विश्वबैंक के पूर्व चीफ इकॉनोमिस्ट और नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने 'ग्लोबलाइजेशन एंड इट्स डिसकंटेन्ट्स' में बैंक और आईएमएफ की खुली आलोचना करते हुए कहा है कि इन संस्थाओं पर केवल साहूकार औद्योगिक देश ही हावी नहीं हैं बल्कि उन देशों में निहित व्यापारिक और आर्थिक हित भी इन संस्थाओं पर हावी हैं; इनकी नीतियों से भी यही बात सामने आती है। उनका कहना है कि ऐसा इसीलिये होता है क्योंकि विश्वबैंक और उस जैसी अन्य बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाएं अमीर देशों द्वारा नियंत्रित की जा रही हैं और इन अमीर देशों के वित्तमंत्री और केन्द्रीय बैंक के गवर्नर ही अपने देशों का विश्वबैंक और आईएमएफ में प्रतिनिधित्व करते हैं। स्टिग्लिट्ज आगे कहते है, ''वित्तमंत्री और केन्द्रीय बैंक के गवर्नरों की वित्तीय समुदाय के साथ आमतौर पर साठगांठ होती है, वे इन्हीं वित्तीय फर्मों से ही आते हैं और सरकारी नौकरी का अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद इन्हीं फर्मों में दोबारा लौट जाते हैं। यही वजह है कि ये व्यक्ति दुनिया को पूंजीवादी समुदाय की नजर से ही देखते हैं। इसलिये किसी भी संस्था के फैसलों में फैसले बनाने वालों के हितों और नजरिये की झलक स्वाभाविक रूप से दिखाई पड़ती है। हैरानी की बात नहीं है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं ही विकसित औद्योगिक देशों के व्यवसायिक और पूंजीवादी हितों से गहरे रूप से जुड़ी हुई हैं।''
स्टिग्लिट्ज ने उस नग्न सच्चाई का भी खुलासा किया, जिसे हालांकि बहुत से लोग पहले से जानते थे। ('रिवॉल्विंग डोर' यानी जब चाहा तब विश्वबैंक-आईएमएफ में और उपयुक्त अवसर के साथ भारत सरकार में)। विश्वबैंक-आईएमएफ और सरकार के बीच के 'रिवॉल्विंग डोर' सम्बन्धी भारत सरकार की नीतियां नजरंदाज नहीं की जा सकतीं। इससे ज्यादा इसके बारे में कोई क्या कह सकता है कि पिछले 20 सालों से खासतौर से 1991 से चोटी पर बैठे बहुत से आर्थिक नीति-निर्माता विश्वबैंक और आईएमएफ के कर्मचारी रह चुके हैं। इनमें योजना आयोग, वित्तमंत्रालय के सचिव और रिजर्व बैंक के गवर्नर शामिल हैं। बिना किसी रुकावट के विश्वबैंक-आईएमएफ और भारत सरकार के बीच ऐसे आसानी से आते और जाते हैं गोया कि भारत सरकार विश्व बैंक-आईएमएफ का ही एक विभाग है।
80 के दशक के मध्य से ही यह नजर आने लगा था कि विश्वबैंक के कर्मचारी भारत सरकार में नीति-निर्माण प्रक्रिया के उच्च पदों पर आसीन किये जा रहे थे। मोंटेक सिंह आहलूवालिया, बिमल जालान और वित्तमंत्रालय और रिजर्वबैंक के बहुत से उच्च पदाधिकारी विश्वबैंक-आईएमएफ और भारत सरकार के बीच बेरोकटोक आते और जाते रहे हैं। उनमें शंकर आचार्य जैसे महत्वपूर्ण नीति-निर्माता और वित्तसचिव भी उनमें शामिल है जिन्होंने 70 के दशक में मोंटेक सिंह की तरह विश्वबैंक से ही शूरुआत की और उन्हीं की तरह ही 1985 में पुन: आर्थिक सलाहकार के रूप में सरकार में शामिल हो गए। 1990 में सरकार ने उन्हें चीफ इकॅनामिक एडवाजर नियुक्त किया। उसके बाद ही उन्हें सेबी (एसईबीआई) के बोर्ड, एक्जिम बैंक और बहुत सी दूसरी नीति-निर्माता संस्थाओं में नियुक्त किये गए।
