यह निबंध हावर्ड ज़िन की सिटी लाइट्स द्वारा प्रकाशित नई किताब "वह ताकत जिसे सरकार नहीं दबा सकती" का पहला अध्याय है
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अमेरिका का भविष्य इससे जुड़ा है कि हम अपना अतीत किस तरह समझते हैं। इसी कारण मेरे लिए इतिहास लिखना कभी एक तटस्थ कर्म नहीं रहता। लिख कर मैं नस्लवादी अन्याय, लैंगिक पक्षपात, वर्गों की ग़ैर-बराबरी, तथा राष्ट्रीय दर्प के बारे में व्यापक जागरूकता लाने की उम्मीद करता हूँ। मैं जनता द्वारा प्रतिष्ठान के विरुद्ध दर्ज न किए गए प्रतिरोध को भी सामने लाना चाहता हूँ: आदिवासियों का एकदम गायब हो जाने से मना करना; गुलामी के विरुद्ध आंदोलन में तथा हाल के रंगभेदी अलगाव के विरुद्ध आंंदोलन में अश्वेत लोगों का विद्रोह; कामगारों के द्वारा अपना जीवन सुधारने के लिए अमरीका के पूरे इतिहास में की गई हड़तालें।
प्रतिरोध की इन कार्यवाहियों को नज़रअंदाज़ करने का मतलब है इस शासकीय मत का समर्थन करना कि ताकत केवल उन्हीं के पास हो सकती है जिनके पास बंदूकें हैं तथा जिनका धन-संपत्ति पर कब्ज़ा है। मैं इसलिए लिखता हूँ कि एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की रचनात्मक शक्ति को रोशनी में ला सकूँ। लोगों के पास, यदि संगठित हों तो, ज़बरदस्त ताकत होती है, किसी भी सरकार से ज़्यादा। हमारा इतिहास उन लोगों की कहानियों से भरा पड़ा है जो विरोध में खड़े होते हैं, हिम्मत करके बोलते हैं, अड़ जाते हैं, संगठन बनाते हैं, जुड़ते हैं, प्रतिरोध के जाल बनाते हैं, और इतिहास की धारा को बदल देते हैं।
मैं जन आंदोलनों की काल्पनिक जीतों की खोज नहीं करना चाहता। लेकिन यह सोचना कि इतिहास लेखन को केवल अतीत पर छाई हुई असफलताओं को याद दिलाना चाहिए, इतिहासकारों को हार के अंतहीन चक्र में शामिल कर लेने जैसा है। अगर इतिहास को रचनात्मक होना है, अतीत को नकारे बिना संभावित भविष्य के लिए तैयार होना है, तो मेरा मानना है कि उसे नई संभावनाओं पर ज़ोर देना चाहिए, अतीत की उन छिपी हुई घटनाओं को सामने लाकर, चाहे छोटी-छोटी झलकों में ही, जब लोगों ने अपनी प्रतिरोध की, साथ जुड़ने की, और कभी-कभी जीतने की भी क्षमताएँ प्रदर्शित की हैं। मैं मान रहा हूँ, या शायद उम्मीद कर रहा हूँ, कि हमारा भविष्य हमें अतीत के सहृदय शरणार्थी लम्हों में मिलेगा, न कि उसकी युद्घों से भरी ठोस सदियों में।
इतिहास हमारे संघर्ष में मदद कर सकता है, निर्णायक रूप से नहीं भी तो कम से कम रास्ता सुझाने के लिए। इतिहास हमें इस विचार से छुटकारा दिला सकता है कि सरकार के हित और जनता के हित एक ही होते हैं। इतिहास हमें बता सकता है कि सरकारें हम से किस तरह झूठ बोलती रही हैं, किस तरह पूरी आबादियों के नरसंहार का आदेश देती रही हैं, किस तरह वे गरीबों के अस्तित्व को ही नकार देती हैं, किस तरह वे हमें हमारे वर्तमान ऐतिहासिक क्षण तक ले आई हैं - "लंबा युद्ध," बिना अंत का युद्ध।
