5.60 लाख की जनसंख्या वाले श्योपुर जिले में 533 गांव हैं। यहां के एक जिला एवं चार अन्य अस्पतालों में मरीजों के लिये कुल 166 पलंग ही उपलब्ध हैं जिनमें से 148 बिस्तर पिछले 13 वर्षों से बदले नहीं गये हैं। विगत दो वर्षों से सुरक्षित मातृत्व को बढ़ावा देने के लिये जमकर बातें की जा रही हैं किन्तु पिछले छह वर्षों की तरह अब भी जिले के कराहल विकासखण्ड में चार में से तीन चिकित्सकों के पद खाली पड़े हुये हैं। इस दौरान न तो चिकित्सा व्यवस्था में सुधार हुआ न ही एक भी प्रसूति रोग विशेषज्ञ की नियुक्ति ही यहां हो र्पाई। इसी जिले के गोठरा कपूरा गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बिलासी देवी अपने अनुभवों के आधार पर कहती हैं कि अस्पताल में क्यों जायें, वहां एक तो कोई भी अच्छे से बात नहीं करता है ऊपर से नर्स, डॉक्टर और सफाई करने वाली बाई हर कोई पैसे मांगता है परन्तु सरकार कहती है कि संस्थागत प्रसव कराने पर सत्रह सौ रूपये मिलेंगे, वाहन का भाड़ा मिलेगा और दवाई मिलेगी; भभूति के प्रसव के दौरान गये थे और वह जमीन गिरवी रखकर ही मां बन पाई।
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ऐसी स्थिति में 1998 के बाद पहली बार हाल ही में भारत सरकार ने देश में मात्रृ मृत्युदर की स्थिति से जुड़े आंकड़े फिर से जारी किये। जो यह बताते हैं कि मध्यप्रदेश में जहां पहले एक लाख प्रसव पर 498 महिलाओं की जटिल परिस्थितियों के फलस्वरूप मृत्यु हो जाती थी, अब यह संख्या घटकर 379 पर आ गई है। परन्तु भारत सरकार के जनगणना विभाग द्वारा जारी यह रिपोर्ट (भारत में मातृ मृत्यु - संकेत, कारण और जोखिम के कारण 1997-2003) अपने आप में खुद बुनियादी तकनीकी सवालों के साये में खड़ी हुई है। और सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या सरकार दबाव में इस समस्या की वास्तविक स्थिति को आंकड़ों के आवरण से ढंकने की कोशिश कर ही है? एक अहम् बिन्दु यह है कि मातृ मृत्युदर का यह अध्ययन एक निश्चित और सीमित संख्या के प्रकरणों के आधार पर किया गया है न कि व्यापक जनसंख्या और मृत्यु के प्रकरणों के आधार पर। भारत सरकार ने छह साल तक चले इस सर्वेक्षण में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में केवल 365 मातृ मृत्यु प्रकरणों का विश्लेषण किया है जबकि इस दौरान यहां 103 हजार से ज्यादा प्रसव मौतें हुई हैं। दूसरा बिन्दु यह है कि ये सभी (365 प्रकरण) वही हैं जो सरकार के दस्तावेजों में पंजीकृत हुऐ हैं जबकि विश्लेषण बताता है कि राज्य में वास्तव में हर तीन मृत्यु में से केवल एक मृत्यु प्रकरण ही प्रक्रिया और विस्तृत मृत्यु कारणों के साथ रिकार्ड में पंजीकृत हो रहा है। संकट तो यही है कि जिलों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों के स्तर पर होने वाली ज्यादातर प्रसव मौतों को सामान्य प्रकरण के रूप में ही दर्ज किया जाता रहा है।
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फिर अगला सवाल यह है कि मध्यप्रदेश सरकार ने वर्ष 2003 में ही राज्य परिवार कल्याण मूल्यांकन के जरिये यह स्पष्ट किया था कि मध्यप्रदेश में ग्रामीण इलाकों में मातृ मृत्यु की दर 763 है यानी तत्कालीन केन्द्र सरकार के आंकलन से स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर थी। यह अध्ययन किसी छोटे से समूह पर नहीं बल्कि सभी जिलों की 25 फीसदी ग्रामीण जनसंख्या पर किया गया था, परन्तु भारत सरकार इसी अवधि के विरोधाभास पैदा करने वाले आंकड़े जारी कर रही है। विवाद केवल आंकड़ों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये क्योंकि वास्तव में राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था स्थिति का वीभत्स चेहरा स्पष्ट रूप से सामने ला रही है। हाल के सरकारी प्रयासों का विश्लेषण भी बहुत सुखद अहसास पैदा नहीं करता है। राज्य में हर दो गांवों पर केवल एक पलंग की उपलब्धता है और जिस राज्य में 17 लाख प्रसव एक साल में होते हैं, जहां 40 फीसदी परिवार गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं वहां राज्य सरकार एक व्यक्ति के इलाज के लिये केवल 150 रूपये के बजट का प्रावधान करती है जिसमें से 126 रूपये वेतन-भत्तों और व्यवस्था में ही खर्च हो जाते हैं। यहां पूरे सरकारी अमले में केवल 137 प्रसूति रोग विशेषज्ञों के पद स्वीकृत हैं जिनमें से 38 पद वर्षों से खाली पड़े हुये हैं। बड़ी जद्दोजहद के बाद पिछले एक वर्ष में सरकार ने इन पदों को भरने की पहल शुरू की परन्तु ज्यादातर चिकित्सक सरकारी व्यवस्था में काम करने के लिये तैयार नहीं हैं क्योंकि सरकारी अस्पतालों में न तो साफ-सफाई है न ही जांच के उपकरण और न ही दवायें।
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ऐसी स्थिति में किसी मरीज की मृत्यु होने पर लोग डॉक्टर को यथास्थान ही सजा दे डालते हैं। स्वास्थ्य विभाग ने 78 स्त्री रोग विशेषज्ञ के पदों पर भर्ती के लिये प्रक्रिया शुरू की, किन्तु केवल 31 डॉक्टरों ने ही रूचि दिखाई। 112 एनेस्थीसिस्ट भर्ती किये जाना थे पर केवल 12 ने ही काम संभाला। हर स्तर पर भ्रष्टाचार गर्भवती महिलाओं के लिये गंभीर संकट पैदा कर रहा है। नई दवा नीति के अनतर्गत दवाओं की खरीदी में भ्रष्टाचार होना शुरू हो गया और 'जननी सुरक्षा योजना' के अन्तर्गत मिलने वाली सात सौ रूपये की सहायता राशि रिश्वत देने में खर्च हो रही है। मातृ मृत्यु के आंकड़ों में अविश्वसनीयता होने के बाद भी पांच बीमारू राज्य और 3 नये राज्य देशभर की कुल 1.47 लाख मौतों में से 97 हजार का योगदान देते हैं, ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन भी मानता है। दक्षिण एशिया की कुल प्रसव मौतों में से आधी इन्हीं पिछड़े हुये भारतीय राज्यों में होती है जिनमें राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश और उड़ीसा सबसे अहम् भूमिका निभाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रसव मौतों में कमी न होने के बावजूद कमी दिखाना इसलिए भी जरूरी हो जाता है ताकि विदेशी निवेश और सेवाओं के निजीकरण की नीति को जायज सिध्द किया जा सके। मातृ मृत्यु का सीधा सम्बन्ध सामाजिक भेदभाव, शोषण और गरीबी से है। सरकार ने जिस तरह गरीबी का दायरा भुखमरी के आसपास सीमित कर दिया है उससे महिलाओं के सुरक्षित मातृत्व के अधिकार ज्यादा सीमित हुये हैं। एक ओर तो स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है तो वहीं दूसरी ओर सरकार की समुदाय के स्वास्थ्य के अधिकारों के प्रति जवाबदेहिता भी कम हुई है।
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गरीबी और आर्थिक कमजोरी के कारण चालीस फीसदी परिवार निजी स्वास्थ्य सेवाओं का फायदा उठाने की स्थिति में नहीं हैं। वास्तव में यह वक्त सुरक्षित मातृत्व के लिये चल रहे प्रयासों को ईमानदारी के साथ क्रियान्वित करने का है। अब इस मुद्दे पर राजनैतिक बहस तो शुरू हुई है किन्तु प्रतिबध्दता का अभाव भी सहज ही महसूस किया जा सकता है। कहीं ऐसा न हो कि महिलाओं का यह अधिकार योजनाओं के जाल में उलझकर रह जाये; सरकारी सस्ता राशन गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों को दिया जाता रहा है किन्तु विडम्बना यह है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवायें और दवायें प्राप्त करने के लिये प्रसव पीड़ा भोग रही महिला को पहले यह सिध्द करना होता है कि वह सरकारी मानकों के अनुसार गरीब है। स्वास्थ्य और खासतौर पर शिशु और मातृत्व स्वास्थ्य के संदर्भ में सरकार को एक समग्र नीति और एक समन्वित पहल करने की जरूरत है, न कि राजनेताओं को उपकृत करने के लिये सैकड़ों तरह की गैर-जवाबदेय और भेदभाव पैदा करने वाली योजनाओं की।