उसके बाद आए राकेश मोहन, जिन्होंने (1976-80,1983-86) विश्वबैंक के साथ ही शुरुआत की, फिर बाद में भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार बन गए। उसके बाद उन्होंने सरकार के बहुत से नीति-निर्माण के निकायों में ऊंचे ओहदा भी प्राप्त किये जिनमें रिजर्वबैंक के डिप्टी गवर्नर, आर्थिक कार्यों के विभागीय सचिव आदि जैसे पद शामिल हैं।
पारथासारथी शोमे ने 1983 से 2004 के दौरान ज्यादातर समय आईएमएफ की चाकरी में बिताया उस दौरान उन्हें नवी पंचवर्षीय योजना के लिये 'एडवाइजरी ग्रुप ऑन टेक्सेशन' का चेयरमैन कहा जाता था। 'एडवाइजरी गु्रप ऑन टेक्सेशन पॉलिसी के तत्कालीन चेयरमैन हाल के वित्तमंत्री (2004-2007) के विशेष सलाहकार थे।
इस फहरिस्त मे अशोक लाहिड़ी जैसे व्यक्ति भी हैं जिन्होंने सरकार में चीफ इकॅनोमिक एडवाइजर बनने से पहले कई सालों तक आईएमएफ की सेवा की और फिर 2007 में एडीबी के कार्यकारी निदेशक बनाए गए हैं। ये तो केवल कुछ ही ऐसे लोगों के उदाहरण हैं जिन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत विश्वबैंक -आईएमएफ से की और फिर सरकार में नीति-निर्माण प्रक्रिया में ऊंचे ओहदों पर पहुंच गए। ये लोग विश्वबैंक-आईएमएफ और सरकार के बीच आने-जाने का क्रम यूं जारी रखते हैं कि जैसे भारत सरकार बैंक-आईएमएफ का ही एक विभाग हो। ऐसे उदाहरणों की संख्या और भी कहीं ज्यादा है।
विश्वबैंक-आईएमएफ और बैंक के कर्मचारियों द्वारा सरकार के आर्थिक नीति-निर्माण के महत्त्वपूर्ण पदों पर भर्ती का 'रिवॉल्विंग डोर' ही भारत पर बैंक को अपनी नीतियां और विचार धाराओं को लादने के लिये रास्ता दे रहा है। इन नीति-निर्माताओं को आने और जाने की इजाजत होने से केवल यह बात तो साबित होती ही है कि ये नीति-निर्माता विश्वबैंक के स्कूल ऑफ इकॅनोमिक्स में पढ़े हुए हैं, साथ ही यह भी साबित होता है कि विश्वबैंक-आईएमएफ का इन पर पूरा नियंत्रण भी रहता है, जहां कहीं वे जरा भी लीक से इधर-उधर होते हैं तो उन्हें विश्वबैंक-आईएमएफ की नौकरी और असाइनमेंट से हाथ धोना पड़ता है।
सच तो यह है कि विश्वबैंक के प्रस्तावों और योजनाओं को देखने वाले वित्तमंत्रालय या अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों के उच्चअधिकारियों को विश्वबैंक के साथ बातचीत करने और नौकरी पर रहते हुए या सेवानिवृत्ति के तुरन्त बाद विश्वबैंक में नौकरी पाने की खुली छूट है। बहुतों को तो भारत सरकार ही नियुक्त करती है। ये नियुक्तियां भारत सरकार में ऊंचे ओहदों पर बैठे विश्वबैंक के पुरान घाघों के नेटवर्क से ही होती है। प्रमोशन के अलावा, दूसरी नौकरियों की मेजबानी, सलाहकार एजेंसी, असाइंमेंट और यहां तक कि यात्रा भत्ता और विश्वबैकं व उसकी एजेंसिय की मीटिंग में शामिल होने के लिये भारी राशि ऑनरेरियम के तौर पर दी जाती है। इसी तरह, सीएसआईआर के डायरेक्टर जनरल आर.