यह सच है कि हमारी सरकार के पास देश का धन जैसे चाहे खर्च करने की ताकत है। वह दुनिया में कहीं भी फौजें भेज सकती है। वह उन दो करोड़ आप्रवासियों की गिरफ़्तारी और निष्कासन का आदेश दे सकती है जिनके पास ग्रीन कार्ड नहीं है और जिन्हें कोई संवैधानिक अधिकार भी नहीं मिले हुए हैं। हमारे "राष्ट्रीय हितों" के नाम पर सरकार सैनिकों को अमरीका-मैक्सिको सीमा पर तैनात कर सकती है, कुछ देशों से मुस्लिमों को पकड़ कर ला सकती है, खुफ़िया तौर पर हमारी बातें सुन सकती है, हमारी ई-मेल खोल के देख सकती है, बैंकों में हमारे लेन-देन को देख सकती है, और हमें डरा कर चुप कराने की कोशिश कर सकती है। सरकार डरपोक मीडिया के सहयोग से सूचना को नियंत्रित कर सकती है। सिर्फ इसी कारण जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की लोकप्रियता (जिनसे पूछा गया उनका 33%) - 2006 तक आते-आते घटती हुई, पर फिर भी काफी - बनी हुई है। लेकिन यह नियंत्रण हमेशा के लिए नहीं है। यह बात कि मीडिया का 95% ईराक पर कब्ज़ा बनाए रखने के पक्ष में है (ऐसा कैसे किया जाए इसकी केवल ऊपरी निंदा करते हुए), जबकि 50% से ज़्यादा जनता वापसी के पक्ष में है, दिखाती है कि शासकीय झूठों के प्रति सामान्य बोध पर आधारित विरोध मौजूद है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि जनमत (अपने स्वभाव के अनुसार) कितने नाटकीय तरीके से अचानक बदल सकता है। याद करें कि बड़े जॉर्ज बुश के लिए जन समर्थन कितनी तेज़ी से खत्म हो गया था जैसे ही खाड़ी युद्ध में जीत की गर्मी कम हुई थी और आर्थिक परेशानियों की असलियत सामने आ गई थी।
याद करें कि वियतनाम युद्ध के शुरू में किस तरह 1965 में दो-तिहाई अमरीकन युद्ध के पक्ष में थे। कुछ ही वर्ष बाद दो-तिहाई अमरीकन युद्ध का विरोध कर रहे थे। उन तीन या चार वर्षों में ऐसा क्या हो गया? धीरे-धीरे प्रॉपेगंडा तंत्र की दरारों से सच का रिसना - यह समझना कि हमसे झूठ बोला गया था, हमें धोखा दिया गया था। जब मैं यहाँ अमरीका में 2006 की गर्मियों में यह लेख लिख रहा हूँ, तब भी यही हो रहा है। घबरा जाना, या इस बात को अपने ऊपर हावी होने देना कि युद्ध पैदा करने वालों के पास ज़बरदस्त ताकत है, आसान है। लेकिन कुछ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य उपयोगी हो सकता है, क्योंकि यह हमें बताता है कि इतिहास में ऐसे बिन्दु भी होते हैं जब सरकारों को पता चलता है कि उनकी सारी ताकत जागरूक हो चुके नागरिकों के विरुद्ध बेकार है।
सरकारों में एक मूलभूत कमज़ोरी होती है, चाहे उनके पास कितनी ही ढेर सारी सेनाएँ हों, चाहे कितनी ही दौलत उनके पास हो, चाहे छवियों और सूचना पर उनका नियंत्रण हो, क्योंकि उनकी ताकत नागरिकों, सैनिकों, अफ़सरों, तथा पत्रकारों और लेखकों और अध्यापकों और कलाकारों के आज्ञाकारी होने पर निर्भर करती है। जब नागरिकों को यह शक होने लगता है कि उन्हे धोखा दिया गया है और वे समर्थन वापस ले लेते हैं, तब सरकार की वैधता और उसकी शक्ति खत्म हो जाती है।
पिछले दशकों में हमने पूरे विश्व में यह सब होते देखा है। एक दिन जागने पर राजधानी की गलियों में लाखों गुस्साए लोगों को देख कर देश के नेताओं को अपना बोरिया-बिस्तर बांधते हुए और एक हेलीकॉप्टर की पुकार करते हुए। यह फ़ंतासी नहीं है; यह अभी हाल ही का इतिहास है। यह इतिहास है फ़िलीपीन का, इंडोनेशिया का, यूनान का, पुर्तगाल और स्पेन का, रूस, पूर्वी जर्मनी, पोलैंड, हंगरी तथा रोमानिया का। अर्जेंटीना और दक्षिण अफ्रीका और उन तमाम जगहों के बारे में सोचें जहाँ बदलाव होना असंभव लग रहा था पर हो गया। निकारागुआ में सोमोज़ा को अपने हवाई जहाज की तरफ दौड़ते हुए याद करें, फ़र्डीनांड और इमेल्डा मार्कोस को जल्दी-जल्दी अपने गहने और कपड़े संभालते हुए याद करें, ईरान के शाह को हताशा के साथ उस देश की खोज करते हुए याद करें जो उसे लेने को तैयार हो जबकि वह तेहरान में भीड़ से बचने के लिए भाग रहा था, हेती में दुवालिये को वहाँ की जनता के कोप से बचने के लिए मुश्किल से पतलून पहनते हुए याद करें।
