90 के दशक में टिटनेस वैक्सीन के खिलाफ बहुत से आन्दोलन हुए। निकारागुआ, मैक्सिकों ओर फिलीपींस में मुख्य रूप् से वैक्सीन के खिलाफ आवाज उठाई गई। मैक्सिको की एक समिति ''कमिटि' प्रो विडा द मैक्सिको' ने आन्दोलनों से प्रभावित होकर ही वैक्सीन के कुछ सैम्पल लिए और केमिस्ट से उनका परीक्षण कराया। उनमें से कुछ वैक्सीन में (एच सी जी) हयूमैन कोरिओनिक गोनाडोट्रफिन पाया गया, यह गर्भधारण के लिये आवश्यक प्राकृतिक हारमोन है।
एचसीजी और एचसीजी रोधी प्रतिरक्षी- एचसीजी हारमोन प्राकृतिक रूप् से यह बताता है कि कोई स्त्री गर्भवती है या नहीं, इसके अतिरिक्त यह गर्भनाल में प्रसव के लिए आवश्यक हारमोंस को छोड़कर अन्य सभी को हटा देता है। एचसीजी का बढ़ता हुआ स्तर गर्भावस्था को निश्चित करता है। आमतौर पर जब महिलाएं गर्भधारण का परीक्षण कराती हैं तो वह परीक्षण एचसीजी की उपस्थिति जानने के लिए ही किया जाता है।
लेकिन जब एचसीजी को टिटनेस टॉक्सोइड के साथ शरीर में पहुंचाया जाता है तब न केवल टिटनेस प्रतिरोधी पैदा होने लगते हैं बल्कि एचसीजी के प्रतिरोधी भी पैदा होने लगते हैं और तब शरीर को यह संज्ञान ही नहीं हो पाता कि एचसीजी उसके भले के लिए है या बुरे के लिए, ऐसे में एचसीजी रोधी प्रतिरक्षी बनने लगेंगे। ये प्रतिरोधी ही एचसीजी ही गर्भावस्था के लिए आवश्यक है। जब एचसीजी प्रतिरोधियों का स्तर काफी बढ़ जाता है तो स्त्रियां गर्भ धारण नहीं कर पातीं।
मैक्सिकों की टिटनेस वैक्सीन के बारे में एचएचआई ने अपने वर्ल्ड कौंसिल और अन्य देशों के सम्बध्द सदस्यों को रिपोर्ट देते हुए तथ्यों का खुलासा किया। इसके बाद फिलीपींस से भी इस तरह की खबरें मिलने लगीं कि टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी हारमोंस है क्योंकि फिलीपींस में 3.4 मिलियन महिलाओं को यह वैक्सीन दी गई थीं जल्दी ही निकारागुआ में भी यह जंगल की आग की तरह फैलने लगी और वहां भी 1993 में इसके खिलाफ आंदोलन के स्वर गूंजने लगे।
मैक्सिको और फिलीपींस में आंदोलनों ने टिटनेस वैक्सीन पर अनेक सवालिया निशान लगा दिये। केवल महिलाओं को ही यह वैक्सीन दी जाती है उनमें भी 15 से 45 वर्ष की आयु की महिलाएं इसके मुख्य शिकार हैं, निकरागुआ में तो यह आयु 12 से 49 वर्ष है। लेकिन क्या महिलाओं की तरह पुरुष टिटनेस का शिकार नहीं होते? क्या बच्चे इसके शिकार नहीं होते? तो फिर उन्हें क्यों छोड़ दिया जाता है? केवल महिलाओं को ही टिटनेस वैक्सीन क्यो?
दूसरे, एचसीजी का वैक्सीन से कोई संबंध नहीं है फिर भी यह टिटनेस वैक्सीन में पाया गया, जिसे ओ. जे. सिम्पसन हत्या केस में न्यायालय के शब्दों में ''वैक्सीन में मिलावट'' (संक्रमण) कहा गया।
महिलाओं को टिटनेस वैक्सीन के लिए अनेक इंजेक्शन दिये जाते हैं- तीन इंजेक्शन तीन माह के अन्दर और फिर कुल मिलाकर पांच दिये जाते हैं लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि जब टिटनेस वैक्सीन एक बार लिए जाने पर 10 या ज्यादा सालों के लिए टिटनेस से रक्षा कर सकती है तो फिर इतने सारे इंजेक्शन की क्या जरूरत है?
