भारत में कृषि संकट -डा. कृपाशंकर

किसान की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह स्वंय अपने द्वारा उत्पादित वस्तु का मूल्य निर्धारण नहीं करता। अकेला किसान ही ऐसा उत्पादक है। अब तक अन्य वस्तुओं के उत्पादक तो लागत से कई गुना मुनाफा कमाते हैं। परन्तु किसान के लिये लागत निकालना ही कठिन पड़ जाता है। फसल तैयार होने पर बहुत सी देनदारियों के लिये अपनी उपज तुरन्त बेचना उसकी मजबूरी रहती है। सभी किसानों द्वारा एक साथ बाजार में बेचने की विवशता के कारण मूल्य धराशायी हो जाता है।
यदि किसानों की संगठित सहकारी क्रय-विक्रय समितियाँ होतीं और गाँव-गाँव में उनके अपने गोदाम होते तो किसान अपनी उपज को इन गोदामों में रख कर उनकी जमानत पर बैंकों से अग्रिम धन पा सकता था ताकि वह अपनी तुरन्त की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और व्यापारियों के हाथ सस्ते मूल्य पर अपने उत्पाद को उसे न बेचना पड़े।
ऐसी सहकारी क्रय-विक्रय समितियों का गठन करना बहुत कठिन काम नहीं था। इसकी पहली शर्त थी कि व्यापक पैमाने पर ग्रामीण गोदामों का निर्माण किया जाय। पंचायत भवन तो बने लेकिन गोदामों का निर्माण नहीं हुआ। यह आकस्मिक नहीं था। यदि सहकारिता के आधार पर ऐसी व्यवस्था की जाती तो किसानों की व्यापारियों पर निर्भरता समाप्त हो जाती। क्रय विक्रय समितियाँ उत्पाद पर कुछ मुनाफा लेकर बेचती जिस कारण कृषि उपज के मूल्यों में वृध्दि हो जाती जो सरकार को स्वीकार नहीं है। सरकार सार्वजनिक प्रणाली के लिये गेहूँ चावल जिस मूल्य पर खरीदती है उसमें उत्पादन लागत ही शामिल होती है मुनाफे के लिये कोई प्रावधान नहीं होता। तब भी किसान वहाँ अपना उत्पादन इस कारण बेचते है कि वह व्यापारी द्वारा लिये गये मूल्य से अधिक होता है। हाल ही में स्वामीनाथन समिति ने यह स्वीकार किया है कि सरकार किसानो की लागत मूल्य पर 50 प्रतिशत मुनाफा देकर खाद्यान्नों को खरीदे परन्तु सरकार ने इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया है।
भारत वर्ष सस्ते कच्चे माल और सस्ती मजदूरी के बल पर वैश्वीकरण के दौर में संसार के बाजार में प्रतिस्पर्धा कर सकता है। सभी विकसित देशों ने मूल्यों के जरिये किसानों का शोषण करके ही औद्योगीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। भारत वर्ष भी उसी राह पर चल रहा है।
परन्तु यदि किसान को समुचित मूल्य नहीं मिलेगा तो न केवल उसके सामने जीविका का संकट रहेगा वरन् वह कृषि में कोई निवेश नहीं कर सकेगा जिसके अभाव में उत्पादन में वृध्दि नहीं हो सकेगी। देश में 70 प्रतिशत किसानों के पास आधा हेक्टेयर से कम भूमि है। एक हेक्टेयर में सकल कृषि उपज का मूल्य 30,000 रु. अनुमानित है। अत: लगभग तीन चौथाई किसान परिवार 15,000 रु. वार्षिक आमदनी पर जीवन यापन कर रहे हैं। गरीबी रेखा 21,000 रु. मानी गई है। गरीब किसान मजदूरी करके आय में कुछ वृध्दि करते हैं। परिवार में कुल लोग यदि बाहर चले गये है या किसी अन्य काम में लग गये है तो उनकी आय में कुछ वृध्दि होती है। परन्तु एक परिवार यदि कृषि पर ही निर्भर रहे तो उसके पास कम से कम 1 हेक्टेयर सिंचित भूमि होनी ही चाहिए ताकि वह गरीबी रेखा के ऊपर रह सके। देश में 80 प्रतिशत किसान परिवार के पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है।