हम यह उम्मीद तो नहीं कर सकते कि जॉर्ज बुश को हेलीकॉप्टर में भागना पड़े। पर हम उन्हें राष्ट्र को दो युद्धों में ढकेलने के लिए, इस देश तथा अफ़ग़ानिस्तान व ईराक़ मे दसियों हज़ार मनुष्यों की मृत्यु या उनके विकलांग होने के लिए, और अमरीकी संविधान तथा अंतर्राष्ट्रीय कानून के उल्लंघन के लिए ज़िम्मेदार तो ठहरा सकते हैं। निश्चय ही ऐसी कार्यवाहियाँ महाभियोग के लिए "भारी अपराध तथा कुकृत्य" कहलाने लायक हैं।
और देश भर में लोगों ने वास्तव में उनके विरूद्ध महाभियोग लगाने की मांग करना शुरू कर भी दिया है। हाँ, बुजदिल कांग्रेस से तो हम उन पर महाभियोग लगाने की उम्मीद नहीं ही कर सकते। कांग्रेस एक इमारत में अवैध प्रवेश करने के लिए निक्सन पर महाभियोग चलाने को तैयार थी, पर वो एक देश में अवैध प्रवेश के लिए बुश पर महाभियोग नहीं चलाएगी। वे क्लिंटन पर यौन कारनामों के लिए महाभियोग चलाने को तैयार थे, पर वे एक देश की धन-संपत्ति को महाधनियों के हवाले करने के लिए बुश पर महाभियोग नहीं चलाएंगे।
बुश प्रशासन की तसल्ली को लगातार भीतर ही भीतर एक कीड़ा खा रहा है: अमरीकन जनता की यह जानकारी - बहुत कम गहरी कब्र में दफ़न की हुई, आसानी से बाहर लाई जा सकने वाली - कि उसकी सरकार जनमत से नहीं बल्कि एक राजनैतिक तख्ता पलट से सत्ता में आई थी। इसलिए हो सकता है कि हम इस प्रशासन की वैधता को धीरे-धीरे विखंडित होते हुए देख रहे हों, इसके चरम आत्मविश्वास के बावजूद। साम्राज्यवादी ताकतों के अपनी जीतों पर इतराने का लंबा इतिहास है, अपनी पहुँच से ज्यादा खिंच जाने का और दुस्साहसी बन जाने का, और यह न समझने का कि ताकत सिर्फ़ हथियारों और पैसे से नहीं होती। सैनिक ताकत की अपनी सीमा होती है - मानवों द्वारा निर्धारित सीमा, उनके न्याय बोध तथा प्रतिरोध की क्षमता से निर्धारित सीमा। अपने 10,000 नाभिकीय बमों के बावजूद संयुक्त राज्य अमरीका कोरिया या वियतनाम में युद्ध नहीं जीत सका, क्यूबा या निकारागुआ में क्रांति को नहीं रोक सका। इसी तरह सोवियत संघ को अपने नाभिकीय बमों तथा विशाल सेना के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान से लौटने के लिए बाध्य होना पड़ा।
सैनिक शक्ति से लैस देश विनाश तो कर सकता है पर निर्माण नहीं कर सकता। इसके नागरिक व्यग्र हो रहे हैं क्योंकि उनकी मौलिक दैनिक ज़रूरतों को सैनिक गौरव के लिए बलि चढ़ाया जा रहा है जबकि उनके युवा बच्चों का ख्याल नहीं रखा जा रहा और उन्हें युद्ध में भेजा जा रहा है। उनकी व्यग्रता रोज़ बढ़ती जा रही है और नागरिक अधिकाधिक संख्याओं में इकट्टे हो रहे हैं, इतने कि उनको नियंत्रण में रखना मुश्किल होता जा रहा है; एक न एक दिन ऊपर से भारी साम्राज्य गिर पड़ते हैं। जन चेतना में बदलाव हल्के असंतोष से शुरू होता है, शुरू में अस्पष्ट सा, सरकार की नीतियों और असंतोष में बिना कोई संबंध समझे। फिर बिन्दु जुड़ने लगते हैं, नाराज़गी बढ़ने लगती है, और लोग विरोध में बोलने लगते हैं, संगठित होने लगते हैं, तथा विरोध की कार्यवाहियाँ शुरू कर देते हैं।