डब्ल्यू एच ओ 20 से भी ज्यादा सालों से टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी का प्रयोग कर प्रजनन क्षमता विरोधी काम में लगा हुआ है। डब्ल्यूएचओ के साथ मिलकर यूएनएफपीए, यूएनडीपी, डब्ल्यूबी, पोपुलेशन कौंसिल, रोक्फीलर फाउंडेशन, एआईआईएमएस और बहुत से विश्वविद्यालय (हेलसिंकी), उप्पसला और ओहियो) भी प्रजनन क्षमता-विरोधी काम में लगे हुए हैं। अमरीका का 'नेशनल इंस्टीटयूट ऑव चाइल्ड हेल्थ एण्ड हयूमैन डेवलपमेन्ट' प्रजनन-क्षमता विरोधी वैक्सीन के प्रयोग के लिए एचसीजी का सबसे बड़ा सप्लायर था।
1972 में डब्ल्यूएचओ ने मानवीय प्रजनन पर अपना 'विशेष कार्यक्रम' शुरू किया और 1993 तक इससे सम्बध्द 'स्वास्थ्य शोध' पर 356 मिलियन डालर खर्च किए। यही पहला ऐसा कार्यक्रम था जिससे प्रजनन क्षमता विरोधी वैक्सीन का विकास हुआ। इस कार्यक्रम के लिए स्वीडन ने 90 मिलियन डालर से भी ज्यादा फण्ड दिया, ग्रेटब्रिटेन ने 52 मिलियन डालर से अधिक जबकि नार्वे, डेनमार्क और जर्मनी ने क्रमश: 41 मिलियन, 27 मिलियन और 12 मिलियन डालर का योगदान दिया। अमरीका से रीगन-बुश प्रशासन के दौरान केवल 5.7 मिलियन डालर की सहायता दी गई जो पुन: 1993 में क्लिंटन प्रशासन द्वारा 2.5 मिलियन डालर और दिया गया। इसके अतिरिक्त डब्ल्यूएचओ के कार्यक्रम में यूएनएफपीए ने 61 मिलियन, फोर्ड फाउंडेशन 1 मिलियन से ज्यादा और आईडीआरसी कनाडा ने 716.5 हजार डालर की वित्ताीय सहायता दी।
जब पहली बार फिलीपींस में टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी के होने की खबरें फैली, तो डब्ल्यूएचओ और फिलीपींस के स्वास्थ्य विभाग ने इन्हें नकार दिया। चार में से तीन सेम्पलों में एचसीजी पाए जाने पर भी डब्ल्यूएचओ और डीओएच ने 'राइट टू लाइफ और कैथोलिक' स्रोतों के प्रमाणों का मजाक उडाया। मनीला के सेंट ल्यूक के मेडिकल सेन्टर द्वारा भी किये गए परीक्षणों में सकारात्मक परिणाम ही सामने आए। लेकिन अब डब्ल्यूएचओ और डीओएच ने सच को नकारने के लिए एक नया तर्क निकाल लिया कि वैक्सीन में उपस्थित एचसीजी वोल्यूम इतना कम है कि उससे एचसीजी-रोधी प्रतिरोधी नहीं बन सकते।
तभी फिलीपींस के 'लाइफ और कैथोलिक' ग्रुप ने स्त्रियों के रक्त में एचसीजी प्रतिरोधियों की उपस्थिति की जांच शुरू कर दी। जिन महिलाओं को टिटनेस वैक्सीन दी गई उनमें 30 में से 26 महिलाओं में एचसीजी रोधी का स्तर ऊंचा पाया गया, यदि वैक्सीन में एचसीजी नहीं थी या पर्याप्त मात्रा में नहीं थी, तो फिर उन स्त्रियों में एचसीजी रोधी कैसे पाए गए? इस सवाल का जवाब डब्ल्यूएचओ और डीओएच के पास शायद नहीं है।
सवाल का जवाब तो नहीं मिला बल्कि चोर ने ही कोतवाल को डांटना शुरू किया कि परीक्षणों के सब निष्कर्ष गलत हैं। फिर भी अगर वैक्सीन में एचसीजी है तो वह निर्माण प्रक्रिया से आई होगी। हमारा तर्क यह नहीं है कि एचसीजी कहां से, कैसे आया बल्कि टिटनेस टोक्साइड करियर की जरूरत क्या है?
