भारत में पहली “विश्व बैंक समूह पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण”का फैसला

ज्यूरी द्वारा प्राथमिक जांच

हम 12 ज्यूरी सदस्यों ने पूरे भारत के प्रभावित लोगों, 60 जमीनी विशेषज्ञों और अकादमिकों, समाजसेवी समूहों और समुदायों के साक्ष्यों और बयानों को चार दिनों से सुना है। 26 भिन्न-भिन्न आर्थिक और सामाजिक विकास के क्षेत्रों से, जिसका फैलाव मैक्रो अर्थशास्त्र से आर्थिक नीतियों तक है; के समुदायों के प्रतिनिधियों ने बयान दिया कि विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाएं उन्हें नुकसान पहुंचाती हैं और निर्धन बनाती हैं। हमारे सदस्यों में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीश, वकील, लेखक वैज्ञानिक, धार्मिक नेता, भारत सरकार के पूर्व अधिकारी शामिल हैं। हमने नोट किया कि विश्व बैंक के दिल्ली कार्यालय ने दो सप्ताह पहले न्यायाधिकरण में शामिल होने का आमंत्रण प्राप्त कर लिया था, लेकिन उन्होंने प्रक्रिया में शामिल होने में रुचि नहीं दिखाई।
पहला और सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य और बयान जो हम लोगों के सामने दिखा कि 1991 के बाद से बने आर्थिक स्थिति में बढ़ते और अनावश्यक मानवीय समस्याओं की भयावह और दिलदहलाने वाला चित्र पेश करते हैं, जिसमें भारत के करोड़ों गरीब और गांवों-शहरों के दलित शामिल हैं। यह हमारे लिए स्पष्ट है कि विश्वबैंक द्वारा वित्त पोषित और समर्थित भारत सरकार की अनेक नीतियां और परियोजनाएं इस गरीबी और बीमारी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से और बढ़ा रही हैं। यह सब तब हो रहा है जब भारत का एक छोटा वर्ग जो अमीरों और मध्यमवर्गीयों से बना है। इस सहसावृद्धि की आर्थिक स्थिति से लाभ उठा रहा है।
इस बीमारी का सबसे दुखद सूचक 1990 के बाद किसानों की बढ़ती आत्महत्या है। केवल 2001 से 2007 तक भारत के कृषि मंत्रालय के अनुसार 1,37000 गरीब किसानों ने आत्महत्या की है। ये आत्महत्याएं निरुद्देश्य नहीं की गई हैं, जो साक्ष्य हमने सुने केंद्र और राज्यों द्वारा सब्सिडी में कमी, गरीब किसानों के लिए जल सिंचाई, विद्युत ऊर्जा और बीजों की उच्च लागत, कृषि संबंधी सामानों पर सब्सिडी में कमी, गरीबों के लिए कम ब्याज के ऋण् तक पहुंच में कमी और कृषिजन्य उत्पादों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलना महत्वपूर्ण है। भारतीय किसानों को अब भारी सब्सिडी वाले यूरोपीय संघ और उत्तर अमेरिका के एग्री-फार्मों से होने वाले आयात से मुकाबला करना पड़ता है, जबकि इसी समय गरीब किसानों के लिए आवश्यक राज्य द्वारा दी जाने वाली सहायता कम की जी रही है। कभी खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर रहने वाले भारत की खाद्य सुरक्षा आयात पर निर्भर हो गई है। यह हमारे सामने स्पष्ट है कि विश्व बैंक की आर्थिक पुनर्संरचना, ढांचागत समायोजन व्यवस्था और क्षेत्रीय कर्ज; इन आर्थिक नीतियों के बदलाव को सीधे प्रोत्साहित और मदद करती हैं, जो भारत के 70 करोड़ ग्रामीण आबादी और सभी गरीब किसानों के लिए एक आपदा है।
दूसरा, विश्व बैंक का कर्ज स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्रों में आंशिक निजीकरण के साथ-साथ, संस्थानों को उपयोगकर्ता-शुल्क के लिए बढ़ावा देती हैं। कर्ज की नीतियों जो भी औचित्य हमने सुने कि कैसे व्यवहार में वे सब की सब गरीबों के लिए नुकसानदेह हैं। विश्व बैंक ऐसे वैधानिक और नियम के बदलाव को प्रोत्साहित करता है जिसका मुख्य उद्देश्य भारत के बहुसंख्य गरीब के मार्मिक आजीविका और पर्यावरण की रक्षा के बदले उद्योगों और निवेशकों के सामाजिक और पर्यावरणीय जटिलताओं के बोझ को कम करना प्रतीत होता है। विश्व बैंक की ज्यादातर निर्धारित किया नीतिगत सुधार - नीतियों में ''सुधार'' का प्रभाव : भारतीय राज्य की प्राथमिकताओं, गरीबों और पिछड़ों के लिए एक सुरक्षित स्थिति के बजाय, घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय निगमों और निवेशकों को सुरक्षा उपलब्ध कराना प्रतीत होता है।

