सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)
औरत के नजरिये से समाज एक अलग ही रूप में नजर आता है। वह वैसा रचनात्मक और स्वस्थ्य नहीं होता जिस तरह यह पुरूषों के लिये होता है। यहां महिलाओं के लिये गरीबी शायद एक बड़ा बोझ नहीं है परन्तु हर माह, माहवारी के दौर से गुजरना और उनके गुप्तांगों से होने वाले श्वेत द्रव के बहाव के बोझ से वे दोहरी हुई जाती हैं। विज्ञान के नजरिये से तो यह बहुत गंभीर समस्या नहीं है परन्तु समाज इसे स्त्री के चरित्र, उसके भाग्य और जीवन की स्वच्छता से जोड़कर परिभाषित करता है।
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यह सही है कि प्राकृतिक रूप् से नियमित होने वाली इन प्रक्रियाओं को यदि गंभीरता से न लिया जाये तो यह जानलेवा बीमारियों का रूप ले लेती हैं। और यह बीमारियाँ प्रजनन मार्ग में सक्रमण के रूप में सामने आती हैं। महिलाओं के शरीर में घटने वाली शारीरिक घटनाओं को इतने अलग-अलग रूपों में परिभाषित किया गया है कि उन पर अब खुलकर चर्चा करना भी बुरा ही माना जाता है। यह चर्चा चरित्र के हनन से जुड़ जाती है। यूं तो चिकित्सक इसे एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया मानते हैं और जानकार कहते हैं कि जिस तरह पौधों से नियमित रूप से फलों की उत्पत्ति होती है वैसे ही श्वेत स्त्राव या माहवारी एक औरत की प्रजनन शक्ति का प्रमाण होती है। सामाजिक स्तर पर इसे खुलकर स्वीकार नहीं किया जाता है। सफेद पानी के बवाह की शुरूआत से किशोरी के मन को जीवन भर का बोझ ही मिलता है। वह तनाव में होती है। उसे लगता है कि उसने कुछ ऐसा गलत काम या व्यवहार किया है जिससे उसके जननांगों में से इस तरह का पानी बह रहा है। परिवार की सयानी महिलायें यहां तक की उसकी मां भी इस स्थिति को तकनीकी रूप में समझाने के बजाय अपनी बेटी पर बंदिशें लगाना शुरू कर देती है। वे मानती है कि यदि अब उसकी जवान होती बेटी के किसी पुरूष से शारीरिक सम्बन्ध बन गये तो वह गर्भवती हो जायेगी और यह एक अमित कलंक होगा। अब एक तनाव भीतर पनपने लगता है, एक असुरक्षा आपसी सम्बन्धों में आ जाती है और बेटी के प्रति सहज ही अविश्वास की भावना पनपने लगती है। गांव की दाईयें बताती हैं कि माहवारी या सफेद पानी के बहाव के बारे में कोई चर्चा नहीं करता है। इसका पता तो घर के आंगनों में सूख रहे कपड़ों पर पड़े दागों से ही चलता है। सामान्यत: मासिक धर्म के दौरान पहे गये कपड़ों को अंधेरे में ऐसे स्थान पर सुखाया जाता है जहां परिवार या रिश्तेदारों का आना-जाना नहीं होता है। इसका परिणाम यह होता है कि ऐसे वस्त्रों के धूप में न सूखने या सही ढंग से साफ न होने के कारण संक्रमण का खतरा बढ़ता जाता है। और शरीर की एक सामान्य प्रक्रिया औरत के स्वास्थ्य के लिये अभिशाप बन जाती है।
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महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में महिलाओं के स्वास्थ्य के मुद्दे पर कार्य कर रही सर्च संस्था के निष्कर्ष बताते हैं कि 92 फीसदी महिलायें किसी न किसी प्रजनन अथवा यौन सम्बन्धी संक्रमण की शिकार हैं। सामुदायकि व्यवहार के अध्ययनों से पता चलता है कि कपड़ों पर नजर आने वाले दागों के साथ-साथ इसे महिलाओं की शारीरिक कमजोरी के साथ भी जोड़कर देखा जाता है। यूं तो इस श्वेत प्रवाह से शरीर के अवशिष्ट पदार्थ ही महिलाओं के शरीर के साथ बाहर आते है। किन्तु सामाजिक स्तरों पर इसे स्त्री की शक्ति और ताकत के बह जाने के रूप में परिभाषित किया जाता है। साथ ही यह भी माना जाता है कि महिलाओं के शरीर में यौन सम्बन्धी अपेक्षायें पुरूषों से ज्यादा होती हैं और इसी 'गर्मी' के कारण श्वेत स्त्राव होता है। जिसे फिर नियंत्रित करने के लिये गर्मी पैदा करने वाले खाने के उपयोग पर प्रतिबंध लगया दिया जाता है। तब महिलाओं को दूध, क्रीम, अण्डे या गुड़ से बने खाद्य पदार्थ खानों को नहीं मिलते हैं। इस तमाम विसंगतिपूर्ण व्यवहारों का परिणाम यह होता है कि महिलायें शारीरिक रूप से कमजोर होती जाती हैं और उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
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भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में स्वास्थ्य एवं रोगोपचार का जिक्र आते ही कई तरह के विचार पैदा होते हैं, लेकिन इनमें आयुर्वेद, सिध्द, यूनानी और तिब्बती चिकित्सा प्रणाली जैसे परंपरागत तरीकों पर लोगों का यकीन साफ तौर पर उभरकर आता है। इसकी एक खास वजह यह है कि ये लोग स्वास्थ्य परंपराएं समाज में गहरी पकड़ बना चुकी हैं। समय के साथ इन परंपराओं ने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की चुनौतियों के मुताबिक स्वयं को ढाल लेने में भी कामयाबी प्राप्त कर ली है। आम आदमी के लिए लोक स्वास्थ्य परम्पराओं का अर्थ बीमारियों को दूर कर जीवन देने वाले इलाज से जुड़ा हुआ है। खासतौर पर महिलाओं के लिए तो यह जिंदगी की उन चुनौतियों के समान है जो उसके रोजमर्रा के स्वास्थ्य से जुड़ी हैं और इनसे निपटने के लिए वे इन्हीं परम्पराओं पर आधारित तकनीकों का सहारा लेती हैं। उनके लिए इन परम्पराओं से जुड़ी धारणाएं अब अंधविश्वास से भरे उपायों, टोटकों, लोक रीतियों और भ्रांतियों का पर्याय बन चुकी हैं।
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अपने आज में हम यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि गर्भवती होने से लेकर प्रसव होने के बाद तक की स्थिति में स्त्री शरीर के भीतर घटने वाली घटनाओं पर समाज और सामाजिक व्यवहार ने कितने व्यापक तरीकों से नियंत्रण कर रखा है। सवाल अभी यह नहीं है कि यह व्यवहार सही है अथवा गलत; पर बड़ा सवाल यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में महिलायें कहां हैं?
