सहरिया आदिवासियों की व्यथा कथा - दो

सरकारी व्यवस्था के ध्वस्त होने का मतलब
मध्यप्रदेश के सहरिया आदिवासियों के लिये जीवन का सबसे बड़ा अर्थ है उपेक्षा। राज्य की सबसे पिछड़ी हुई जनजाति के लोगों की जीवन में भुखमरी, कुपोषण और बीमारियों का चक्रवात ठीक उसी तरह निरन्तरता से आता है, जिस निरन्तरता से व्यापक समाज में अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी आती है। यूं तो सहरिया आदिवासी स्वतंत्रता के बाद से ही सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं किन्तु वर्ष 2001 से यह समुदाय लाल सुर्खियों में रहा है और सुर्खियों में आने का कारण रहा है भुखमरी और बीमारी के कारण इनका सिमटता अस्तित्व।
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मध्यप्रदेश के 1159 सहरिया गांवों में से आप किसी भी गांव की तरफ रूख कर लीजिये आपको हाल ही में किसी बच्चे की या फिर महिला की प्रसव मौत का उदाहरण जरूर सुनने को मिल जायेगा। लगातार होती रही उपेक्षा के बाद भी सहरिया ने कभी गुस्से का इजहार नहीं किया और इसी प्रवृत्ति को उसकी कमजोरी भी माना गया। सरकार कभी भी इनके प्रति ईमानदार नहीं रही। उन तक स्वास्थ्य सेवायें पहुंचाने के बजाये सरकारी स्तर पर सहरियाओं को असंवेदनशील और आलसी करार दिया गया।
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श्योपुर के गोठरा कपूरा गांव में इस बात के साफ प्रमाण मिलते हैं कि सरकारी व्यवस्था के ध्वस्त हो जाने के कारण किस तरह सहरिया कैसे एक बीमार, कमजोर और भुखमरी के शिकार समुदाय के रूप में पहचाना जाने लगा है। 48 परिवारों वाले इस गांव में हर बच्चों के शरीर पर फूट चुकी हुई फुंसियों से मवाद रिस रहा है पर कभी भी इस त्वचा रोग का इलाज करने की कवायद नहीं हुई। आंखों की पोरों से लेकर बालों के बीच, बांह, पेट, पीठ, नितम्ब, हथेली और तलुओं तक इस तरह के खुले घाव बच्चों के शरीर पर फैले हुये हैं। वे न तो लेट सकते है न खड़े हो पाते हैं और हर घाव पर कुछ सफेद सी दवा लगी दिखाई देती है। जानने पर पता चला कि 20 दिन पहले एएनएम ने गांव में हर परिवार को पैरासिटामोल की गोलियां बांटी थी, उसी को पीसकर ग्रामीणों ने बच्चों के घावों पर लगा दी थी। पंसूरी बाई बताती हैं कि मक्खियों ने बच्चों के घावों पर बैठ-बैठकर न केवल परेशन कर दिया था बल्कि उनमें अण्डे भी दे दिये थे जिससे उनमें छोटे-छोटे कीड़े जैसे भी पाये गये थे। एएनएम से बार-बार कहने पर भी दवा नहीं मिली, वह कहती थी साबुन से साफ कर लो, पर जब रोटी खाने के लिये लोगों के पास पैसा नहीं है तो साबुन कहा से खरीदेंगे। यदि पैसा ही होता तो किसी ओर का मुंह देखते क्या? इसीलिये सबने बुखार की गोली पीस कर घावों पर लगा दी। इससे कम से कम मक्खियां तो शरीर पर नहीं बैठेंगी। अब चूंकि एएएम भी हर बार जांच करके दवा देने के पैसे लेती है इसलिये बच्चों को नहलाते नहीं ताकि कहीं दवा न धुल जाये, नही तो दवा के पैसे देने पड़ेंगे। यहीं पर राधेश्याम कहते हैं कि ''हम तो काम मांग-मांग के भी हार चुके हैं। 27 अगस्त 2006 को ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के अन्तर्गत काम मांगने तहसील गये थे पर वहां भी आवेदन नहीं लिया गया तब 40 लोगों ने पंजीकृत डाक से काम की मांग की थी। कहते हैं कि रोजगार योजना में 15 दिन में काम पाने का अधिकार है, नहीं तो इसके बाद बेरोजगारी भत्ता मिलेगा। हमें तो दो महीने गुजर गये अब तक न तो काम मिला न बेरोजगारी भत्ता।'' जब हम स्वास्थ्य सुविधाओं की जमीनी वास्तविकता पर नजर डालते हैं तो पता चलता है कि गोठरा कपूरा से 8 किलोमीटर दूर सरारीखुर्द में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है