भारत के लिए गहरे ढांचे की एक परिभाषा - प्रो. अमित भादुरी

सरकारी तंत्र पर निगाह डालें तो लगता है कि मानों सरकार देश के गरीब और कमजोर तबके को सशक्त बनाने वाले दो अहम अधिनियमों का अनमने मन से बोझा ढ़ो रही है। राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी अधिनियम (नरेगा) और सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) को जिस तरह की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है, उसे देखने पर यह साफ जाहिर हो गया था कि न तो सरकार और न ही नौकरशाही इन अधिनियमों को पारित कराने में उत्साहित थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाले 'राष्ट्रीय सलाहकार परिषद' के समर्थन के बिना तो शायद दोनों अधिनियिम पारित होने संभव ही नहीं थे। लेकिन यह सच है कि इनसे कई और मुद्दे खड़े हो गये हैं।
.
कई खामिया होने की वजह से रोजगार अधिनियम 73वें संवैधानिक संशोधन से प्रोत्साहित होकर पंचायतों के जरिए आर्थिक और सामाजिक रचनात्मक ढांचे को यह विकेंद्रीकृत कर सकता है और साथ ही एक नई दिशा में विकास की शुरुआत कर सकता है। इसके लिए पंचायतों को ज्यादा से ज्यादा वित्तीय सहायता की जरूरत है और कार्यक्रमों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने और लागू करने के लिए पंचायतों को चयन और निरीक्षण की भी स्वायत्तता होनी चाहिए। लेकिन विडम्बना तो यह है कि सरकार ऐसे हरेक पहलू पर नाकाम रही है। रोजगार अधिनियम की केवल रूपरेखा ही गलत नहीं है बल्कि सरकार ने भी इसे सफलतापूर्वक लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली।
जितने वादे कितने गए, उतना काम नहीं किया गया। यथासंभव विकेंद्रीकरण के लिए पंचायतों की वित्तीय स्वायत्तता बढ़ाने के लिए न तो केंद्र ने और न ही राज्य की सरकारों ने कुछ खास प्रयास किए। कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों में न केवल राज्य के कुल खर्च में बल्कि कर वसूली में भी पंचायतों का हिस्सा घटता जा रहा है। कोई भी राज्य अपनी वित्तीय शक्तियों को पंचायतों के साथ बांटने को तैयार ही नहीं है। ठीक उसी तरह केंद्र सरकार भी वित्तीय शक्तियों के ऊपर अपने नौकरशही नियंत्रण की पंचायतों के लिए छोड़ना नहीं चाहती। ऐसे में इस राजनीतिक गुत्थी को सुलझाने का सिर्फ एक ही रास्ता है कि पंचायतों के लिए फंड की सुविधा राष्ट्रीयकृत बैंकों में होनी चाहिए और जो भी ग्रामीण संपत्ति वे बनाए, उसी पर उनकी साख योग्यता निर्भर होनी चाहिए। इस सबके लिए, अगर जरूरत पड़े तो वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम की भी दोबारा जांच की जानी चाहिए। विकास के इस पायदान पर भारत के लिए ग्रामीण इलाकों में रचनात्मक कार्यों में विकेंद्रीकृत निवेश के लिए धन उपलब्ध कराने से ज्यादा कुछ भी जरूरी नहीं है।