प्रसव से जुड़े सामाजिक व्यवहार
आज के दौर में हमारा पारम्परिक समाज भी संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। जां वह न तो अपने पारम्परिक विज्ञान का भलि-भांति उपयोग कर पा रहा है न ही आधुनिक पद्वतियों का। यह एक विडम्ब्नापूर्ण स्थिति है कि प्रजनन से सम्बन्धित समस्याओं को हल करने के बजाये इन्हें महिलाओं के चरित्र के सवाल से जोड़ दिया जाता है। परिणाम स्वरूप उनमें अपराधबोध का जन्म होता है और यह तनाव उनकी मृत्यु का कारण बन जाता है।
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प्रजनन स्वास्थ्य का यह सवाल प्रत्यक्ष रूप से सुरक्षित मातृत्व के अधिकार से जुड़ता है। स्पष्ट रूप से कहा जाये तो औरत को एक यंत्र के रूप में हर पल उपयोग में लाया जाता है। पुरूष सत्तात्मक समाज की नजर हर उस क्षण पर लगी रहती है कि कब वह एक उत्पादक की भूमिका में आयेगी। और चूंकि प्रजनन से पुरूष सत्तात्मक समाज के राजनैतिक स्वार्थ जुड़े हैं इसलिये यदा-कदा वह संरक्षक की भूमिका में भी नजर आता है।
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मध्यप्रदेश का बुंदेलखण्ड का इलाका एक सामंतवादी इलाका है जहां दलित समुदाय बहुलता में है। वैसे तो गर्भावस्था से लेकर प्रसव के बाद तक की स्थिति में होने वाले व्यवहार में विभिन्न समुदायों के बीच बहुत व्यावहारिक अंतर नहीं है इसीलिये एक इलाके के व्यवहार पर नजर डाल कर व्यवस्था को समझा जा सकता है। बुंदेलखण्ड के क्षेत्र में जैसे ही यह तय हो जाता है कि परिवार की महिला गर्भवती है तो उसकी बांह में या गले में कुल देवता (हर परिवार या कुटुम्ब के एक कुल देवता तय होते हैं, जिनकी नियमित पूजा की जाती है) के नाम पर गंदा या ताबीज बांध दिया जाता है। यह अवस्था आते ही गर्भवती महिलाओं के खान-पान को नियंत्रित कर दिया जाता है। माना यह जाता है कि ज्यादा खाने से बच्चे पर दबाव पड़ेगा या फिर वह बहुत ज्यादा भारी होगा जिससे प्रसव के समय तकलीफ होगी। प्रसव के समय यानी कि नौ माह पूरे होते समय गर्भवती महिला का पेट जितना छोटा होता है उसे उतना ही बेहतर माना जाता है। ज्यादा से ज्यादा श्रम करना गर्भवती महिला और प्रसव के लिये अच्छा माना जाता है। और जब प्रसव पीड़ा होती है तो उसे घी पिलाया जाता है। जैसे ही यह तय हो जाता है कि प्रसव का समय आ गया है वैसे ही गांव की सयानी महिलाओं को इकट्ठा करे दाई को बुलवाया जाता है। प्रसव ऐसे कमरे में करवाया जाता है जिसका सामान्यत: कम उपयोग होता है और हवा-रौशनी कम होती है। गर्भवती महिला को इंटों की बनी एक संरचना पर बिठाया जाता है। उसे पानी में शराब मिलाकर मंत्रपढ़कर पानी दिया जाता है। मूलत: प्रसव का काम दाई ही करती है और बच्चे के पैदा होते ही मां के बालों की एक लट उसके मुंह में दबा दी जाती है। मान्यता यह है कि इससे आंवल (अपरेटा) जल्दी बाहर आ जाती है। गर्भाशय के बाहर आ जाने की स्थिति में दाई अपनी एड़ी (पैर के पंजे के पिछले हिस्से से) गर्भाशय को धकेल कर अंदर करती है। आमतौर पर यही व्यवहार संक्रमण का सबसे बड़ा कारण बनता है। बच्चे के जन्म के बाद अब भी नाल काटने के लिये पुराने धागे या ब्लेड का उपयोग किया जाता है। इसके बाद नाभि पर तेल लगाकर देवी या देवता के नाम पर भभूत (राख) लगा दी जाती है। प्रसव के बाद जिस कमरे में महिला को रखा जाता है वहां पांच दिन तक नियमित आग का धुंआ किया जाता है। जहां तक आहार या भोजन का सवाल है, महिला को प्रसव के बाद गुड़ या गया का दूध दिया जाता है और पीने के लिये 10 दिन तक चरूआ का पानी उपयोग में लाया जाता है। चरूआ एक मिट्टी का घड़ा होता है जिसमें तांबे के सिक्के, खैर की लकड़ी, अजवायन और कुछ जड़ी-बुटियां पानी में मिलाई जाती हैं। इस मिश्रण को इतना उबाला जाता है कि पानी आधा रह जाये। यह पानी पकने पर लाल रंग ले लेता है। इसके साथ ही अगे पांच दिनों तक सम्पन्न परिवारों में घी में गुड़, सौंठ, मेवे एवं हल्दी को उबालकर एक गाढ़ा तरल पदार्थ, जिसे हरीरा कहते हैं, भी खिलाया जाता है। बुंदेलखण्ड के इलाकों में प्रसव के पांच दिन बाद प्रसूता को नहलाया जाता है। उसे नहलाने के लिये नीम के पत्तों, अजवायन को पानी में उबाला जाता है। बच्चे का जन्म होने के बाद 41 दिनों तक छुआ-छूत मानी जाती है। इस अवधि में नवजात शिशु की मां को किसी भी धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रम में भाग लेने की अनुमति नहीं होती है। इतने दिनों तक महिलाओं को हरी सब्जी या पत्तेदार सब्जियां खाने में बिल्कुल नहीं दी जाती हैं। छूत की इस अवधि में नवजात शिशु को भी मां से अलग रखा जाता है। महिलाएं किस तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करती हैं और घर से बाहर इलाज के लिए जाने पर उन्हें किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, यह जानने के लिए भारतीय समाज में पुरूष प्रधान कुल परम्पराओं की प्रमुखता पर गौर करना जरूरी है। यह इसलिए, क्योंकि इन्हीं कुल परम्पराओं के कारण ही महिलाएं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना चुपचाप खामोशी के साथ करती हैं। यदि मर्ज बढ़ जाए तो वे धर्म और अध्यात्म में डूबकर अपनी पीड़ा को भुलाने की कोशिश करती हैं।
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भारतीय समाज में पुरूष प्रधान व्यवस्था एक महिला से अच्छी मों और सुघड़ गृहणी बनने की उम्मीद करती है। परिवार में पुरूष भी महिलाओं पर नियंत्रण रखने में इसलिए भी दिलचस्पी रखते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा न करें तो परिवार की महिलाएं अपनी यौनेच्छा को पूरा करने के लिए किसी और साधन का सहारा ले सकती हैं और इससे कुल की मर्यादा तो प्रभावित होगी ही, साथ में वंश परम्पराओं पर भी असर पड़ता है। खासतौर पर ब्राम्हणों में परिवार की महिलाओं को कुल की मर्यादा का पालन करने की सख्त हिदायत दी जाती है और यह प्रथा आर्य संस्कृति के जमाने से चली आ रही है। महिलाओं को पतिब्रता और स्त्रीधर्म अपनाने की सलाह दी जाती है। हिंदू समाज में रहने वाली हर महिला को इन वर्जनाओं की जानकारी होती है, क्योंकि शादी से पहले और उसके बाद उन्हें इन्हीं वर्जनाओं के बीच जीना होता है। किशोरावस्था से लेकर गर्भधारण, गर्भपात, मासिक धर्म आदि सभी परिस्थितियों में स्त्री के व्यवहार और उसकी इच्छाओं पर पुरूष प्रधान समाज और कुल का नियंत्रण रहता है।
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सत्ता के लिये बेटे की चाह
महिलाओं के स्त्री धर्म में कुल परम्पराओं का पालन करने के साथ एक और बाध्यता वंश को आगे चलाने के लिए एक बेटे को जन्म देने की भी है। यह इसलिए है, क्योंकि समाज में लड़के को ही संपत्ति का हक मिलता है। बेटियों को पराया धन माना जाता है, जिसके कारण पुरूषों की तुलना में महिलाओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। समाज और परिवार की कई परम्पराओं, जैसे दाह संस्कार आदि में भी सिर्फ बेटे को ही भाग लेने की अनुमति है, इसलिए भी बेटे की चाह ही सबसे अधिक होती है, ताकि वह कुल की परम्पराओं का निर्वाह कर सके। भारतीय समाज में यह मान्यता है कि प्रजनन की शक्ति सिर्फ पुरूषों को ही प्राप्त है और यदि कोई महिला बच्चे को, खासकर बेटे को जन्म न दे सके तो उसके लिए पुरूष को नहीं, बल्कि महिला को ही दोषी माना जाता है। अगर किसी महिला को बेटा नहीं होता है तो उसके लिए कई अजीबोगरीब टोटके भी किए जाते हैं। मिसाल के लिए उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में ऐसी महिलाएं किसी और के मकान में आग लगा देती हैं, ताकि उसका बेटा पैदा हो।
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हालांकि बेटे के साथ एक बेटी की जरूरत भी परिवार में बताई गई है, ताकि वह रक्षाबंधन जैसी परम्पराओं का निर्वाह तो कर ही सके, साथ में घर में समृध्दि का प्रतीक बनकर भी रहे। बेटे की चाह में महिला को बार-बार गर्भपात करवाने से अत्यधिक रक्तस्त्राव होता है जिससे उसे कमजोरी आ जाती है, या फिर शरीर में खून की कमी हो जाती है। इन सबके बाद भी गर्भपात हरेक महिला के जीवन का एक अभिन्न अंग होता है।
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बचपन से ही लड़कियों के खानपान में पर्याप्त ध्यान न रखने से शादी के फौरन बाद उनमें गर्भपात की संभावना अधिक होती है। गर्भपात के डार से गर्भवती स्त्रियों को नीम जैसी कड़वी चीजें खाने को नहीं दी जातीं। यदि उसे कोई कड़वी दवा देना जरूरी हो तो उसे उसकी जड़ को खाने की सलाह दी जाती है। यह भी माना जाता है कि यदि महिला के शरीर में जरूरत से ज्यादा गर्मी है तो उसे गर्भ नहीं ठहरता। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि कोई गर्भवती महिला यदि किसी चौड़ी खाई को कूदकर पार करे तो भी उसका गर्भपात हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान बहुत ज्यादा काम करने, वनज उठाने, कड़ी मेहनत करने और कच्चा पपीता खाने आदि को भी गर्भपात करवाने वाला माना जाता है, इसलिए इन पर सख्त पाबंदी होती है। .