आज, जब संघ के हर राज्य में बजट में कमी की जा रही है, पूरे देश में अध्यापकों, नर्सों, चिकित्सा, तथा सस्ते घरों का अभाव महसूस हो रहा है। एक अध्यापक ने हाल ही में बॉस्टन ग्लोब को लिखा: "मैं बॉस्टन के उन 600 अध्यापकों में से हो सकता हूँ जिन्हें बजट में कमी के कारण नौकरी से निकाला जाने वाला है।" फिर यह पत्र लेखक इस बात को बमों पर खर्च किए गए पैसे से जोड़ता है जिसे, उसके शब्दों में, "मासूम ईराक़ी बच्चों को बग़दाद में अस्पताल भेजने के लिए लगाया जा रहा है।"
जब सरकारों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, सेनाओं तथा पुलिस की दिमागों को नियंत्रित करने, असहमति को कुचलने, और विद्रोह को नष्ट करने की विशाल ताकत हमारी सोच पर हावी हो जाए तब हमें कुछ ऐसी चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए जो मुझे रोचक लगती हैं। जिनके पास इतनी भारी ताकत है वे इस ताकत पर अपनी पकड़ बनाए रखने के बारे में आश्चर्यजनक रूप से चिंतित हैं। उनकी प्रतिक्रिया विरोध के बहुत ही छोटे और निरापद से दिखने वाले आसारों की तरफ भी लगभग हिस्टीरियाई होती है।
हम ताकत की हज़ार परतों से लैस अमरीकी सरकार को देख सकते हैं, कुछ शांतिवादियों को जेल में डालने या किसी लेखक को देश से बाहर रखने के लिए कड़ी मेहनत करते हुए। हम व्हाइट हाउस के सामने धरना दे रहे अकेले आदमी की तरफ निक्सन की हिस्टीरियाई प्रतिक्रिया को याद कर सकते हैं: "इसे पकड़ो!"
क्या ऐसा संभव है कि जो लोग सत्ता में हैं वो कुछ ऐसा जानते हैं जो हम नहीं जानते? शायद वे अपनी सीमाएँ जानते हैं। शायद वो समझते हैं कि छोटे आंदोलन ही बड़े आंदोलन बन सकते हैं, कि जो विचार जनता में अपनी जगह बना ले उसे मिटाया नहीं जा सकता। लोगों को युद्ध का समर्थन करने, दूसरों का दमन करने के लिए राज़ी किया जा सकता है, पर इस तरफ उनका स्वाभाविक झुकाव नहीं होता। कुछ लोग "पहले पाप" की बात करते हैं। कुर्त वॉनेगट उसको चुनौती देते हुए "पहले पुण्य" की बात करते हैं।
इस देश में लाखों लोग हैं जो वर्तमान युद्ध के विरुद्ध हैं। जब आप एक आँकड़ा देखते हैं "40% अमरीकन लोग युद्ध का समर्थन करते हैं," तो उसका मतलब होता है कि 60% अमरीकन समर्थन नहीं करते। मुझे यकीन है कि युद्ध का विरोध करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जाएगी जबकि युद्ध समर्थकों की संख्या घटती जाएगी। इस रास्ते पर कलाकार, संगीतकार, लेखक, और सांस्कृतिक कार्यकर्ता शांति व न्याय के लिए आंदोलन को एक खास भावनात्मक तथा आध्यात्मिक ताकत दे सकते हैं। विद्रोह अक्सर एक सांस्कृतिक चीज़ के रुप में शुरू होता है।
चुनौती अब भी बाकी है। विरोधी पक्ष के पास बहुत सी ताकतें हैं: पैसा, राजनैतिक शक्ति, अधिकतर मीडिया। हमारी तरफ है दुनिया की जनता और पैसे व हथियारों से बड़ी एक ताकत: सच। सच की अपनी ताकत होती है। कला की अपनी ताकत होती है। संयुक्त राज्य तथा सभी जगहों में जन संघर्षों का असली मतलब है वही युगों पुराना पाठ - कि हम जो भी करते हैं उससे फ़र्क पड़ता है। एक कविता एक आंदोलन की प्रेरणा बन सकती है। एक पर्चा क्रांति के लिए चिनगारी बन सकता है। नागरिक असहयोग लोगों को जगा सकता है और हमें सोचने के लिए उकसा सकता है। जब हम एक-दूसरे के साथ संगठित हो जाते हैं, जब हम शामिल हो जाते हैं, जब हम खड़े होकर साथ बोलने के लिए तैयार हो जाते हैं, तब हम ऐसी ताकत पैदा कर सकते हैं जिसे कोई सरकार दबा नहीं सकती।
हम रहते तो एक खूबसूरत देश में हैं। लेकिन ऐसे लोगों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है जो मानव जीवन, आज़ादी या न्याय की कोई कद्र नहीं करते। अब यह हमारा काम है कि हम इसे दुबारा पा लें।
