चरम विकास के इस दौर में यह कोई चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि भारत के अंदर दो भारत हैं। एक वह भारत है जहां बड़ी-बड़ी इमारतें, शानो-शौकत, चमचमाते शॉपिंग माल्स और उच्च तकनीक से बने गगनचुम्बी पुल, जिन पर नजर आती हैं दूर तक, दौड़ती हुई नई-नई आधुनिक गाड़ियां। यह उस वैश्विक भारत की तस्वीर है जो प्रथम विश्व यानी विकसित विश्व के प्रवेश द्वार पर खड़ा है।
दूसरा है दीन-हीन भारत, जहां नजर आते हैं निसहाय किसान, जो विवश हैं आत्महत्या करने के लिए, अवैधानिक रूप से मरते हुए दलित, अपनी ही कृषि भूमि और जीविका से बेदखल की हुई जनजातियां, चमचमाते शहरों की गलियों में भीख मांगते छोटे-छोटे बच्चे। इस दूसरे भारत के दीन-हीन व्यक्ति के विद्रोह के स्वर से आज देश के लगभग 607 में से 120-160 जिलों में उग्र नक्सलवादी आन्दोलन के रूप में गूंज रहे हैं। विडम्बना तो यह है कि चमचमाते हुए पहला भारत ने निराशा, विद्रोह और अमानवीय गरीबी से घिरे दूसरे भारत से मुंह मोड़ लिया है। दोनों भारत के बीच बढ़ती हुई यह असमानता ही केवल चिंता का विषय ही नहीं है, इससे भी अधिक घृणित कार्य, केंद्रीय और राज्य सरकारों के ध्यान न देने के कारण हो रहा है, जिसने दोनों भारत के बीच एक बड़ी खाई को पैदा की है। साथ ही गरीब भारत में गरीबी और दुखों को और भी अधिक बढ़ा दिया है।
भूमंडलीकरण के इस दौर में विकास तो हो रहा है, लेकिन की इस मंजिल को पाने के लिए और राष्ट्र-राज्यों के लिए बाजार संतुलन बनाने के लिए आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण रूपी सीढ़ियों का प्रयोग किया जा रहा है। राज्य और बाजार के बीच संघर्ष और सहयोग की जटिल प्रक्रिया के कारण 19वीं शताब्दी में पूंजीवाद विकसित हुआ। बाजार हित को बढ़ाते हुए राज्य ने इसे समय-समय पर नियंत्रित भी किया जैसे- निश्चित कार्यविधि, बाल-श्रम पर रोक और समय-समय पर व्यापार संघों को वैधता प्रदान करना। कार्ल पोल्यानी ने इस सारी प्रक्रिया को 'महान परिवर्तन' की संज्ञा दी है जो कि राज्य और बाजार की 'दोहरी प्रक्रिया का परिणाम है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें बाजार के नियम राज्य द्वारा प्रतिपादित किए जाते हैं। जब राज्य ऐसा करने में असफल रहता है तो मुक्त बाजार और स्वच्छंदता की स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे गरीबी बढ़ने से गरीबों का विद्रोह और भी बढ़ने लगता है।
उसे हम आर्थिक प्रक्रिया का एक बुरा पहलू ही कहेंगे कि यह हमेशा रहस्य ही होता है कि बाजार और बाजारीय नियम कैसे बनते हैं, इसकी व्याख्या की यहां जरूरत नहीं है जैसे- मांग और पूर्ति के उतार-चढ़ाव के आधार पर अर्थशास्त्री मुद्रा-प्रसार और मुद्रास्फीति की गणना करते हैं लेकिन वे यह नहीं बताते कि आखिर दाम कौन निश्चित करता है? स्थिति तब और भी बुरी हो जाती है जब राज्य की ओर से बड़ी-बड़ी कंपनियां बाजार के नियम तय करने लगती हैं। वास्तव में भूमंडलीकरण के झंडे के नीचे भारत में यही सब हो रहा है। हम एक ऐसे विचारहीन और दिशाहीन समय में जी रहे हैं जहां आर्थिक वृध्दि के नाम पर गरीबों का सब कुछ छीना जा रहा है।
संघीय और राज्य सरकार की भूमि-अधिग्रहण नीतियों के तहत बड़ी कंपनियों द्वारा विभिन्न रूपों में भूमि पर कब्जा किया जा रहा है। औद्योगीकरण के नाम पर जीविका का विनाश, गरीबों का विस्थापन, सिंचाई और बिजली उत्पाद के लिए बड़े-बड़े बांध, किसानों द्वारा आत्महत्याएं किए जाने के बावजूद भी खेती का निगमीकरण और बस्तियों को समाप्त कर शहरों के सौंदर्यीकरण तथा आधुनिकीकरण में प्रतिकूल विकास की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। सितम्बर 2006 तक वाणिज्य मंत्रालय ने पूरे भारत में कुल 267 'विशेष आर्थिक परियोजनाओं के लिए तथा 'राज्य औद्योगिक विकास निगमों' द्वारा 1,34,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहीत की गई है और निगमों को 'खनन संबंधी अधिकार अधिकांशत: आदिवासियों के भूमि पर दिए गए हैं। संघीय सरकार की नीतियों से सहायता और प्रोत्साहन पाकर राज्य सरकारें, निगमों को और ज्यादा जमीन देने के लिए प्रयास कर रही हैं।
