नेतृत्व के श्रेष्ठ विकल्प के रूप में उभर रही हैं महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

(संदर्भ पंचायत में महिलाएँ)
एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक यथार्थ संचार के लिए बोलना और सुनना ही एक मात्र सहज उपाय है। साथ ही यह भी सही है कि बोलने व सुनने का महत्व मूक-बधिर मानव या अन्य मूक-बधिर जीवों को अधिक होता है। किसी भी बात की कमी ही उसके वास्तविक मूल्य व महत्व का भान कराती है। एक दूसरे से परस्पर संबंध बनाने के इस सहज उपाय में प्रत्येक पक्ष की बोलने व सुनने की अपनी-अपनी सीमाएं होती हैं, (उसी तरह, जिस तरह प्रकृति में प्रत्येक कण-कण की अपनी-अपनी सीमाएं हैं), उसी सीमा के तहत ये दोनों बातें अच्छी लगती हैं, समायोजित अस्तित्व का आभास कराती हैं। हमारे यहाँ तो हमेशा से सामंती शासन रहा और एक बड़ा वर्ग सुनने-सहने के लिए ही बना रहा। महिलाएँ सदैव से पुरूषों का खिलौना बनी रही और उन्हे सिर्फ गुलाम के तौर पर रखा जाता था। उन्हे ज्यादा बोलने या सुनने की मनाही थी। किंतु जैसे ही बोलने या सुनने की अपनी वर्जनाएं टूटती हैं तो कोई भूचाल नहीं आता है, कोई दृश्यगत हानि नहीं होती है, परंतु उसके द्वारा संपूर्ण परिदृश्य में मनोवैज्ञानिक बदलाव जरूर होते हैं, जो एक नए प्रकार की कुण्ठा, अवसाद को जन्म देते हैं व विद्रोह का आधार बनते हैं। एक हद तक खामोशी या सुनना भी ठीक है तथा आवाज या बोलना भी ठीक है परन्तु इनकी अति होने पर दोनों ही अन्याय व तत्पश्चात विद्रोह के हेतु बन जाती है।
स्वतंत्रता के पूर्व परतंत्रता के तहत हमें खामोश ही रहना पड़ता था, ज्यादा बोलने की मनाही थी, जैसे ही यह खामोशी या सुनने की अति हो गई तो विद्रोह हुआ व परतंत्रता से छुटकारा पाने की सोची जाने लगी। यही बात दलितों व महिलाओं के ऊपर भी लागू होती है, जिन्हें हमेशा खामोश रहने व सिर्फ सुनने के पात्रों के रूप में ही रखा गया। महिलाओं को भी 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया और सुनने व खामोश रहने की अति के पश्चात इनमें भी विद्रोह ने जन्म लिया और अपने हक के लिए लड़ने लगी। गांव-गांव में आज पंचायती राज के जरिए महिलाएँ अपना शासन चलाने लगी हैं। प्रारंभिक झिझक के बाद वे अपना हक बोल-बोल कर ले रही है। जिला बालाघाट की हट्टा पंचायत की सरपंच भगलो बाई तो सीधे-सीधे कहती हैं कि ''बोलने और सुनने का हमारा भी उतना ही अधिकार है जितना कि एक पुरूष का है। हमारी कोई नहीं सुने तो अब उसकी खेर नहीं है। हम जनपद में सीईओ से बराबर लड़ कर, बोलकर अपना हक लेकर ही रहते हैं और सीईओ भी अब सबसे पहले हमारा कार्य कर देते हैं उन्हे पता है कि यह बोलना शुरू होगी तो......।'' इसी तरह से अत्यधिक बोलना भी संबंधों का संतुलन बिगाड़ता है व यह भी एक विद्रोह की भावना पैदा करता है।
हमारे राजनीतिज्ञों की अति वाचालता आज हमारे जन मानस के मन को न केवल खट्टा करती है वरन् उनका विश्वास भी उनके प्रति से उठता जा रहा है। महिलाओं के जमीनी राजनीति में आरक्षण के बाद अक्सर लोगों को एक श्रेष्ठ विकल्प यही दिखता है कि प्रपंची पुरूषों के बजाय एक महिला को ही वोट देकर जितवाएँ। ऐसा कई जगह हुआ भी है, धार जिले की राजौद पंचायत की सरपंच दीतू बाई नरवे ने तो निर्दलीय लड़ते हुए पिछले 25 वर्षों के रिकार्ड तोड़ मतों से जिती। वे कहती हैं कि ऐसा ही जनता का साथ रहा तो वे विधायक का चुनाव भी लड़ सकती हैं। कुल मिलाकर देखा जाय तो अधिक बड़बोलेपन को भी जनता नकार देती है और यही बात हमारे सामाजिक, पारिवारिक संबंधों में भी लागू होती है। जहां ज्यादा से ज्यादा बोलने वाले को वह स्थान नहीं मिलता है जो उसे मिलना चाहिए। बरसों पूर्व कबीरदास जी ने ही लिखा था, 'अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप/अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।'
