विश्वबैंक अनाज की बजाय फूल निर्यात करने के लिए उकसा रहा है -डॉ. वंदना शिवा

1991 में विश्वबैंक द्वारा चलाए गए ढांचागत कार्यक्रम ने भारत की खाद्य सुरक्षा और सम्प्रभुता को ध्वस्त करना शुरू कर दिया था। विश्व बैंक के आदित्य मत्तु, दीपक मिश्रा और आशीष नारायण ने 26 अप्रैल 2007 को 'द टाइम्स ऑव इण्डिया' में 'प्रोड्यूस एंड पेरिश: हाऊ इण्डिया इज फेलिंग इटस् फार्मर्स' शीर्षक से एक लेख लिखा। जिसमें उन्होंने कहा-
वास्तव में भारत के किसान संकट से गुजर रहे हैं। व्यापारिक उदारीकरण के एक दशक में 150,000 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं और जहां किसान बचे हैं उनकी आय तेजी से गिर रही है। भारत अपने किसानों को बचाने में असमर्थ है लेकिन विश्व बैंक की किसान-विरोधी नीतियां तेजी से किसानों से न केवल उनकी आय छीन रही हैं, बल्कि कृषि संकट भी पैदा कर रही हैं। विश्व बैंक की नीतियों के तहत ही किसान के हाथ से सब कुछ छीनकर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिया जा रहा है।

किसानों पर यह संकट दो रूपों में शुरू हुआ। एक तो 1965-90 में हरित क्रांति के नाम पर और दूसरा ढांचागत समायोजन और व्यापारिक उदारीकरण के नाम पर। विश्वबैंक ने गरीब किसानों को केमिकल इस्तेमाल करने को मजबूर किया और भारतीय खाद उद्योग पर विश्वबैंक और यूएसआईडी दोनों ने मिलकर उदारीकरण और घरेलू प्रतिबंध हटाने के लिए दबाव डाला। हरित क्रांति से समृध्दि का दिवास्वप्न 1980 में टूट गया और पंजाब के किसानों में रोष फैल गया। लेकिन फिर भी विश्व बैंक ने 1990 में नई शर्तें राज्य पर थोप दीं और हरित क्रांति में निभाई गई उसकी भूमिका से भी उसे बेदखल कर दिया।
1963 में 'नेशनल सीड कोरपोरेशन' का गठन हुआ। नेशनल सीड प्रोग्राम को सहायता देने के लिए नेशनल सीड प्रोजेक्ट 1 और 2 को 1976 और 1978 में 25 मिलियन और 16 मिलियन अमरीकी डालर दिए गए। इस सबका उद्देश्य प्रमाणित बीजों के लिए एक नया ढांचा खड़ा करना था। 1988 में विश्वबैंक ने भारतीय बीज उद्योग को 'बाजार के प्रति अधिक उत्तरदायी' बनाने के लिए चौथी बार कर्ज दिया।

एनएसपी-3 (150 मिलियन डालर) का उद्देश्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बीज उत्पादन में शामिल करना था। इस प्रकार विश्वबैंक ने मोनसेंटो जैसी कंपनियों को बीज क्षेत्र में घुसने का रास्ता दे दिया। आज सबसे ज्यादा आत्महत्याएं वहीं हो रही हैं जहां मोनसेंटो काम कर रही है।

विश्वबैंक के ढांचागत समायोजन कार्यक्रम (सैप-एसएपी) में उदारीकरण के लिए रास्ता बनाने के लिए अनेक शर्तें रखी गई जैसे- लैंड सीलिंग रेग्यूलेशन को हटाना, सिंचाई, बिजली आदि से सब्सिडी हटाकर नहरी पानी से सिंचाई के हक के व्यापारीकरण के लिए सुविधाएं जुटाना, गेहूं, चावल, गन्ना, कपास, खाद्य तेल और तिलहन उद्योगों को बंद करना, खाद्य सुरक्षा को ध्वस्त करना, बाजार, व्यापारियों और प्रबंधकों पर से नियंत्रण हटाकर, को-ऑपरेटिव को सब्सिडी देना, आवश्यक वस्तु अधिनियम की समाप्ति, फ्यूचर टे्रडिंग पर से सामान्य प्रतिबंधों की समाप्ति, आविष्कार संबंधी नियंत्रणों की समाप्ति आदि। ये सब हमारी कृषि से केन्द्रीय नियंत्रण हटाने के तरीके हैं, बल्कि खेती को विशालकाय कंपनियों के हाथों में देने की साजिश है।

अब विश्वबैंक भारत को अनाज की बजाय सब्जियां, फूल निर्यात करने के लिए उकसा रहा है। इससे किसानों की आय नहीं बढेग़ी, बल्कि उनकी जमीन और जीविका भी छीन ली जाएगी। पंजाब के बरनाला में निर्यात के लिए उगाई जाने वाली फसलें ही झगड़ों का मूल कारण बनी हुई हैं।
भारतीय किसानों और उपभोक्ताओं को खाद्यान्न के क्षेत्र में आजादी और संप्रभुता की जरूरत है, विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओ द्वारा थोपे गए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नियंत्रण की नहीं।

