जरूरी हो गया है विश्वबैंक की समीक्षा - शिराज केसर

भारत में विश्वबैंक के अंधाधुंध घुसने का रास्ता जब खुला, जब भारत सरकार ने वित्तीय संकट से अपने को बचाने के नाम पर ढांचागत समायोजन के बहाने 1991 से नयी आर्थिक नीतियों के जरिए नव-उदारवाद की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया। विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने विदेशी मुद्रा में ऋण देने के सरकारी अनुरोध पर इन नीतियों को तय किया था। यह महत्वपूर्ण बात है कि भारत में विश्वबैंक की परियोजना-आधारित भूमिका अब नीति आधारित हो गयी है। निश्चित रूप से हमें अब यह सवाल उठाना चाहिए कि राष्ट्रीय और सरकारी नीतियां भारत में बन रही हैं या वाशिंगटन में, जहां विश्वबैंक का मुख्यालय है।

विश्वबैंक परियोजनाओं और नीतियों से जो नुकसान हो रहा है उससे समाज का सबसे कमजोर वर्ग - वनवासी, मछुवारे, मजदूर, दलित, किसान, महिलाएं, बच्चे तथा शहरी और ग्रामीण गरीब - निरंतर प्रभावित हो रहे हैं। विश्वबैंक समूह की प्रसिध्दि बड़ी-बड़ी ढांचागत परियोजनाओं के लिए आर्थिक सहायता देने में है, जैसे बड़े बांधों के लिए (सरदार सरोवर इसका अच्छा उदाहरण है), बिजली परियोजनाओं के लिए और राजमार्गों आदि के लिए। अक्सर इसका परिणाम बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय नुकसान, बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित करने और असहाय बना देने में (उनके प्राकृतिक संसाधनों से वंचित करके) होता है।

विश्वबैंक समूह ने भारत के विदेशी मुद्रा संकट को देखते हुए 1991 से ढांचागत समायोजन के लिए भी बड़ी-बड़ी धनराशियां कर्ज के रूप में दी हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के लिए यह नाम दिया गया। इनके जरिये सरकार को वाध्य किया गया कि वह इन्हें अपनाए ताकि बदले में नकदी उपलब्धता या पूंजी का प्रवाह बना रहे। इन नीतियों में सार्वजनिक सेवाओं (जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, टेलीफोन, जल तथा विद्युत आपूर्ति आदि) का निजीकरण, राजकीय सहायता में कटौती और सार्वजनिक सेवाओं के उपभोग के शुल्क में वृध्दि, निर्यात के लिए उत्पादन में कमी करना तथा विदेशी निवेश को बढ़ावा देना और अर्थव्यवस्था पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण शामिल है। इन नीतियों को ''गरीबी घटाने'' या ''विकास परक होने'' के नाम पर प्रोत्साहित किया जाता है, पर उनका मुख्य उद्देश्य सरकार के विदेशी मुद्राकोष को बढ़ाना है ताकि विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और निजी कर्जदाताओं के नकदी कर्ज को अदा किया जा सके।

विश्वबैंक समूह सिर्फ अपनी परियोजनाओं और नीतियों के कारण ही नहीं, अपनी पध्दति के चलते भी समस्याएं खड़ी करता है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों से भी अधिक गोपनीयता के साथ काम करता है क्योंकि यह जानकारी देने के किसी कानून के तहत नहीं आता है तथा विभिन्न सरकारों के साथ अपने समझौतों को आधिकारिक तौर पर गोपनीय मानता है। अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के प्रवाह पर चूंकि इसका नियंत्रण है इसलिए यह राष्ट्रीय सरकारों पर अपनी शर्तें लादने की स्थिति में है और अपनी सत्ता का उपयोग ऐसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने में करता है जो कि वैकल्पिक आर्थिक नीति अपनाना चाहती हो। जब, स्थापित निकाय (जैसे पंचायतें, परिषदें आदि) इसकी पसंद की नहीं होती हैं, तब यह अपनी परियोजनाओं को लागू करने के लिए समानांतर प्रशासनिक ढांचा तैयार करता है और इस तरह देश के लोकतांत्रिक संस्थानों को अप्रासंगिक बना देता है। इसके ऋण चूंकि मनमाने हैं, इसलिए विभिन्न देशों में चल रही परियोजनाओं की सफलता और असफलता से इनका कोई संबंध नहीं है। किसी भी देश को इन्हें चुकाना ही पड़ता है। विश्वबैंक समूह ही ऋण तय करता है और उनकी शर्तें भी, पर परियोजना की असफलता की स्थिति में, सारा खर्च जनता को उठाना पड़ता है, जिन्हें फैसला करने की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाता, और यह भी कि यह सबका चूंकि मिलाजुला संगठन है, इसलिए विश्वबैंक समूह को कानूनी दायरे से बरी कर दिया गया है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन सारी बातों की कड़ी आलोचना हुई है और कुछ-कुछ दशकों के बाद विश्वबैंक समूह अपने दिशा-निर्देशों में भारी परिवर्तन करता है। ये परिवर्तन हमेशा दिखावटी होते हैं। कार्यक्रमों का नाम बदल दिया जाता है या एक की जगह दूसरे को दे दी जाती है और विश्वबैंक समूह कर्जदार देशों पर अपना प्रभाव बढ़ाता रहता है तथा अपनी नव-उदार नीतियां नए-नए तरीके से चलाता रहता है।