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ऐसी स्थिति में 1998 के बाद पहली बार हाल ही में भारत सरकार ने देश में मात्रृ मृत्युदर की स्थिति से जुड़े आंकड़े फिर से जारी किये। जो यह बताते हैं कि मध्यप्रदेश में जहां पहले एक लाख प्रसव पर 498 महिलाओं की जटिल परिस्थितियों के फलस्वरूप मृत्यु हो जाती थी, अब यह संख्या घटकर 379 पर आ गई है। परन्तु भारत सरकार के जनगणना विभाग द्वारा जारी यह रिपोर्ट (भारत में मातृ मृत्यु - संकेत, कारण और जोखिम के कारण 1997-2003) अपने आप में खुद बुनियादी तकनीकी सवालों के साये में खड़ी हुई है। और सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या सरकार दबाव में इस समस्या की वास्तविक स्थिति को आंकड़ों के आवरण से ढंकने की कोशिश कर ही है? एक अहम् बिन्दु यह है कि मातृ मृत्युदर का यह अध्ययन एक निश्चित और सीमित संख्या के प्रकरणों के आधार पर किया गया है न कि व्यापक जनसंख्या और मृत्यु के प्रकरणों के आधार पर। भारत सरकार ने छह साल तक चले इस सर्वेक्षण में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में केवल 365 मातृ मृत्यु प्रकरणों का विश्लेषण किया है जबकि इस दौरान यहां 103 हजार से ज्यादा प्रसव मौतें हुई हैं। दूसरा बिन्दु यह है कि ये सभी (365 प्रकरण) वही हैं जो सरकार के दस्तावेजों में पंजीकृत हुऐ हैं जबकि विश्लेषण बताता है कि राज्य में वास्तव में हर तीन मृत्यु में से केवल एक मृत्यु प्रकरण ही प्रक्रिया और विस्तृत मृत्यु कारणों के साथ रिकार्ड में पंजीकृत हो रहा है। संकट तो यही है कि जिलों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों के स्तर पर होने वाली ज्यादातर प्रसव मौतों को सामान्य प्रकरण के रूप में ही दर्ज किया जाता रहा है।
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फिर अगला सवाल यह है कि मध्यप्रदेश सरकार ने वर्ष 2003 में ही राज्य परिवार कल्याण मूल्यांकन के जरिये यह स्पष्ट किया था कि मध्यप्रदेश में ग्रामीण इलाकों में मातृ मृत्यु की दर 763 है यानी तत्कालीन केन्द्र सरकार के आंकलन से स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर थी। यह अध्ययन किसी छोटे से समूह पर नहीं बल्कि सभी जिलों की 25 फीसदी ग्रामीण जनसंख्या पर किया गया था, परन्तु भारत सरकार इसी अवधि के विरोधाभास पैदा करने वाले आंकड़े जारी कर रही है। विवाद केवल आंकड़ों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये क्योंकि वास्तव में राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था स्थिति का वीभत्स चेहरा स्पष्ट रूप से सामने ला रही है। हाल के सरकारी प्रयासों का विश्लेषण भी बहुत सुखद अहसास पैदा नहीं करता है। राज्य में हर दो गांवों पर केवल एक पलंग की उपलब्धता है और जिस राज्य में 17 लाख प्रसव एक साल में होते हैं, जहां 40 फीसदी परिवार गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं वहां राज्य सरकार एक व्यक्ति के इलाज के लिये केवल 150 रूपये के बजट का प्रावधान करती है जिसमें से 126 रूपये वेतन-भत्तों और व्यवस्था में ही खर्च हो जाते हैं। यहां पूरे सरकारी अमले में केवल 137 प्रसूति रोग विशेषज्ञों के पद स्वीकृत हैं जिनमें से 38 पद वर्षों से खाली पड़े हुये हैं। बड़ी जद्दोजहद के बाद पिछले एक वर्ष में सरकार ने इन पदों को भरने की पहल शुरू की परन्तु ज्यादातर चिकित्सक सरकारी व्यवस्था में काम करने के लिये तैयार नहीं हैं क्योंकि सरकारी अस्पतालों में न तो साफ-सफाई है न ही जांच के उपकरण और न ही दवायें।