मध्यप्रदेश के भिण्ड एवं मुरैना जिलों में लड़के एवं लड़कियों की संख्या में लगभग 200 का अंतर आ गया है। इन इलाकों में सामंतवादी प्रवृत्ति है जिसमें यह माना जाता है कि परिवार में लड़की का जन्म होने से ठाकुर की मूंछ नीची हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप यहां सोनोग्राफी के जरिये लिंग निर्धारण का गर्भपात कराने की व्यवस्थ बहुत ही सामान्य हो चली है। फिर यदि लड़की का जन्म होता भी है तो उसे अफीम चटाकर, गला दबाकर या भूखे रखकर खत्म कर दिया जाता है। यह नहीं माना जाना चाहिए कि बेटे की चाह केवल गरीब या अशिक्षित परिवारों में है बल्कि सम्पन्न और उच्च शिक्षित परिवार यह वहशीयाना व्यवहार करने में अग्रणी है।
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संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि ये सभी मान्यताएं महिलाओं के पूरक अनुभवों से जुड़े हुए हैं, लेकिन यहां यह कहना मुश्किल है कि क्या इनका गर्भपात से भी कोई नाता है। दूसरा पक्ष - बचपन से लड़की को यही सिखाया जाता है कि शादी ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और मां बनना सबसे बड़ा सुख। अधिकांश महिलाएं इसे ही अपनी सामाजिक भूमिका के रूप में स्वीकार कर लेती हैं। इसके अन्तर्गत महिला को अपने बच्चों को सही तरीके से परवरिश करना और उनके लिए अपने सुख-दुख का ख्याल न रखते हुए हर तरह से त्याग करने को तैयार रहने को कहा जाता है। इन सबसे बीच महिला की जिंदगी का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण क्षण वह होता है, जब वह बच्चे पैदा करने में असमर्थ होती है, या फिर परिवार में बेटे की चाह को पूरा नहीं कर पाती। इसके चलते उसकी जिन्दगी हिंसा, नफरत और अपमान की शिकार होने लगती है।
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भारतीय सामाजिक परम्परा में एक बांझ औरत के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसी महिलाओं के साथ देश के प्राय: हर हिस्से में अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता। उन्हें मारा-पीटा जाता है, अपमानित किया जाता है और यहां तक कि पति की दूसरी शादी की धमकी भी दी जाती है। इसके अलावा अक्सर ऐसी स्थिति में महिलाओं को तलाक का भी सामना करना पड़ता है। बांझपन के लिए सिर्फ महिलाओं को ही दोषी माना जाता है। इसके उपचार के लिए दाई को बुलाया जाता है, जो उसे कुछ जड़ी-बूटियां उपलब्ध कराती है। अगर इससे भी समस्या नहीं सुलझती तो पुरूष या महिला ओझा के जरिए उसका बंदोबस्त किया जाता है। यदि महिला के परिवारजनों का रवैया सहयोगात्मक हो ता वे उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं, जहां उसे हार्मोन की गोलियां, पौष्टिक आहार लेने की हिदायत के साथ पति के वीर्य की जांच करने को कहा जाता है। हालांकि वीर्य की जांच के लिए बहुत कम पुरूष ही तैयार होते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि कहीं समाज उन्हें नपुंसक न समझ ले। यही कारण है कि वह महिला को ही बांझपन के लिए दोषी बताता है। यह सभी परम्पराएं समाज में महिलाओं को वश में करने के लिए लागू किए जाते हैं।
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कर्नाटक के ग्रामीण समाज में यह मान्यता है कि यदि महिला को माहवारी के दौरान तेज दर्द होता है तो इसका सीधा मतलब यह है कि उसकी प्रजनन शक्ति कमजोर है और उस पर बुरी आत्माओं का साया है। इन मान्यताओं से साफ है कि इनकी वजह से महिलाओं पर अनावश्यक मानसिक दबाव पड़ता है। फिर भी समाज जाति, वर्ग और संप्रदाय से नाता रखने वाले किसी बच्चे को गोद लेने की मान्यता कई वर्गों में है, लेकिन उसमें भी लड़के को ही प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि बेटै को ही वंश वृध्दि करने वाला माना जाता है।
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भारतीय समाज में एक महिला का मां के रूप में सबसे पहला कर्तव्य यही है कि वह अपने परिवार की संतान और खासतौर पर बेटे की अपेक्षा को पूरा करे। यही कारण है कि संतान के बारे में समाज की सभी मान्यताएं भी महिला की प्रजनन शक्ति पर आकर टिक जाती हैं। ऐसी कई मान्यताएं हैं, जिनका चिकित्सा विज्ञान में कोई पुख्ता आधार नहीं है, लेकिन ये कायम हैं, क्योंकि एक मां के तौर पर स्त्री की भूमिका इन्हीं मान्यताओं पर आकर टिक जाती है। एक मान्यता के मुताबिक यदि गर्भाशय का मुंह औंधा हो तो महिला प्रजनन करने में अक्षम होती है। यदि महिला के शरीर की गर्मी ज्यादा हो तो भी वह प्रजनन नहीं कर सकती, क्योंकि इस गर्मी से पुरूष के वीर्य में मौजूद शुक्राणु मर जाते हैं। ऐसी मान्यताएं प्रशिक्षित दाईयों की भी है।
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मासिक धर्म और समाज का नियंत्रण
जैसे ही किसी लड़की को पहली बार मासिक धर्म होता है, तभी उसके रजस्वला होने की घोषणा यूं तो बड़े ही धूमधाम से की जाती है, लेकिन बाद में कई परम्पराओं के नाम पर उसके साथ बंदिशें जोड़ दी जाती हैं। इसके पीछे नजरिया यह होता है कि मासिक स्त्राव से आसपास का वातावरण प्रदूषित होता है और इसी वजह से लड़की को हर माह मासिक धर्म के दिनों में घर के किसी कोने में अलग से रहना पड़ता है। यहां तक कि न तो वह घर के किसी सदस्य को छू सकती है और न ही नहाने के बाद अपने कपड़ों को बाहर खुले में सूखने के लिए डाल सकती है। शादी के बाद भी महिलाओं को उनके बच्चों को छूने नहीं दिया जाता। धार्मिक किताबों और मूर्तियों को भी छूने की इजाजत नहीं मिलती। ये प्रतिबंध लड़की के खान-पान में भी लागू होते हैं। यह सिलसिला हर माह कम से कम तीन दिन तक तो जरूर चलता है। स्त्री के मासिक धर्म के दौरान निकलने वाले रक्त स्त्राव को न केवल प्रदूषित माना जाता है, बल्कि उसे एक अपशकुन की तरह भी देखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि मासिक धर्म के दौरान यदि पीड़ित स्त्री की परछाई किसी बच्चे पर पड़ जाए तो उसे चेचक हो सकता है, या फिर वह अंधा हो सकता है।
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आंध्रप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में तो मासिक धर्म के रक्त से भीगे गंदे कपड़े को महिलाएं या तो जमीन में गाड़ देती है।, या फिर उन्हें जला देती हैं। महिलाओं में मासिक धर्म को लेकर मुस्लिम और हिंदू धर्म की मान्यताओं में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। लेकिन ये मान्यताएं स्त्री पर सामाजिक नियंत्रण की कोशिशों से जुड़ी हुई हैं, जिन्हें लागू करवाकर पुरूष प्रधान कुलीन समाज महिला को अपने वश में करना चाहता है। चूंकि अधिकांश महिलाओं को मासिक धर्म के कारण का पता नहीं होता, इसलिए उनके लिए पहला मासिक धर्म शर्म, डर और निराशा पैदा करने वाला होता है। दक्षिण और उत्तार भारत के ज्यादातर इलाकों में मासिक धर्म की शुरूआत को स्त्री के लिए गर्भधारण की क्षमता से परिपूर्ण हो जाने का संकेत माना जाता है। आंध्रप्रदेश में तो मासिक धर्म के दौरान लड़की को लगातार 21 दिन घर के एक कोने में लोहे के जंगले के भीतर रखा जाता है, ताकि किसी पुरूष सदस्य की निगाह उस पर न पड़े। जिस कमरे में वह रहती है वहां लगातार आग जलाकर रखी जाती है ताकि बुरी शक्तियों से उसकी पवित्रता अक्षुण्ण रहे। हालांकि आमतौर पर महिलाओं के साथ खान-पान के मामले मेकं तो हमेशा भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है, लेकिन कुछ खास मौकों पर उनके लिए पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन भी पकाया जाता है।
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मासिक धर्म के दिनों में इस तरह का भोजन लड़की को खाने के लिए दिया जाता है और यह परम्परा तकरीबन हर जाति, समुदाय और वर्ग में कायम है। लड़की के खानपान में कुछ गर्म और ठंडे पदाथों और वस्तुओं की मनाही होती है, क्योंकि यह माना जाता है कि इससे उसे मासिक धर्म के दौरान दर्द का अनुभव होगा। लड़की को पौष्टिक पदार्थ खाने में दिये जाने के पीछे मंशा यह होती है कि रक्तस्त्राव के कारण पैदा होने वाली कमजोरी उसे न महसूस हो और मासिक धर्म नियमित हो जाए, साथ ही प्रजनन अंगों का विकास भी हो।
