बाजारीकरण के दौर में डिण्डोरी जिले के सिलपिड़ी गांव की बैगा आदिम जनजाति की महिलाओं ने उन प्रभावशाली ताकतों के सामने एक नई मानवीय चुनौती पेश की है जो सामाजिक-आर्थिक सत्ताा को अपने हाथ में रखने के लिये बाजार का सहारा ले रहे हैं। जहां एक ओर यह साफ नजर आता है कि तरह-तरह के प्रलोभनों से गरीब आदिवासियों के हर परिवार को कर्जदार बना दिये जाने के प्रयास हो रहे हैं तो दूसरी ओर छोटी-छोटी बचत की प्रवृत्ति को भी खत्म कर दिया जा रहा है। इसके साथ ही बाजार की ताकतें जानती हैं कि जब तक गांव के समाज की कृषि व्यवस्था सदृढ़ है तब तक समाज अन्याय की प्रतिक्रिया करने में सक्षम है। इसी लिए नकद लाभ के सपने बेचकर उन्होंने कारखाने में बने बीजों का बाजार खड़ा करके देशी बीजों का अस्तित्व ही लगभग मिटा दिया था परन्तु यहां पर बैगा महिलायें देशी बीजों को भी बचाने में जुटी हुई हैं।
.
कर्ज से मुक्ति और पारम्परिक बीजों की सुरक्षा के यह संघर्ष अलग-अलग नहीं हैं बल्कि दोनों का परस्पर सम्बन्ध बहुत गहरा है। बैगा महिलाओं के लक्ष्मी समूह की सक्रिय सदस्य फूलवती बाई कहती हैं कि जब हमारे पारम्परिक बीज खत्म हुये तभी हमारा उत्पादन खत्म हुआ और पहली बार हमें भूखे सोना पड़ा। भूख की इस पीड़ा को मिटाने के लिये बैगओं को साहूकारों की शरण में जाना पड़ा। अब गांव की पूरी अर्थव्यवस्था साहूकारों के आसपास घूमने लगी। कारण स्पष्ट हैं कि खेती के लिये बीजों का कर्ज भी वे ही देते हैं और घर की जरूरत को पूरा करने के लिये नकद कर्ज भी। चैतीबाई बताती हैं कि साल भर में बैगा तीन महीने की खाने की जरूरत कनकी (चावल की टुकड़ी) लेकर पूरा करते हैं। यह शोषण की चरम व्यवस्था है। बैगा पांच किलो कनकी के कर्ज (कीमत-25 रूपये) के एवज में दस किलो रमतिला (कीमत-150 रूपये) चुकाते हैं। जब कोई व्यक्ति नकद कर्ज लेता है तो उसे एक साल का 120 प्रतिशत ब्याज चुकाना पड़ता है। गांव में ऐसे 4 परिवार हैं जिन्होंने 500 रूपये का कर्ज लिया था पर पांच साल में भी वह चुकता नहीं हो पाया और मूलधन ज्यों का त्यों है। साहूकार सिलपिड़ी में ही नहीं रहते हैं बल्कि हर साप्ताहिक बाजार के दौरान चार दिन गांवों में खुद जाते हैं और हर परिवार में जाकर बिना जरूरत के भी कनकी की बोरी रख जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि बैगा को दिये गये कर्ज में कोई जोखिम नहीं है। गुलबसिया बाई तो हाट में कई बार इसी करण नहीं जाती थी कि साहूकार जबरदस्ती कर्ज दे देगा परन्तु फिर भी वह घर आकर अनाज रख जाता।
.
