अन्याय के खिलाफ जनता का हथियार -- गोपालकृष्ण गांधी

सूचना का अधिकार कानून बन चुका है। बढ़िया कानून है। बहादुर कानून है। हर प्रदेश में लागू हो गया है। एक बड़े आंदोलन की इस कानून में फतह हुई है। इस कानून ने कइयों को इंसाफ दिलाया है, कई गफलतों, गलतियों, घूस और घोर अन्यायों का मुकाबला किया है। इस सबके बावजूद भी इस सूचना के अधिकार अभियान की जरूरत महसूस हुई है। वजह यह है- यह कानून जो कि भारतवासियों के कानों तक पहुंचने को था, कइयों के कानों तक पहुंचा जरूर है, पर कई औरों-करोड़ों- के कानों के ऊपर-ऊपर से सरसराता हुआ प्रवेश कर गया है दफ्तरों में। इस बात में वैसे कोई खराबी नहीं। दफ्तरों के बिना कोई कानून नहीं चलता। लेकिन दफ्तरों का एक अजीब तरीका होता है। वे कानूनों को अपने कूचे में मेहमान बना देते है। दफ्तरों की कोशिश होती है कि कानून को इज्जत मिले। लेकिन इस इज्जत के बारे में गलतफहमी रहती है। कुछ दफ्तर समझते हैं कि कानून को इज्जत देने का मतलब है, कानून को कम से कम तकलीफ हो, ज्यादा से ज्यादा आराम। लेकिन सूचना के अधिकार का यह कानून आराम के लिए नहीं बना है। काम के लिए बना है। उसे मेहनत चाहिए, राहत नहीं। दफ्तरों को कानून में घर बनाना चाहिए, न कि कानून को दफ्तरों में। कानून को दफ्तरों में सिर्फ उतनी ही देर के लिए रहना पसंद है जितना कि तीर को तरकश में।

मैं भाषण देना नहीं चाहता। भाषणकार दफ्तरों से भी ज्यादा कानूनों को अपने वश में कर लेते है। मैं तीन तबकों को संक्षेप में संबोधित करूंगा- सरकारों को, अभियान को और अंत में उनको जिनके लिए यह अधिनियम और यह अभियान खड़ा हुआ है, यानी आम पब्लिक को।

सूचना के अधिकार कानून का एक बड़ा जिम्मा सरकारी प्रबंधकों पर आया है। अहम् जिम्मा है। उनको मैं कहूंगा यह कानून आपके हाथ का हथियार है, आपके सामने खतरा नहीं। उसकी नोक आपके सीने पर नहीं टिकी, आप उसकी नोक पर टिके है। उसके साथ आगे बढ़िए और सुशासन को बढ़ाइए। उससे डरिए मत, उससे खिसकिए मत, उसे अपनाइए, उससे एक हो जाइए उसकी मदद से हकीकत को जानिए, पहचानिए, दुरुस्त कीजिए। सदियों से हिंदुस्तान में ही नहीं, सब जगह सरकारी दफ्तर खुद को जनता की आलोचना से बचाने के आदी हो गए है। यह कुदरती बात है। लेकिन सरकारी दफ्तर और सरकारी कुर्सियां देश के हित के लिए बनी है, न कि अपने खुद के हित के लिए। जब भी इस एक्ट के तहत पब्लिक से कोई सवाल आता है तो सरकारी दफ्तरों को उसका स्वागत करना चाहिए और उसका पूरा, सही और सच्चा जवाब बुलंद अल्फाज में देना चाहिए। ऐसे अल्फाज में, जिसमें ध्वनि 'जय दफ्तर' की नहीं, 'जय तथ्य', 'जय सत्य' की, और 'जय हिंद' की हो।

यह हमारी खुशनसीबी है कि वजाहत हबीबुल्ला जैसी ऊंची शख्सियत वाले इन्सान आज हमारे मुख्य सूचना आयुक्त है। प्रदेशों में भी काबिल और कर्तव्यपरायण आयुक्त इस काम में लगे है। उनको वह सारी सुविधाएं और सम्मान दीजिए, जो कि उन्हें मिलनी चाहिए। आरटीआई अधिकारियों को इसके लिए इंतजार करना पड़े, यह सरकारों की छवि के लिए ठीक नहीं।