हमने सबसे गरीब दलित और आदिवासी समुदायों के बयान सुने जो विश्व बैंक के वित्तीय परियोजनाओं के कारण जबरन विस्थापन से इन समुदायों के गरीबों से अभावग्रस्तता की ओर जाने की सच्चाई बयां करते है। ऐसी अनेक बदनाम परियोजनाएं हैं जिसके खिलाफ ये समुदाय वर्षों से आवाज उठा रहे हैं। सिंगरौली में तापीय ऊर्जा के विकास के लिए बैंक के भारी ऋण ने उन लाखों गरीबों को विस्थपित किया, जो अपने आर्थिक पुनर्वास और पर्यावरण में सुधार के लिए आवाज उठा रहे थे, लेकिन इनकी आवाज न तो विश्व बैंक ने सुनी और न उसके कर्जदार भारत सरकार की एनटीपीसी ने। हमने उन सैंकड़ों परिवारों की अर्जी सुनी जो बैंक द्वारा वित्त पोषित कोयला क्षेत्र पुनर्वास परियोजना में विस्थापन से निर्धन हुए हैं जो अलग से बैंक कोयला क्षेत्र पर्यावरण और सामाजिक शांति परियोजना में आवेदन किए हुए हैं। यद्यपि बैंक की ही अपनी स्वतंत्र जांच समिति ने 2002 में पाया कि बैंक प्रबंधन अपनी खुद की पर्यावरण और पुनर्वास नीति का 37 बार अतिक्रमण कर चुका था। तथापि बैंक प्रबंधन ने इन परिवारों की दशा में सुधार के लिए कोई प्रभावी प्रयास नहीं किया। ये उदाहरण बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, आधारभूत संरचनाओं और परियोजनाओं जो बैंक द्वारा प्रत्यक्ष वित्तपोषण एवं भारत के गरीबों और दलितों के विस्थापन के नमूने मात्र हैं। बैंक ने बड़े पैमाने की योजनाओं के वित्तपोषण को बढ़ाने की इच्छा की घोषणा की है, जबकि ठीक इसी समय इसके पर्यावरणीय और सामाजिक क्रियान्वयन के बड़े पैमाने पर असफल होने के स्पष्ट प्रमाण हैं।
एक बुरा प्रभाव जो हमने प्रतिनिधियों से प्राप्त किया है वह है विश्व बैंक ऐसी नीतियों को बनाने की कला का विकास किया है, जिसकी सुरक्षा-कारक सिर्फ कागज पर होते हैं। इसने एक ऐसी भाषा के खेल का विकास किया है, जिसमें सशक्तीकरण जैसे शब्द जो वास्तविक रूप से असशक्तीकरण; स्थायी का अर्थ, अस्थायी; सार्वजनिक-निजी साझीदार (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) जिसका उपयोग उद्देश्य निजीकरण को बढ़ावा देना होता है।
इतने छोट फैसले में प्राथमिक बयानों को जो हमने पिछले चार दिनों में सुने; के आधार पर न्याय करना असंभव है जो साक्ष्यों और विशेषज्ञ प्रतिनिधियों एवं प्रत्यक्षदर्शियों ने दिए हैं। प्राधिकरण आने वाले सप्ताहों में और विस्तार से तथ्यों की जांच और प्राप्ति करेगी। इन सब से जो निकलता है- वह एक ऐसी संस्था का चित्र है किसका प्रभाव अर्थशास्त्रीय और सामाजिक नीति पर का भारतीय की सरकार पर कर्ज की अपेक्षा कुछ अधिक बड़ा है उसका प्रदान करने~का सूचित कर सकता है।
भारत सरकार निश्चित रूप से उन सभी समस्याओं के लिए बराबर जिम्मेदार है जो हमने देखे। वस्तुत: प्रमुख मंत्रालयों के मसलन वित्त और योजना के अधिकारियों की बड़ी संख्या या तो आईएमएफ या विश्व बैंक के लिए काम करते हैं या अपनी योजनाओं और पूर्वग्रहों को उनमें बांटते हैं। सभी नीतियों और विशिष्ट निवेशों जो वृध्दि और विकास के नाम पर हो रहे हैं हमारे समाज में दलित समूहों या अमानवीय क्रूर प्रभावों के लिए जिम्मेदार हैं।
हम भारत सरकार को जिम्मेदार मानते हैं और नीतियों में बदलाव की मांग करते हैं। भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को मिलकर विश्व बैंक को ऐसी नीतियों और परियोजनाओं के लिए जिम्मेदार बनाएं जो गरीबों की गरीबी समाप्त करने के प्रति सीधे विरोधाभासी हैं।

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