अनुवादक: अनिल एकलव्य/ साभार - जेडनेट
अमेरिका का भविष्य इससे जुड़ा है कि हम अपना अतीत किस तरह समझते हैं। इसी कारण मेरे लिए इतिहास लिखना कभी एक तटस्थ कर्म नहीं रहता। लिख कर मैं नस्लवादी अन्याय, लैंगिक पक्षपात, वर्गों की ग़ैर-बराबरी, तथा राष्ट्रीय दर्प के बारे में व्यापक जागरूकता लाने की उम्मीद करता हूँ। मैं जनता द्वारा प्रतिष्ठान के विरुद्ध दर्ज न किए गए प्रतिरोध को भी सामने लाना चाहता हूँ: आदिवासियों का एकदम गायब हो जाने से मना करना; गुलामी के विरुद्ध आंदोलन में तथा हाल के रंगभेदी अलगाव के विरुद्ध आंंदोलन में अश्वेत लोगों का विद्रोह; कामगारों के द्वारा अपना जीवन सुधारने के लिए अमरीका के पूरे इतिहास में की गई हड़तालें।
प्रतिरोध की इन कार्यवाहियों को नज़रअंदाज़ करने का मतलब है इस शासकीय मत का समर्थन करना कि ताकत केवल उन्हीं के पास हो सकती है जिनके पास बंदूकें हैं तथा जिनका धन-संपत्ति पर कब्ज़ा है। मैं इसलिए लिखता हूँ कि एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की रचनात्मक शक्ति को रोशनी में ला सकूँ। लोगों के पास, यदि संगठित हों तो, ज़बरदस्त ताकत होती है, किसी भी सरकार से ज़्यादा। हमारा इतिहास उन लोगों की कहानियों से भरा पड़ा है जो विरोध में खड़े होते हैं, हिम्मत करके बोलते हैं, अड़ जाते हैं, संगठन बनाते हैं, जुड़ते हैं, प्रतिरोध के जाल बनाते हैं, और इतिहास की धारा को बदल देते हैं।
मैं जन आंदोलनों की काल्पनिक जीतों की खोज नहीं करना चाहता। लेकिन यह सोचना कि इतिहास लेखन को केवल अतीत पर छाई हुई असफलताओं को याद दिलाना चाहिए, इतिहासकारों को हार के अंतहीन चक्र में शामिल कर लेने जैसा है। अगर इतिहास को रचनात्मक होना है, अतीत को नकारे बिना संभावित भविष्य के लिए तैयार होना है, तो मेरा मानना है कि उसे नई संभावनाओं पर ज़ोर देना चाहिए, अतीत की उन छिपी हुई घटनाओं को सामने लाकर, चाहे छोटी-छोटी झलकों में ही, जब लोगों ने अपनी प्रतिरोध की, साथ जुड़ने की, और कभी-कभी जीतने की भी क्षमताएँ प्रदर्शित की हैं। मैं मान रहा हूँ, या शायद उम्मीद कर रहा हूँ, कि हमारा भविष्य हमें अतीत के सहृदय शरणार्थी लम्हों में मिलेगा, न कि उसकी युद्घों से भरी ठोस सदियों में।
इतिहास हमारे संघर्ष में मदद कर सकता है, निर्णायक रूप से नहीं भी तो कम से कम रास्ता सुझाने के लिए। इतिहास हमें इस विचार से छुटकारा दिला सकता है कि सरकार के हित और जनता के हित एक ही होते हैं। इतिहास हमें बता सकता है कि सरकारें हम से किस तरह झूठ बोलती रही हैं, किस तरह पूरी आबादियों के नरसंहार का आदेश देती रही हैं, किस तरह वे गरीबों के अस्तित्व को ही नकार देती हैं, किस तरह वे हमें हमारे वर्तमान ऐतिहासिक क्षण तक ले आई हैं - "लंबा युद्ध," बिना अंत का युद्ध।
यह सच है कि हमारी सरकार के पास देश का धन जैसे चाहे खर्च करने की ताकत है। वह दुनिया में कहीं भी फौजें भेज सकती है। वह उन दो करोड़ आप्रवासियों की गिरफ़्तारी और निष्कासन का आदेश दे सकती है जिनके पास ग्रीन कार्ड नहीं है और जिन्हें कोई संवैधानिक अधिकार भी नहीं मिले हुए हैं। हमारे "राष्ट्रीय हितों" के नाम पर सरकार सैनिकों को अमरीका-मैक्सिको सीमा पर तैनात कर सकती है, कुछ देशों से मुस्लिमों को पकड़ कर ला सकती है, खुफ़िया तौर पर हमारी बातें सुन सकती है, हमारी ई-मेल खोल के देख सकती है, बैंकों में हमारे लेन-देन को देख