इसी संदर्भ में वर्ष 2006 के प्रारंभ में ही उड़ीसा के कलिंगनगर में 12 लोगों द्वारा टाटा को खनन के लिए भूमि न सौंपने पर पुलिस द्वारा किया गया अमानवीय व्यवहार स्मरणीय है। नव वर्ष सामने है, टाटा के लिए पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादी मुख्यमंत्री राज्य में आतंक फैलाने के लिए तैयार है। 'पंचायत एक्सटेंशन टू शेडयूल्ड एरियाज अधिनियम 1996' के अनुसार भूमि अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा का परामर्श अनिवार्य है जबकि झारखंड, उड़ीसा में इस नियम को ताक पर रख दिया गया है। इससे भी बढ़कर एक ताजा रिपोर्ट के आधार पर ज्ञात हुआ है कि पुलिस द्वारा ग्राम सभा के सदस्यों का घेराव करके जबरदस्ती मनमानी दामों पर भूमि सौंपने के प्रस्ताव पर स्वीकृति देने के लिए विवश करते हुए टाटा के लिए सिंगूर (पश्चिमी बंगाल) में भूमि अधिग्रहण और दादरी (उत्तर प्रदेश) में अनिल अंबानी के लिए भूमि प्राप्ति के लिए इसी प्रक्रिया को दोहराया गया और यह भी कहा गया कि सूचना अधिकार अधिनियम के तहत भूमि प्रयोग के 'कान्टै्रक्ट' को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। यद्यपि एक स्थानीय टीवी चैनल ने रिपोर्ट दी कि पश्चिम बंगाल सरकार ने मुआवजे के तौर पर 140 करोड़ रुपए दिए, जबकि टाटा पांच वर्ष के बाद सौदे के अनुसार बिना स्टाम्प डयूटी, मुफ्त पानी के साथ मात्र बीस करोड़ रूपये ही अदा करेगी। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 31 मई 2006 तक पश्चिम बंगाल राज्यमंत्रिमंडल ने विभिन्न राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा संचालित परियोजनाओं के लिए 36325 एकड़ भूमि प्राप्ति की स्वीकृति दे चुकी है। यह आंकड़ा 70,000 एकड़ को भी पार कर सकता है। यदि सलेम ग्रुप को हावड़ा और बरासत रायचौक एक्सप्रेस वे के लिए बरासत भी सौंप दिया जाएं।
आज हम स्पष्ट यह देख रहे हैं कि बड़ी निगमों के हितों के लिए पश्चिम बंगाल में गरीब लोगों की जड़ खोदी जा रही है, शायद इस उम्मीद से कि निगम पश्चिम बंगाल में कुछ चमत्कारी परिवर्तन करेंगे, जो वो खुद करने में असमर्थ हैं। उनके पास निगमीय पूंजीवाद के आगे समर्पण करने के अतिरिक्त शायद कोई विकल्प नहीं बचा। विकास के इस दौर में भूमंडलीकरण का यह रूप 'टीना सिंड्रोम' ( टीआईएनए-इसका कोई विकल्प नहीं) को प्रदर्शित करता है।
टीना सिंड्रोम इस बात का समर्थन करता है कि निगम आर्थिक वृध्दि की दर बढ़ाकर गरीबी दूर करेंगे। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रकोष, विश्वबैंक और एशियन विकास बैंक (एडीबी) ने भी विभिन्न रूपों में इसी तथ्य का समर्थन किया है और माक्र्सवादी नेताओं का एक बड़ा हुजुम भी इसी बात का राग अलाप रहे हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि विकास के इस मॉडल को 2004 के आम चुनाव में विशेषत: आंध्र प्रदेश में नकारा जा चुका है। हो सकता है कि एक बार फिर से 'निगम संचालित विकास' की विचारधारा को पश्चिम बंगाल या कहीं और भी नकार दिया जाए।