अन्य देशों में विकास के साथ-साथ कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या घटी पर भारत में ऐसा नहीं हो रहा है। स्वतन्त्रता के बाद से किसानों की संख्या ढाई गुना बढ़ी है जबकि बोये गये क्षेत्र में नाममात्र की वृध्दि हुई है। इस समय किसानों की संख्या में लगभग 2 प्रतिशत प्रतिवर्ष वृध्दि हो रही है, प्रति कृषक बोया गया क्षेत्र घट रहा है। सिंचाई के क्षेत्र में कोई विस्तार नहीं हो रहा है यद्यपि केन्द्र और राज्य सरकारें 25,000 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष सिंचाई पर खर्च कर रही हैं। प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष अनाज का उत्पादन घट कर 174 किलोग्राम हो गया है तथा दालों का उत्पादन मात्र 12 किलोग्राम रह गया है। कृषि क्षेत्र में चोटी के 5 प्रतिशत के पास 40 प्रतिशत भूमि है।
इस यथार्थ के परिपेक्ष्य में यदि कृषि संकट को देखा जाय तो यह स्पष्ट होगा कि नीतियों में बगैर मूलभूत बदलाव के इस संकट का मुकाबला नहीं किया सकता।
मुख्य प्रश्न कृषि में निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है। केवल चोटी के 2-3 प्रतिशत किसान ही अपनी बचत से कुछ निवेश करने में समर्थ हैं। कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सार्वजनिक निवेश ही हो सकता है, जैसे नहर निकालना या गहरे नलकूपों का निर्माण जिसमें गरीब देश में तो प्रथम चरण में कार्य सार्वजनिक निवेश से ही निवेश के गतिरोध को दूर किया जा सकता है। अत: सार्वजनिक निवेश की प्राथमिकता कृषि क्षेत्र में होना चाहिए और इसके अन्तर्गत सिंचाई, मृदा एवं जल संरक्षण पर भी सबसे अधिक बल दिया जाना चाहिए।
अपने देश में जिस विकास की बात की गई, उसमे कृषि एजेन्डा पर नहीं है। कृषि संवर्गीय कार्य जैसे-पशुपालन, जलागम प्रबन्धन, वानकी, कृषि शिक्षा एवं शोध, बीमा, सहकारिता, कृषि विपणन, सिंचाई, ग्रामीण रोजगार पर बजट के 20 प्रतिशत से अधिक का कभी प्रावधान नहीं हुआ। यद्यपि लगभग 60 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिये वर्ष 2007-08 में केन्द्रीय बजट का आकार 6,80,000 करोड़ है परन्तु कृषि कार्य, बीमा, भण्डारण, सहकारिता, पशुपालन, शोध एवं शिक्षा पर 9400 करोड़ का ही प्रावधान है जो कुल बजट का 1.3 प्रतिशत है। कृषि बीमा पर कुल 2500 करोड़ का प्रावधान है। आवश्यकता इस बात की थी कि नाममात्र प्रीमियम पर सभी फसलों का बीमा हो। परन्तु बीमा योजना केवल सांकेतिक ही है। यदि फसल बीमा को सही मानों में लगभग नि:शुल्क चलाया गया होता तो फसल नष्ट होने के कारण प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या न करते। कृषि मंत्री ने कुछ समय पहले लोक सभा में बताया था कि 11,000 किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या करते हैं जिसमें भारी संख्या में कर्ज न अदा करने वाले किसान हैं। ऋणग्रस्त किसानों को बिना व्याज के नया ऋण दिया जा सकता था ताकि वे पुराना कर्ज अदा कर दें। बैंकों को यदि थोड़ी ब्याज सब्सिडी दी जाती तो वे बिना ब्याज या बहुत कम ब्याज की दर पर ऋण दे सकते थे। ऐसे ऋणों की गारन्टी भारत सरकार ले सकती थी जैसा कि वह बड़े निकायों के ऋण के सम्बन्ध में करती है। भारत सरकार ने 1,00,000 करोड़ रुपयों की इस प्रकार भी गारन्टी ली है। किसानों को भी ऋण की गारन्टी दी सकती है।