हालांकि सरकार इस बारे में बिल्कुल भी गम्भीर दिखाई नहीं दे रही है। प्रधानमंत्री द्वारा की गई घोषणाओं से ये साफ जाहिर होता है, विदर्भ के जिन इलाकों में ज्यादातर आत्महत्याएं हुई हैं, वहां का दौरा करते हुए हाल में प्रधानमंत्री ने जब 3750 करोड़ रुपए की सहायता राशि की घोषणा की तो उन्होंने उन मुद्दों को बड़ी आसानी से एकतरफ कर दिया जो संवेदनशील थे। जैसे- छोटे और मझोले किसान, डब्ल्यूटीओ के तले कृषि के व्यवसायीकरण के खतरे की जो मार झेल रहे हैं, उसके लिए सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में एक ज्यादा सुरक्षित और प्रभावशाली व्यवस्था प्रदान किए जाने की जरूरत थी।
.
सरकारी आंकड़ों पर नजर डालने से मालूम होता है कि 2001 से 2006 के दौरान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र अकेले चार राज्यों में ही करीब 9000 किसानों ने आत्महत्याएं की। गृहमंत्रालय के अनुसार कुल 607 जिलों में से 160 जिले 'नक्सल प्रभावी' जिले हैं। उसमें गरीब, भूखे और कंगाल किये गए किसानों के मिल जाने से यह नक्सली आंदोलन भारत के एक चौथाई इलाकों में फैल गया है। ऊपर से हमारी सरकार इसे 'लॉ एंड ऑर्डर' की समस्या बताकर अपनेर् कत्तव्य की इतिश्री मान रही है। क्या सरकार तक गरीबों की आवाज नहीं पहुंच रही है? क्या यह सरकार बहरी होने के साथ-साथ अंधी भी हो गई है, जिसे यह भी दिखाई नहीं दे रहा है कि उसकी अपनी ही 'आइडियोलॅजी' स्थिति को और ज्यादा बिगाड़ रही है?
.
सत्तारूढ़ शासकों को मानना है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही आर्थिक वृध्दि दर बढ़ाकर गरीबी को दूर कर सकती हैं, यह बात आईएमएफ और डब्ल्यूटीओ द्वारा बार-बार दोहराई जा रही है और हमारे नीति-निर्माता उनके इसी राग को बड़े उत्साह से अलाप रहे हैं। इसीलिए शायद टाटा को आदिवासियों की जमीन देने के लिए उड़ीसा के कलिंगनगर में 12 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया गया। होंडा आटोमोबाइल फैक्टरी में हड़ताल पर बैठे मजदूरों को मारा पीटा गया। उत्तर प्रदेश में भी अनिल अंबानी ग्रुप को उपजाऊ और हरी-भरी जमीन सौंपी जा रही है। सूचना के अधिकार के बावजूद भी, सरकार एनरॉन पर पाक-साफ होने की कोशिश कर रही है और जिन लोगों ने घोटाला किया, उन्हें भी जवाबदेह होने से रोक रही है, उन्हीं उत्तरदायी लोगों के निर्देशन में, सरकारी खर्चे पर बिना पारदर्शिता के 'डाभोल' को पुन: शुरू किया जा रहा है। जनरल इलेक्ट्रिक और ब्रेशल जैसी कंपनियों के जो शेयर सिर्फ 20 मिलियन डालर में खरीदे जा सकते थे उन्हें 305 मिलियन डालर में खरीदा गया, जबकि वित्तमंत्री ने गरीब के लिए न्यूनतम मजदूरी मात्र 60 रुपए प्रतिदिन दिलाने की घोषणा की।
.
इन सारी चीजों के परिणाम बहुत व्यापक हैं। आर्थिक प्रगति की इस सुनहरी कल्पना ने हमारी आत्मा तक को बिकाऊ बना दिया है। बड़े बांधों पर काम जारी हैं। शहरों में भी शॉपिंग मॉल्स और फैंसी रिटेल स्टोरों के लिए, गरीब और छोटे व्यापारियों को कोई भी विकल्प दिए बिना ही, झुग्गियां और रोजी-रोटी उजाड़ी जा रही है। इस सबसे कुछ विकास नहीं होने वाला। शाइनिंग इंडिया एक बार फिर खत्म हो जाएगा और लाखों विद्रोही, हिंसक और अहिंसक विरोध आंदोलन खड़े हो जाएंगे। समय बदल रहा है अब जरूरत है पूंजीवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विकास के जाल से निकलकर विकेंद्रीकृत रोजगार आधारित विकास की।

कोई टिप्पणी नहीं:

मुद्दे-स्तम्भकार