पारम्परिक व्यवस्था के अनुसार बैगा आदिवासी धरती को मां के रूप में स्वीकार करता है जिसके सीने पर हल नहीं चलाया जा सकता है। ऐसे में उसकी खेती की व्यवस्था ही ऐसी बनी जिसमें बिना हल वाली कोदो-कुटकी जैसी पारम्परिक फसल को अपनाया। इस फसल के बीज सामान्य रूप से खेत में छिड़क दिये जाते हैं और बिना हल-बिना पानी के कोदो-कुटकी की फसल लहलहाने लगती है। इसी उत्पादन में से कुछ बीज बनाकर वे अगली फसल के लिए सुरक्षित रख लेते थे परन्तु बाजार के लोगों को यह व्यवस्था स्वीकार नहीं हुई और सुनियोजित ढंग से नकद फसलों को इन इलाको में भी प्रोत्साहित किया जाने लगया। सरकार ने भी पारम्परिक कृषि और सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने में बाजार का हर संभव-असंभव सहयोग दिया है। परिणाम यह हुआ कि 20 हजार बैगा परिवार में से एक भी कर्ज मुक्त परिवार खोज पाना नामुमकिन हो गया।
.
ऐसे उदाहरण असंख्य हैं जब कर्ज चुकाने के लिये उन्हें अपने घर के ओढ़ने-बिछाने के कपड़ो, बर्तन से लेकर जेवर तक सब कुछ साहूकारों को सौंप देना पड़ता है। महिलाओं का नेतृत्व संभालने वाली जयंतिबाई कहती हैं कि हमारा समाज खेती अपनी जरूरत को पूरा करने के लिये करता था खजाना भरने या लालच को पूरा करने के लिये नहीं। परन्तु अब तो पेट की जरूरत को पूरा करना ही सबसे कठिन काम हो गया। ऐसे में बैगा महिलाओं ने तय किया कि वे थोड़ा-थोड़ा बीज इकट्ठा करके अपना सामुदायिक बीज भण्डार बनायेंगी और इस बीज भण्डार में केवल पापरम्परिक बीज ही संरक्षित किये जायेंगे। 68 किलो बीजों की पहली बचत के साथ शुरू हुए पहली बचत के साथ शुरू हुये इस प्रयास में साढ़े आठ क्विंटल बीज (कोदो, कुटकी, राई, रमतीला और धान) जमा हुये और 236 किलो बीज कर्ज पर बंटा हुआ है। इसे स्थाई और विस्तार देने के लिये बैगा महिला समूह ने व्यवस्था बनाई कि जो भी समूह का सदस्य 5 किलो बीज कर्ज पर लेगा वह 6 किलो बीज जमा करेगा। परन्तु समूह के बाहर के व्यक्ति को 7 किलो बीज वापस करना होगा। गांव की दूसरी महिलाएं मानती हैं कि अभी तो कर्ज लेकर भी कोई चिंता नहीं होती है क्योंकि साहूकारों से तो बचे रह सकते हैं। अपनी खुद की व्यवस्था बनाने में उन्हें नेशनल इंस्टीटयूट फॉर विमेन, चाईल्ड एण्ड यूथ डेवलपमेन्ट की मदद मिली है। इन परिस्थितियों में ही सिलपिड़ी गांव में महिलाओं के समूह ने अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को और छोटा करके पांच हजार रूपये इकट्ठे किये और इसे धीरे-धीरे बढ़ाने की कोशिशें शुरू कीं। यह भी तय हुआ कि अपनी जरूरतों के लिय गांव के लोग इसी बैंक से कर्ज ले सकेंगे।
.
सबसे खास बात यह है कि यह समूह ''दुख'' के मौकों, जैसे - मृत्यु या बीमारी, के लिये दिये जाने वाले कर्ज पर ब्याज नहीं लेना है। वह मानते हैं कि लेन-देन की यह व्यवस्था मानवीय भावनाओं से ऊपर नहीं हो सकती हैं और हमें कहीं न कहीं शोषण करने वाले साहूकारों या सरकार से अलग अपनी पहचान बनानी होगी। इस समूह से जब गांव वाले शादी त्यौहार के लिए कर्ज लेते हैं तो उन्हें दो प्रतिशत ब्याज चुकाना होता है। बैगा महिलायें मानती हैं कि अभी संगठन को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। निरक्षर होने के कारण उनें बहुत बार दूसरों के सामने झुकना पड़ा। इसलिए अब वे पढ़ रही हैं। फिर जब उन्होंने गरीबी की रेखा के कार्ड का मसला ग्रामसभा में उठाया तो पंचायत सचिव उनके विरोध में हो गया और यह कह कर पुरूषों के अहं को जगाने की कोशिश की कि अब तो बैगाओं में ''टूरी राज'' (औंरतों का राज) होगा और समूह की एक महिला कर्ज लेगी परन्तु डिफाल्टर सारी महिलायें होंगी। यहां तक भी कहा गया कि कर्ज न चुकने पर साहूकार तो मोहलत भी दे देता है पर बैंक तो सीधे नीलामी करेगा। कई सालों तक शोषण के शिकार रही इस पिछड़ी हुई आदिम जनजाति को ऐसे कई डरावने विश्लेषणों का सामना करना पड़ रहा है।
.