औरत के नजरिये से समाज एक अलग ही रूप में नजर आता है। वह वैसा रचनात्मक और स्वस्थ्य नहीं होता जिस तरह यह पुरूषों के लिये होता है। यहां महिलाओं के लिये गरीबी शायद एक बड़ा बोझ नहीं है परन्तु हर माह, माहवारी के दौर से गुजरना और उनके गुप्तांगों से होने वाले श्वेत द्रव के बहाव के बोझ से वे दोहरी हुई जाती हैं। विज्ञान के नजरिये से तो यह बहुत गंभीर समस्या नहीं है परन्तु समाज इसे स्त्री के चरित्र, उसके भाग्य और जीवन की स्वच्छता से जोड़कर परिभाषित करता है।
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यह सही है कि प्राकृतिक रूप् से नियमित होने वाली इन प्रक्रियाओं को यदि गंभीरता से न लिया जाये तो यह जानलेवा बीमारियों का रूप ले लेती हैं। और यह बीमारियाँ प्रजनन मार्ग में सक्रमण के रूप में सामने आती हैं। महिलाओं के शरीर में घटने वाली शारीरिक घटनाओं को इतने अलग-अलग रूपों में परिभाषित किया गया है कि उन पर अब खुलकर चर्चा करना भी बुरा ही माना जाता है। यह चर्चा चरित्र के हनन से जुड़ जाती है। यूं तो चिकित्सक इसे एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया मानते हैं और जानकार कहते हैं कि जिस तरह पौधों से नियमित रूप से फलों की उत्पत्ति होती है वैसे ही श्वेत स्त्राव या माहवारी एक औरत की प्रजनन शक्ति का प्रमाण होती है। सामाजिक स्तर पर इसे खुलकर स्वीकार नहीं किया जाता है। सफेद पानी के बवाह की शुरूआत से किशोरी के मन को जीवन भर का बोझ ही मिलता है। वह तनाव में होती है। उसे लगता है कि उसने कुछ ऐसा गलत काम या व्यवहार किया है जिससे उसके जननांगों में से इस तरह का पानी बह रहा है। परिवार की सयानी महिलायें यहां तक की उसकी मां भी इस स्थिति को तकनीकी रूप में समझाने के बजाय अपनी बेटी पर बंदिशें लगाना शुरू कर देती है। वे मानती है कि यदि अब उसकी जवान होती बेटी के किसी पुरूष से शारीरिक सम्बन्ध बन गये तो वह गर्भवती हो जायेगी और यह एक अमित कलंक होगा। अब एक तनाव भीतर पनपने लगता है, एक असुरक्षा आपसी सम्बन्धों में आ जाती है और बेटी के प्रति सहज ही अविश्वास की भावना पनपने लगती है। गांव की दाईयें बताती हैं कि माहवारी या सफेद पानी के बहाव के बारे में कोई चर्चा नहीं करता है। इसका पता तो घर के आंगनों में सूख रहे कपड़ों पर पड़े दागों से ही चलता है। सामान्यत: मासिक धर्म के दौरान पहे गये कपड़ों को अंधेरे में ऐसे स्थान पर सुखाया जाता है जहां परिवार या रिश्तेदारों का आना-जाना नहीं होता है। इसका परिणाम यह होता है कि ऐसे वस्त्रों के धूप में न सूखने या सही ढंग से साफ न होने के कारण संक्रमण का खतरा बढ़ता जाता है। और शरीर की एक सामान्य प्रक्रिया औरत के स्वास्थ्य के लिये अभिशाप बन जाती है।
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महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में महिलाओं के स्वास्थ्य के मुद्दे पर कार्य कर रही सर्च संस्था के निष्कर्ष बताते हैं कि 92 फीसदी महिलायें किसी न किसी प्रजनन अथवा यौन सम्बन्धी संक्रमण की शिकार हैं। सामुदायकि व्यवहार के अध्ययनों से पता चलता है कि कपड़ों पर नजर आने वाले दागों के साथ-साथ इसे महिलाओं की शारीरिक कमजोरी के साथ भी जोड़कर देखा जाता है। यूं तो इस श्वेत प्रवाह से शरीर के अवशिष्ट पदार्थ ही महिलाओं के शरीर के साथ बाहर आते है। किन्तु सामाजिक स्तरों पर इसे स्त्री की शक्ति और ताकत के बह जाने के रूप में परिभाषित किया जाता है। साथ ही यह भी माना जाता है कि महिलाओं के शरीर में यौन सम्बन्धी अपेक्षायें पुरूषों से ज्यादा होती हैं और इसी 'गर्मी' के कारण श्वेत स्त्राव होता है। जिसे फिर नियंत्रित करने के लिये गर्मी पैदा करने वाले खाने के उपयोग पर प्रतिबंध लगया दिया जाता है। तब महिलाओं को दूध, क्रीम, अण्डे या गुड़ से बने खाद्य पदार्थ खानों को नहीं मिलते हैं। इस तमाम विसंगतिपूर्ण व्यवहारों का परिणाम यह होता है कि महिलायें शारीरिक रूप से कमजोर होती जाती हैं और उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
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भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में स्वास्थ्य एवं रोगोपचार का जिक्र आते ही कई तरह के विचार पैदा होते हैं, लेकिन इनमें आयुर्वेद, सिध्द, यूनानी और तिब्बती चिकित्सा प्रणाली जैसे परंपरागत तरीकों पर लोगों का यकीन साफ तौर पर उभरकर आता है। इसकी एक खास वजह यह है कि ये लोग स्वास्थ्य परंपराएं समाज में गहरी पकड़ बना चुकी हैं। समय के साथ इन परंपराओं ने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की चुनौतियों के मुताबिक स्वयं को ढाल लेने में भी कामयाबी प्राप्त कर ली है। आम आदमी के लिए लोक स्वास्थ्य परम्पराओं का अर्थ बीमारियों को दूर कर जीवन देने वाले इलाज से जुड़ा हुआ है। खासतौर पर महिलाओं के लिए तो यह जिंदगी की उन चुनौतियों के समान है जो उसके रोजमर्रा के स्वास्थ्य से जुड़ी हैं और इनसे निपटने के लिए वे इन्हीं परम्पराओं पर आधारित तकनीकों का सहारा लेती हैं। उनके लिए इन परम्पराओं से जुड़ी धारणाएं अब अंधविश्वास से भरे उपायों, टोटकों, लोक रीतियों और भ्रांतियों का पर्याय बन चुकी हैं।
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अपने आज में हम यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि गर्भवती होने से लेकर प्रसव होने के बाद तक की स्थिति में स्त्री शरीर के भीतर घटने वाली घटनाओं पर समाज और सामाजिक व्यवहार ने कितने व्यापक तरीकों से नियंत्रण कर रखा है। सवाल अभी यह नहीं है कि यह व्यवहार सही है अथवा गलत; पर बड़ा सवाल यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में महिलायें कहां हैं?
प्रसव से जुड़े सामाजिक व्यवहार
आज के दौर में हमारा पारम्परिक समाज भी संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। जां वह न तो अपने पारम्परिक विज्ञान का भलि-भांति उपयोग कर पा रहा है न ही आधुनिक पद्वतियों का। यह एक विडम्ब्नापूर्ण स्थिति है कि प्रजनन से सम्बन्धित समस्याओं को हल करने के बजाये इन्हें महिलाओं के चरित्र के सवाल से जोड़ दिया जाता है। परिणाम स्वरूप उनमें अपराधबोध का जन्म होता है और यह तनाव उनकी मृत्यु का कारण बन जाता है।
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प्रजनन स्वास्थ्य का यह सवाल प्रत्यक्ष रूप से सुरक्षित मातृत्व के अधिकार से जुड़ता है। स्पष्ट रूप से कहा जाये तो औरत को एक यंत्र के रूप में हर पल उपयोग में लाया जाता है। पुरूष सत्तात्मक समाज की नजर हर उस क्षण पर लगी रहती है कि कब वह एक उत्पादक की भूमिका में आयेगी। और चूंकि प्रजनन से पुरूष सत्तात्मक समाज के राजनैतिक स्वार्थ जुड़े हैं इसलिये यदा-कदा वह संरक्षक की भूमिका में भी नजर आता है।
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मध्यप्रदेश का बुंदेलखण्ड का इलाका एक सामंतवादी इलाका है जहां दलित समुदाय बहुलता में है। वैसे तो गर्भावस्था से लेकर प्रसव के बाद तक की स्थिति में होने वाले व्यवहार में विभिन्न समुदायों के बीच बहुत व्यावहारिक अंतर नहीं है इसीलिये एक इलाके के व्यवहार पर नजर डाल कर व्यवस्था को समझा जा सकता है। बुंदेलखण्ड के क्षेत्र में जैसे ही यह तय हो जाता है कि परिवार की महिला गर्भवती है तो उसकी बांह में या गले में कुल देवता (हर परिवार या कुटुम्ब के एक कुल देवता तय होते हैं, जिनकी नियमित पूजा की जाती है) के नाम पर गंदा या ताबीज बांध दिया जाता है। यह अवस्था आते ही गर्भवती महिलाओं के खान-पान को नियंत्रित कर दिया जाता है। माना यह जाता है कि ज्यादा खाने से बच्चे पर दबाव पड़ेगा या फिर वह बहुत ज्यादा भारी होगा जिससे प्रसव के समय तकलीफ होगी। प्रसव के समय यानी कि नौ माह पूरे होते समय गर्भवती महिला का पेट जितना छोटा होता है उसे उतना ही बेहतर माना जाता है। ज्यादा से ज्यादा श्रम करना गर्भवती महिला और प्रसव के लिये अच्छा माना जाता है। और जब प्रसव पीड़ा होती है तो उसे घी पिलाया जाता है। जैसे ही यह तय हो जाता है कि प्रसव का समय आ गया है वैसे ही गांव की सयानी