खयालों की खुश्बू को आज़ादी का इंतज़ार -विनीत तिवारी

सन् 1925 में हुए काकोरी बम काण्ड के बाद क्रांतिकारियों का दल हिन्दुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ बिखरा हुआ था। भगतसिंह ने उस संगठन के बिखरे टुकड़ों को इकट्ठा कर संगठन का नया नाम रखा - हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ। एक शब्द का यह जोड़ भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की वैचारिक परिपक्वता का एक अहम संकेत हैं फिर, अंग्रेजों के काले, दमनकारी, जनविरोधी कानूनों के खिलाफ असेम्बली में बम फेंक कर भागने के बजाय गिरफ्तार होने का फैसला, और फिर जेल में किये गये आंदोलन, हड़तालें और लिखे गये तमाम गंभीर लेखादि भगतसिंह के उसी वैचारिक विकास और रणनीतिक सूझबूझ का उत्स हैं।

आजादी के पहले के उस दौर में अंग्रेजों व अंग्रेजों के देशी दलालों ने भगतसिंह और उनके साथियों के पक्ष में जनसमर्थन न जुटने की काफी कोशिशें कीं। उन्हें आंतकवादी और खतरनाक अपराधी साबित करने की कोशिशें की गयीं, लेकिन विचारों की सान पर तेज हुई तलवार की चमक को कालकोठरियों का ऍंधेरा रोक नहीं सका। खुद गाँधीजी और काँग्रेस के तत्कालीन नेतागण भगतसिंह के विचारों से सहमत नहीं थे, लेकिन इन नौजवानों के लिए देश की आम अवाम अपना दिल खोलकर सड़कों पर निकल आये थे। असहमतियों के बावजूद इस तथ्य का उल्लेख काँग्रेस के इतिहासकार बी.पट्टाभिसीतारमैया को ''दि हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल काँग्रेस''(1885-1935) में लिखना पड़ा कि, ''यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उस क्षण भगतसिंह का नाम पूरे भारत में उतने ही व्यापक तौर पर जाना जाता था और उतना ही लोकप्रिय था, जितना गाँधी का।'' ...............

भगतसिंह की शहादत को भले ही इस देश की जनता ने याद रखा हो, लेकिन भगतसिंह की एक और पहचान को सत्ता की चालाक ताकतों ने 75 वर्षों से छिपाने की ही कोशिश की। वो पहचान भगतसिंह के विचारों की पहचान है, जिसका ज़िक्र शुरु में किया गया। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व की समाप्ति से लेकर, लाला लाजपतराय जैसे वरिष्ठ नेता को भी गलतियों पर दो टूक कह देने जितनी साफगोई और धर्म को मनुष्य की अज्ञानता व ईश्वर के अनस्तित्व संबंधी भगतसिंह के विचार आजादी के बाद से देश की बागडोर संभालने संसदीय राजनीति में भागीदारी करने वाली अधिकांश राजनीतिक पार्टियों को हजम नहीं हो सकते। काँग्रेस, भाजपा को तो हर्गिज ही नहीं हो सकते और खुद वाम को भी भगतसिंह को अपना बनाने के लिए अपने भीतर झाँकना होगा। इसीलिए भगतसिंह की ज्यादा से ज्यादा जो छबि आजाद हिन्दुस्तान में प्रचारित की गयी, वो एक क्रांतिकारी और शहीद की ही है।

23 बरस की उम्र के आखिरी हिस्से में भगतसिंह उपलब्ध पुस्तकों के ज्ञान के आधार पर और अपनी गहरी विश्लेषणात्मक क्षमता के चलते माक्र्सवादी समाजवादी बन चुके थे, कम्युनिज्म में उनका विश्वास प्रबल था, सोवियत रूस की सर्वहारा क्रांति उन्हें भारत का अभीष्ट लगती थी और धर्म तथा ईश्वर पर आस्था के अकाटय और प्राचीनतम कहे जाते विश्वासयुक्त (कु) तर्कों को उन्होंने ''मैं नास्तिक क्यों हूँ'' शीर्षक के अत्यंत प्रसिध्द लेख से तिनकों की तरह बिखेर दिया था। पक्के आर्य समाजी, सिख, फिर अराजकतावाद से होते हुए समाजवाद तक का तूफानी सफर उन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में पूरा किया। और यह सब किसी भावुकता, आवेश या आवेग की वजह से ही नहीं, बल्कि सतत् अध्ययन, आत्मालोचन, विचार, विश्लेषण की ठोस बुनियाद पर। उनका कहना था - '' पढ़ो, आलोचना करो, सोचो और अपने विचार बनाओ।''

अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद करवाने के लिए किये गये हर संघर्ष और कुर्बानी को बेशक बेमिसाल कहा जा सकता है, लेकिन भगतसिंह की जगह इसलिए अहमतरीन है क्योंकि वे आज़ादी के शब्द को मायना दे रहे थे। ''लड़ाई तब तक लड़ी जाती रहेगी, जब तक हम इस समाज व्यवस्था को बदलकर नयी व्यवस्था नहीं कायम कर लें। एक ऐसी समाज व्यवस्था, जहाँ सारी जनता खुशहाल होगी और हर तरह का शोषण खत्म हो जाएगा।'' (भगतसिंह, 20 मार्च 1931, शहादत के तीन दिन पहले)। भगतसिंह के लिए आजादी का मतलब न केवल अंग्रेजों से मुक्ति थी, बल्कि देश के भीतर मौजूद शोषक जमींदारों, राजे-रजवाड़ों, बनियों-बक्कालों, जाति-धर्म के झगड़े बढ़ाने वाले पंडितों-मौलवियों से भी मुक्ति थी।

1925-26 में भगतसिंह की कानपुर के ट्रेड यूनियन आंदोलन व कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के साथ घनिष्टता हुई। तब से लेकर जेल में मिले वक्त में किये गये अध्ययन-चिंतन तक भगतसिंह ने लगातार वैचारिक विकास और क्रांति के प्रयोग किये। जेल में ही 1930 में भगतसिंह का लिखा लेख ''मैं नास्तिक क्यों हूँ ? 76 वर्ष बाद भी न केवल प्रासंगिक है बल्कि तर्कहीन आस्था आधारित बहुलांश भारतीय समाज की पीठ से कुतर्कों की गर्द झाड़ने में वो अभी भी कोड़े की सी फटकार का असर पैदा करता है। भगतसिंह ने उस सच्चाई को पहचान लिया था, कि धर्म समताआधारित समाज के निर्माण में एक बड़ा रोड़ा हैं इस चुनौतीपूर्ण सच्चाई से आज बहुत से प्रगतिशील कहे जाने वाले व्यक्ति अपनी लोकप्रियता में खतरा बनते देख कन्नी काट लेते हैं। जबकि धर्म की उत्पत्ति के, ईश्वर की कल्पना के मूल कारणों पर चोट किये बगैर, इन अंधविश्वासों को हटाये बगैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रसार भला किस तरह संभव हो सकता है। इस मायने में भगतसिंह भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के वैचारिक उत्कर्ष के प्रतीक हैं।

आमतौर पर आजादी की लड़ाई की जो खाँचेबंद समझदारी देश की जनता को हासिल हुई है, उसमें आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों को दो समूहों में बाँट दिया जाता है। एक वे जो हिंसा के रास्ते से आजादी के लिए लड़ रहे थे और दूसरे वे, जो अहिंसा से ही संघर्ष के पक्ष में थे। दरअसल यह वर्गीकरण बहुत गलत और भ्रामक है। इससे यह ध्वनित होता है मानो पहले समूह के लोग हिंसा के अलावा संघर्ष की कोई प्रक्रिया अपनाते ही नहीं थे, सिर्फ बम-पिस्तौल का ही काम करते हों। जबकि सच ये है कि उनमें अनेक ऐसे थे, जो हिंसा का सहारा आखिरी विकल्प के तौर पर ही लेते थे। असेम्बली में बम फेंकते समय भी उसे एक निर्जन कोने में फेंकने का निर्णय और बाद में जेल में किये गये कितनी ही अहिंसक हड़तालें, अनशन, आंदोलन साफ उदाहरण हैं कि ये क्रांतिकारी हिंसा को अंतिम विकल्प की जगह ही स्थान देते थे और जनांदोलन में अहिंसा के महत्व को बखूबी जानते थे।