गोपनीयता का एक अहम् सवाल है। इस कानून में गोपनीयता की सुरक्षा हुई है। होनी चाहिए। जैसे हम है, वैसा ही देश है। हमें-हम सबको-कुछ मामलों में गोपनीयता की जरूरत होती है या नहीं। कुछ ऐसे रिश्ते होते है, जहां गोपनीयता जरूरी होती है। सरकार और देश के रिश्तों में भी कुछ ऐसे क्षण होते है, जहां गोपनीयता आवश्यक बन जाती है। वह कुछ नजाकतों की हिफाजत के लिए होती है। खुलेपन का मतलब यह नहीं कि हम इन नजाकतों को भूल जाएं। लेकिन छिपने-छिपाने के लिए ऐसी गोपनीयता का इस्तेमाल सही नहीं। गोपनीयता का यह मतलब नहीं कि उसके तर्क में, उसकी तहों में, ऐसी बातों को, जो कि गोपनीय नहीं, गुम कर दिया जाए।

फाइल नोटिंग की बात है। मैं सिर्फ इतना कह दूं, नोटिंग करते हुए आप मुद्दे के बारे में सोचें। हकीकत को ध्यान में रखिए। नोट्स यह सोचते हुए लिखने की कोशिश न कीजिए कि 'कहीं आगे जाकर कानून वाली तकलीफ न हो जाए'। और न ही ऐसे नोट्स लिखने की कोशिश कीजिए जिससे इस कानून के तारामंडल में आप एक चमकता सितारा बन जाएं।

दूसरे तबके से...।
दूसरा तबका है कानून के निर्माताओं, समर्थकों और उसके प्रचारकों का। उन्होंने बहादुरी, धीरज और एकाग्रता से इस कानून के लिए आवाज उठाई। यह मेरी समझ में, हमारे संविधान की रचना के बाद, सबसे अहम रचना है। आपको आज मुबारकबाद मिला है- आगे जाकर उससे भी ज्यादा शुक्रगुजारी दी जाएगी। लेकिन यह काम 'शुक्रिया' सुनने के लिए नहीं किया है। सि(ांत के लिए किया है।

नौकरशाही कानून के मामले में अपनी पुरानी मानसिकता से अभी बाहर आना सीख रही है। सदियों से, अफसरों ने ठकुर-सुहाती सुनी है।

आजादी के साठ साल बाद अफसरों को सीधे सवालों को अपनाना पड़ रहा है। यह इस कानून की एक इंकलाबी कामयाबी है। आरटीआई की जिम्मेदारियों में, अफसरों को एक नए तजुर्बे का अब एहसास हो रहा है। आरटीआई के प्रसंग में नौकरशाही को आप अभी एक छात्र के रूप में देखिए। शिक्षक है, आरटीआई कानून उसके निर्माता, समर्थक, अभियान से जुड़े लोग- सह-शिक्षक है।

अफसर को धमकाइए मत, उसे समझाइए, उत्साहित कीजिए। 'अफसर और उत्साह? नामुमकिन!' यह ख्याल मैं कइयों से सुनता हूं। यकीन कीजिए, मैंने अफसरों में बहुत उत्साह देखा है आप चाहें तो उदाहरण भी दे सकता हूं। जब वह कुर्सी से उठने की कोशिश कर रहा है, उसको यह मत कहिए कि 'चल उठ, सर पर खड़े हो'। वह एक बड़ा पहलू सीख रहा है विश्वसनीयता और पारदर्शिता शासन में, शीर्षासन में नहीं।

अभियान के लिए एक और बात-गांधीजी ने दिसंबर 30, 1926 के दिन यंग इंडिया में लिखा था-'दोज हू सीक जस्टिस मस्ट कम विद क्लीन हैंड्स।' 'क्लीन हैंड्स' के कई मतलब है। इसका एक अर्थ तो यह है कि इस कानून का उपयोग करने वाले को यह बताया जाए कि वह जिम्मेदारी के साथ इसका इस्तेमाल करे। गंभीर सवालों को उत्साहित और छिछोरे सवालों को हतोत्सािहत करना चाहिए। जो गैर सरकारी संगठन इस कानून के प्रचार में लगे है उन्हें भी सवालों के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें खुद के हिसाब-किताब खुले रखने चाहिए-हालांकि यह कानून उन पर लागू नहीं।