शरीर स्वयं प्राकृतिक रूप से बनने वाले एचसीजी पर आक्रमण नहीं करता, बल्कि एचसीजी प्रतिरोधियों का इस्तेमाल करके सफलतापूर्वक प्रजनन-विरोधी वैक्सीन का विकास करने के लिए शरीर को एचसीजी से लड़ने के लिए भ्रमित किया जा रहा है।
पश्चिम जर्मनी में 26-29 जुलाई 1989 को रिप्रोडक्टिव इम्यूनोलॅजी पर चौथी अन्तरराष्ट्रीय कांग्रेस में प्रस्तुत पेपर में कहा गया है ''यह सब एचसीजी क्षमता को समाप्त करने के लिए किया गया था।''
अभी वैक्सीन विवाद चल ही रहा थ कि एक नया धमाका हुआ और सामने आया टिटनेस वैक्सीन कंपनियों का एक और झूठ। जिन तीन ब्राण्ड कंपनियों की वैक्सीन कई सालों से इस्तेमाल की जा रही थी उनमें से किसी के पास भी विक्रय या वितरण के लिए न तो लाइसेंस था न ही उन्होंने फिलीपींस न्यूरो ऑव फूड एण्ड ड्रग्स (बीएफएडी) में रजिस्ट्रेशन कराया था। विवादित कंपनियों में दो कनाडा की कनॉट लेबोरेट्रीज लिमिटिड और इण्टरवेक्स और सीएसएल लेबोरेट्रीज आस्ट्रेलिया से था।
शायद बीएफएडी में जांच में बहुत देरी कर दी। लकिन तभी सेक्रेटरी ऑव हेल्थ ने घोषणा की कि चूंकि ये कंपनिया डब्ल्यूएचओ से प्रमाणित हैं, अत: उनके अस्तित्व पर कोई सवाल नहीं उठता। सच तो यह है कि ये वैक्सीन निर्माता बड़ी कंपनिया थीं। यही कनॉट लेबोरेट्रीज 80 के दशक में एडस्ट सवंमित रक्त उत्पाद बेच रही थी। अफ्रीका में इसके काले कारनामों का उदाहरण देखा जा सकता है। ये सभी कंपनियां, अमरीका बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलकर प्रजनन-क्षमता विरोधी वैक्सीन के निर्माण में लगी हुई है। जिसे अगर रोका न गया तो शायद सृष्टि से मानव जाति का अंश ही मिट जाएगा।
एचसीजी और एचसीजी रोधी प्रतिरक्षी- एचसीजी हारमोन प्राकृतिक रूप् से यह बताता है कि कोई स्त्री गर्भवती है या नहीं, इसके अतिरिक्त यह गर्भनाल में प्रसव के लिए आवश्यक हारमोंस को छोड़कर अन्य सभी को हटा देता है। एचसीजी का बढ़ता हुआ स्तर गर्भावस्था को निश्चित करता है। आमतौर पर जब महिलाएं गर्भधारण का परीक्षण कराती हैं तो वह परीक्षण एचसीजी की उपस्थिति जानने के लिए ही किया जाता है।
लेकिन जब एचसीजी को टिटनेस टॉक्सोइड के साथ शरीर में पहुंचाया जाता है तब न केवल टिटनेस प्रतिरोधी पैदा होने लगते हैं बल्कि एचसीजी के प्रतिरोधी भी पैदा होने लगते हैं और तब शरीर को यह संज्ञान ही नहीं हो पाता कि एचसीजी उसके भले के लिए है या बुरे के लिए, ऐसे में एचसीजी रोधी प्रतिरक्षी बनने लगेंगे। ये प्रतिरोधी ही एचसीजी ही गर्भावस्था के लिए आवश्यक है। जब एचसीजी प्रतिरोधियों का स्तर काफी बढ़ जाता है तो स्त्रियां गर्भ धारण नहीं कर पातीं।
मैक्सिकों की टिटनेस वैक्सीन के बारे में एचएचआई ने अपने वर्ल्ड कौंसिल और अन्य देशों के सम्बध्द सदस्यों को रिपोर्ट देते हुए तथ्यों का खुलासा किया। इसके बाद फिलीपींस से भी इस तरह की खबरें मिलने लगीं कि टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी हारमोंस है क्योंकि फिलीपींस में 3.4 मिलियन महिलाओं को यह वैक्सीन दी गई थीं जल्दी ही निकारागुआ में भी यह जंगल की आग की तरह फैलने लगी और वहां भी 1993 में इसके खिलाफ आंदोलन के स्वर गूंजने लगे।
मैक्सिको और फिलीपींस में आंदोलनों ने टिटनेस वैक्सीन पर अनेक सवालिया निशान लगा दिये। केवल महिलाओं को ही यह वैक्सीन दी जाती है उनमें भी 15 से 45 वर्ष की आयु की महिलाएं इसके मुख्य शिकार हैं, निकरागुआ में तो यह आयु 12 से 49 वर्ष है। लेकिन क्या महिलाओं की तरह पुरुष टिटनेस का शिकार नहीं होते? क्या बच्चे इसके शिकार नहीं होते? तो फिर उन्हें क्यों छोड़ दिया जाता है? केवल महिलाओं को ही टिटनेस वैक्सीन क्यो?