ए.माशेल्कर ने अपने कार्यकाल के दौरान कम से कम 50 यात्राएं विदेश के लिये की थीं। इनमें से ज्यादातर यात्राओं के लिये, उन्हें एक दिन का लगभग 500 ब्रिटिश पाउण्ड ओनोरेरियम दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जितना उनको भारत सरकार से वेतन नहीं मिलता था उससे कहीं ज्यादा रकम इन यात्राओं से ही उन्हें मिल गई। सीएसआईआर के डायरेक्टर जनरल के रूप में उन्होंने अनेक नीति-निर्माण्ा की समितियों की अध्यक्षता की और सरकार को उदाहरण के तौर पर पेटेन्ट एक्ट में संशोधन करने की सलाह दी ताकि पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनियो की जरूरतों को पूरा किया जा सके। उनका कहना है कि ईमानदारी से इस बात में यकीन करता हूं कि यह पूरी तरह से भारत के हित में है। लेकिन सब जानते हैं कि ये मोटी रकमें असाइनमेंट और भलाई तभी कटती है जब आप विश्वबैंक और उसकी एजेन्सियों की रास्ते पर चलते है तब ऐसे में वे सभी बातें सही और उचित नजर आने लगती हैं जो रसदार फलों का स्वाद देती हैं यानी जिनसे मोटी रकम वाले असाइनमेंट मिलते हैं।
कर्मचारियों का चयन विश्वबैंक खुद करता है और उनके वेतन और भत्ते, बैंक के लिये उनकी उपयोगिता पर निर्भर करते हैं। ज्यादातर मामलों में उनके वेतन भारत सरकार से मिलने वाले उनके वेतन का दस गुना से भी ज्यादा ही होती है। इसी को देखकर ही ज्यादातर अधिकारी विश्वबैंक की नौकरी असाइंमेंट सलाहकार एजेंसी और यात्रा भत्ता लेने के लिये लालायित रहते है। जो अधिकारी विश्वबैंक के कहने के अनुसार चलता है, उसे और भी ज्यादा मिलता है, यही वजह है कि अधिकारी उस लीक के अन्दर ही चलना पसंद करते हैं एक ईमानदार अधिकारी के लिये ये नौकरियां और असाइनमेंट ही अकेला ऐसा वैधानिक रास्ता है जिससे वह अपनी बचत को बहुत थोड़े ही वक्त में दोगुना या तिगुना कर सकता है।
''फोरेन कोन्ट्रिब्यूशन रेग्यूलेशन एक्ट' के अनुसार किसी भी सरकारी अधिकारी द्वारा किसी विदेशी एजेन्सी से कोई भी भौतिकवादी योगदान (राशि) लेना अपराध है लेकिन इस एक्ट में विश्वबैंक और संयुक्त राष्ट्र की दूसरी एजेन्सियां शामिल नहीं हैं।'' इस तरह इस एक्ट ने भी बैंक-आईएमएफ-एडीबी में नौकरी, असाइनमेंट और यात्रा भत्ते चाहने वालों के लिये रास्ता साफ कर दिया है। यही वजह है कि विश्वबैंक की नीतियों और योजनाओं का सरकारी स्तर पर कोई आलोचनात्मक मूल्यांकन नहीं किया जाता। उन्हें बिना किसी विवाद के स्वीकार करके लागू कर दिया जाता है। इस सबका नीति-निर्माण प्रक्रिया, खासतौर पर भारत सरकार की आर्थिक नीति-निर्माण प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि परोक्षत: विश्वबैंक ही है जो रिजर्व बैंक, वित्तमंत्रालय और देश के अन्य आर्थिक नीति-निर्माण संस्थाओं को चला रहा है। प्रस्तुति -मीनाक्षी अरोड़ा
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