इस वक्त उन्हें सरकार की उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। समूह छोटा सा है और समूह की बचत भी छोटी सी है परन्तु इसे जमा करने के लिये उन्हें 25 किलोमीटर दूर बजाग के सेवा सहकारी बैंक तक जाना पड़ता है। जिससे 26 रूपये तो किराये में ही खर्च हो जाते हैं तीन किलोमीटर की दूरी पर बसे चाड़ा में पहले कभी पंजाब नेशनल बैंक होता था पर व्यापार में कमी के कारण बंद हो गया। फिर साप्ताहिक बाजार के दिन बैंक का एक कर्मचारी धन जमा और निकासी करने के लिये आने लगा, परन्तु बैगाओं को उसका भी सहारा नहीं मिला। बैंक बैगा आदिवासियों से धन केवल जमा करता है उन्हें ऋण नहीं देता क्योंकि बैंक मानते हैं कि उनका दिया हुआ कर्ज वापस नहीं आयेगा। यह अपने आप में एक अपमानजनक पूर्वाग्रह है। इस पूरे वातावरण में शोषण के खिलाफ संघर्ष, मूल्यों के प्रति ईमानदारी और संवेदनशीलता उनकी विचारधारा है। ये महिलायें मानती हैं कि जब हम समझते हैं तो हमें बोलना भी पड़ेगा और जब बोलेंगे तो संघर्ष के लिये भी तैयार रहना पड़ेगा तभी तो जी पायेंगे। वास्तव में आज के दौर में जिस तरह से हर कण हर व्यवस्था का बाजारीकरण हो रहा है, उस दौर में इन बैगा महिलाओं ने इस अमानवीय व्यवस्था के सामने नई चुर्नातियाँ खड़ी करना तो शुरू कर ही दिया है। क्या हम उनके साथ है ?
.
कर्ज से मुक्ति और पारम्परिक बीजों की सुरक्षा के यह संघर्ष अलग-अलग नहीं हैं बल्कि दोनों का परस्पर सम्बन्ध बहुत गहरा है। बैगा महिलाओं के लक्ष्मी समूह की सक्रिय सदस्य फूलवती बाई कहती हैं कि जब हमारे पारम्परिक बीज खत्म हुये तभी हमारा उत्पादन खत्म हुआ और पहली बार हमें भूखे सोना पड़ा। भूख की इस पीड़ा को मिटाने के लिये बैगओं को साहूकारों की शरण में जाना पड़ा। अब गांव की पूरी अर्थव्यवस्था साहूकारों के आसपास घूमने लगी। कारण स्पष्ट हैं कि खेती के लिये बीजों का कर्ज भी वे ही देते हैं और घर की जरूरत को पूरा करने के लिये नकद कर्ज भी। चैतीबाई बताती हैं कि साल भर में बैगा तीन महीने की खाने की जरूरत कनकी (चावल की टुकड़ी) लेकर पूरा करते हैं। यह शोषण की चरम व्यवस्था है। बैगा पांच किलो कनकी के कर्ज (कीमत-25 रूपये) के एवज में दस किलो रमतिला (कीमत-150 रूपये) चुकाते हैं। जब कोई व्यक्ति नकद कर्ज लेता है तो उसे एक साल का 120 प्रतिशत ब्याज चुकाना पड़ता है। गांव में ऐसे 4 परिवार हैं जिन्होंने 500 रूपये का कर्ज लिया था पर पांच साल में भी वह चुकता नहीं हो पाया और मूलधन ज्यों का त्यों है। साहूकार सिलपिड़ी में ही नहीं रहते हैं बल्कि हर साप्ताहिक बाजार के दौरान चार दिन गांवों में खुद जाते हैं और हर परिवार में जाकर बिना जरूरत के भी कनकी की बोरी रख जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि बैगा को दिये गये कर्ज में कोई जोखिम नहीं है। गुलबसिया बाई तो हाट में कई बार इसी करण नहीं जाती थी कि साहूकार जबरदस्ती कर्ज दे देगा परन्तु फिर भी वह घर आकर अनाज रख जाता।
.