महिलाओं को इकट्ठा करे दाई को बुलवाया जाता है। प्रसव ऐसे कमरे में करवाया जाता है जिसका सामान्यत: कम उपयोग होता है और हवा-रौशनी कम होती है। गर्भवती महिला को इंटों की बनी एक संरचना पर बिठाया जाता है। उसे पानी में शराब मिलाकर मंत्रपढ़कर पानी दिया जाता है। मूलत: प्रसव का काम दाई ही करती है और बच्चे के पैदा होते ही मां के बालों की एक लट उसके मुंह में दबा दी जाती है। मान्यता यह है कि इससे आंवल (अपरेटा) जल्दी बाहर आ जाती है। गर्भाशय के बाहर आ जाने की स्थिति में दाई अपनी एड़ी (पैर के पंजे के पिछले हिस्से से) गर्भाशय को धकेल कर अंदर करती है। आमतौर पर यही व्यवहार संक्रमण का सबसे बड़ा कारण बनता है। बच्चे के जन्म के बाद अब भी नाल काटने के लिये पुराने धागे या ब्लेड का उपयोग किया जाता है। इसके बाद नाभि पर तेल लगाकर देवी या देवता के नाम पर भभूत (राख) लगा दी जाती है। प्रसव के बाद जिस कमरे में महिला को रखा जाता है वहां पांच दिन तक नियमित आग का धुंआ किया जाता है। जहां तक आहार या भोजन का सवाल है, महिला को प्रसव के बाद गुड़ या गया का दूध दिया जाता है और पीने के लिये 10 दिन तक चरूआ का पानी उपयोग में लाया जाता है। चरूआ एक मिट्टी का घड़ा होता है जिसमें तांबे के सिक्के, खैर की लकड़ी, अजवायन और कुछ जड़ी-बुटियां पानी में मिलाई जाती हैं। इस मिश्रण को इतना उबाला जाता है कि पानी आधा रह जाये। यह पानी पकने पर लाल रंग ले लेता है। इसके साथ ही अगे पांच दिनों तक सम्पन्न परिवारों में घी में गुड़, सौंठ, मेवे एवं हल्दी को उबालकर एक गाढ़ा तरल पदार्थ, जिसे हरीरा कहते हैं, भी खिलाया जाता है। बुंदेलखण्ड के इलाकों में प्रसव के पांच दिन बाद प्रसूता को नहलाया जाता है। उसे नहलाने के लिये नीम के पत्तों, अजवायन को पानी में उबाला जाता है। बच्चे का जन्म होने के बाद 41 दिनों तक छुआ-छूत मानी जाती है। इस अवधि में नवजात शिशु की मां को किसी भी धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रम में भाग लेने की अनुमति नहीं होती है। इतने दिनों तक महिलाओं को हरी सब्जी या पत्तेदार सब्जियां खाने में बिल्कुल नहीं दी जाती हैं। छूत की इस अवधि में नवजात शिशु को भी मां से अलग रखा जाता है। महिलाएं किस तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करती हैं और घर से बाहर इलाज के लिए जाने पर उन्हें किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, यह जानने के लिए भारतीय समाज में पुरूष प्रधान कुल परम्पराओं की प्रमुखता पर गौर करना जरूरी है। यह इसलिए, क्योंकि इन्हीं कुल परम्पराओं के कारण ही महिलाएं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना चुपचाप खामोशी के साथ करती हैं। यदि मर्ज बढ़ जाए तो वे धर्म और अध्यात्म में डूबकर अपनी पीड़ा को भुलाने की कोशिश करती हैं।
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भारतीय समाज में पुरूष प्रधान व्यवस्था एक महिला से अच्छी मों और सुघड़ गृहणी बनने की उम्मीद करती है। परिवार में पुरूष भी महिलाओं पर नियंत्रण रखने में इसलिए भी दिलचस्पी रखते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा न करें तो परिवार की महिलाएं अपनी यौनेच्छा को पूरा करने के लिए किसी और साधन का सहारा ले सकती हैं और इससे कुल की मर्यादा तो प्रभावित होगी ही, साथ में वंश परम्पराओं पर भी असर पड़ता है। खासतौर पर ब्राम्हणों में परिवार की महिलाओं को कुल की मर्यादा का पालन करने की सख्त हिदायत दी जाती है और यह प्रथा आर्य संस्कृति के जमाने से चली आ रही है। महिलाओं को पतिब्रता और स्त्रीधर्म अपनाने की सलाह दी जाती है। हिंदू समाज में रहने वाली हर महिला को इन वर्जनाओं की जानकारी होती है, क्योंकि शादी से पहले और उसके बाद उन्हें इन्हीं वर्जनाओं के बीच जीना होता है। किशोरावस्था से लेकर गर्भधारण, गर्भपात, मासिक धर्म आदि सभी परिस्थितियों में स्त्री के व्यवहार और उसकी इच्छाओं पर पुरूष प्रधान समाज और कुल का नियंत्रण रहता है।
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सत्ता के लिये बेटे की चाह
महिलाओं के स्त्री धर्म में कुल परम्पराओं का पालन करने के साथ एक और बाध्यता वंश को आगे चलाने के लिए एक बेटे को जन्म देने की भी है। यह इसलिए है, क्योंकि समाज में लड़के को ही संपत्ति का हक मिलता है। बेटियों को पराया धन माना जाता है, जिसके कारण पुरूषों की तुलना में महिलाओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। समाज और परिवार की कई परम्पराओं, जैसे दाह संस्कार आदि में भी सिर्फ बेटे को ही भाग लेने की अनुमति है, इसलिए भी बेटे की चाह ही सबसे अधिक होती है, ताकि वह कुल की परम्पराओं का निर्वाह कर सके। भारतीय समाज में यह मान्यता है कि प्रजनन की शक्ति सिर्फ पुरूषों को ही प्राप्त है और यदि कोई महिला बच्चे को, खासकर बेटे को जन्म न दे सके तो उसके लिए पुरूष को नहीं, बल्कि महिला को ही दोषी माना जाता है। अगर किसी महिला को बेटा नहीं होता है तो उसके लिए कई अजीबोगरीब टोटके भी किए जाते हैं। मिसाल के लिए उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में ऐसी महिलाएं किसी और के मकान में आग लगा देती हैं, ताकि उसका बेटा पैदा हो।
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हालांकि बेटे के साथ एक बेटी की जरूरत भी परिवार में बताई गई है, ताकि वह रक्षाबंधन जैसी परम्पराओं का निर्वाह तो कर ही सके, साथ में घर में समृध्दि का प्रतीक बनकर भी रहे। बेटे की चाह में महिला को बार-बार गर्भपात करवाने से अत्यधिक रक्तस्त्राव होता है जिससे उसे कमजोरी आ जाती है, या फिर शरीर में खून की कमी हो जाती है। इन सबके बाद भी गर्भपात हरेक महिला के जीवन का एक अभिन्न अंग होता है।
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बचपन से ही लड़कियों के खानपान में पर्याप्त ध्यान न रखने से शादी के फौरन बाद उनमें गर्भपात की संभावना अधिक होती है। गर्भपात के डार से गर्भवती स्त्रियों को नीम जैसी कड़वी चीजें खाने को नहीं दी जातीं। यदि उसे कोई कड़वी दवा देना जरूरी हो तो उसे उसकी जड़ को खाने की सलाह दी जाती है। यह भी माना जाता है कि यदि महिला के शरीर में जरूरत से ज्यादा गर्मी है तो उसे गर्भ नहीं ठहरता। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि कोई गर्भवती महिला यदि किसी चौड़ी खाई को कूदकर पार करे तो भी उसका गर्भपात हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान बहुत ज्यादा काम करने, वनज उठाने, कड़ी मेहनत करने और कच्चा पपीता खाने आदि को भी गर्भपात करवाने वाला माना जाता है, इसलिए इन पर सख्त पाबंदी होती है। .
मध्यप्रदेश के भिण्ड एवं मुरैना जिलों में लड़के एवं लड़कियों की संख्या में लगभग 200 का अंतर आ गया है। इन इलाकों में सामंतवादी प्रवृत्ति है जिसमें यह माना जाता है कि परिवार में लड़की का जन्म होने से ठाकुर की मूंछ नीची हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप यहां सोनोग्राफी के जरिये लिंग निर्धारण का गर्भपात कराने की व्यवस्थ बहुत ही सामान्य हो चली है। फिर यदि लड़की का जन्म होता भी है तो उसे अफीम चटाकर, गला दबाकर या भूखे रखकर खत्म कर दिया जाता है। यह नहीं माना जाना चाहिए कि बेटे की चाह केवल गरीब या अशिक्षित परिवारों में है बल्कि सम्पन्न और उच्च शिक्षित परिवार यह वहशीयाना व्यवहार करने में अग्रणी है।
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संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि ये सभी मान्यताएं महिलाओं के पूरक अनुभवों से जुड़े हुए हैं, लेकिन यहां यह कहना मुश्किल है कि क्या इनका गर्भपात से भी कोई नाता है। दूसरा पक्ष - बचपन से लड़की को यही सिखाया जाता है कि शादी ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और मां बनना सबसे बड़ा सुख। अधिकांश महिलाएं इसे ही अपनी सामाजिक भूमिका के रूप में स्वीकार कर लेती हैं। इसके अन्तर्गत महिला को अपने बच्चों को सही तरीके से परवरिश करना और उनके लिए अपने सुख-दुख का ख्याल न रखते हुए हर तरह से त्याग करने को तैयार रहने को कहा जाता है। इन सबसे बीच महिला की जिंदगी का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण क्षण वह होता है, जब वह बच्चे पैदा करने में असमर्थ होती है, या फिर परिवार में बेटे की चाह को पूरा नहीं कर पाती। इसके चलते उसकी जिन्दगी हिंसा, नफरत और अपमान की शिकार होने लगती है।