हम स्वतंत्र हुए, हमें स्वतंत्रता के तहत स्वतंत्र विचार करने, बोलने की सुविधाएं मिलीं, परंतु उत्तरोत्तर प्रगति व समय के साथ सिर्फ बोलना तथा विचार करना ही हमारा ध्येय बनता गया। प्रजातंत्र में राजनीतिज्ञों ने सिर्फ बोलने और अच्छे-अच्छे विचारों को दमदार ढंग से कहने पर ही ध्यान दिया, उद्देश्य होता है 'वोट' खींचना। वहीं महिलाओं के प्रजातंत्र के विकेन्द्रीकरण के तहत खड़े होने पर उन्हौने ज्यादा बोलने के बजाय आपसी संवेदनशीलता, आत्मीयता और रिश्तों को तरजीह देते हुए अपने-अपने चुनाव जीते। चाहे वह चंपा बाई, बवई पंचायत जिला रीवा हो या सरला सिंह बघेल, पंच, महुरछ कदैला, जिला सतना हाक या फिर तितरा ग्राम पंचायत जिला सीधी की आदिवासी सरपंच शकुंतला कोल हो, सभी ने चुनाव के समय वे तमाम आश्वासन और लच्छेदार बातों के छलले जैसे पैतरे नहीं अपनाए जो पुरूष अक्सर अपनाते हैं। इनसे बातचीत करने पर पता चलता है कि वे सहज होकर वोट मांगने घर-घर गईं और तमाम समस्याओं को दूर करने की साधारण सी बात कही। बोलना भी हमारे देश में एक मजबूत हथियार की भांति प्रयुक्त होने लगा है और जस राजा, तस प्रजा की तर्ज पर प्रजा भी बोलने की इसी छद्मता की शिकार होती जा रही है। चारों ओर से बोलने वालों की भरमार हो गई, जवाबदेही किसी की नहीं रही। विचारों को हकीकत का जामा पहनाने में कमी आती गई तथा यह स्थिति अब तो सौ बोलने वाले और एक करने, सुनने वाले तक की हो चली है। अब सब लोग बोलना ही चाहते हैं।
सभी चाहते हैं कि उनकी बात की चल हो जबकि बातों की व्यवहारिकताओं, स्वयं के कर्तव्यों आदि पर बहुत कम लोगों का ही ध्यान जा पाता है। कुल मिलाकर हमारे यहां वक्ताओं की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीं श्रेष्ठ श्रोताओं की कमी आती जा रही है। हरेक व्यक्ति आज प्रतिष्ठा व प्रसिद्वी चाहता है और इसी के तहत वह बोलता है, कहता है, परंतु करता बहुत कम है, सुनता बहुत कम हैं। एक गलत परम्पराएं डालने वाली उपभोक्ता संस्कृति की भांति अब वाचालता भी हमारे बीच समाती जा रही है। ऐसे में महिलाएँ जिन्हे ज्यादा बोलने के लिए बदनाम किया जा चुका है वे वक्त पड़ने पर अपनी सीमाओं का ध्यान कहीं अधिक अच्छे ढंग से रखती हैं। कई उदाहरण हमारे समक्ष हैं जब उन्हौने नए आदर्शों की स्थापना की है। जहां हमारी प्राचीन संस्कृति इस बात की गवाह है कि ज्ञानी व्यक्ति को ही समाज में व समाज के हित में बोलने का अधिकार था व शेष समाज को सुनने का। किसी को भी अपनी बातों को कहने के पश्चात उन्हें तर्कगत व व्यवहार में सिद्व करना होती थी। तभी तो 'प्राण जाए पर वचन न जाए' जैसी उक्ति संदर्भित थीं। बोलने व सुनने या आवाज व खामोशी में जब तक समायोजन नहीं होता तब तक हमारे समाज में, संतोष का संतुलन निर्मित नहीं हो सकता है। अति वाचालता या अति खामोशी इस संतुलन को बिगाड़ती है। प्रत्येक को बार-बार कहने, सुनने का मौका देना ही स्वतंत्रता की वास्तविक कसौटी है। जिस तरह एक चुप सौ को हरा सकता है उसी तरह एक आवाज भी सौ को हरा सकती है और महिला नेतृत्व ने यह कर कर भी बता दिया है। क्योकि उनकी चुप्पी व आवाज दोनों सार्थक है, एक निश्चित अर्थ के लिए है, सारगर्भित है व सीमा में है।

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