पारम्परिक व्यवस्था के अनुसार बैगा आदिवासी धरती को मां के रूप में स्वीकार करता है जिसके सीने पर हल नहीं चलाया जा सकता है। ऐसे में उसकी खेती की व्यवस्था ही ऐसी बनी जिसमें बिना हल वाली कोदो-कुटकी जैसी पारम्परिक फसल को अपनाया। इस फसल के बीज सामान्य रूप से खेत में छिड़क दिये जाते हैं और बिना हल-बिना पानी के कोदो-कुटकी की फसल लहलहाने लगती है। इसी उत्पादन में से कुछ बीज बनाकर वे अगली फसल के लिए सुरक्षित रख लेते थे परन्तु बाजार के लोगों को यह व्यवस्था स्वीकार नहीं हुई और सुनियोजित ढंग से नकद फसलों को इन इलाको में भी प्रोत्साहित किया जाने लगया। सरकार ने भी पारम्परिक कृषि और सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने में बाजार का हर संभव-असंभव सहयोग दिया है। परिणाम यह हुआ कि 20 हजार बैगा परिवार में से एक भी कर्ज मुक्त परिवार खोज पाना नामुमकिन हो गया।
.
ऐसे उदाहरण असंख्य हैं जब कर्ज चुकाने के लिये उन्हें अपने घर के ओढ़ने-बिछाने के कपड़ो, बर्तन से लेकर जेवर तक सब कुछ साहूकारों को सौंप देना पड़ता है। महिलाओं का नेतृत्व संभालने वाली जयंतिबाई कहती हैं कि हमारा समाज खेती अपनी जरूरत को पूरा करने के लिये करता था खजाना भरने या लालच को पूरा करने के लिये नहीं। परन्तु अब तो पेट की जरूरत को पूरा करना ही सबसे कठिन काम हो गया। ऐसे में बैगा महिलाओं ने तय किया कि वे थोड़ा-थोड़ा बीज इकट्ठा करके अपना सामुदायिक बीज भण्डार बनायेंगी और इस बीज भण्डार में केवल पापरम्परिक बीज ही संरक्षित किये जायेंगे। 68 किलो बीजों की पहली बचत के साथ शुरू हुए पहली बचत के साथ शुरू हुये इस प्रयास में साढ़े आठ क्विंटल बीज (कोदो, कुटकी, राई, रमतीला और धान) जमा हुये और 236 किलो बीज कर्ज पर बंटा हुआ है। इसे स्थाई और विस्तार देने के लिये बैगा महिला समूह ने व्यवस्था बनाई कि जो भी समूह का सदस्य 5 किलो बीज कर्ज पर लेगा वह 6 किलो बीज जमा करेगा। परन्तु समूह के बाहर के व्यक्ति को 7 किलो बीज वापस करना होगा। गांव की दूसरी महिलाएं मानती हैं कि अभी तो कर्ज लेकर भी कोई चिंता नहीं होती है क्योंकि साहूकारों से तो बचे रह सकते हैं। अपनी खुद की व्यवस्था बनाने में उन्हें नेशनल इंस्टीटयूट फॉर विमेन, चाईल्ड एण्ड यूथ डेवलपमेन्ट की मदद मिली है। इन परिस्थितियों में ही सिलपिड़ी गांव में महिलाओं के समूह ने अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को और छोटा करके पांच हजार रूपये इकट्ठे किये और इसे धीरे-धीरे बढ़ाने की कोशिशें शुरू कीं। यह भी तय हुआ कि अपनी जरूरतों के लिय गांव के लोग इसी बैंक से कर्ज ले सकेंगे।
.