पर वहां कितने सालों से डॉक्टर नहीं है यह तो वहां के गांव वाले भी भूल चुके है। यहां की एएनएम सावित्री भदौरिया महीने में चार दिन केन्द्र खोलती हैं। वहां न तो कोई उपकरण हैं न ही जांच की सुविधा। चिकित्सा केन्द्र पर चाहरदीवारी है जिसके भीतर चारों ओर गंदगी का राज है। इससे आगे बढ़ने पर 20 किलोमीटर दूर कराहल में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र है जिसके दरवाजे तो रोज खुलते हैं परन्तु चार चिकित्सकों के स्वीकृत पदों में से तीन पद खाली हैं और नर्स के पद भी नहीं भरे हैं। यह ब्लाक उस योजना का हिस्सा है जहां चलित चिकित्सालय वाहन काम कर रहा है पर इस योजना में पूरे विकासखण्ड में केवल एक वाहन ही चल रहा है जिसके कारण एक गांव से गुजरने के 35 दिन बाद उस गांव में दोबारा वाहन पहुंचता है वह भी तब जबकि वह चलता है। 5.60 लाख की जनसंख्या वाले श्योपुर जिले में 533 गांव हैं और यहां के एक जिला अस्पताल चार अस्पतालों में केवल 166 बिस्तर उपलब्ध हैं जिनमें से 148 बिस्तर पिछले 12 सालों से बदले नहीं गये हैं।
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विगत 18 महीनों से मध्यप्रदेश सरकार संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने के लिये विज्ञापन अभियान चलाये हुये है किन्तु इस अवधि में श्योपुर जिले में न तो बिस्तरों की संख्या में वृध्दि हुई है, न ही एक भी स्त्री और प्रसूति रोग विशेषज्ञ की नियुक्ति हुई है न ही दवाओं की उपलब्धता सहज हुई है। जिले में नर्स और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के साठ फीसदी पर भी खाली पड़े हुए हैं। अब आपके लिये पहेली यह है कि बताइये सुरक्षित मातृत्व का अधिकार कैसे सुनिश्चित होगा? कुपोषण का तांडव इस इलाके में अक्सर नजर आता है। जिस रानीपुरा की हम बात कर रहे हैं उस गांव में इस साल आठ बच्चों की पोषण की कमी के कारण होने वाली बीमारियों के कारण मौत हुई हैं। इस गांव की आंगनबाड़ी में जब बच्चों का वजन मापने की ही मशीन नहीं है तो कुपोषण कैसे मापा जा सकता है? आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के अल्प साक्षर होने के कारण बच्चों की स्थिति का कोई रिकार्ड वहां नहीं है। महिला बाल विकास अधिकारी कहते हैं कि एक तो सरकार ने भी कई पुरानी आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को अब सुपरवाईजर भी बना दिया है तो व्यवस्था कैसे चलेगी? बहरहाल वे यह छिपा जाते हैं कि जिले में पिछले 12 माह में से केवल साढ़े तीन से साढ़े चार माह के लिये पोषण आहार ही आंगनबाड़ियों तक पहुंचा है। यहां नियमित रूप से स्वास्थ्य जांच शिविर भी नहीं लगे हैं तो फिर केवल कार्यकर्ताओं को दोषी ठहराना, न्यायोचित नहीं माना जा सकता है।
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गोठरा कपूरा में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बिलासी बाई के सामने भी संकट यही है कि उसे कुपोषित बच्चों का रिकार्ड रखने में कई दिक्कतें आती हैं पर विभाग का कोई सहयोग नहीं मिलता है। इस गांव में एक साल में 13 बच्चों की मौत हुई है पर रिकार्ड में एक साल से कम उम्र के बच्चों की कोई जानकारी दर्ज नहीं हुई है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि श्योपुर में इस बात की कोई अधिकृत जानकारी उपलब्ध नहीं है कि जिले में एक साल से कम उम्र के कितने बच्चों की मृत्यु हो रही है। अप्रैल से अगस्त 2006 के बीच कुल 40 शिशु मृत्यु सरकारी आंकड़ों में दर्ज है जबकि केवल जड्डपुरा, रानीखुरा, कपूरागोठरा जैसे सात गांवों में ही 44 मौतें स्थानीय संगठन कार्यकर्ताओं ने दर्ज की हैं। मामला स्पष्ट है कि अभी संकट की वास्तविकता ही हमारे सामने नहीं आ रही है। इन गांवों में कुछ हद तक टीकाकारण तो हुआ नजर आता ही है किन्तु बीमारियों और आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिये सरकार की कोई तैयारी नहीं दिखती है।
