जज कानून से ऊपर तो नहीं: प्रशांत भूषण

हाल में टीवी पत्रकार विजय शेखर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी भरी टिप्पणी की थी। उससे लोगों की यह धारणा मजबूत ही हुई है कि न्यायपालिका अपने भीतर की सड़ांध को छिपाने के लिए अपने अवमानना अधिकारों का प्रयोग करने की कोशिश करती है। शेखर ने यह दिखाने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया था कि किस तरह भ्रष्ट तरीकेसे गुजरात की अदालतों से गिरफ्तारी वारंट हासिल किया जा सकता है। मीडिया और सभ्य समाज को न्यायपालिका के अपने अवमानना अधिकारों के प्रयोग की कोशिश का पुरजोर विरोध करना चाहिए। अगर हम अवमानना की कार्रवाई की धमकियों से डरते रहेंगे तो अपने गणतंत्र के भीतर एक गैरजवाबदेह न्यायिक तानाशाही को पनपने देने के दोषी होंगे।

यही सोच कर इस साल मार्च में दिल्ली में आयोजित नेशनल पीपुल्स कॅन्वेंशन में न्यायिक जिम्मेदारी एवं सुधार अभियान का गठन किया गया। इसका उद्देश्य न्यायिक जिम्मेदारी एवं सुधार अभियान शुरू करने के लिए सभ्य समाज को संगठित करना है जो न्याय के वास्तविक उपभोक्ता हैं। इस अभियान का गठन इस पीड़ादायक अनुभव के बाद किया गया कि न्याय प्रणाली की सड़ांध को दूर करने के लिए न तो क्रमिक सरकारों ने कुछ किया और न ही न्यायपालिका ने। वे उच्च न्यायपालिका के लिए कोई वास्तविक जिम्मेदारी लागू करने के प्रति भी गंभीर नहीं रही हैं। हमने मससूस कियाकि जब तक इस देश के आम लोग, जिनका न्यायिक प्रणाली से साबका पड़ता रहता है, कोई मजबूत और मुखर अभियान शुरू नहीं करेंगे, इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं होगा। हमारा अभियान न्यायपालिका की व्यवस्थापरक समसयाओं और न्यायिक कदाचार के वैयक्तिक मामलों से संबंधित मुद्दों को उठाने की एक छोटी शुरुआत है। हमने अभियान की एक वेबसइट बनाई है। जिसमें न्यायिक सुधार, जज वाच, जजमेंट वाच आदि पर अलग-अलग खंड हैं। अतीत के न्यायिक कदाचार के कई मामलों का अध्ययन भी वेबसाइट पर दिया गया है। हम अब इस तरह के कदाचारों के कई मामलों का अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हाल ही में न्यायपालिका के सबसे ऊंचे स्तर पर आए।

पिछले साल 16 फरवरी को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश वाई के सब्बरवाल ने एक विस्तृत आदेश के जरिए दिल्ली के निर्दिष्ट रिहायशी इलाकों में उन मकानों की सीलिंग करने की प्रक्रिया शयुरू कर दी जिनका वाणिज्यिक इस्तेमाल किया जा रहा था। इस आदेश को लागू करने के लिए शुरू हुए अभियान में दुकान और ऑफिस सरीखे वाणिज्यिक इस्तेमाल वाले हजारों मकानों को सील कर दिया गया। इनमें से कई दुकानें और ऑफिस दशकों से चल रहे थे। नतीजा यह कि इनके मालिकों को शॉपिंग मॉल या वाणिज्यिक परिसरों में दुकान खरीदने या किराए पर लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह अभियान मुख्य न्यायधीश सब्बरवाल की पीठ की निरंतर निगरानी में कड़ाई से चलता रहा। कोर्ट ने सीलिंग अभियान पर नजर रखने और उसे निर्देश देने के लिए एक कमेटी नियुक्त कर दी थी।

