संकट में हमारी जमीन - शिराज केसर

तथाकथित अर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत के लिए चमकता भारत (इंडिया शाइनिंग) समर्थ भारत (पॉइज्ड इंडिया) आदि के नारे लगाग जा रहे है। 8 फीसदी वृध्दि, कुछ अरबपतियों का जन्म और सूचना तकनीकी धूम का गीत गाया जा रहा है पर इन सबके पीछे की सच्चाई कुछ और ही दास्तां बयान कर रही है। यह दास्तां है 8 फीसदी वृध्दि व अमीरों के नाम पर गरीब किसानों की जमीनें जबरन छीनने की, किसानों के लिए चमकता भारत, समर्थ भारत की बजाय साधनहीन भारत उजड़ा भारत बन जाने की। रोजी-रोटी छिन जाने से उजड़े किसानों के सिर पर न छत है न पेट में रोट। कहां जाएं? किधर जाएं? आखिर मजबूर होकर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लोग आंदोलन करने को उठ खडे हुए है। और धीरे-धीरे लड़ाई 'जान देंगे, जमींन नहीं देंगे' तक पहुंच रही है।
वित्तमंत्री पी चिदंबरम कहते है, जमीन और किसान के बीच पवित्र और गहरा रिश्ता है, इस रिश्ते को जो भी तोड़ने की कोशिश करेगा, उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा।' पर चिदंबरम न तो किसानाें के हितैषी हैं न खेतों के। बल्कि भूमंडलीकरण के समर्थक है। बात यह है कि जहां जहां भी बहुराष्ट्रीय चारागाह बनाने के लिए जमीनों पर कब्जा किया जा रहा है, वहीं कब्जे से जमीनों को छुड़ाने के लिए जंग छिड़ गई है। जंग में हद तो यह हो गई कि कलिंगनगर से दादरी, सिंगूर से नदींग्राम तक हर जगह गरीब किसानों से जमीनें लेने के लिए पुलिस हथियार और गोला बारूद का इस्तेमाल कर रही है। पुलिस किसानों के साथ आंतकवादियों जैसा व्यवहार कररही है, डंडे की ताकत पर लोगाें को चुप कराने की कोशिश हो रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाहें काफी दिनाें से हमारी जमीनों पर थी, केंद्र सरकार न जानबूझकर कंपनियों की लालच को पूरा करने हेतु चमकते भारत के नाम पर सेज अधिनियम 2005 बनाया और फरवरी 2006 को लागू किया। इस कानून के बनते ही सरकारें बिना सोचे समझे अनेकों सेज स्वीकृत कर चुकी है। सेज के बारे में कुछ जानना जरूरी है।
सेज ऐसा क्षेत्र है, जिसको भारत के अंदर 'विदेशी क्षेत्र' के रूप में देखा जाएगा। भारत के अंदर लागू होने वाले कायदे कानून सेज में लागू नहीं होंगे। सेज में भारी कर छूट नवाज कर निर्यात बढ़ानें और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अनुकल माहौल बनाने की बात की जा रही है। ऐसे में जबकि सेज इकाइयों को विदेशी मुद्रा का कमाऊ पूत के रूप में देखा जा रहा है तो सेज इकाइयों को पूर्व निर्धारित मूल्यों में य निर्यात के लिए आवश्यकताओं में कमी या बढ़ोतरी करने के लिए कोई जावब देही नहीं होगी।
आयात कर दिए बिना ही सेज कंपनियां विकास कार्य और प्रबंध के लिए बिना किसी नियंत्रण के वस्तुओं का आयात कर सकतीहै। उन्हेंं दस वर्षों तक आयकर से छूट होगी। यह अवधि पंद्रह वर्ष तक की जा सकती है। सेज कंपनियां अपने अंदर स्वीकृति प्राप्त इकाइयों को व्यापारिक आधार पर प्लाट देने के लिए भी स्वतंत्र होंगी। सेज कंपनियां पानी, बिजली,सुरक्षा, रेस्टोरेंट और मनोंरंजन केंद्र आदि भी अपने अंदर स्वीकृति प्राप्त इकाइयों को पूरी तरह व्यापारिक आधार पर उपलब्ध कराएंगी। इसके अतिरिक्त कंपनियों को सेवाकर अदा करने से भी छूट होगी।
केंद्रीय सेज अधिनियम को अभी एक वर्ष ही हुआ है और हरियाणा राज्य अधिनियम तो मात्र छह माह ही बीते है। तुरंत ही बड़े जोर-शोर से हरियाणा सरकार देश का सबसे बड़ा सेज बनाने में जुट गई है। यह गुड़गांव से झज्जर तक 25,000 एकड़ के क्षेत्र मे फैला है। यह रिलायंस और हरियाणा स्टेट इंडस्ट्रियल एंड इंफ्रास्ट्रक्कर डेवलपमेंट द्वारा संयुक्त रूप से बनाया जा रहा है। इसमें अकेले रिलायंस 25000 करोड़ लगाएगी और 15,000 करोड़ दूसरी अन्य कंपनियों द्वारा लगाया जाएगा।
