प्राय: यह देखा गया है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय हितों के लिए खतरा कहकर उनके खिलाफ कानूनों को हथियार बनाकर राज्य उनका दमन कर रही है। आजादी के साठ साल के बाद भी आज आम आदमी संगठन, वकील, पत्रकार, चिकित्सक और विभिन्न स्वतंत्रता और न्यायप्रेमी लोग अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं करते।
जब दिल्ली में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, उस समय एक सामाजिक कार्यकर्ता 'रोमा', आजादी की सालगिरह पर मिर्जापुर की जेल में कैद की गयी थी। पिछले दो दशकों से रोमा कैमूर क्षेत्र महिला मजदूर किसान संघर्ष समिति के बैनर तले समाज के कमजोर तबके, आदिवासी और दलितों के बीच काम कर रही हैं और नेशनल फोरम ऑव पीपुल एंड फारेस्ट वर्कर्स समिति की सदस्या भी हैं। उन्हें तीन अगस्त को उत्तर प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और बाद में उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) लगा दिया था।
रोमा का अपराध
वे अपने तीनों साथियों शांता भट्टाचार्य, ललिता देवी और श्यामलाल पासवान के साथ मिलकर झारखंड और मध्यप्रदेश की सीमा से जुड़े उत्तर प्रदेश के कैमूर क्षेत्र में वनवासियों और भूमिहीन आदिवासियों और दलितों के साथ काम कर रही हैं। उन्हें सोनभद्र जिले के राबर्टगंज से पुलिस ने उस समय गिरफ्तार किया, जब वे तीन और पांच अगस्त को हाल ही में पारित हुए 'शेडयूल्ड ट्राइव्स एंड अदर ट्रेडिशनल फारेस्ट ड्वेलर्स एक्ट 2006' को लागू करने के लिए अभियान चला रही थी।
लेकिन जैसे ही वन विभाग ने इस मुद्दे पर कुछ भी कहने, बात करने और स्थानीय समुदायों के अधिकारों को नकारा तभी विरोध और संघर्ष शुरू हो गया। इससे पहले भी 14 मई को छत्तीसगढ़ के विलासपुर में नागरिक अधिकारों के चैम्पियन को गिरफ्तार किया था। मानवीय अधिकारों के लिए लड़ने वाले इस चिकित्सक डाक्टर विनायक सेन का अपराध ही क्या था।
मानवीय अधिकारों के लिए लड़ने वाले बाल-चिकित्सक विनायक सेन को 14 मई 2007 को बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में गिरफ्तार कर लिया गया था। उनका और उनके संगठन 'पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज का अपराध सिर्फ इतना ही था कि उन्होंने संतोषपुर, छत्तीसगढ़ में 31 मार्च, 2007 को हुई आदिवासियों को गैरकानूनी हत्याओं की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया था।
सेन और रोमा की गिरफ्तारी के खिलाफ दुनिया भर के लोगों और संगठनों ने विरोध किया। विनायक सेन और रोमा की गिरफ्तारी ने एक बार फिर मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाले लोगों के खिलाफ राज्य के आक्रामक और शोषणकारी रूप को उजागर कर दिया है। अभिव्यक्ति, सभा और सम्मेलन करने की स्वतंत्रता का अधिकार हमारा मूलाधिकार है। अगर सेन किसी घटना को उजागर करने की कोशिश कर रहे थे तो इसमें गलत ही क्या था? पीयूसीएल का सक्रिय सदस्य होने के नाते उन्होंने तो केवल उन लोगों की मदद की है जो मानव अधिकारों के उल्लंघन पर अध्ययन कर रहे हैं। सेन खुद भी राज्य के दमनकारी रूप और सरकार की छत्रछाया में पलने वाले सलवा जुडुम व पुलिस द्वारा की गई निर्मम हत्याओं की जांच में सक्रिय थे। उन्होंने हमेशा शांतिपूर्ण साधनों की ही वकालत की, उनकी गिरफ्तारी अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ लड़ने वाले हर आदमी की आवाज को दबाने की कोशिश है, राज्य का यह दमन चक्र सेन पर ही नहीं बल्कि महिला आंदोलन की डॉ इलिना सेन, नदी घाटी मोर्चा के गौतम बंधोपाध्याय पीयूसीएल की रश्मि द्विवेदी और दूसरे लोगों पर भी चलाया गया।
उनकी गिरफ्तारी लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलन पर गहरा आघात है। अब लोग उनकी रक्षा के लिए उठ खड़े हुए हैं। विशिष्ट लोगों की फेहरिस्त के साथ 16 जून, 2007 को नोम चोम्स्की ने एक प्रेस स्टेटमेंट जारी किया कि ''डॉ. सेन को निराधार इल्जामों के तहत गिरफ्तार किया गया है। उन्हें तुरंत छोड़ा जाए।''
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन, अरूणा राय (मैग्सेसे अवार्ड), अरूंधति राय (बुकर प्राइज), दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त चीफ जस्टिस राजेंद्र सच्च, फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल और बहुत से डॉक्टर व वैज्ञानिक, भारत, अमरीका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और हर जगह, डॉ. सेन और रोमा जैसे सामजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं।
सेन अभी तक पुलिस हिरासत में हैं, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका नामंजूर कर दी है। विडम्बना तो यह है कि मानव अधिकारों के लिये लड़ने वाले सेन और रोमा जैसे लोगों को राज्य अपना साझीदार तक स्वीकार नहीं करता। बजाय इसके उन्हें शक, अपमान और यहां तक कि मौत का निशाना बनाया जाता है। इतना ही नहीं उन्हें 'राष्ट्रीय हितों' के लिए खतरा करार दे दिया जाता है।
यह अलग बात है कि स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में 'खुले सामाज और खुली अर्थव्यवस्था' की मजबूत नींव की सफलता के बारे में कहा और यह भी कहा कि हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जो भाईचारे और एकता को बढ़ावा दे।' लेकिन कितने ही रोमा और सेन राज्य के संदेह, अपमान और दमन का शिकार हो रहे हैं। उन्हें राष्ट्रीय हितों के लिए खतरा कहकर उनके खिलाफ कानूनों को हथियार बनाकर राज्य उनका दमन कर रहा है।
आजादी के साठ साल के बाद भी आज आम आदमी संगठन, वकील, पत्रकार, चिकित्सक और विभिन्न स्वतंत्रता और न्याय प्रेमी लोग अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं करते। - प्रस्तुति: मीनाक्षी अरोड़ा
1 टिप्पणी:
आप के इस लेख से देश का कोई भी प्रबुद्ध नागरिक असहमत नही हो सकता आपने उल्लेख किया है कि किस तरह मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाले लोगों के खिलाफ राज्य के आक्रामक और शोषणकारी गतिविधियाँ चल रही है आप को यह जानकर हैरानी होगी कि अब इस गतिविधि मे मानव अधिकार आयोग भी शामिल हो गए है, मानव अधिकार आयोग, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को झूठे केस मे फंसा रहें है और कह रहें है की सभी मानव अधिकार संगठनो को बंद कराना है "यह टिप्पणी महाराष्ट्र राज्य मानव अधिकार आयोग के लिए है",
राजेश सिंग
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