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भारतीय सामाजिक परम्परा में एक बांझ औरत के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसी महिलाओं के साथ देश के प्राय: हर हिस्से में अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता। उन्हें मारा-पीटा जाता है, अपमानित किया जाता है और यहां तक कि पति की दूसरी शादी की धमकी भी दी जाती है। इसके अलावा अक्सर ऐसी स्थिति में महिलाओं को तलाक का भी सामना करना पड़ता है। बांझपन के लिए सिर्फ महिलाओं को ही दोषी माना जाता है। इसके उपचार के लिए दाई को बुलाया जाता है, जो उसे कुछ जड़ी-बूटियां उपलब्ध कराती है। अगर इससे भी समस्या नहीं सुलझती तो पुरूष या महिला ओझा के जरिए उसका बंदोबस्त किया जाता है। यदि महिला के परिवारजनों का रवैया सहयोगात्मक हो ता वे उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं, जहां उसे हार्मोन की गोलियां, पौष्टिक आहार लेने की हिदायत के साथ पति के वीर्य की जांच करने को कहा जाता है। हालांकि वीर्य की जांच के लिए बहुत कम पुरूष ही तैयार होते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि कहीं समाज उन्हें नपुंसक न समझ ले। यही कारण है कि वह महिला को ही बांझपन के लिए दोषी बताता है। यह सभी परम्पराएं समाज में महिलाओं को वश में करने के लिए लागू किए जाते हैं।
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कर्नाटक के ग्रामीण समाज में यह मान्यता है कि यदि महिला को माहवारी के दौरान तेज दर्द होता है तो इसका सीधा मतलब यह है कि उसकी प्रजनन शक्ति कमजोर है और उस पर बुरी आत्माओं का साया है। इन मान्यताओं से साफ है कि इनकी वजह से महिलाओं पर अनावश्यक मानसिक दबाव पड़ता है। फिर भी समाज जाति, वर्ग और संप्रदाय से नाता रखने वाले किसी बच्चे को गोद लेने की मान्यता कई वर्गों में है, लेकिन उसमें भी लड़के को ही प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि बेटै को ही वंश वृध्दि करने वाला माना जाता है।
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भारतीय समाज में एक महिला का मां के रूप में सबसे पहला कर्तव्य यही है कि वह अपने परिवार की संतान और खासतौर पर बेटे की अपेक्षा को पूरा करे। यही कारण है कि संतान के बारे में समाज की सभी मान्यताएं भी महिला की प्रजनन शक्ति पर आकर टिक जाती हैं। ऐसी कई मान्यताएं हैं, जिनका चिकित्सा विज्ञान में कोई पुख्ता आधार नहीं है, लेकिन ये कायम हैं, क्योंकि एक मां के तौर पर स्त्री की भूमिका इन्हीं मान्यताओं पर आकर टिक जाती है। एक मान्यता के मुताबिक यदि गर्भाशय का मुंह औंधा हो तो महिला प्रजनन करने में अक्षम होती है। यदि महिला के शरीर की गर्मी ज्यादा हो तो भी वह प्रजनन नहीं कर सकती, क्योंकि इस गर्मी से पुरूष के वीर्य में मौजूद शुक्राणु मर जाते हैं। ऐसी मान्यताएं प्रशिक्षित दाईयों की भी है।
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मासिक धर्म और समाज का नियंत्रण
जैसे ही किसी लड़की को पहली बार मासिक धर्म होता है, तभी उसके रजस्वला होने की घोषणा यूं तो बड़े ही धूमधाम से की जाती है, लेकिन बाद में कई परम्पराओं के नाम पर उसके साथ बंदिशें जोड़ दी जाती हैं। इसके पीछे नजरिया यह होता है कि मासिक स्त्राव से आसपास का वातावरण प्रदूषित होता है और इसी वजह से लड़की को हर माह मासिक धर्म के दिनों में घर के किसी कोने में अलग से रहना पड़ता है। यहां तक कि न तो वह घर के किसी सदस्य को छू सकती है और न ही नहाने के बाद अपने कपड़ों को बाहर खुले में सूखने के लिए डाल सकती है। शादी के बाद भी महिलाओं को उनके बच्चों को छूने नहीं दिया जाता। धार्मिक किताबों और मूर्तियों को भी छूने की इजाजत नहीं मिलती। ये प्रतिबंध लड़की के खान-पान में भी लागू होते हैं। यह सिलसिला हर माह कम से कम तीन दिन तक तो जरूर चलता है। स्त्री के मासिक धर्म के दौरान निकलने वाले रक्त स्त्राव को न केवल प्रदूषित माना जाता है, बल्कि उसे एक अपशकुन की तरह भी देखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि मासिक धर्म के दौरान यदि पीड़ित स्त्री की परछाई किसी बच्चे पर पड़ जाए तो उसे चेचक हो सकता है, या फिर वह अंधा हो सकता है।
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आंध्रप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में तो मासिक धर्म के रक्त से भीगे गंदे कपड़े को महिलाएं या तो जमीन में गाड़ देती है।, या फिर उन्हें जला देती हैं। महिलाओं में मासिक धर्म को लेकर मुस्लिम और हिंदू धर्म की मान्यताओं में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। लेकिन ये मान्यताएं स्त्री पर सामाजिक नियंत्रण की कोशिशों से जुड़ी हुई हैं, जिन्हें लागू करवाकर पुरूष प्रधान कुलीन समाज महिला को अपने वश में करना चाहता है। चूंकि अधिकांश महिलाओं को मासिक धर्म के कारण का पता नहीं होता, इसलिए उनके लिए पहला मासिक धर्म शर्म, डर और निराशा पैदा करने वाला होता है। दक्षिण और उत्तार भारत के ज्यादातर इलाकों में मासिक धर्म की शुरूआत को स्त्री के लिए गर्भधारण की क्षमता से परिपूर्ण हो जाने का संकेत माना जाता है। आंध्रप्रदेश में तो मासिक धर्म के दौरान लड़की को लगातार 21 दिन घर के एक कोने में लोहे के जंगले के भीतर रखा जाता है, ताकि किसी पुरूष सदस्य की निगाह उस पर न पड़े। जिस कमरे में वह रहती है वहां लगातार आग जलाकर रखी जाती है ताकि बुरी शक्तियों से उसकी पवित्रता अक्षुण्ण रहे। हालांकि आमतौर पर महिलाओं के साथ खान-पान के मामले मेकं तो हमेशा भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है, लेकिन कुछ खास मौकों पर उनके लिए पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन भी पकाया जाता है।
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मासिक धर्म के दिनों में इस तरह का भोजन लड़की को खाने के लिए दिया जाता है और यह परम्परा तकरीबन हर जाति, समुदाय और वर्ग में कायम है। लड़की के खानपान में कुछ गर्म और ठंडे पदाथों और वस्तुओं की मनाही होती है, क्योंकि यह माना जाता है कि इससे उसे मासिक धर्म के दौरान दर्द का अनुभव होगा। लड़की को पौष्टिक पदार्थ खाने में दिये जाने के पीछे मंशा यह होती है कि रक्तस्त्राव के कारण पैदा होने वाली कमजोरी उसे न महसूस हो और मासिक धर्म नियमित हो जाए, साथ ही प्रजनन अंगों का विकास भी हो।
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औरत का डाकिन होना
समाज किस रूप में पितृसत्तात्मक है इसका प्रमाण डाकिन या चुड़ैल जैसी व्यवस्थाओं से मिल जाता है। यह माना जाता है कि बुरे कर्म करने वाली या बुरी नजर वाली महिलायें डाकिन या चुड़ैल बनती हैं। और जब ये किसी पर अपना नियंत्रण कसती हैं तो उसका जीवन बर्बाद होने लगता हे। उल्लेखनीय है कि डाकिन या चुड़ैल केवल औरत ही होती हैं, पुरूषों में ऐसा कोई नहीं होता है जो किसी का जीवन बर्बाद कर सके। यहां पर केवल स्त्रीलिंग की अवधारणा मौजूद है, पुलिंग की नहीं। दक्षिणी प्रदेशों में भानमति आना एक आम घटना है। किसी महिला पर भानमति आने के बारे में धारणा यह है कि उसके प्रभाव से वह दिमागी संतुलन खो देती है और अजीबोगरीब हरकतें करती है। लेकिन वास्तव में महिला के दिमाग पर पारिवारिक व अन्य कारणों से पड़ा अत्यधिक दबाव उसकी इस हालत के लिए जिम्मेदार होता है। महिला पर डाकिन, भूत, भानमति या देवी का आना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इस तरह की करतूतों से वह खुद पर पड़ने वाले दबाव और उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। महिलाएं यह भी मानती हैं कि बीमारी से लड़ने की उसकी कुदरती क्षमता को कम करने के लिए उस पर मंत्रों, टोटकों और जादू आदि उपायों से निशाना साधा जाता है। सीधी में एक नवविवाहिता पर देवी आने की घटना के बारे में जब