कोर्ट का आदेश दिल्ली मास्टर प्लान 2001 से संबंधित कानूनों को लागू करवाने का था। कोर्ट ने जिन इलाकों में वाणिज्यिक इस्तेमाल वाले परिसरों को सील करने के आदेश दिए थे, वे इलाके के दिल्ली मास्टर प्लान 2001 में आवासीय इस्तेमाल के लिए निर्दिष्ट किए गए थे। लेकिन इस तरह की परिस्थितियों कानून के शासन को लागू करने के दो तरीके थे। या तो वाणिज्यिक इस्तेमाल वाली रिहायशी परिसरों को सील करने का आदेश दिया जाता या फिर अधिकारियों को मास्टर प्लान बदलने और उन इलाकों की जमीन के इस्तेमाल में परिवर्तन के लिए कहा जाता जहां लंबे समय से वाणिज्यिक गतिविधियां चल रही थीं। दरअसल, सरकार 2021 का नया मास्टर प्लान ले आई, जिसमें रिहाइश के लिए निर्दिष्ट इलाकों में वाणिज्यिक गतिविधि की इजाजत दी गई थी। लेकिन नए मास्टर प्लान के बावजूद, जिसने सीलिंग के आदेश के उद्देश्य को खत्मक रि दिया था, कोई ने इस तरह के इलाकों में भी सीलिंग जारी रखने को कहा, जहां वाणिज्यिक गतिविधि की इजाजत दी गई थी। हालांकि इन इलाकों में दुकान या ऑफिस के मालिकों ने हलफनामा दिया था कि 30 जून/30 सितम्बर 2006 तक अपनी वाणिज्यिक गतिविधि बंद कर देंगे, लेकिन कोर्ट का कहना था कि उन्हें अपने हल्फनामें के 'उल्लंघन' की इजाजत नहीं दी जा सकती।

कोर्ट के आदेशों से शहर में तबाही और आतंक मच गया। कोर्ट ने सीलिंग अभियान के निरीक्षण और निगरानी में अति उत्साह दिखाया, उस पर कइयों ने सवाल उठाए। एक लाख से अधिक दुकानें और वाणिज्यिक प्रतिष्ठान बंद कर दिए गए और उन्हें मजबूरन शॉपिंग मॉल और वाणिज्यिक परिसरों में जाना पड़ा। उधर, शॉपिंग मॉल और वाणिज्यिक परिसरों में दुकानाें और ऑफिसों की कीमतें रातोंरात दोगुनी-तिगुनी हो गईं। लिहाजा, कई लोगों ने सवाल उठाया कि क्या माल और वाणिज्यिक परिसर के डेवलपरों के फायदे के लिए एक अभियान शुरू किया गया? एक बात, जो सार्वजनिक तौर पर सामने आई, वह यह कि जिस समय न्यायमूर्ति सब्बरवाल सीलिंग के आदेश दे रहे थे, उनके बेटों चेतन और नितिन, जो छोटे आयात- निर्यात व्यवसायी थे, ने शॉपिंग माल और वाणिज्यिक परिसर के बड़े डेवलपरों के साथ साझेदारी की। इस तरह वे खुद बड़े वाणिज्यिक परिसर में डेवलपर बन गए।

कंपनी मामलों के विभाग में चेतन और नितिन सब्बरवाल ने जो दस्तावेज जमा किए हैं, उन्हें देखने से कई तथ्य सामने आते हैं। सन् 2004 तक सब्बरवाल भाइयों ने लाखें रुपए की आमदनीवाला आयात- निर्यात का छोटा व्यवसाय करते हुए पवन इम्पेक्स, सब्स एक्सपोर्ट्स और सुग एक्सपोर्ट्स नाम से तीन कंपनियां खड़ी की।

दिलचस्प बात यह है कि उनके पंजीकृत कार्यालय सब्बरवाल परिवार के घर 3/81 पंजाबी बाग में थे। जनवरी 2004 में उन्हें न्यायमूर्ति सब्बरवाल के सरकारी निवास 6 मोती लाल नेहरू मार्ग ले जाया गया। क्या यह महज संयोग था कि न्यायमूर्ति सब्बरवाल ने 7 मई 2004 को रिहायशी इलाकों के उन मकानों को सील करने का आदेश दिया था जहां दुकानें और ऑफिस चल रहे थे? जाहिर है, उनके आदेशों का कड़ाईसे पालन करने पर पंजाबी बाग स्थित उनका घर तो सील हो जाता, लेकिन उनके सरकारी निवास पर आंच नहीं आती।

बहरहाल, 23 अक्टूबर 2004 को शॉपिंग माल और वाणिज्यिक परिसरों के सबसे बड़े डेवलपरों में से एक के प्रोमोटर (बीपीटीपी ग्रुप के काबुल चावला) को 50 प्रतिशित शेयरधारक और निदेशक के रूप में पवन इम्पेक्स में शामिल कर लिया गया। उसी दिन पवन इम्पेक्स के पंजीकृत कार्यालय को 3/81 पंजाबी बागवापस ले जाया गया। इसके बाद, 12 फरवरी 2005 को काबुल चावला की पत्नी अंजलि चावला कोक भी निदेशक के रूप में कंपनी में शामिल कर लिया गया।