दूसरे, एचसीजी का वैक्सीन से कोई संबंध नहीं है फिर भी यह टिटनेस वैक्सीन में पाया गया, जिसे ओ. जे. सिम्पसन हत्या केस में न्यायालय के शब्दों में ''वैक्सीन में मिलावट'' (संक्रमण) कहा गया।
महिलाओं को टिटनेस वैक्सीन के लिए अनेक इंजेक्शन दिये जाते हैं- तीन इंजेक्शन तीन माह के अन्दर और फिर कुल मिलाकर पांच दिये जाते हैं लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि जब टिटनेस वैक्सीन एक बार लिए जाने पर 10 या ज्यादा सालों के लिए टिटनेस से रक्षा कर सकती है तो फिर इतने सारे इंजेक्शन की क्या जरूरत है?
डब्ल्यू एच ओ 20 से भी ज्यादा सालों से टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी का प्रयोग कर प्रजनन क्षमता विरोधी काम में लगा हुआ है। डब्ल्यूएचओ के साथ मिलकर यूएनएफपीए, यूएनडीपी, डब्ल्यूबी, पोपुलेशन कौंसिल, रोक्फीलर फाउंडेशन, एआईआईएमएस और बहुत से विश्वविद्यालय (हेलसिंकी), उप्पसला और ओहियो) भी प्रजनन क्षमता-विरोधी काम में लगे हुए हैं। अमरीका का 'नेशनल इंस्टीटयूट ऑव चाइल्ड हेल्थ एण्ड हयूमैन डेवलपमेन्ट' प्रजनन-क्षमता विरोधी वैक्सीन के प्रयोग के लिए एचसीजी का सबसे बड़ा सप्लायर था।
1972 में डब्ल्यूएचओ ने मानवीय प्रजनन पर अपना 'विशेष कार्यक्रम' शुरू किया और 1993 तक इससे सम्बध्द 'स्वास्थ्य शोध' पर 356 मिलियन डालर खर्च किए। यही पहला ऐसा कार्यक्रम था जिससे प्रजनन क्षमता विरोधी वैक्सीन का विकास हुआ। इस कार्यक्रम के लिए स्वीडन ने 90 मिलियन डालर से भी ज्यादा फण्ड दिया, ग्रेटब्रिटेन ने 52 मिलियन डालर से अधिक जबकि नार्वे, डेनमार्क और जर्मनी ने क्रमश: 41 मिलियन, 27 मिलियन और 12 मिलियन डालर का योगदान दिया। अमरीका से रीगन-बुश प्रशासन के दौरान केवल 5.7 मिलियन डालर की सहायता दी गई जो पुन: 1993 में क्लिंटन प्रशासन द्वारा 2.5 मिलियन डालर और दिया गया। इसके अतिरिक्त डब्ल्यूएचओ के कार्यक्रम में यूएनएफपीए ने 61 मिलियन, फोर्ड फाउंडेशन 1 मिलियन से ज्यादा और आईडीआरसी कनाडा ने 716.5 हजार डालर की वित्ताीय सहायता दी।
जब पहली बार फिलीपींस में टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी के होने की खबरें फैली, तो डब्ल्यूएचओ और फिलीपींस के स्वास्थ्य विभाग ने इन्हें नकार दिया। चार में से तीन सेम्पलों में एचसीजी पाए जाने पर भी डब्ल्यूएचओ और डीओएच ने 'राइट टू लाइफ और कैथोलिक' स्रोतों के प्रमाणों का मजाक उडाया। मनीला के सेंट ल्यूक के मेडिकल सेन्टर द्वारा भी किये गए परीक्षणों में सकारात्मक परिणाम ही सामने आए। लेकिन अब डब्ल्यूएचओ और डीओएच ने सच को नकारने के लिए एक नया तर्क निकाल लिया कि वैक्सीन में उपस्थित एचसीजी वोल्यूम इतना कम है कि उससे एचसीजी-रोधी प्रतिरोधी नहीं बन सकते।