विश्वबैंक फल और सब्जियों के निर्यात पर जोर दे रहा है। स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के बजाय ज्यादा से ज्यादा निर्यात ही उसका लक्ष्य है। किसानों को न्यायपूर्ण मूल्य और अधिकार दिलाने वाले अधिनियमों को विश्वबैंक ने पहले ही निशाना बना लिया है इनमें 'असेन्शियल कोमोडिटीज एक्ट-1955' द एग्रीकल्चर प्रोड्यूस एंड मार्केटिंग एक्ट-1972 और प्रिवेंशन ऑव ब्लैक मार्केटिंग एंड मेंटेनेंस ऑव सप्लाइज ऑव असेन्शियल कोमोडिटीज एक्ट 1980 शामिल है। इतना ही नहीं एक ओर तो विश्वबैंक हिमाचल के सेब लेता है और दूसरी ओर 'भारत को सेबों का आयात सस्ता पड़ेगा' की वकालत कर रहा है। यही तर्क गेहूं का आयात करने के लिए दिया गया। हालांकि आयातित गेहूं घरेलू गेहूं से दोगुना महंगा है। इसके लिए गेहूं आयात के खिलाफ नवधान्य ने सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा भी दायर किया है।

खाद्य सुरक्षा और सम्प्रभुता के लिए बनाए गए भारतीय कानून विनियम और वितरण की एक विकेन्द्रीकृत व्यवस्था कायम करते हैं। इस विकेन्द्रीकृत व्यवस्था को विश्वबैंक की भाषा में 'होरिजोन्टल फ्रेग्मेंटेशन' का नाम दिया गया है जबकि कंपनी एकाधिकार को 'वर्टिकल इंटिग्रेशन' कहा गया है।

छोटे किसानों और भारतीय जैवविविधता को नष्ट करना ही विश्वबैंक की नीति है और इसी साजिश के तहत 'एग्रीकल्चर एक्सपोर्ट जोंस' बनाए जा रहे हैं।

भारत दुनिया की 11 फीसदी सब्जियों और 15 फीसदी फलों का उत्पादन करता है। कम लागत में इतने बड़े उत्पादन को देखकर विश्वबैंक हैरान है, लेकिन वह यह भूल रहा है कि 1.2 बिलियन लोगों की जरूरतों को भी भारत को पूरा करना है। उसके लिए फल और सब्जियां अमीर देशों को निर्यात होनी चाहिए, भले ही गरीब लोगों की जरूरत पूरी हो या न हो। बैंक की यह नीति एक ओर किसानों से उनका व्यवसाय, उनका भोजन का अधिकार छीन रही है तो दूसरी ओर कार्बन-डाई-ऑक्साइड छोड़ने वाले वाहनों की भीड़ और फल-सब्जियों के लिए कोल्ड स्टोरेज की संख्या बढ़ाकर पर्यावरण के लिए भी खतरा उत्पन्न कर रही है।

देश के उत्पादकों का क्या होगा? आयात से पर्यावरण को होने वाले नुकसान का क्या? स्थानीय स्तर पर क्या उगाया जाएगा? स्थानीय जलवायु के अनुसार स्वास्थ्य और स्वाद देने वाले मौसमी फलों का क्या महत्व रह जाएगा?

यह केवल प्रशुल्क का मुद्दा नहीं है। यह जलवायु और मौसम की विभिन्नता का परिणाम है। बाहर से आने वाले उत्पादन का मूल्य, कार्बन लागतों को पूरा करने के लिए ऊंचा होना चाहिए। बेमौसमी माल की कीमत भी ऊंची होनी चाहिए क्योंकि इनके कोल्डस्टोरेज में बिजली की खपत और पर्यावरण प्रदूषण होता है। स्थानीय और मौसमी उत्पादन को बाजार में वरीयता मिलनी चाहिए। नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के आगे झुककर, गैर स्थानीय और गैर मौसमी उत्पादन को वरीयता देना, किसानों और उपभोक्ताओं के लिए अच्छा नहीं है।

जहां आन्दोलन 'खाद्यान्नों की दूरी' कम करने के लिए आवाज उठा रहे हैं, वहीं विश्व बैंक 'दूरियों की बाधाओं' को खत्म करने के लिए आवाज दे रहा है। चिली अपनी फल और सब्जियों का 80 फीसदी 1000 किलोमीटर दूर निर्यात करता है जबकि भारत केवल 1 फीसदी का निर्यात करता है जो बहुत अच्छा है। भारत की फल-सब्जियां इसके अपने लोग खा रहे हैं और वाहनों द्वारा निर्यात न करके भारत प्रदूषण बढ़ाने में भी हिस्सेदार नहीं है।

पर्यावरण में बढ़ता प्रदूषण और बदलती जलवायु इस बात की मांग कर रहे हैं कि भोज्य पदार्थों की दूरी कम की जाए और वाहनों का कम से कम इस्तेमाल किया जाए।
पर्यावरणीय संकट के समय में स्थानीय भोजन ही सबसे अच्छा विकल्प है। किसानों की आत्महत्याएं रोकने के लिए उनकी रोजी-रोटी और बाजारों की रक्षा ही सबसे बड़ा उपाय है। पर्यावरणीय दृष्टि से सृष्टि के लिए, आर्थिक रूप से किसानों के लिए, विश्वबैंक की नीतियां एक मृत अर्थव्यवस्था का ही निर्माण करती है।

हमें किसानों और पृथ्वी का नाश करने वाली नहीं बल्कि उनकी रक्षा करने वाली नीतियों की जरूरत है। प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा

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