इस विश्वबैंक और अन्य बहुपक्षीय एजेंसियों की सहायता के लिए कुछ प्रसिध्द (और बहुत खर्चीले) अंतर्राष्ट्रीय सलाहकार हैं जिन्हें जल क्षेत्र की सुधार योजनाओं, निजीकरण की योजनाओं और यहां तक कि इन्हें प्रभावी बनाने के लिए कानून का मसौदा तैयार करने के लिए भी भारी रकम अदा की जाती है (जो अनुदान या ऋण के रूप में देश में आती है)। उदाहरण स्वरूप दिल्ली के लिए जल क्षेत्र में सुधार योजना प्राइस वाटर हाउस कूपर्स ने बनायी जिसके लिए विश्वबैंक ने हमें कर्ज दिया और वह पैसा हमने सलाहकारों को दिया। अंतर्राष्ट्रीय विकास बैंक ने अनुदान दिया जिससे मध्यप्रदेश के लिए समन्वित जल प्रबंधन योजना तैयार करने के वास्ते ब्रिटिश सलाहकार हालक्रो को पैसे दिए गए। इस तरह जल क्षेत्र में सुधारों के लिए विश्वबैंक से कर्ज लेना पड़ा जिससे प्राकृतिक और सामूहिक संसाधनों का निजीकरण और व्यापारीकरण हुआ।

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय कानून और नीतियों को विश्वबैंक के अलावा जो दूसकी अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी प्रभावित कर रही है, वह है एशियाई विकास बैंक। इसकी संरचना और इसका उद्देश्य विश्वबैंक के समानांतर है। विश्वबैंक जहां अमेरिका के प्रति जवाबदेह है, वहीं एशियाई बैंक जापान के प्रति। ये दोनों और इनके अन्य क्षेत्रीय सहयोगी (जैसे अमेरिकी विकास बैंक, यूरोपीय पुनरूध्दार एवं विकास बैंक) मिलकर बहुपक्षीय विकास बैंक के नाम से जाने जाते हैं। इनके अलावा अन्य अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान भी हैं जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन। द्विपीक्षीय एजेंसियां भी इस व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। ये किसी एक देश की सरकार से जुड़ी होती हैं और दूसरे देश की सरकार के साथ व्यापार करती हैं। मुख्य रूप से ये सहायता एजेंसियां, आयात-निर्यात बैंक, निर्यात के लिए कर्ज देने की एजेंसियों आदि के रूप में काम करती हैं। जापान अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बैंक इसका उदाहरण है जो विशेष रूप में भारत में सक्रिय है।

ऐसे में भारत में विश्वबैंक और उनकी समूह संस्थाओं के कामकाज पर, ख़ासतौर से इसकी सहायता करने (कर्ज देने) की उसकी कार्यनीति, सामाजिक और पर्यावरण मानकों आदि पर कड़ी निगरानी रखने के उद्देश्य से कई लोग पिछले कुछ वर्षों में आपस में जुड़े हुए हैं। अब आगे उनकी सोच यह बनी है कि राष्ट्रीय स्तर पर विश्वबैंक के कामकाज की बड़े पैमाने पर जांच तथा राष्ट्रीय स्तर पर उसके प्रभाव की समीक्षा करना जरूरी हो गया है। इसी उद्देश्य के लिए ''भारत में विश्वबैंक के कामकाज पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण (आईपीटी)' के गठन का आधार बना है। कुछ लोगों के प्रयास से शुरु यह 'स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' विश्वबैंक के कामकाज की गहन समीक्षा में अब जुट गया है। इस न्यायाधिकरण के माध्यम से यह कोशिश की जा रही है कि उन लोगों को लिए एक उचित और पूर्वाग्रह मुक्त मंच मिले जो विश्वबैंक समूह द्वारा वित्तपोषित या प्रोत्साहित परियोजनाओं या नीतियों से प्रभावित होते हैं। यह न्यायाधिकरण ऐसे लोगों को अपनी शिकायतें दर्ज कराने और विकल्प जुटाने का अवसर देने की एक कोशिश है। स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण (आईपीटी)' की पहली सुनवाई 21 से 24 सितम्बर 2007 को हो रही है। इसमें देश के दर्जनों संगठनों के लोग संभावित न्यायाधिकरण पेनेल सदस्य तारिक अली, वीना मजूमदार, विनोद मेहता, आज़मी बिशारा, सीमा मुस्तफा, नॉम चोमस्की, एमबी नक़वी, महाश्वेता देवी, दीपक नय्यर, अरुणा रॉय, एलसी जैन, मदुरा स्वामीनाथन, अस्मां जहांगीर, सुचरित टी., रोमिला थापर, एमपी वीरेन्द्र कुमार, न्यायमूर्ति वेंकटचलैया, ब्रायन अरक्यूहार्ट आदि के माध्यम से अपनी बात कहने की कोशिश करेंगे। स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण (आईपीटी)' का पूरा कार्यक्रम वेवपेज 'वर्ल्डबैंकट्रिब्यूनल डॉट कॉम' पर देख सकते हैं।

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