संदर्भ- आईएमएफ और विश्वबैंक : एक रहस्य : दुनिया में धन कैसे गरीबी पैदा करता है? - माइकल परेंटी

हमें इस रहस्य को अवश्य जानना चाहिए कि लगभग पिछली आधी शताब्दी से दुनिया में गरीब देशों को अन्तरराष्ट्रीय कर्जे, विदेशी सहायता और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का निवेश, जितना बढ़ा है, उतनी ही गरीबी बढ़ी है। ऐसा कैसे हो सकता है? दुनिया की जनसंख्या से ज्यादा तेज गति से गरीबों की संख्या बढ़ी है।
पिछली अर्ध्दशती के दौरान अमरीकी उद्योगों, बैंकों और पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने 'तीसरी दुनिया' के गरीब देशों- एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका में ही निवेश किया है। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां विशाल प्राकृतिक संसाधनों और ऊंचे मुनाफे से आकर्षित हुई हैं क्योंकि वहां न केवल सस्ता श्रम मिलता है बल्कि करों, पर्यावरणीय नियमों, कामगारों के लाभ और कार्य-सुरक्षा लागतों आदि में पूरी तरह से रियायत मिलती है।

अमरीकी सरकार ने कंपनियों को समुद्रपारीय पूंजी निवेश के लिए न केवल करों में रियायतें दे रखी हैं बल्कि उन्हें नए स्थान पर बसने के लिए, खर्चे भी उठा रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां घरेलू व्यापार को तीसरी दुनिया में बढ़ाती हैं और उनके बाजारों पर कब्जा कर लेती हैं। करदाताओं से भारी रियायतें पाने वाली अमरीकी बहुराष्ट्रीय कृषि कंपनियों ने अपने अपने अतिरिक्त उत्पादन को अन्य देशों के बाजारों में सस्ते दामों पर उतार दिया और स्थानीय किसानों को बाहर कर दिया।

ये कंपनियां पहले तो स्थानीय लोगों को उनकी जमीन से उखाड़कर उनकी आत्मनिर्भरता को छीन लेती हैं फिर इन बेघर, बेरोजगार लोगों का श्रम बाजार लगाती हैं जिसमें ये श्रमिक गरीबी के कारण न्यूनतम मजदूरी करने को मजबूर कर दिए जाते हैं। मजदूरी कभी-कभी तो इतनी कम होती है कि वे अपने ही देश के न्यूनतम मजदूरी के कानून का भी उल्लंघन करने को मजबूर हो जाते हैं।

हैती में ही देखें तो वहां डिजनी, वालमार्ट और जेसी पैनी जैसी विशालकाय कंपनियां कामगारों को प्रति घंटा मात्र 11 सेंट चुकाती हैं। बालश्रम और बेगार उन्मूलन के लिए अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन पर हस्ताक्षर न करने वाले देशों में अमरीका भी एक है। वे मुनाफे के लिए बाहर के साधनों का इस्तेमाल करते हैं। 1990 में, 13 सेंट प्रति घण्टा की दर पर बारह घंटे काम करने वाले इण्डोनेशियाई बच्चों द्वारा बनाए गए जूते की लागत 2.60 डॉलर थी, जबकि अमरीका में वह जूता 100 डॉलर या उससे भी ज्यादा कीमत पर बेचा गया।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के साथ-साथ ही अमरीकी विदेशी सहायता भी काम करती है। यह कंपनियों को तीसरी दुनिया में इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के लिए भी सहायता देता है। तीसरी दुनिया की सरकारों को दी गई सहायता के साथ ढेरों शर्तें लगी होती हैं, जैसे- इसे अमरीकी उत्पादों पर खर्च किया जाना चाहिए। सहायता प्राप्त करने वाले देश को अमरीकी कंपनियों को निवेश के लिए प्राथमिकता देनी पड़ती है और घरेलू उत्पादित वस्तुओं की बजाय आयातित वस्तुओं के उपभोग को बढ़ावा देना पड़ता है जिससे देश न केवल परनिर्भर बनता जाता है, बल्कि भूख, गरीबी और कर्ज के दलदल में फंसता जाता है। ऐसे देश में अपना सूरज कभी नहीं उगता।

सहायता देने के और भी साधन है। 1944 में संयुक्त राष्ट्रों ने विश्वबैंक और आईएमएफ बनाया, दोनों ही संगठनों में मतदान का अधिकार 'वित्तीय योगदान' के आधार पर निर्धारित किया गया। अमरीका सबसे ज्यादा राशि देने के कारण 'सुप्रीमो' बन गया, उसके बाद जर्मनी, जापान, फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन पंक्ति में खड़े हुए हैं। आईएमएफ गोपनीय तरीके से काम करता है जिसमें बैंकर्स का एक समूह और अन्य देशों के वित्ता मंत्रालय के लोग शामिल हैं।

ऐसा माना जाता है कि विश्वबैंक और आईएमएफ विकास के लिए विभिन्न देशों की सहायता करते हैं। लेकिन असल में जो हो रहा है, वह तो पूरी कहानी ही उल्टी है। एक गरीब देश अपनी अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए विश्वबैंक से कर्ज लेता है, लेकिन निर्यात व्यापार घटाने या अन्य किन्हीं कारणों के चलते, भारी ब्याज दर नहीं चुका पाता तो अगली बार आईएमएफ से कर्ज लेने को मजबूर हो जाता है।