सकती है, और हमें डरा कर चुप कराने की कोशिश कर सकती है। सरकार डरपोक मीडिया के सहयोग से सूचना को नियंत्रित कर सकती है। सिर्फ इसी कारण जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की लोकप्रियता (जिनसे पूछा गया उनका 33%) - 2006 तक आते-आते घटती हुई, पर फिर भी काफी - बनी हुई है। लेकिन यह नियंत्रण हमेशा के लिए नहीं है। यह बात कि मीडिया का 95% ईराक पर कब्ज़ा बनाए रखने के पक्ष में है (ऐसा कैसे किया जाए इसकी केवल ऊपरी निंदा करते हुए), जबकि 50% से ज़्यादा जनता वापसी के पक्ष में है, दिखाती है कि शासकीय झूठों के प्रति सामान्य बोध पर आधारित विरोध मौजूद है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि जनमत (अपने स्वभाव के अनुसार) कितने नाटकीय तरीके से अचानक बदल सकता है। याद करें कि बड़े जॉर्ज बुश के लिए जन समर्थन कितनी तेज़ी से खत्म हो गया था जैसे ही खाड़ी युद्ध में जीत की गर्मी कम हुई थी और आर्थिक परेशानियों की असलियत सामने आ गई थी।
याद करें कि वियतनाम युद्ध के शुरू में किस तरह 1965 में दो-तिहाई अमरीकन युद्ध के पक्ष में थे। कुछ ही वर्ष बाद दो-तिहाई अमरीकन युद्ध का विरोध कर रहे थे। उन तीन या चार वर्षों में ऐसा क्या हो गया? धीरे-धीरे प्रॉपेगंडा तंत्र की दरारों से सच का रिसना - यह समझना कि हमसे झूठ बोला गया था, हमें धोखा दिया गया था। जब मैं यहाँ अमरीका में 2006 की गर्मियों में यह लेख लिख रहा हूँ, तब भी यही हो रहा है। घबरा जाना, या इस बात को अपने ऊपर हावी होने देना कि युद्ध पैदा करने वालों के पास ज़बरदस्त ताकत है, आसान है। लेकिन कुछ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य उपयोगी हो सकता है, क्योंकि यह हमें बताता है कि इतिहास में ऐसे बिन्दु भी होते हैं जब सरकारों को पता चलता है कि उनकी सारी ताकत जागरूक हो चुके नागरिकों के विरुद्ध बेकार है।
सरकारों में एक मूलभूत कमज़ोरी होती है, चाहे उनके पास कितनी ही ढेर सारी सेनाएँ हों, चाहे कितनी ही दौलत उनके पास हो, चाहे छवियों और सूचना पर उनका नियंत्रण हो, क्योंकि उनकी ताकत नागरिकों, सैनिकों, अफ़सरों, तथा पत्रकारों और लेखकों और अध्यापकों और कलाकारों के आज्ञाकारी होने पर निर्भर करती है। जब नागरिकों को यह शक होने लगता है कि उन्हे धोखा दिया गया है और वे समर्थन वापस ले लेते हैं, तब सरकार की वैधता और उसकी शक्ति खत्म हो जाती है।
पिछले दशकों में हमने पूरे विश्व में यह सब होते देखा है। एक दिन जागने पर राजधानी की गलियों में लाखों गुस्साए लोगों को देख कर देश के नेताओं को अपना बोरिया-बिस्तर बांधते हुए और एक हेलीकॉप्टर की पुकार करते हुए। यह फ़ंतासी नहीं है; यह अभी हाल ही का इतिहास है। यह इतिहास है फ़िलीपीन का, इंडोनेशिया का, यूनान का, पुर्तगाल और स्पेन का, रूस, पूर्वी जर्मनी, पोलैंड, हंगरी तथा रोमानिया का। अर्जेंटीना और दक्षिण अफ्रीका और उन तमाम जगहों के बारे में सोचें जहाँ बदलाव होना असंभव लग रहा था पर हो गया। निकारागुआ में सोमोज़ा को अपने हवाई जहाज की तरफ दौड़ते हुए याद करें, फ़र्डीनांड और इमेल्डा मार्कोस को जल्दी-जल्दी अपने गहने और कपड़े संभालते हुए याद करें, ईरान के शाह को हताशा के साथ उस देश की खोज करते हुए याद करें जो उसे लेने को तैयार हो जबकि वह तेहरान में भीड़ से बचने के लिए भाग रहा था, हेती में दुवालिये को वहाँ की जनता के कोप से बचने के लिए मुश्किल से पतलून पहनते हुए याद करें।