चेतन और नितिन ने वाणिज्यिक परिसरों के निर्माण के उद्देश्य से 8 अप्रैल 2005 को एक नई कंपनी हरपवन कंस्ट्रक्टर्स शुरू की। इसमें 25 अक्टूबर 2005 को दिल्ली के एक दूसरे बड़े बिल्डर पुरुषोत्तम बाघेरिया को साझीदार के रूप में शामिल किया गया। सब्बरवाल भाइयों के साथ साझीदारी करने के तुरंत बाद बाघेरिया ने साकेत में 'स्क्वायर 1 मॉल' बनाने की अपनी योजना का ऐलान किया। इसके दिल्ली के सबसे बड़े और लक्जरियस मॉल्स में से एक बताया गया।

फरवरी 2006 की 16 तारीख तक, जब मुख्य न्यायधीश सब्बरवाल ने दिल्ली के आवासीय इलाकों में चलने वाले वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों को सील करने के सख्त आदेश दिए; उनके बेटे मॉल और वाणिज्यिक परिसरों के व्यवसाय में प्रवेश करने की दिशा में काफी आगे बढ़ चुके थे। उन्होंने दिल्ली के दो सबसे बड़े व्यावसायिक स्टेट डेवलपरों के साथ साझेदारी कर ली थी। इसके बाद सब्बरवाल भाइयों का यह व्यवसाय चल पड़ा। पवन इम्पेक्स की शेयर पूंजी 21 जून 2006 तक एक लाख रुपए से बढ़कर 3 करोड़ हो गई। इसके तुरंत बाद बीपीटीपी डेवपलर्स की चावला दंपति ने कंपनी में 1.5 करोड़ रुपए (50 प्रतिशत) का निवेश किया। पवन इम्पेक्स को 22 अगस्त 2006 को यूनियन बैंक आफ इंडिया की कनॉट प्लेस शाखा ने 28 करोड़ रुपए का ऋण दिया। यह ऋण नोएडा के सेक्टर 125 में प्लॉट संख्या-ए 3, 4 और 5 स्थित 'संयंत्र, मशीनरी और दूसरी संपत्ति' को बंधक रखकर लिया गया था, जबकि सच यह है कि वहां कोई संयंत्र या मशीनरी नहीं है। इसके विपरीत, वहां 5 लाख वर्ग फुट में करोड़ों की लागत से एक विशाल आईटी पार्क बनाया जा रहा है। इसके बारे में पूछे जाने पर बैंक के चेयरमैन ने बताया कि सब्बरवाल भाइयों ने 3 करोड़ की शेयर पूंजी, 7 करोड़ के अप्रतिभूत ऋण और 'संभावित खरीददारों से 18 करोड़ रुपए के अनुमानित मुनाफे' की प्रतिभूति के एवज में ऋण लिया। यदि हर बैंक संभावित खरीददारों से होने वाली अनुमानित आय के एवज में इतना उदार होकर ऋण देता तो हमारे पास लाखों करोड़ रुपए की गैर- निष्पादित परिसंपत्ति होती। दिलचस्प बात यह है कि नोएडा के एक महंगे सेक्टर में 12,000 वर्गमीटर के ये तीनों प्लॉट उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह यादव/अमर सिंह सरकार ने 29 दिसम्बर 2004 को पवन इम्पेक्स को मात्र 37,00 रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर पर आवंटित किए थे। उस समय वहां व्यावसायिक जमीन की दर कम से कम 30,000 रुपए प्रति वर्ग मीटर थी। यह अपने आप में कम से कम 30 करोड़ रुपए का उपहार है। नोएडा में सब्बरवाल भाइयों को केवल ये ही प्लाट आवंटित नहीं किए गए। सब्बरवाल भाइयों की दूसरी कंपनी सब्स एक्सपोर्ट्स को 10 नवम्बर 2006 को 4000 रुपए प्रति वर्गमीटर की दर पर सेक्टर 68 में प्लॉट नंबर 12ए आवंटित किया गया, जिसका क्षेत्रफल 12,000 वर्गमीटर था। (जबकि उस समय बाजार दर कम से कम दस गुना अधिक थी) इसका अर्थ सब्बरवाल भाइयों को चास करोड़ रुपए का का एक और उपहार। इसके पहले 6 नवंबर को सब्स एक्सपोर्ट्स को सेक्टर 63 में 800- 800 वर्ग मीटर के तीन प्लाट (सी 103, 104 और 105) 2100 रुपए प्रति वर्गमीटर की दर से आवंटित किए गए थे। उनके पास सेक्टर 8 में प्लॉट हैं। जहां उन्होंने हाल ही मे एक शानदार फैक्टरी और आफिस परिसर बनाया है। इसके अतिरिक्त, 2005 में न्यायमूर्ति सब्बरवाल की बीवी शीबा सब्बरवाल को सेक्टर 44 में एक आवासीय प्लॉट आवंटित किया गया। यह कुख्यात नोएडा आवंटन घोटाले का हिस्सा था। मीडिया ने इस घोटाले का पर्दाफाश किया कि तथाकथित ड्रॉ में ज्यादातर आवंटन अति महत्वपूर्ण लोगों को किया गया।
इस पर्दाफाश से परेशान उत्तर प्रदेश सरकार ने आवंटनों को रद्द कर दिया। यहां दिलचस्प बात यह है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जब आवंटनों की सीबीआई जांच के आदेश दिए तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति बीपी सिंह ने उस पर तुरंत रोक लगा दी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अमर सिंह से संबंधित कुख्यात टेपों के प्रकाशन पर न्यायमूर्ति सब्बरवाल ने खुद रोक लगा दी थी। इन टेपों में अमर सिंह को विभिन्न तरह के अपराधों में लिप्त दिखाया गया था।

