होना ज़रूरी है?
विशेष रूप से बुद्धिमान होना तो ज़रूरी नहीं है, पर विशेष सुविधाएँ ज़रूर चाहिए होती हैं। ये लोग सही हैं। आपके पास विशेष सुविधाएँ तो होनी ही चाहिएँ, जो कि हम लोगों के पास हैं। यह जायज़ नहीं है, पर सुविधाएँ तो हमें मिली ही हैं। साधन, प्रशिक्षण, समय, और अपने जीवन पर नियंत्रण। मैं चाहे सौ घंटे प्रति सप्ताह काम करूँ, पर ये सौ वही हैं जो मैं चुनता हूँ। यह दुर्लभ सुविधा है। जनसंख्या का एक छोटा सा हिस्सा ही इसे पा सकता है, साधनों और प्रशिक्षण की तो बात ही छोड़ दें। ऐसा अपने बल पर करना बहुत ही मुश्किल है। लेकिन हमें इसे बढ़ा-चढ़ा के नहीं देखना चाहिए। ऐसा सर्वश्रेष्ठ ढंग से करने वाले बहुत से लोग सुविधासंपन्न नहीं हैं, जिसका एक कारण यह है कि उनके पक्ष में भी कई बातें हैं। अच्छी शिक्षा से होकर न गुज़रे होना, मतारोपण की बाढ़ से बचे होना, जो कि शिक्षा ज़्यादातर होती है, और मतारोपण तथा नियंत्रण के इस तंत्र का हिस्सा बनने यानि इसे अपने सोचने का तरीका बना लेने से बचे रहना। मतारोपण से मेरा मतलब है नर्सरी स्कूल से लेकर व्यावसायिक जीवन तक। इस सब का हिस्सा न होने का मतलब है कि आप कुछ स्वतंत्र हैं। तो सुविधा और प्रभुत्व की इस व्यवस्था से बाहर रहने के फ़ायदे भी हैं। लेकिन यह सच है कि जो दो वक्त का खाना जुटाने के लिए पचास घंटे प्रति सप्ताह काम करता है उसके पास वह सुविधा और अवसर नहीं है जो हमारे पास है। इसीलिए तो लोग साथ मिल कर काम करते हैं। कामगारों की शिक्षा के लिए संघ बनाने का उद्देश्य यही होता था, जो कि अक्सर मज़दूर आंदोलनों का एक पक्ष होता था। लोगों के लिए मिल कर एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने के तरीके होते थे। सच पूछा जाए तो तरह-तरह के विषयों में: साहित्य, इतिहास, विज्ञान, गणित। जनता (यानि लाखों लोगों) के लिए लिखी गई विज्ञान व गणित की सर्वश्रेष्ठ किताबों में से कुछ वामपंथी विशेषज्ञों के द्वारा लिखी गई थीं, और ऐसे विषय कामगारों के शिक्षण में भी शामिल हो जाते थे, जो कि अक्सर मज़दूर संघ, या कई बार उनकी उपशाखाओं पर आधारित होते थे। चीज़ें होती हैं जो आप समूह में कर सकते हैं, पर अकेले नहीं कर सकते। असल में तो यह बात सभी उन्नत विज्ञानों के लिए सही है। व्यक्तिगत रूप से तो कम ही काम हो पाता है। काम अधिकतर समूहों में मिल-जुल कर और अदला-बदली तथा आलोचना करके और एक-दूसरे के काम को चुनौती देकर होता है, जहाँ विद्यार्थी अक्सर सक्रिय और आलोचनात्मक भूमिका निभाते हैं। यहाँ भी वही बात लागू होती है। प्रभुत्व और नियंत्रण की व्यवस्था की एक बौद्धिक खासियत यही है कि लोगों को एक-दूसरे से अलग कर दिया जाए ताकि यह सब न हो पाए। जैसा कि मेरे एक पसंदीदा वॉब्ली गायक ने बहुत पहले 1930 के दशक में कहा था, हम अपने पड़ौसी से राय नहीं ले सकते। जब तक हम अपने पड़ौसी से राय नहीं ले सकते, हम यही मानते रहेंगे कि सब अच्छा ही चल रहा है। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि हम अपने पड़ौसी से राय नहीं लें।

साभार - जेडनेट

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