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ऐसी स्थिति में किसी मरीज की मृत्यु होने पर लोग डॉक्टर को यथास्थान ही सजा दे डालते हैं। स्वास्थ्य विभाग ने 78 स्त्री रोग विशेषज्ञ के पदों पर भर्ती के लिये प्रक्रिया शुरू की, किन्तु केवल 31 डॉक्टरों ने ही रूचि दिखाई। 112 एनेस्थीसिस्ट भर्ती किये जाना थे पर केवल 12 ने ही काम संभाला। हर स्तर पर भ्रष्टाचार गर्भवती महिलाओं के लिये गंभीर संकट पैदा कर रहा है। नई दवा नीति के अनतर्गत दवाओं की खरीदी में भ्रष्टाचार होना शुरू हो गया और 'जननी सुरक्षा योजना' के अन्तर्गत मिलने वाली सात सौ रूपये की सहायता राशि रिश्वत देने में खर्च हो रही है। मातृ मृत्यु के आंकड़ों में अविश्वसनीयता होने के बाद भी पांच बीमारू राज्य और 3 नये राज्य देशभर की कुल 1.47 लाख मौतों में से 97 हजार का योगदान देते हैं, ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन भी मानता है। दक्षिण एशिया की कुल प्रसव मौतों में से आधी इन्हीं पिछड़े हुये भारतीय राज्यों में होती है जिनमें राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश और उड़ीसा सबसे अहम् भूमिका निभाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रसव मौतों में कमी न होने के बावजूद कमी दिखाना इसलिए भी जरूरी हो जाता है ताकि विदेशी निवेश और सेवाओं के निजीकरण की नीति को जायज सिध्द किया जा सके। मातृ मृत्यु का सीधा सम्बन्ध सामाजिक भेदभाव, शोषण और गरीबी से है। सरकार ने जिस तरह गरीबी का दायरा भुखमरी के आसपास सीमित कर दिया है उससे महिलाओं के सुरक्षित मातृत्व के अधिकार ज्यादा सीमित हुये हैं। एक ओर तो स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है तो वहीं दूसरी ओर सरकार की समुदाय के स्वास्थ्य के अधिकारों के प्रति जवाबदेहिता भी कम हुई है।
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गरीबी और आर्थिक कमजोरी के कारण चालीस फीसदी परिवार निजी स्वास्थ्य सेवाओं का फायदा उठाने की स्थिति में नहीं हैं। वास्तव में यह वक्त सुरक्षित मातृत्व के लिये चल रहे प्रयासों को ईमानदारी के साथ क्रियान्वित करने का है। अब इस मुद्दे पर राजनैतिक बहस तो शुरू हुई है किन्तु प्रतिबध्दता का अभाव भी सहज ही महसूस किया जा सकता है। कहीं ऐसा न हो कि महिलाओं का यह अधिकार योजनाओं के जाल में उलझकर रह जाये; सरकारी सस्ता राशन गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों को दिया जाता रहा है किन्तु विडम्बना यह है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवायें और दवायें प्राप्त करने के लिये प्रसव पीड़ा भोग रही महिला को पहले यह सिध्द करना होता है कि वह सरकारी मानकों के अनुसार गरीब है। स्वास्थ्य और खासतौर पर शिशु और मातृत्व स्वास्थ्य के संदर्भ में सरकार को एक समग्र नीति और एक समन्वित पहल करने की जरूरत है, न कि राजनेताओं को उपकृत करने के लिये सैकड़ों तरह की गैर-जवाबदेय और भेदभाव पैदा करने वाली योजनाओं की।
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