इस तरह, 2004 तक छोटे आयात- निर्यात फर्मों के मालिक दोनों सब्बरवाल भाई सिर्फ दो वर्षों में वाणिज्यिक परिसर बनाने के व्यवसाय में चले गए और पैसे से खेलते दिख रहे हैं। यह फायदा उनेक बेटों और साझीदारों को हुआ। इस संदर्भ में यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सब्बरवाल के बेटों, चेतन और नितिन ने मार्च 2007 में पूर्व कानून मंत्री जगन्नाथ कौशल के उत्तराधिकारियों से 9 महारानी बाग स्थित 1,150 वर्ग गज का बंगला खरीदा। बताया गया कि उन्होंने इसके लिए 16 करोड़ रुपए दिए।

आखिरकार आयकर विभाग जागा और 28 मार्च 2007 को पवन इम्पेक्स को नोटिस भेजकर उसी व्यावसायिक गतिविधियों, खातों, संपत्ति, फंड के स्रोतों आदि का ब्यौरा मांगा, लेकिन मामला इससे ज्यादा गंभीर है। न्यायमूर्ति सब्बरवाल और उनके बेटे आयकर अधिनियम से परे अपराध और कदाचार में शामिल दिखते हैं। उनका सीलिंग के मामलों को सुनना और आदेश देना अनुचित था, क्योंकि इससेउनके बेटों को फायदा होना था। उनके आदेश जिसके मुताबिक कोई भी जज उस मामले को नहीं सुन सकता जिसमें उसकी निजी दिलचस्पी है। इन परिस्थितियों में इस मामले को उनका देखना भ्रष्टाचार निवारक कानून के तहत अपराध है या नहीं, बहस का मुद्दा है।
कुछ भी हो, मॉल और वाणिज्यिक परिसर डेवलपरों बीच के संबंधों की पूरी तरह जांच किए जाने की जरूरत है। खासतौर पर यह देखने के लिए कि उन्होंने किस तरह और किस हद तक सब्बरवाल भाइयों के व्यवसाय और संपत्ति की खरीद से पैसा लगाया। सब्बरवाल भाइयों की खरीदी समस्त संपत्ति की भी पूरी तरह जांच किए जाने की जरूरत है, जिससे यह पता लग सके कि उनका अधिग्रहण कानूनी रूप से सही है या नहीं। इसक अलावा, न्यायमूर्ति सब्बरवाल के बेटों की कंपनियों और उनके संबंधियों को आवंटित प्लॉओं की भी जांच की जानी चाहिए, ताकि यह मालूम हो सके कि आवंटन में उनका अनुचित पक्ष लिया गया कि नहीं? और यदि अनुचित पक्ष लिया गया तो इसके पीछे क्या उद्देश्य था? क्या किसी एवज में ऐसा किया गया?

हम इस तथ्य से वाकिफ हैं कि न्यायमूर्ति बहुत सक्षम जज थे जिन्होंने अपने कार्यकाल में कई मुद्दों पर अनुकरणीय फैसले दिए, लेकिन उन फैसलों के कारण वे उपरोक्त कदाचारों से दोषमुक्त नहीं हो सकते। इस मामले में जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे हमारी उच्च न्यायपालिका की ईमानदारी शक के घेरे में आ गई है और लोगों का विश्वास डिगने लगा है। केवल पूरी पारदर्शिता के साथ जांच ही इस विश्वास को फिर से कायम कर सकती है।
साभार- प्रथम प्रवक्ता

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