यहां यह स्मरण रहे कि केन्द्र सरकार पुलिस पर लगभग 20,000 करोड़ रूपये व्यय कर रही है जब कि उपरोक्त कृषि कार्यों के लिये इसके आधे का ही प्रावधान होता है। आधी से अधिक भूमि आज भी असिंचित है परन्तु केन्द्रीय बजट में सिंचाई पर इस वर्ष कुल व्यय 872 करोड़ का प्रस्तावित है जो केन्द्रीय पुलिस बजट के बीसवें भाग से भी कम है। सिंचाई पर राज्य सरकारें अधिक व्यय करती हैं। परन्तु सरकारी व्यय का यह आलम है कि केन्द्र एवं राज्य द्वारा सिंचाई पर प्रतिवर्ष 25,000 करोड़ व्यय करने के बावजूद सिंचित क्षेत्र स्थिर है। ऐसा इसलिये है कि विकास के नाम पर बेवजह अफसरों और कर्मचारियों की भर्ती हुई है जिनके वेतन और भत्तो पर ही कृषि बजट का 70 प्रतिशत निकल जाता है।

देश के 80 प्रतिशत किसानों के पास भूमि इतनी कम है कि वह जीविका के लिये पर्याप्त नहीं है। उन्हें कृषि के बाहर काम मिलना चाहिए परन्तु सरकारी नीतियां ऐसी हैं कि संगठित क्षेत्र में रोजगार घट रहा है। 2004 में इसमें 5 लाख की गिरावट आई। परन्तु इस विशाल जन समुदाय को ग्राम की प्राकृतिक सम्पदा के संवर्धन उन्नयन में लगाया जा सकता है। देश में लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है जिसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। जलागम प्रबन्धन के आधार पर इस भूमि को उपयोगी बनाया जा सकता है। यदि वर्षा के पानी को समुचित ढंग से इकट्ठा किया जाय तो इस भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ सकती है। जहां भूमि बहुत खराब है उसे तालाबों और पोखरों में बदला जा सकता है। जल संचय का प्रावधान न होने के कारण पलामू, जहाँ पंजाब से दूनी वर्षा होती है, सूखा ग्रस्त है। यही हालत देश के बड़े भूभाग की है। अकेले जल प्रबन्धन पर ही तमाम बेरोजगार लोगों को काम पर लगाया जा सकता है और 60 प्रतिशत कृषि भूमि जो असिंचित है उसे सिंचित किया जा सकता है। परन्तु जलागम प्रबंधन के लिये भारत सरकार के बजट में मात्र 1,000 करोड़ रुपये का ही प्रावधान है। देश में जिस प्रकार सुरक्षा के लिये एक सेना है उसी प्रकार भूमि और जलागम प्रबंधन आदि कार्यों के लिये भी एक भूमि सेना खडी की जा सकती है जो भूमि के समतलीकरण, जलसंचय, वृक्षारोपण आदि कार्य में निरन्तर लिप्त रहे। एक व्यक्ति को 30,000 रू. की वार्षिक मजदूरी पर (रु. 100 प्रतिदिन वर्ष में 300 दिन के लिये) 40,000 करोड़ रुपये में 1 करोड़ की स्थाई भूमि-सेना खड़ी की जा सकती है जो एक बहुत ही उत्पादक कार्यक्रम से जुड़ी रहेगी।