तभी फिलीपींस के 'लाइफ और कैथोलिक' ग्रुप ने स्त्रियों के रक्त में एचसीजी प्रतिरोधियों की उपस्थिति की जांच शुरू कर दी। जिन महिलाओं को टिटनेस वैक्सीन दी गई उनमें 30 में से 26 महिलाओं में एचसीजी रोधी का स्तर ऊंचा पाया गया, यदि वैक्सीन में एचसीजी नहीं थी या पर्याप्त मात्रा में नहीं थी, तो फिर उन स्त्रियों में एचसीजी रोधी कैसे पाए गए? इस सवाल का जवाब डब्ल्यूएचओ और डीओएच के पास शायद नहीं है।
सवाल का जवाब तो नहीं मिला बल्कि चोर ने ही कोतवाल को डांटना शुरू किया कि परीक्षणों के सब निष्कर्ष गलत हैं। फिर भी अगर वैक्सीन में एचसीजी है तो वह निर्माण प्रक्रिया से आई होगी। हमारा तर्क यह नहीं है कि एचसीजी कहां से, कैसे आया बल्कि टिटनेस टोक्साइड करियर की जरूरत क्या है?
शरीर स्वयं प्राकृतिक रूप से बनने वाले एचसीजी पर आक्रमण नहीं करता, बल्कि एचसीजी प्रतिरोधियों का इस्तेमाल करके सफलतापूर्वक प्रजनन-विरोधी वैक्सीन का विकास करने के लिए शरीर को एचसीजी से लड़ने के लिए भ्रमित किया जा रहा है।
पश्चिम जर्मनी में 26-29 जुलाई 1989 को रिप्रोडक्टिव इम्यूनोलॅजी पर चौथी अन्तरराष्ट्रीय कांग्रेस में प्रस्तुत पेपर में कहा गया है ''यह सब एचसीजी क्षमता को समाप्त करने के लिए किया गया था।''
अभी वैक्सीन विवाद चल ही रहा थ कि एक नया धमाका हुआ और सामने आया टिटनेस वैक्सीन कंपनियों का एक और झूठ। जिन तीन ब्राण्ड कंपनियों की वैक्सीन कई सालों से इस्तेमाल की जा रही थी उनमें से किसी के पास भी विक्रय या वितरण के लिए न तो लाइसेंस था न ही उन्होंने फिलीपींस न्यूरो ऑव फूड एण्ड ड्रग्स (बीएफएडी) में रजिस्ट्रेशन कराया था। विवादित कंपनियों में दो कनाडा की कनॉट लेबोरेट्रीज लिमिटिड और इण्टरवेक्स और सीएसएल लेबोरेट्रीज आस्ट्रेलिया से था।
शायद बीएफएडी में जांच में बहुत देरी कर दी। लकिन तभी सेक्रेटरी ऑव हेल्थ ने घोषणा की कि चूंकि ये कंपनिया डब्ल्यूएचओ से प्रमाणित हैं, अत: उनके अस्तित्व पर कोई सवाल नहीं उठता। सच तो यह है कि ये वैक्सीन निर्माता बड़ी कंपनिया थीं। यही कनॉट लेबोरेट्रीज 80 के दशक में एडस्ट सवंमित रक्त उत्पाद बेच रही थी। अफ्रीका में इसके काले कारनामों का उदाहरण देखा जा सकता है। ये सभी कंपनियां, अमरीका बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलकर प्रजनन-क्षमता विरोधी वैक्सीन के निर्माण में लगी हुई है। जिसे अगर रोका न गया तो शायद सृष्टि से मानव जाति का अंश ही मिट जाएगा।
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