सबसे खास बात यह है कि यह समूह ''दुख'' के मौकों, जैसे - मृत्यु या बीमारी, के लिये दिये जाने वाले कर्ज पर ब्याज नहीं लेना है। वह मानते हैं कि लेन-देन की यह व्यवस्था मानवीय भावनाओं से ऊपर नहीं हो सकती हैं और हमें कहीं न कहीं शोषण करने वाले साहूकारों या सरकार से अलग अपनी पहचान बनानी होगी। इस समूह से जब गांव वाले शादी त्यौहार के लिए कर्ज लेते हैं तो उन्हें दो प्रतिशत ब्याज चुकाना होता है। बैगा महिलायें मानती हैं कि अभी संगठन को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। निरक्षर होने के कारण उनें बहुत बार दूसरों के सामने झुकना पड़ा। इसलिए अब वे पढ़ रही हैं। फिर जब उन्होंने गरीबी की रेखा के कार्ड का मसला ग्रामसभा में उठाया तो पंचायत सचिव उनके विरोध में हो गया और यह कह कर पुरूषों के अहं को जगाने की कोशिश की कि अब तो बैगाओं में ''टूरी राज'' (औंरतों का राज) होगा और समूह की एक महिला कर्ज लेगी परन्तु डिफाल्टर सारी महिलायें होंगी। यहां तक भी कहा गया कि कर्ज न चुकने पर साहूकार तो मोहलत भी दे देता है पर बैंक तो सीधे नीलामी करेगा। कई सालों तक शोषण के शिकार रही इस पिछड़ी हुई आदिम जनजाति को ऐसे कई डरावने विश्लेषणों का सामना करना पड़ रहा है।
.
इस वक्त उन्हें सरकार की उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। समूह छोटा सा है और समूह की बचत भी छोटी सी है परन्तु इसे जमा करने के लिये उन्हें 25 किलोमीटर दूर बजाग के सेवा सहकारी बैंक तक जाना पड़ता है। जिससे 26 रूपये तो किराये में ही खर्च हो जाते हैं तीन किलोमीटर की दूरी पर बसे चाड़ा में पहले कभी पंजाब नेशनल बैंक होता था पर व्यापार में कमी के कारण बंद हो गया। फिर साप्ताहिक बाजार के दिन बैंक का एक कर्मचारी धन जमा और निकासी करने के लिये आने लगा, परन्तु बैगाओं को उसका भी सहारा नहीं मिला। बैंक बैगा आदिवासियों से धन केवल जमा करता है उन्हें ऋण नहीं देता क्योंकि बैंक मानते हैं कि उनका दिया हुआ कर्ज वापस नहीं आयेगा। यह अपने आप में एक अपमानजनक पूर्वाग्रह है। इस पूरे वातावरण में शोषण के खिलाफ संघर्ष, मूल्यों के प्रति ईमानदारी और संवेदनशीलता उनकी विचारधारा है। ये महिलायें मानती हैं कि जब हम समझते हैं तो हमें बोलना भी पड़ेगा और जब बोलेंगे तो संघर्ष के लिये भी तैयार रहना पड़ेगा तभी तो जी पायेंगे। वास्तव में आज के दौर में जिस तरह से हर कण हर व्यवस्था का बाजारीकरण हो रहा है, उस दौर में इन बैगा महिलाओं ने इस अमानवीय व्यवस्था के सामने नई चुर्नातियाँ खड़ी करना तो शुरू कर ही दिया है। क्या हम उनके साथ है ?
1 टिप्पणी:
सचिन जी आप का लेख और महिला समूहों के कार्य और कठिनाईयों के बारे में पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. आप के काम की सफलता के लिए शुभकामनाएँ.
एक टिप्पणी भेजें