यह पूरी तरह स्पष्ट है कि आज के दौर का यह भयानक भूमि अधिग्रहण किसानों को कंगाल कर देगा। अब किसानों के पास मात्र औसतन 2 एकड़ या उससे भी कम जमीन रह गई है। वह भी छीनकर एक लाख करोड़ के मालिक रिलायंस जैसों के हाथों में दिया जा रहा है। इससे भारत संपन्न नहीं, कंगाल ही बनेगा।
अंग्रजों के भूमि- अधिग्रहण अधिनियम 1894 को जबरदस्ती किसानों पर लागू करके किसानों से कंपनियों के लिए जमीनें हथियाना और उनको बेघर कर देना, क्या नए तरह के 'अंग्रजी राज' की बात तो नहीं है? मजेदार बात तो यह है कि भूमि-अधिग्रहण उदारीकरण के भी विपरीत है। उदारीकरण तो अलग करता है। यहां तो भूमि-अधिग्रहण में कंपनियां सरकार के माध्यम से जमीन कब्जा रही है। धरती को सरकारें बलपूर्वक उपभोग और व्यापार की वस्तु बना रही है। यह भूमि अधिग्रहण नियम का भी एक तरह से उल्लंघन है। क्योंकि भूमि-अधिग्रहण अधिनियम में जमीन को सार्वजनिक उद्देश्य के लिए प्राप्त करने के लिए कहा गया है, निजी मुनाफे या एकाधिकार करने के लिए नहीं, पर यह सब अनदेखा किया जा रहा है। भूमि-अधिग्रहण ने भूमि सुधारों पर भी पानी फेर दिया है।
भूमि-अधिग्रहण को उचित ठहराने के लिए दो प्रकार के झूठे तर्कों का सहारा लिया जा रहा है। पहला कृषि विकास की दौड़ में दक्षम हो गई है इसलिए किसानों को जमीन छोड़ देनी चाहिए, वहीं दूसरा झूठा तर्क यह दिया जा रहा है कि भारत को औद्योगिकीकरण करना चाहिएं। इस झूठ को विभिन्न आधारों पर परखा जा सकता है। अधिकांश सेज भवन निर्माताओं और सूचना तकनीक के लिए है जिसमें नए अवसर पैदा ही नहीं होंगे क्योंकि यह वैश्विक स्तर पर पहले सेही 'पेपच' हो गए है। महाराष्ट्र के आईटी सचिव अरविंद कुमार ने ठीक ही कहा है कि सेज चोर दरवाजे से भूमि कब्जाने की नीति है। सेज कुछ नहीं है बस ज्यादा संपत्ति पाने के लिए अमीरों की एक चाल है जिसे रोका जाना चाहिए। कानूनन एक व्यक्ति के पास 52 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं हो सकती तो कुछ लोगों ने नायाब फार्मूला निकाला है कि वे 1,00,00 हेक्टे. से भी ज्यादा जमीन के मालिक बन रहे है।
लालच की भूख के कारण ही पश्चिम के विकसित देशों ने अपने उपभोग के लिए पूरी पृथ्वी का विनाश कर डाला है, तेल पानी आदि के लिए बम बरसा रहें है। ऐसे में पश्चिम के कबाड़ा और उपभोक्तावादी जीवन पध्दति को अपनाने और चालू रखने के लिए भारत को कितनी पृथ्वियों के विनाश कीजरूरत पड़ेगी। यह शाश्वत बात हेै कि कोई भी समाज बिना भोजन कमे जीवित नहीं रह सकता। अगर भारत अपनी खेतों को कंक्रीट के जंगलों के लिए विनाश करता है, हवाई अर्थव्यवस्था के लिए छोटे किसानों को उजाड़ता है, तो किसी देश कीयह औकात नहीं है कि वह भारत की करोड़ों की जनसंख्या का पेट भर सके। उपजाऊ और बहुफसली जमीन बहुत अनमोल और दुर्लभ चीज है, यह संसाधन सबको नही मिलता राष्ट्रीय विरासत और किसानों की संपत्ति के रूप में इसकी रक्षा की जानी चाहिए। कुछ कंपनियों के थोड़े से लालच के लिए इसे नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।
जो लोग भूमि अधिग्रहण के मुद्दे को औद्योगिकीकरण की बहस मे बदल रहें है उन्हें यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अगर विश्व में अमेरिकी तर्ज पर संसाधनों और ऊर्जा का उपभोग किया जाएगा तो हमें पृथ्वी जैसे पांच ग्रहों की जरूरत होगी। भारत के छोटे किसान वैश्विक निर्माण और उपभोग के अस्थाई पर्यावरणीय कदमों को तो सहन ही नहीं कर सकते, बर्बाद हो जाएंगें।

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