छानबीन की गई तो पता चला कि उसके दिमाग पर घर-गृहस्थी के बोझ के साथ पारिवारिक तनाव भी हावी था, जिसके चलते वह ऐसी हरकतें करती थीं। अगर पति-पत्नि दोनों एक ही आयु वर्ग के हों और पत्नी पति से ज्यादा समझदार हो तो वह यौन व्यवहार में असंतुष्ट रहती है। यदि पति कमाऊ हो तो उस पर जिम्मेदारियों का बोझ भी ज्यादा रहता है और यदि वह बेरोजगार हो तो हताशा में अपनार गुस्सा पत्नी पर ही उतारता है। इन परिस्थितियों में महिला अपनी निराशा को देवी आने जैसी घटनाओं से व्यक्त करती है। महिलाओं का मानना है कि सफेद पानी आना, अत्यधिक माहवारी, कमजोरी, बांझपन, सिरदर्द, पीठ का दर्द आदि उन्हीं महिलाओं को होते हैं, जिनकी पति के साथ नहीं बनती। लेकिन यदि ये समस्याएं लंबे समय तक कायम रहें तो इसके पीछे बुरी नजर को ही मुख्य कारण माना जाता है। डाकिन, डायन आदि नाम से इस बुरी नजर को संबोधित किया जाता है। यह भी महिलाओं को उत्पीड़न का शिकार बनाने वाली एक सामाजिक धारणा है। धारणा है कि डाकिन एक अदृश्य शक्ति होती है, जो महिला के शरीर में समाकर दुख देती है, उसे बीमार कर देती है। वह शरीर को तभी छोड़ती है जब उसे खुश कर दिया जाए। सामाजिक व पारिवारिक कारणों से दबाव के चलते महिलाओं का व्यवहार डाकिनल जैसा हो जाता है। इसी के साथ जो महिला सामाजिक वर्जनाओं को नहीं मानती, उसे भी डाकिन कह दिया जाता है।
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उत्तर भारत में चुड़ैल शब्द भी काफी प्रचलित है। यदि कोई महिला प्रसव के दौरान मर जाती है तो वह चुड़ैल बन जाती है, ऐसी आम धारणा है लेकिन जब भी कोई महिला परिवार की पितृसत्तात्मक व्यवस्था या कुल परंपराओं को चुनौती देती है, उस पर चुड़ैल होने का आरोप लगा दिया जाता है। देश में प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मौत या महिला द्वारा मृत बच्चे को जन्म देने के पीछे भी इसी धारणा को जान-बूझकर बल दिया जाता है कि यह चुड़ैल की बुरी नजर के कारण हुआ है। ऐसे मामलों में चुड़ैल को खुश करने के लिए विभिन्न तंत्र-अनुष्ठान और यहां तक कि नृत्य भी आयोजित किए जाते हैं। हिंदू परम्पराओं में माना गया है कि चुड़ैलों के पैर उल्टे होते हैं और जिस किसी पुरूष ने उसके साथ सहवास कर लिया, वह नपुंसक हो जाता है। ऐसी ही धारणाएं मुस्लिम समाज में भी कायम हैं। आम तौर पर डाकिन के बारे में आम धारणा यही है कि एक बार किसी महिला के शरीर में आ जाने पर वह उसके दिमाग पर अपनी असर डालती है और इसी धारणा को देखते हुए झाड़फूंक करने वाले प्रभावित महिला को शांत करने वाली दवाएं देते हैं। हालांकि डाकिन का आना और महिला की अजीबोगरीब हरकतें दिमागी तनाव और हताशा का ही परिणाम है, यह बात सभी मानते हैं, लेकिन उस तनाव को कम करने की कोशिश कोई नहीं करता। यही कारण है कि झाड़-फूंक के बाद भी महिला उस तनाव के साए से बाहर नहीं आती, जिसे डाकिन कहा जाता है। वैसे डाकिन या बुरी नजर के साए से महिला को बाहर निकालने के लिए कई तरह की प्रक्रियाएं की जाती हैं। मिसाल के लिए दक्षिण भारत और उत्तारप्रदेश के कुछ इलाकों में अब भी लालमिर्च, सरसों, नमक और झाड़ की तीलियों को साथ बांधकर 21 बार प्रभावित महिला के ऊपर घुमाया जाता है। इसके बाद इस सामग्री को महिला के बांए पैर के नीचे से निकालकर आग में डाल देते हैं। आग से यदि जलने की गंध न आए तो माना जाता है कि महिला पर बुरी नजर डाकिन का साया है। केरल में भी बुरी नजर की डाकिन का उतारा करने की प्रथा प्रचलित है, जिसमें मंत्र उपचारित हल्दी का उपयोग किया जाता है। इसके आलवा भविष्य में महिला पर किसी की बुरी नजर न पड़ें इसके लिए खास तरह के ताबीज बांधे जाते हैं। उपचार के लिए मंत्र फूंककर हाथ में धागा बांधने का भी रिवाज है, तो कहीं अभिमंत्रित जल या तेल का उपयोग होता है। डाकिन या बुरी नजर से बचने के लिए लोग पीर-फकीर, बाबा आदि की भी शरण लेते हैं। तो कुछ लोग जात्रा, नाहिन आदि साधन अपनाते हैं। तांत्रिकों की सहायता भी ली जाती है। हालांकि इन उपायों से महिला को थोड़ी राहत तो मिलती ही है, फिर भी उन कारणों को दूर करने में उसे सफलता नहीं मिलती, जिसके चलते वह मानसिक अशांति के दौर से गुजर रही है। पति की बेरूखी, अकेलापन, काम का बोझ, बीमारी, अवसाद और उपचार के साधनों के अभाव से उसे जो घुटन होती है, वह कुछ समय बाद फिर से बाहर आती है। असल में डाकिन ही वह शब्द है जो अत्याचार व शोषण के खिलाफ महिला की आवाज बनकर बाहर आता है। यह महिला की आत्मशक्ति होती है, लेकिन जो भी महिला अपनी इस अंदरूनी ताकत को दिखाने की कोशिश करती है, समाज उसे बुरी नजर या डाकिन का नाम देकर दबाने का प्रयास करता है।
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या फिर दैवीय रूप में महिलाएं
ग्रामीण इलाकों में आमतौर पर ऐसी देवियां प्रचलित हैं, जो गुस्से में होने पर कथित रूप से बाढ़, सूखा, अकाल, छोटी माता या बड़ी माता जैसी आफत ला सकती हैं और खुश होने पर सुख-संपत्ति व संतोष देती हैं। इस धारणा को बनाए रखने और देवी को खुश करने के लिए लोग उसकी पूजा-अर्चना व अनुष्ठान करते हैं। यह स्थानीय लोक स्वास्थ्य परंपराओं में शामिल कर ली गई है। दरअसल धर्म और अध्यात्म्क से जुड़े ये अनुष्ठान महिला की जिंदगी को किसी न किसी रूप से प्रभावित करते हैं। एक स्तर पर तो यह परिवार की पितृसत्ताात्मकता और जाति व वर्ग के भेद को बनाए रखने में मददगार हैं तो दूसरी ओर महिला को समाज के इन सभी बंधनों से आजाद होकर धार्मिक जीवन जीने को प्रेरित करते हैं। ऐसी स्थिति में महिलाएं सामाजिक दबाव से मुक्त होने की कोशिश में कृष्ण या शिव आदि देवताओं को पति मानकर एक धार्मिक आवरण ओढ़ लेती हैं, या फिर उनके प्रति समर्पण्ा दिखाते हुए धर्म मार्ग को अपनाकर देवी बन जाती हैं। ऐसी कई महिलाएं हैं, जो जातिगत व पारिवारिक बंधनों से निजात पाने के लिए धर्म का चोला पहन लेती हैं और फिर समाज उनहें देवी मानकर उनका सम्मान करता है। बहरहाल महिलाएं अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए तरीके निकाल ही लेती हैं। चाहे वह देवी के रूप में हो या चुड़ैल, डाकिन या किसी अन्य रूप में। इस मामले में विश्लेषण से यह साबित होता है कि महिला के ऊपर कुल परम्पराओं, मर्यादा, पतिव्रता, सतीत्व जैसे बंधनों का काफी दबाव होता है, साथ में पारिवारिक व सामाजक जिम्मेदारियों के निर्वाह से उसे इतना वक्त ही नहीं मिलता कि वह अपनी इच्छाओं का भी ध्यान रख सके। इससे उपजने वाली हताशा के चलते उत्पन्न मानसिक विकृतियों को जब समाज दबाने की कोशिश करता है तो धर्म की शरण लेने के सिवा उसके पास दूसरा कोई चारा भी नहीं बचता। यही भारतीय नारी की हकीकत है। दाई को सरकारी स्वास्थ्य सेवा का सबसे निराला अंग माना जा सकता है। दाई ही वह पहली शख्स है जो बच्चे को इस दुनिया में लाती है, लेकिन प्रसव के इस कार्य में दाइयों को भी एक देवी के संरक्षण की जरूरत पड़ती है, जिसके बारे में माना जाता है कि जिंदगी और मौत उसी के हाथ में होती है। महिला की प्रजनन व प्रसव क्षमताओं और दाई की मौजूदगी को देश पितृसत्तात्मक उच्च कुल परम्पराओं ने यह कहते हुए दरकिनार करने की कोशिश की है कि प्रसव के दौरान रक्तस्त्राव, महिला के स्तनों से निकलने वाली खीज सभी प्रदूषणकारी होती है। यहां प्रदूषणकारी शब्द महिला को कमजोर करने का एक प्रयास है, जिसे महिला के प्रजनन व यौन व्यवहार से पुरूषों को दूर रखने की एक तरकीब भी माना जा सकता है।