भारत के प्रसंग में इस विचारधारा के दो रूप हैं। एक केन्द्रीय सरकार विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय बैंकों से बड़ी मात्रा में ऋण ले रही है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक द्वारा ढांचागत उद्योगों के क्षेत्र में बड़ी परियोजनाओं में बहुराष्ट्रीय निगमों को लगाकर सरकारों को विकास कार्य के लिए ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसमें समझौते आदि के नियम विश्वबैंक निर्धारित करता है। परिणामत: देश खुद को कर्ज के जाल में फंसा हुआ पाता है। अभी कुछ समय पूर्व तक मध्य और लातिनी अमेरिका के अधिकांश देश इसी विकासगत आदर्श के उदाहरण थे लेकिन अब अर्जेंटीना, ब्राजील, बोलीबिया, इक्वाडोर और बेनेजुएला जैसे अनेक देशों ने ऋण आधारित विकास के इस रास्ते को नकार दिया है।
इस विचारधारा का दूसरा रूप है राज्यों की दृढ़ स्थिति। बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ प्रतियोगिता करने के लिए विशेषत: विश्व बाजार में राज्य संचालित निगमों का निर्माण और पोषण किया जा रहा है और सरकार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां राष्ट्रीय निगम किन्ही विशेष कारणों से रुचि नहीं लेते, आकर्षित करने का प्रयास कर रही है। यह भी एक विचारणीय पहलू है कि कहीं उच्चतर विकास को प्राप्त करने के लिए सरकार जनता पर होने वाले इसके नकारात्मक प्रभावों को अनदेखा न कर दे। राज्य संचालित निगमों के संदर्भ में आधुनिक चीन पूर्णतया विवेकपूर्ण कदम उठाने वाला देश दिख हो रहा है, जबकि दक्षिण कोरिया ने राजनैतिक और भू राजनैतिक स्थिति में परिवर्तनों और पूर्व में कर्ज निर्भरता होने के बावजूद भी इसी रास्ते को अपनाया है। चीन का यह निगम आधारित विकास का रास्ता दो रूपों में भ्रामक है। पहला- जहां तक प्रकृति और निगमों को समर्थन देने का सवाल है, चीनी सरकार राज्य संचालित निगमों और विदेशी निवेशकों के बीच आवश्यकतानुसार अलग-अलग तरह से व्यवहार करती है। लेकिन एक सरकार जो अंतर्राट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक के निर्देशन में ऋण का रास्ता अपनाना चाहती है, उसके लिए यह संभव नहीं है। दूसरा- चीनी व्यवस्था जो निगम आधारित विकास के इस लक्ष्य को पाने के लिए समय-समय पर कानूनों में फेर-बदल करके और आम जनता के अधिकारों को दबाकर जो रास्ता अपनाती है, वह हमारे लिए सम्भव नहीं है।
अंतत: चर्चा का विषय यह नहीं है कि चीन या अन्य देश क्या कर रहे हैं। गरीबों के प्रतिकूल निगमीय विकास के आतंक पर राज्य की निर्भरता अब नकार दी गयी है या नहीं, यह भी चर्चा का विषय नहीं है। भारतीय संदर्भ में केन्द्र राज्यों की साझा सरकारों के राजनैतिक दबाव से नियंत्रित हो रहा है। इस समय हमारे सामने दोहरी चुनौती है। हमें उस उच्च विकास का विरोध करना है, जो राज्य द्वारा निगम आधारित विकास के आतंक का पोषण करता है। मेधा पाटकर का नर्मदा बचाओ आन्दोलन इस दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ऐसे ही समय पर हमें विकास के नए विकल्प को खोजना है। यद्यपि वर्तमान समय में संभावनाएं बहुत कम हैं। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम राज्यों की पंचायतों को इसे लागू करने के लिए वित्तीय स्वायत्ता प्रदान करता है, और ग्रामसभाओं को भूमि प्रयोग के लिए पूरा नियंत्रण देता है। सूचना के अधिकार द्वारा शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही आदि को बहुत दूर तक ले जाने की आवश्यकता है। विकेंद्रीकृत सरकार द्वारा भारतीय जनता को रोजगारपरक और उत्साहित किया जाना चाहिए। विकास की इस तस्वीर को देखते हुए यही समय है जब सत्ता में बैठी सरकार और राजनैतिक दलों के कार्यों का निरीक्षण किया जाना चाहिए।
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