आईएमएफ 'एट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम' (एसएपी) लाद देता है, जिसमें वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए कर रियायतें, सस्ता श्रम और विदेशी आयात और लाभ से स्थानीय कंपनियों की सुरक्षा के कोई उपाय न करने की मांग करता है। कर्जदार देश पर अपनी अर्थव्यवस्था का निजीकरण करने और राज्य-संरक्षित खानों, रेलरोडस् और अन्य आवश्यक साधनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कम से कम दामों पर बेचने के लिए दबाव डाला जाता है।

उन्हें काटने के लिए अपने जंगल और खनन के लिए जमीन छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है, इससे भले ही पर्यावरण को कितनी ही हानि हो। कर्जदार देश को अपने यहां स्वास्थ्य, शिक्षा, यातायात और भोजन पर से सब्सिडी हटानी पड़ती है और कर्ज चुकाने के लिए अपनी जनता पर खर्च होने वाली राशि में कटौती करनी पड़ती है। निर्यात बढ़ाने के लिए 'कैशक्रॉप्स्' बढ़ाते-बढ़ाते, वे अपनी जनसंख्या का पेट तक भरने के काबिल नहीं रह जाते।

यही वजह है कि तीसरी दुनिया में जहां 'वास्तविक मजदूरी' घटी है वहीं कर्ज इतनी ऊंचाई पर पहुंच गया है कि सुरसा की तरह सारे निर्यात मुनाफे को भी लील गया है। जिससे देश और ज्यादा गरीबी के दलदल में धंस रहे हैं कि जनता की बुनियादी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते।

अभी हमने एक रहस्योद्घाटन किया, वास्तव में यह कोई रहस्य नहीं है। विदेशी सहायता, कर्ज और निवेश के बढ़ने के बावजूद भी गरीबी क्यों बढ़ रही है? जवाब है- कर्ज, निवेश और अनेक रूपों में दी गई सहायता गरीबी से लड़ने के लिए नहीं, बल्कि स्थानीय जनता की कीमत पर बहुराष्ट्रीय निवेशकों की सम्पत्ति को बढ़ाने के लिए है। तो फिर अमीर देश आईएमएफ और विश्वबैंक को पैसा देने में क्यों लगे हैं? क्या उनके नेता उन देशों के नेताओं से कम बुध्दिमान हैं जो यह कहते हैं कि इनकी नीतियां विपरीत प्रभाव डाल रही हैं?

नहीं, आलोचक मूर्ख हैं, पश्चिम के नेता और निवेशक नहीं, जिनके पास उपभोग करने के लिए दुनिया की असीम दौलत और सफलता है। वे सहायता और विदेशी लोन के कार्यक्रम चलाते हैं क्योंकि इनका कुछ काम है? लेकिन सवाल यह है कि ये किसके लिए काम करते हैं?
निवेश, कर्जों और सहायता कार्यक्रमों के पीछे, उद्देश्य दूसरे देशों की जनता को ऊपर उठाना नहीं है। निश्चित रूप से वे ऐसा नहीं करने वाले। वैश्विक पूंजी-संचय के हितों की पूर्ति करना, तीसरी दुनिया के लोगों की जमीनों और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर कब्जा, बाजारों पर एकाधिकार, मजदूरी कम करना, श्रम को कर्ज में डुबा देना, सरकारी क्षेत्र का निजीकरण करना इन देशों को विकास न करने देना और व्यवसायिक प्रतिद्वन्द्वी के रूप में उभरने से रोकना ही इनका मुख्य उद्देश्य है।
इस रूप में देखा जाए तो निवेश, विदेशी कर्ज और स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट की भूमिका बहुत गहरी है।
कुछ लोग इस तरह के विश्लेषण को असंभाव्य, एक 'षडयंत्रकारी कल्पना' क्यों मानते हैं ? क्यों उन्हें यह संदेह रहता है कि अमरीका जानबूझकर तीसरी दुनिया में ऐसी नीतियां अपना रहा है? ये शासक इस तरह की नीतियां ज्यादातर हमारे ही देश पर लाद रहे हैं।
क्या यह समय नहीं है कि जब उदारवादी आलोचकों को यह सोचना बंद कर देना है कि वे लोग जिनके पास दुनिया की असीम दौलत है और पाने की भूख है- वे 'अयोग्य', 'पथभ्रष्ट' या अपनी नीतियों के अनैच्छिक परिणामों को देख पाने में असमर्थ हैं? खुद को दुश्मन से ज्यादा चालाक समझना सबसे बड़ी मूर्खता है। अगर उन्हें यह पता है कि उनका हित किसमें है, हमें भी यह मालूम होना चाहिए। अनुवाद-मीनाक्षी अरोड़ा

2 टिप्‍पणियां:

Sanjay Tiwari ने कहा…

अच्छा लेख.

ममता त्रिपाठी ने कहा…

अच्छा लिखा लिखते रहिए।

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