पिछले दिनों दिल्ली से निकलने वाले तमाम अख़बारों में दिल्ली की कांग्रेसी सरकार द्वारा बिजली चोरी रोकने के सन्दर्भ में एक विज्ञापन प्रकाशित करवाया गया, जिसमें लुंगी-कुर्ता और सर पर गमछा बाँधे हुए एक गरीब-मज़दूर किस्म के आदमी को साइकिल पर बिजली के खम्भों को गठरी में बाँधकर भागते हुए दर्शाया गया है। विज्ञापन के ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा है, 'ये आपके हिस्से की बिजली चुराता है।'
भूमण्डलीकरण के इस दौर की सरकारों के चरित्र के कुछ पहलुओं को 'जनहित' में जारी किए गए इस एक विज्ञापन मात्र से समझा जा सकता है। पहली बात तो ये कि अब इस व्यवस्था में गरीबों-मजदूरों के लिए कोई जगह ही नहीं रही, बल्कि उनहें अब चोर भी माना जाने लगा है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो सरकार वर्षों से बिजली कर न देने वाले किसी नेता, मंत्री या उद्योगपति को ही बिजली चुराकर भागते हुए दिखाती। दूसरा ये कि अब सरकारों का दायित्व गरीबों के बजाय चन्द अमीरों के शुभचिन्ता की ही रह गयी है। इसीलिए उसने 'आप' को सम्बोधित करते हुए आगाह किया है कि चोरों से सावधान रहें। यह 'आप' किसको इंगित करके कहा गया है, समझा जा सकता है। इस 'आप' का सम्बोधन पिछले साल भी सुनने को मिला था जब केन्द्रिय शिक्षण संस्थानों में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जा रहा था। तब कई चैनलों के समाचार वाचक 'आप' के बच्चों का भविष्य अब अन्धकारमय है, कहते हुए आरक्षण विवाद से सम्बन्धित ख़बरें पढ़ते थे।
गरीबों-मज़दूरों को सरकारों द्वारा चोर मानना और उन्हीं का हक़-हिस्सा मारकर अमीर हुए 'आप' लोगों का उनकी चिन्ता के केन्द्र में आ जाना वैश्वीकरण की वो ख़ासियत है जो उसे उसके पुराने अवतार पूँजीवाद से अलग करता है। नब्बे से पहले जब हमारी सरकारें पूँजीवादी ढाँचे में कल्याणकारी होने का मुखौटा लगाकर काम करती थीं तब आम गरीबों को चोर बताने का साहस तो नहीं ही करती थीं और ना ही खुलकर 'आप' लोगों के पक्ष में खड़ी होती थीं। कम से कम सार्वजनिक रूप से तो ऐसा करना उनके लिए असम्भव था। हालांकि अन्दर ही अन्दर ये सब होता था। लेकिन अब भूमण्डलीकरण के साथ जो राजनीतिक-आर्थिकी आयी है उसके तहत गरीबों को चोर माना जाना एक आम बात है जिस पर किसी भी राजनैतिक दल को कोई आपत्ति नहीं होती। दूसरे अर्थों में जहाँ पूँजीवादी दौर में दुनिया 'हैभ्स और हैभ्स नॉट' (जिनके पास है और जो वंचित हैं) में बँटी मानी जाती थी और उनके बीच की दूरी को पाटने के नाम पर राजनीति होती थी तो वहीं अब भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया 'हैभ्स और चोरों' के बीच बँटी बताई जा रही है और राजनीतिक दलों का काम 'हैभ्स' के पक्ष में खड़े होकर चोरों को भगाना हो गया है। यानि जिन तबकों को पहले सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक कारणों से पीड़ित मानकर उनके हक़-हुक़ूक की बात होती थी अब उन्हें ही दोषी बताकर सज़ा देने की क़वायद चल रही है। जो सरकारें इन पीड़ित तबकों को जितना विस्थापित करके भगाती हैं या आत्महत्या करने को मजबूर करती हैं, उन्हें 'हैभ्स' की चाकरी में लगी पत्र-पत्रिकाएँ उतना ही बड़ा विकास दृष्टा बताती हैं।
भूमण्डलीकरण के इस दौर की सरकारों के चरित्र के कुछ पहलुओं को 'जनहित' में जारी किए गए इस एक विज्ञापन मात्र से समझा जा सकता है। पहली बात तो ये कि अब इस व्यवस्था में गरीबों-मजदूरों के लिए कोई जगह ही नहीं रही, बल्कि उनहें अब चोर भी माना जाने लगा है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो सरकार वर्षों से बिजली कर न देने वाले किसी नेता, मंत्री या उद्योगपति को ही बिजली चुराकर भागते हुए दिखाती। दूसरा ये कि अब सरकारों का दायित्व गरीबों के बजाय चन्द अमीरों के शुभचिन्ता की ही रह गयी है। इसीलिए उसने 'आप' को सम्बोधित करते हुए आगाह किया है कि चोरों से सावधान रहें। यह 'आप' किसको इंगित करके कहा गया है, समझा जा सकता है। इस 'आप' का सम्बोधन पिछले साल भी सुनने को मिला था जब केन्द्रिय शिक्षण संस्थानों में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जा रहा था। तब कई चैनलों के समाचार वाचक 'आप' के बच्चों का भविष्य अब अन्धकारमय है, कहते हुए आरक्षण विवाद से सम्बन्धित ख़बरें पढ़ते थे।