अभियान से जुड़े लोगों से...
अभियान से जुड़े लोगों को मैं यह भी कहूंगा कि आपको अपने लक्ष्य में विश्वास हो, यह जरूरी है। साथ ही आप जिस सुधार के लिए आग्रही बने है, उस सुधार की पूरी सफलता की संभावना में भी पूरा विश्वास रखना जरूरी है, बल्कि बहुत जरूरी है।

यह अभियान निर्मल जल की तरह है। निर्मलता निर्बलता नहीं। अभियान को अपनी निर्मलता के प्रचार से बल मिलेगा। सवाल भेजने वालों के उद्देश्य और उनके आधार साफ हों, यह आवश्यक है। महादेवी वर्मा ने 'अतीत के चलचित्र' में लिखा है- 'कीचड़ से कीचड़ को धो सकना न संभव हुआ है न होगा, उसे धोने के लिए निर्मल जल चाहिए।'
'सत्याग्रह' शब्द को इस अभियान से जोड़ा गया है। इससे अभियान का काम बड़ा बनता है और मुश्किल भी। गांधी के औजार बल देते है और दायित्व भी। अभियान से जुड़े लोगों को अगर सत्याग्रह करना है तो फिर सत्याग्रह के दायित्वों को समझना होगा।

आचार्य कृपलानी ने 1948 में कहा था, 'बिहार में हम लोग काम करते थे तो मेरे विद्यार्थी भी मेरे साथ थे। एक दिन देखा तो कुछ विद्यार्थियों के बदन पर कुर्ता नहीं था, सिर्फ छोटी सी धोती और चादर थी। मैंने कारण पूछा। उन्होंने कहा, 'बापू आजकल कुर्ता नहीं पहनते, इसलिए हम भी नहीं पहने।' मैंने उनसे कहा, 'भूखे और नंगे आदमियों को देखकर कुर्ते से बापू के शरीर में जलन होती थी, आग-सी लग जाती थी, उससे बचने के लिए उन्होंने कुर्ता उतारकर फेंक दिया। तुम्हारे शरीर में वैसी जलन नहीं होती। तुम्हें कुर्त फेंकने की जरूरत क्या है?''

बापू के मार्ग पर चलने का मतलब यह नहीं है कि हम उनकी नकल उतारें। कुछ लोग तो बापू की नकल उतारने में अपने को बापू से भी बढ़ा-चढ़ा दिखलाने की कोशिश करते है। एक तरह से दुनिया पर जाहिर करना चाहते हैं कि गुरू गुड़ रह गए, चेला चीनी बन गया। हम खबरदार रहें। अपने को ऊंचा और पवित्र समझने वालों की एक जमात न बना लें। हमें गांधीजी की भावना की तरह काम करना है, किसी बाहरी चीज का अनुकरण नहीं करना है। सत्य और अहिंसा के रास्ते चलने वाले को समझ लेना चाहिए कि यह रास्ता शहीद होने का रास्ता है। यह सही है कि अभियान से जुड़े लोग कभी अपने को 'चीनी' नहीं समझेंगे। लेकिन यह काफी नहीं, उन्हें 'गांधी का गुड़' लेकर चलना होगा। 'गांधी का गुड़' यानी सादा सच। कड़वा या मीठा सच नहीं। सादा सच सिर्फ सच।

उन्नीस सौ बाइस में जब चौरी-चौरा में 22 सिपाहियों का कत्ल हुआ तब गांधीजी ने सत्याग्रह को रोक दिया था। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि 'महात्मा गांधी की जय' के नारों के बीच कत्ल हुए थे। इसलिए मंजिल से कम नहीं है वहां पहुंचने के तरीकों की सफाई। इस कानून को सफल बनाने के लिए सत्य पर आग्रह जरूरी है और तरीकों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। आरटीआई एक्ट का उपयोग करिए, दुरुपयोग नहीं। अफसर को तंग करने के लिए उसका इस्तेमाल कतई मत करिए। यह कानून अफसरों को सड़क की धूल से वाकिफ बनाने के लिए है। उनकी नाकों को उस धूल में रगड़ने के लिए नहीं। किसी व्यक्ति के मान या किसी पद की गरिमा को घटाने के लिए उसका इस्तेमाल मत कीजिए। सरकारी कर्मचारी भी जनता का हिस्सा है-उनको भी मैं कुछ कहना चाहूंगा-सेवा संबंधी मामलों के लिए कृपया आप आरटीआई एक्ट को मत उठाइए। आपके पास और रास्ते है-जैसे कि ट्रिब्यूनल।