संविधान के 73वें संशोधन के अनुसार ग्राम विकास से सम्बन्धित सारे कार्य ग्राम पंचायतों के माध्यम से होना चाहिए, वहाँ नौकरशाही के लिये कोई स्थान नहीं होगा। परन्तु देश में भ्रष्ट नौकरशाही और राजनेताओं का ऐसा गठबंधन है कि कोई भी राज्य सरकार संविधान के इस निर्देश पर अमल करने के लिये तैयार नहीं है जिसके फलस्वरूप लोगों में उदासीनता है और भ्रष्टाचार का बोलवाला है। ऐसी स्थिति में विकास कार्यों पर बजट बढ़ा देना ही पर्याप्त नहीं है। इसमें लोगों की भागीदारी भी सुनिश्चित किया जाय। फिर भी सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना अपरिहार्य है। साधनों के अभाव में कृषि एवं ग्राम विकास आदि पर बहुत कम खर्च हो रहा है। भारत सरकार ने सभी वर्गों और कम्पनियों की आय आदि पर इतनी छूट दे रखी है कि जितना राजस्व वसूल होता है उसका आधा छूट में निेकल जाता है। इस प्रकार वर्ष 2007-08 में केन्द्रीय बजट के अनुसार 2006-07 में सरकार को 2,35,191 करोड़ रुपयों की हानि हुई। यदि इन छूटों को वापस ले लिया जाय तो कृषि, ग्राम विकास, भूमि एवं जल संसाधन विकास का केन्द्रीय बजट पांच गुना बढ़ाया जा सकता है।

इस दिशा में बैंकों का भी बड़ा योगदान हो सकता है क्योंकि वे 20 लाख करोड़ रु. का ऋण बांटते हैं परन्तु इसमें ग्रामीण क्षेत्र का अंश 10 प्रतिशत ही है। विचित्र बात यह है कि ग्रामीण शाखाओं से प्रतिवर्ष 1,00,000 करोड़ रुपया तथा अर्ध्द नगरीय शाखाओं से 2,00,000 करोड़ रुपया नगरों और महानगरों की ओर प्रवाहित हो जाता है। यदि ग्रामवासियों को बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋण की सरकार गारन्टी ले तो बैंकों को ऋण देने में कोई कठिनाई नहीं होगी। ग्रामवासियों को भी इसी प्रकार की गारन्टी देकर ग्रामीण अंचल की बचत को ग्रामीणों के लिये उपलब्ध किया जा सकता है। बैंक अपने ऋण का एक तिहाई उनको देते हैं जो 25 करोड़ रुपये से अधिक ऋण लेते हैं। यही लोग ऋण वापस नहीं करते। किसान ऋण वापस करने में असमर्थ होने पर आत्महत्या कर लेता है लेकिन नगरों के बड़े घाघ, जिन पर लाख करोड़ रुपयों से ज्यादा बकाया है कभी आत्महत्या नहीं करते। उनके अन्दर कोई नैतिकता नहीं है। उनका करोड़ों का बकाया प्रति वर्ष माफ कर दिया जाता है।

सरकार द्वारा किसान और किसानी की उपेक्षा का लाभ अब देशी और विदेशी बड़ी कम्पनियां उठाना चाहती हैं। वे किसानों से ठेके पर खेती कराकर मुनाफा कमाना चाहती हैं। वे किसानों को खाद, बीज आदि उपलब्ध करायेंगी तथा उनकी उपज को तत्काल खरीद कर कुछ बढ़ा हुआ मूल्य देंगी। परन्तु किसान को वहीं फसल बोना होगा जिसे वे चाहेंगी। इससे किसान को क्षणिक लाभ हो सकता है परन्तु देश की कृषि व्यवस्था का मुनाफाखोरों के हाथ में चला जाना घातक होगा। सरकार भी इसी नीति को बढ़ावा दे रही है क्योंकि स्वयं वह खेती के उध्दार के लिये कुछ नहीं करना चाहती। ऐसी स्थिति में कृषि का संकट और गहन होता जायेगा। इस वर्ष विदेशों से सरकार 1 करोड़ टन गेहूँ का आयात 1300 रु. प्रति टन के हिसाब से करने जा रही है परन्तु अपने किसानों कां 850 रुपये से अधिक देने के लिये तैयार नहीं है। देश का पैसा विदेशों में चला जाये परन्तु अपने किसान को न मिले, यही सरकारी नीति है।

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