गरीबों-मज़दूरों को सरकारों द्वारा चोर मानना और उन्हीं का हक़-हिस्सा मारकर अमीर हुए 'आप' लोगों का उनकी चिन्ता के केन्द्र में आ जाना वैश्वीकरण की वो ख़ासियत है जो उसे उसके पुराने अवतार पूँजीवाद से अलग करता है। नब्बे से पहले जब हमारी सरकारें पूँजीवादी ढाँचे में कल्याणकारी होने का मुखौटा लगाकर काम करती थीं तब आम गरीबों को चोर बताने का साहस तो नहीं ही करती थीं और ना ही खुलकर 'आप' लोगों के पक्ष में खड़ी होती थीं। कम से कम सार्वजनिक रूप से तो ऐसा करना उनके लिए असम्भव था। हालांकि अन्दर ही अन्दर ये सब होता था। लेकिन अब भूमण्डलीकरण के साथ जो राजनीतिक-आर्थिकी आयी है उसके तहत गरीबों को चोर माना जाना एक आम बात है जिस पर किसी भी राजनैतिक दल को कोई आपत्ति नहीं होती। दूसरे अर्थों में जहाँ पूँजीवादी दौर में दुनिया 'हैभ्स और हैभ्स नॉट' (जिनके पास है और जो वंचित हैं) में बँटी मानी जाती थी और उनके बीच की दूरी को पाटने के नाम पर राजनीति होती थी तो वहीं अब भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया 'हैभ्स और चोरों' के बीच बँटी बताई जा रही है और राजनीतिक दलों का काम 'हैभ्स' के पक्ष में खड़े होकर चोरों को भगाना हो गया है। यानि जिन तबकों को पहले सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक कारणों से पीड़ित मानकर उनके हक़-हुक़ूक की बात होती थी अब उन्हें ही दोषी बताकर सज़ा देने की क़वायद चल रही है। जो सरकारें इन पीड़ित तबकों को जितना विस्थापित करके भगाती हैं या आत्महत्या करने को मजबूर करती हैं, उन्हें 'हैभ्स' की चाकरी में लगी पत्र-पत्रिकाएँ उतना ही बड़ा विकास दृष्टा बताती हैं।
दरअसल भूमण्डलीकरण के इस दौर में गरीबों के प्रति सरकारों का रवैया कैसा होगा, इसकी बानगी हमें राजग के शासनकाल में ही मिल गयी थी, जब अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन दिल्ली आए थे। तब दिल्ली को साफ़-सुथरा करने के नाम पर सरकार ने वहाँ से भिखारियों को भगाना शुरू कर दिया था। भाजपा के लिए ऐसा करना कोई आश्चर्यजनक नहीं था, क्योंकि वो जिस मनुवाद को पुन: स्थापित करने में लगी है, उसमें भिखारियों के लिए कोई जगह हो ही नहीं सकती, क्योंकि उनमें लगभग 95: अछूत जातियों के ही होते हैं, जिनका मनुवादी ढाँचे में कोई जगह नहीं। बहरहाल, लोकसभा चुनावों में राजग के जाने के बाद कांग्रेस एक बदले हुए नारे के साथ केन्द्र में लौटी। इस बदले हुए नारे ने ही उसके इरादों को जाहिर कर दिया कि अब खुद मेहनत-मजदूरी करके जीने वाले गरीबों की भी ख़ैर नहीं। कांग्रेस ने इस चुनाव में नारा दिया था- ''कांग्रेस का हाथ आपके साथ'' जबकि अब से पहले नारों में उसका हाथ गरीबों के साथ हुआ करता था। उसके हाथ के 'आप' के साथ होने का मतलब अब समझ में आ रहा है जब वो गरीबों को चोर कहकर भगा रही है।
सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि ऐसा दिल्ली को विकसित करने के नाम पर हो रहा है, जिसके लिए 2010 में होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों से पहले एक मास्टर प्लान के तहत 'अनाधिकृत' कालोनियों से 40 लाख लोगों को खदेड़ने की योजना है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि जहाँ पहले विकास का मतलब पूरी आबाद के विकास से होता था, वहीं अब इसका मतलब समाज में एक बहुत बड़े तबके का विनाश हो गया है। दरअसल भूमण्डलीकरण के इस दौर में विकास सबसे डरावना शब्द बनकर उभरा है। यकीन न हो तो सिगूंर या नन्दीग्राम या बझेड़ा खुर्द के किसानों से पूछ लीजिए वो बता देंगे कि उन्हें किसी ओसामा से नहीं बल्कि विकास से डर लगता है।
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