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जब हम मध्यान्ह भोजन योजना पर नजर डालते हैं तो यही कहा जा सकता है कि इसे भी गहन चिकित्सा की जरूरत है। रानीपुरा के विद्यालय के 108 बच्चों के लिये एक ही शिक्षक गजराजसिंह नियुक्त है, वे भी स्थानीय नहीं है बल्कि 30 किलोमीटर दूर बसे गांव रीक्षीपेड़ा में रहते हैं। स्वाभाविक है कि स्कूल तो रोज खुलता ही नहीं होगा। रानीपुरा गांव का स्कूल महीने में तीन से चार दिन खुलता है और इसीलिये मध्यान्ह भोजन भी इतने ही दिन बंट पाता है। गोठरा पंचायत के ही सरारीखुर्द गांव में तो 180 बच्चों के लिये एक ही शिक्षक है जो गारस से आते हैं। इसी गांव का एक छात्र बलवंत कहता है कि शिक्षक ने तो हम सबको गधा बना रखा है। हम तमाम अधिकारों का विश्लेषण करते रहे हैं किन्तु पूरे आत्मविश्वास के साथ यह कभी नहीं कह सकते हैं कि बच्चों और महिलाओं को वास्तविक रूप में समाज और राज्य मिलकर जीवन की सुरक्षा दे पाये हैं। पिछले 22 महीनों में इस गांव में 6 साल से कम उम्र के 29 बच्चों की मौत हुई, कई आवेदन और ज्ञापन जिला प्रशासन से लेकर राज्य सरकार तक दिये गये। फिर भी कार्रवाई न होने पर जीवन के अधिकार पर छाये इस संकट को देश की सबसे बड़ी अदालत तक ले जाया गया और जांच के आदेश हुए। मीडिया ने एक मुहिम के तहत इस जनसंघर्ष में साथ दिया तब कहीं जाकर 15 महीने बाद पातालगढ़ में एक आंगनबाड़ी खुली, सरकारी राशन लोगों को मिलना शुरू हुआ और पिछले चार सालों में पहली बार मजदूरी के अवसर मिले।
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भुखमरी से निपटने की यह छोटी सी पहल केवल एक ही गांव तक सीमित रहीं। इसी विकासखण्ड के किसी भी दूसरे गांव में आज भी इसी तरह की स्थिति विद्यमान है और अनुभव यह सिखाता है कि अब रानीपुरा और गोठरा कपूरा के लिये भी शायद दो साल तक दिन रात का संघर्ष करना होगा। इन बच्चों की नियति यही है कि उन्हें मृत्यु उपरांत भी न्याय नहीं मिलेगा क्योंकि उनकी मौत पर विवाद होगा। चूंकि कभी उनकी स्वास्थ्य जांच नहीं हुई है इसलिये यह भी कभी सिध्द नहीं हो पायेगा कि वे भुखमरी के शिकार थे या नहीं, पर जिन्दा खड़े गांव के लोग बताते हैं कि दोनों समय भरपेट खाना खाने के अवसर इतने हैं जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है।
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इस पूरे संदर्भ में श्योपुर जिले के कलेक्टर एमएस भिलाला कहते हैं कि कुपोषण की स्थिति तो गंभीर है परन्तु हम जब भी गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों को बाल शक्ति केन्द्र में इलाज पूरा होने तक रूकते ही नहीं है (वे यह विश्लेषण नहीं करते हैं कि 14 दिन तक एक सहरिया परिवार बिना मजदूरी रह ही नहीं सकता है) पोषण आहार की आपूर्ति बाधित रही है और जिले के अस्पतालोकं में तो 40 फीसदी पद खाली पड़े हैं। अंदरूनी गांवों में डकैतों का आतंक है इसलिए स्थिति की निगरानी भी पर्याप्त नहीं है, परन्तु जिले में भूख से मौत या महिला-बच्चों का स्वास्थ्य बहुत खराब है ऐसी स्थिति भी नहीं है। यह अभी तक तय नही है कि न जाने कब तक रानीपुरा और गोठरा कपूरा के आदिवासियों को जिन्दगी का हर दिन भूखी आंतों की अकड़न, शरीर के ताप और मवाद रिसते घावों के साथ बिताना होगा?
-सचिन कुमार जैन, रोली, उमा और नरेन्द्र के प्रयास (विकास संवाद)

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