समाज किस रूप में पितृसत्तात्मक है इसका प्रमाण डाकिन या चुड़ैल जैसी व्यवस्थाओं से मिल जाता है। यह माना जाता है कि बुरे कर्म करने वाली या बुरी नजर वाली महिलायें डाकिन या चुड़ैल बनती हैं। और जब ये किसी पर अपना नियंत्रण कसती हैं तो उसका जीवन बर्बाद होने लगता हे। उल्लेखनीय है कि डाकिन या चुड़ैल केवल औरत ही होती हैं, पुरूषों में ऐसा कोई नहीं होता है जो किसी का जीवन बर्बाद कर सके। यहां पर केवल स्त्रीलिंग की अवधारणा मौजूद है, पुलिंग की नहीं। दक्षिणी प्रदेशों में भानमति आना एक आम घटना है। किसी महिला पर भानमति आने के बारे में धारणा यह है कि उसके प्रभाव से वह दिमागी संतुलन खो देती है और अजीबोगरीब हरकतें करती है। लेकिन वास्तव में महिला के दिमाग पर पारिवारिक व अन्य कारणों से पड़ा अत्यधिक दबाव उसकी इस हालत के लिए जिम्मेदार होता है। महिला पर डाकिन, भूत, भानमति या देवी का आना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इस तरह की करतूतों से वह खुद पर पड़ने वाले दबाव और उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। महिलाएं यह भी मानती हैं कि बीमारी से लड़ने की उसकी कुदरती क्षमता को कम करने के लिए उस पर मंत्रों, टोटकों और जादू आदि उपायों से निशाना साधा जाता है। सीधी में एक नवविवाहिता पर देवी आने की घटना के बारे में जब छानबीन की गई तो पता चला कि उसके दिमाग पर घर-गृहस्थी के बोझ के साथ पारिवारिक तनाव भी हावी था, जिसके चलते वह ऐसी हरकतें करती थीं। अगर पति-पत्नि दोनों एक ही आयु वर्ग के हों और पत्नी पति से ज्यादा समझदार हो तो वह यौन व्यवहार में असंतुष्ट रहती है। यदि पति कमाऊ हो तो उस पर जिम्मेदारियों का बोझ भी ज्यादा रहता है और यदि वह बेरोजगार हो तो हताशा में अपनार गुस्सा पत्नी पर ही उतारता है। इन परिस्थितियों में महिला अपनी निराशा को देवी आने जैसी घटनाओं से व्यक्त करती है। महिलाओं का मानना है कि सफेद पानी आना, अत्यधिक माहवारी, कमजोरी, बांझपन, सिरदर्द, पीठ का दर्द आदि उन्हीं महिलाओं को होते हैं, जिनकी पति के साथ नहीं बनती। लेकिन यदि ये समस्याएं लंबे समय तक कायम रहें तो इसके पीछे बुरी नजर को ही मुख्य कारण माना जाता है। डाकिन, डायन आदि नाम से इस बुरी नजर को संबोधित किया जाता है। यह भी महिलाओं को उत्पीड़न का शिकार बनाने वाली एक सामाजिक धारणा है। धारणा है कि डाकिन एक अदृश्य शक्ति होती है, जो महिला के शरीर में समाकर दुख देती है, उसे बीमार कर देती है। वह शरीर को तभी छोड़ती है जब उसे खुश कर दिया जाए। सामाजिक व पारिवारिक कारणों से दबाव के चलते महिलाओं का व्यवहार डाकिनल जैसा हो जाता है। इसी के साथ जो महिला सामाजिक वर्जनाओं को नहीं मानती, उसे भी डाकिन कह दिया जाता है।
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उत्तर भारत में चुड़ैल शब्द भी काफी प्रचलित है। यदि कोई महिला प्रसव के दौरान मर जाती है तो वह चुड़ैल बन जाती है, ऐसी आम धारणा है लेकिन जब भी कोई महिला परिवार की पितृसत्तात्मक व्यवस्था या कुल परंपराओं को चुनौती देती है, उस पर चुड़ैल होने का आरोप लगा दिया जाता है। देश में प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मौत या महिला द्वारा मृत बच्चे को जन्म देने के पीछे भी इसी धारणा को जान-बूझकर बल दिया जाता है कि यह चुड़ैल की बुरी नजर के कारण हुआ है। ऐसे मामलों में चुड़ैल को खुश करने के लिए विभिन्न तंत्र-अनुष्ठान और यहां तक कि नृत्य भी आयोजित किए जाते हैं। हिंदू परम्पराओं में माना गया है कि चुड़ैलों के पैर उल्टे होते हैं और जिस किसी पुरूष ने उसके साथ सहवास कर लिया, वह नपुंसक हो जाता है। ऐसी ही धारणाएं मुस्लिम समाज में भी कायम हैं। आम तौर पर डाकिन के बारे में आम धारणा यही है कि एक बार किसी महिला के शरीर में आ जाने पर वह उसके दिमाग पर अपनी असर डालती है और इसी धारणा को देखते हुए झाड़फूंक करने वाले प्रभावित महिला को शांत करने वाली दवाएं देते हैं। हालांकि डाकिन का आना और महिला की अजीबोगरीब हरकतें दिमागी तनाव और हताशा का ही परिणाम है, यह बात सभी मानते हैं, लेकिन उस तनाव को कम करने की कोशिश कोई नहीं करता। यही कारण है कि झाड़-फूंक के बाद भी महिला उस तनाव के साए से बाहर नहीं आती, जिसे डाकिन कहा जाता है। वैसे डाकिन या बुरी नजर के साए से महिला को बाहर निकालने के लिए कई तरह की प्रक्रियाएं की जाती हैं। मिसाल के लिए दक्षिण भारत और उत्तारप्रदेश के कुछ इलाकों में अब भी लालमिर्च, सरसों, नमक और झाड़ की तीलियों को साथ बांधकर 21 बार प्रभावित महिला के ऊपर घुमाया जाता है। इसके बाद इस सामग्री को महिला के बांए पैर के नीचे से निकालकर आग में डाल देते हैं। आग से यदि जलने की गंध न आए तो माना जाता है कि महिला पर बुरी नजर डाकिन का साया है। केरल में भी बुरी नजर की डाकिन का उतारा करने की प्रथा प्रचलित है, जिसमें मंत्र उपचारित हल्दी का उपयोग किया जाता है। इसके आलवा भविष्य में महिला पर किसी की बुरी नजर न पड़ें इसके लिए खास तरह के ताबीज बांधे जाते हैं। उपचार के लिए मंत्र फूंककर हाथ में धागा बांधने का भी रिवाज है, तो कहीं अभिमंत्रित जल या तेल का उपयोग होता है। डाकिन या बुरी नजर से बचने के लिए लोग पीर-फकीर, बाबा आदि की भी शरण लेते हैं। तो कुछ लोग जात्रा, नाहिन आदि साधन अपनाते हैं। तांत्रिकों की सहायता भी ली जाती है। हालांकि इन उपायों से महिला को थोड़ी राहत तो मिलती ही है, फिर भी उन कारणों को दूर करने में उसे सफलता नहीं मिलती, जिसके चलते वह मानसिक अशांति के दौर से गुजर रही है। पति की बेरूखी, अकेलापन, काम का बोझ, बीमारी, अवसाद और उपचार के साधनों के अभाव से उसे जो घुटन होती है, वह कुछ समय बाद फिर से बाहर आती है। असल में डाकिन ही वह शब्द है जो अत्याचार व शोषण के खिलाफ महिला की आवाज बनकर बाहर आता है। यह महिला की आत्मशक्ति होती है, लेकिन जो भी महिला अपनी इस अंदरूनी ताकत को दिखाने की कोशिश करती है, समाज उसे बुरी नजर या डाकिन का नाम देकर दबाने का प्रयास करता है।
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या फिर दैवीय रूप में महिलाएं
ग्रामीण इलाकों में आमतौर पर ऐसी देवियां प्रचलित हैं, जो गुस्से में होने पर कथित रूप से बाढ़, सूखा, अकाल, छोटी माता या बड़ी माता जैसी आफत ला सकती हैं और खुश होने पर सुख-संपत्ति व संतोष देती हैं। इस धारणा को बनाए रखने और देवी को खुश करने के लिए लोग उसकी पूजा-अर्चना व अनुष्ठान करते हैं। यह स्थानीय लोक स्वास्थ्य परंपराओं में शामिल कर ली गई है। दरअसल धर्म और अध्यात्म्क से जुड़े ये अनुष्ठान महिला की जिंदगी को किसी न किसी रूप से प्रभावित करते हैं। एक स्तर पर तो यह परिवार की पितृसत्ताात्मकता और जाति व वर्ग के भेद को बनाए रखने में मददगार हैं तो दूसरी ओर महिला को समाज के इन सभी बंधनों से आजाद होकर धार्मिक जीवन जीने को प्रेरित करते हैं। ऐसी स्थिति में महिलाएं सामाजिक दबाव से मुक्त होने की कोशिश में कृष्ण या शिव आदि देवताओं को पति मानकर एक धार्मिक आवरण ओढ़ लेती हैं, या फिर उनके प्रति समर्पण्ा दिखाते हुए धर्म मार्ग को अपनाकर देवी बन जाती हैं। ऐसी कई महिलाएं हैं, जो जातिगत व पारिवारिक बंधनों से निजात पाने के लिए धर्म का चोला पहन लेती हैं और फिर समाज उनहें देवी मानकर उनका सम्मान करता है। बहरहाल महिलाएं अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए तरीके निकाल ही लेती हैं। चाहे वह देवी के रूप में हो या चुड़ैल, डाकिन या किसी अन्य रूप में। इस मामले में विश्लेषण से यह साबित होता है कि महिला के ऊपर कुल परम्पराओं, मर्यादा, पतिव्रता, सतीत्व जैसे बंधनों का काफी दबाव होता है, साथ में पारिवारिक व सामाजक जिम्मेदारियों के निर्वाह से उसे इतना वक्त ही नहीं मिलता कि वह अपनी इच्छाओं का भी ध्यान रख सके। इससे उपजने वाली हताशा के चलते उत्पन्न मानसिक विकृतियों को जब समाज दबाने की कोशिश करता है तो धर्म की शरण लेने के सिवा उसके पास दूसरा कोई चारा भी नहीं बचता। यही भारतीय नारी की हकीकत है। दाई को सरकारी स्वास्थ्य सेवा का सबसे निराला अंग माना जा सकता है। दाई ही वह पहली शख्स है जो बच्चे को इस दुनिया में लाती है, लेकिन प्रसव के इस कार्य में दाइयों को भी एक देवी के संरक्षण की जरूरत पड़ती है, जिसके बारे में माना जाता है कि जिंदगी और मौत उसी के हाथ में होती है। महिला की प्रजनन व प्रसव क्षमताओं और दाई की मौजूदगी को देश पितृसत्तात्मक उच्च कुल परम्पराओं ने यह कहते हुए दरकिनार करने की कोशिश की है कि प्रसव के दौरान रक्तस्त्राव, महिला के स्तनों से निकलने वाली खीज सभी प्रदूषणकारी होती है। यहां प्रदूषणकारी शब्द महिला को कमजोर करने का एक प्रयास है, जिसे महिला के प्रजनन व यौन व्यवहार से पुरूषों को दूर रखने की एक तरकीब भी माना जा सकता है।
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