आज के दौर में यह वर्गीकरण दुरूस्त करना और भी ज़रूरी है क्योंकि यह वर्गीकरण केवल इतिहास की समझ को ही विकृत नहीं कर रहा है, बल्कि वर्तमान को भी घायल कर रहा है। आज मनुष्य की गरिमा और जीवन पर उसके अपने अधिकार को लेकर राज्य के आतंक, अन्याय व दमन से लड़ रहे किसी भी व्यक्ति, या समूह को सरकार, पुलिस प्रशासन और मीडिया नक्सलवादी कहकर आसानी से झपट्टे में ले लेता है। और इन्हीं शोषक ताकतों ने मिलकर नक्सलवाद को इतना गलत प्रचारित किया है, मानो नक्सलवादी होना बेगुनाहों को मारने वाले के जैसा होना हो । नतीजा यह होता है कि एक बार किसी को नक्सलवादी या आतंकवादी का ठप्पा लगा दिया तो उसकी बेगुनाही के प्रति जुट सकने वाली जन सहानुभूति भी नहीं हासिल होती। यही कोशिश नेपाल में राजा के शोषण से जनता को मुक्त कराने के संघर्ष में लगे माओवादियों के साथ हुई, यही भारत में अनेक नक्सलवादियों और जनतांत्रिक आंदोलनकारियों के साथ हो रहा है, और यही अंग्रेजों ने भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, आजाद, बिस्मिल, अशफाक जैसे तमाम अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों के साथ किया था।

बर्टोल्ट ब्रेष्ट के प्रसिध्द नाटक 'गेलीलियो' में गेलीलियो का शिष्य कहता है - ''अभागा है वो देश, जहाँ नायक नहीं होते।'' जवाब में गेलीलियो कहता है - ''नहीं, अभागा वो देश है, जिसे नायकों की ज़रूरत पड़ती है।'' हम अपनी परिस्थितियों के मद्देनजर कह सकते हैं कि अभागा वो देश भी है जो अपने इतिहास के नायकों के साथ सही सलूक नहीं करता। पिछले दिनों महाराष्ट्र के पास चंद्रपुर में वामपंथी साहित्य का प्रकाशन-वितरण्ा करने वाली
सुनीता को पुलिस ने प्रतिबंधित साहित्य बेचने का इल्जाम लगाकर तीन दिन तक पूछताछ हेतु रोक रखा और उनकी किताबें जब्त कर लीं। हालाँकि उनमें प्रतिबंधित किताब कोई नहीं थी और आखिरकार पुलिस ने सुनीता को छोड़ा भी। लेकिन सुनीता से उस दौरान पुलिस ने जो सवाल पूछे, उनमें से एक सवाल हमारे आजाद भारत के शासन-प्रशासन व जनता के अंतर्संबंध को समझने के लिए काफी मददगार है। सवाल था - ''जब देश आजाद हो गया, तो भगतसिंह की किताबें काहे को बेच रही हैं ?

जाहिर है शासक वर्ग को भगतसिंह के आजादी के अर्थ से अभी भी गहरा खतरा महसूस होता है, लेकिन भगतसिंह को खतरा ऐसे आधे-अधूरों से है जो 76 बरस तक उनके शहीद होने की तो याद करते रहे, लेकिन उनके खयालों की खुश्बू को फैलने से रोके रहे। भगतसिंह आज जीवित होते तो सौ बरस के होते लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा था - ''हवा में रहेगी मेरे खयाल की खुश्बू, ये मुश्ते-खाक है फानी, रहे न रहे।'' उनके खयाल की खुश्बू फैलाने और अपने नायक के साथ सही सलूक कर इस देश को अभागा बनने से बचाने की जिम्मेदारी उन सबकी है, जो इस वक्त में हैं।

विनीत तिवारी, 2, चिनार अपार्टमेंट्स, 172, श्रीनगर एक्सटेंशन, इन्दौर - 452018, फोन - 98931-92740, 0731-2561836

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