हम यह उम्मीद तो नहीं कर सकते कि जॉर्ज बुश को हेलीकॉप्टर में भागना पड़े। पर हम उन्हें राष्ट्र को दो युद्धों में ढकेलने के लिए, इस देश तथा अफ़ग़ानिस्तान व ईराक़ मे दसियों हज़ार मनुष्यों की मृत्यु या उनके विकलांग होने के लिए, और अमरीकी संविधान तथा अंतर्राष्ट्रीय कानून के उल्लंघन के लिए ज़िम्मेदार तो ठहरा सकते हैं। निश्चय ही ऐसी कार्यवाहियाँ महाभियोग के लिए "भारी अपराध तथा कुकृत्य" कहलाने लायक हैं।
और देश भर में लोगों ने वास्तव में उनके विरूद्ध महाभियोग लगाने की मांग करना शुरू कर भी दिया है। हाँ, बुजदिल कांग्रेस से तो हम उन पर महाभियोग लगाने की उम्मीद नहीं ही कर सकते। कांग्रेस एक इमारत में अवैध प्रवेश करने के लिए निक्सन पर महाभियोग चलाने को तैयार थी, पर वो एक देश में अवैध प्रवेश के लिए बुश पर महाभियोग नहीं चलाएगी। वे क्लिंटन पर यौन कारनामों के लिए महाभियोग चलाने को तैयार थे, पर वे एक देश की धन-संपत्ति को महाधनियों के हवाले करने के लिए बुश पर महाभियोग नहीं चलाएंगे।
बुश प्रशासन की तसल्ली को लगातार भीतर ही भीतर एक कीड़ा खा रहा है: अमरीकन जनता की यह जानकारी - बहुत कम गहरी कब्र में दफ़न की हुई, आसानी से बाहर लाई जा सकने वाली - कि उसकी सरकार जनमत से नहीं बल्कि एक राजनैतिक तख्ता पलट से सत्ता में आई थी। इसलिए हो सकता है कि हम इस प्रशासन की वैधता को धीरे-धीरे विखंडित होते हुए देख रहे हों, इसके चरम आत्मविश्वास के बावजूद। साम्राज्यवादी ताकतों के अपनी जीतों पर इतराने का लंबा इतिहास है, अपनी पहुँच से ज्यादा खिंच जाने का और दुस्साहसी बन जाने का, और यह न समझने का कि ताकत सिर्फ़ हथियारों और पैसे से नहीं होती। सैनिक ताकत की अपनी सीमा होती है - मानवों द्वारा निर्धारित सीमा, उनके न्याय बोध तथा प्रतिरोध की क्षमता से निर्धारित सीमा। अपने 10,000 नाभिकीय बमों के बावजूद संयुक्त राज्य अमरीका कोरिया या वियतनाम में युद्ध नहीं जीत सका, क्यूबा या निकारागुआ में क्रांति को नहीं रोक सका। इसी तरह सोवियत संघ को अपने नाभिकीय बमों तथा विशाल सेना के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान से लौटने के लिए बाध्य होना पड़ा।
सैनिक शक्ति से लैस देश विनाश तो कर सकता है पर निर्माण नहीं कर सकता। इसके नागरिक व्यग्र हो रहे हैं क्योंकि उनकी मौलिक दैनिक ज़रूरतों को सैनिक गौरव के लिए बलि चढ़ाया जा रहा है जबकि उनके युवा बच्चों का ख्याल नहीं रखा जा रहा और उन्हें युद्ध में भेजा जा रहा है। उनकी व्यग्रता रोज़ बढ़ती जा रही है और नागरिक अधिकाधिक संख्याओं में इकट्टे हो रहे हैं, इतने कि उनको नियंत्रण में रखना मुश्किल होता जा रहा है; एक न एक दिन ऊपर से भारी साम्राज्य गिर पड़ते हैं। जन चेतना में बदलाव हल्के असंतोष से शुरू होता है, शुरू में अस्पष्ट सा, सरकार की नीतियों और असंतोष में बिना कोई संबंध समझे। फिर बिन्दु जुड़ने लगते हैं, नाराज़गी बढ़ने लगती है, और लोग विरोध में बोलने लगते हैं, संगठित होने लगते हैं, तथा विरोध की कार्यवाहियाँ शुरू कर देते हैं।
आज, जब संघ के हर राज्य में बजट में कमी की जा रही है, पूरे देश में अध्यापकों, नर्सों, चिकित्सा, तथा सस्ते घरों का अभाव महसूस हो रहा है। एक अध्यापक ने हाल ही में बॉस्टन ग्लोब को लिखा: "मैं बॉस्टन के उन 600 अध्यापकों में से हो सकता हूँ जिन्हें बजट में कमी के कारण नौकरी से निकाला जाने वाला है।" फिर यह पत्र लेखक इस बात को बमों पर खर्च किए गए पैसे से जोड़ता है जिसे, उसके शब्दों में, "मासूम ईराक़ी बच्चों को बग़दाद में अस्पताल भेजने के लिए लगाया जा रहा है।"