यह कानून मूलत: उन लोगों के हित के लिए बनाया गया है जो साधारणत: मूक है, जिनके दिलों में सवाल उठ रहे है, उबल रहे हैं, भ्रष्टाचार के, कुशासन के। यह कानून मूल में उनके लिए है। उनके लिए कानून की लाइन स्पष्ट होनी चाहिए। सरकारी कर्मचारियों के निजी मामलों से आरटीआई के टेलीफोन व्यस्त नहीं रहना चाहिए।

यह कानून न कोई देवता है, न जिन्न। वह एक सच्चा, सुथरा और सभ्य साधान है-समाज में सच्चाई, सुथरेपन और सभ्यता को बढ़ाने का एक सही साधन। आरटीआई कानून को पूजिए मत, न ही उससे किसी को डराइए। उससे शासन में, समाज में विश्वसनीयता बढ़ाइए।

यह कानून एक करार है, कड़ा करार। करारों को कागज पर छोड़ दिया जाए तो वह कागज बन कर रह जाएगा। यह अभियान इस आरटीआई कानून के करार को कागज से ऊपर हिंदोस्तान की रोजमर्रा की जिंदगी से जोड़ने के लिए है।

मैं समझता हूं, उसकी सबसे बड़ी कामयाबी होगी भ्रष्टाचार से मुकाबला करने की। हमारे जमाने का तानाशाह है रुपया। रुपया भी कागज का है। पर देखिए उसकी ताकत। अगर रुपया नाम का कागज खेल खेलता है तो यह कानून का 'कागज' भी टीम इंडिया बन जाए!

उन्नीस सौ इक्कीस को राजाजी को वेलूर जेल में कैद रखा था। स्वराज के सैनानी थे। लेकिन स्वराज के बारे में उनके ख्याल पढ़ने लायक है। स्वराज से 25-26 साल पहले स्वराज के बारे में लिखा था, 'हमें यह समझ लेना चाहिए कि स्वराज तुरंत नहीं मिलने वाला। मैं सोचता हूं कि इसमें भी लंबा समय लगेगा। हमें बेहतर सरकार और जनता की खुशहाली के लिए काम करना चाहिए। जैसे ही हमें स्वतंत्रता मिलेगी चुनाव और भ्रष्टाचार, अन्याय और सत्ताा तथा प्रशासन की अकुशलता से जीवन नर्क बन जाएगा।'

इन सब मसलों से जूझने के लिए संस्थाएं है- अदालतें है, चुनाव आयोग है, सतर्कता आयुक्त है। आरटीआई कानून उन सब संस्थाओं के काम में सहायक बने, जन-सतर्कता के माध्यम से- यह अभियान का उद्देश्य होना चाहिए। सरकार, गैर-सरकारी इकाइयां और जनता, तीनों साथ-साथ सत्य की पटरी पर चलें। तब ही आरटीआई कानून को सफलता मिलेगी। गांधी ने लोगों को आवाज दी थी। शहीद भगत सिंह ने बंद कानों को खोला था। आरटीआई कानून का राष्ट्रीय अभियान यही काम करे। ऐसा मेरा विश्वास है।
सूरदास के शब्दों में-
जाके कृपा पंगु गिरि लंघै,
अंधौ को सब कछु दरिसाई।
बहिरौ सुनै, गूंग पुनि बोले,
रंक चलै सिर छत्र धराई॥
(लेखक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल और महात्मा गांधी के पौत्र है)
(नई दिल्ली के तीन मूर्ति भवन में सूचना के अधिकार कानून के लिए राष्ट्रीय अभियान में 29 सितंबर 07 को दिए गए उद्बोधन के संपादित अंश।)

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