जब सरकारों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, सेनाओं तथा पुलिस की दिमागों को नियंत्रित करने, असहमति को कुचलने, और विद्रोह को नष्ट करने की विशाल ताकत हमारी सोच पर हावी हो जाए तब हमें कुछ ऐसी चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए जो मुझे रोचक लगती हैं। जिनके पास इतनी भारी ताकत है वे इस ताकत पर अपनी पकड़ बनाए रखने के बारे में आश्चर्यजनक रूप से चिंतित हैं। उनकी प्रतिक्रिया विरोध के बहुत ही छोटे और निरापद से दिखने वाले आसारों की तरफ भी लगभग हिस्टीरियाई होती है।
हम ताकत की हज़ार परतों से लैस अमरीकी सरकार को देख सकते हैं, कुछ शांतिवादियों को जेल में डालने या किसी लेखक को देश से बाहर रखने के लिए कड़ी मेहनत करते हुए। हम व्हाइट हाउस के सामने धरना दे रहे अकेले आदमी की तरफ निक्सन की हिस्टीरियाई प्रतिक्रिया को याद कर सकते हैं: "इसे पकड़ो!"
क्या ऐसा संभव है कि जो लोग सत्ता में हैं वो कुछ ऐसा जानते हैं जो हम नहीं जानते? शायद वे अपनी सीमाएँ जानते हैं। शायद वो समझते हैं कि छोटे आंदोलन ही बड़े आंदोलन बन सकते हैं, कि जो विचार जनता में अपनी जगह बना ले उसे मिटाया नहीं जा सकता। लोगों को युद्ध का समर्थन करने, दूसरों का दमन करने के लिए राज़ी किया जा सकता है, पर इस तरफ उनका स्वाभाविक झुकाव नहीं होता। कुछ लोग "पहले पाप" की बात करते हैं। कुर्त वॉनेगट उसको चुनौती देते हुए "पहले पुण्य" की बात करते हैं।
इस देश में लाखों लोग हैं जो वर्तमान युद्ध के विरुद्ध हैं। जब आप एक आँकड़ा देखते हैं "40% अमरीकन लोग युद्ध का समर्थन करते हैं," तो उसका मतलब होता है कि 60% अमरीकन समर्थन नहीं करते। मुझे यकीन है कि युद्ध का विरोध करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जाएगी जबकि युद्ध समर्थकों की संख्या घटती जाएगी। इस रास्ते पर कलाकार, संगीतकार, लेखक, और सांस्कृतिक कार्यकर्ता शांति व न्याय के लिए आंदोलन को एक खास भावनात्मक तथा आध्यात्मिक ताकत दे सकते हैं। विद्रोह अक्सर एक सांस्कृतिक चीज़ के रुप में शुरू होता है।
चुनौती अब भी बाकी है। विरोधी पक्ष के पास बहुत सी ताकतें हैं: पैसा, राजनैतिक शक्ति, अधिकतर मीडिया। हमारी तरफ है दुनिया की जनता और पैसे व हथियारों से बड़ी एक ताकत: सच। सच की अपनी ताकत होती है। कला की अपनी ताकत होती है। संयुक्त राज्य तथा सभी जगहों में जन संघर्षों का असली मतलब है वही युगों पुराना पाठ - कि हम जो भी करते हैं उससे फ़र्क पड़ता है। एक कविता एक आंदोलन की प्रेरणा बन सकती है। एक पर्चा क्रांति के लिए चिनगारी बन सकता है। नागरिक असहयोग लोगों को जगा सकता है और हमें सोचने के लिए उकसा सकता है। जब हम एक-दूसरे के साथ संगठित हो जाते हैं, जब हम शामिल हो जाते हैं, जब हम खड़े होकर साथ बोलने के लिए तैयार हो जाते हैं, तब हम ऐसी ताकत पैदा कर सकते हैं जिसे कोई सरकार दबा नहीं सकती।
हम रहते तो एक खूबसूरत देश में हैं। लेकिन ऐसे लोगों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है जो मानव जीवन, आज़ादी या न्याय की कोई कद्र नहीं करते। अब यह हमारा काम है कि हम इसे दुबारा पा लें।
अनुवादक: अनिल एकलव्य/ साभार - जेडनेट
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