21-24 सितम्बर 2007 को सैकड़ों लोग ''विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' के लिए इकट्ठा होंगे। 4 दिन के इस सत्र में दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्थाओं में से एक विश्वबैंक के खिलाफ अपने जीवन के हर क्षेत्र की शिकायतें दर्जनों न्यायधीशों के सामने रखेंगे। भारत में विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण का आयोजन करने का प्रयास, अन्याय के खिलाफ विद्रोह मात्र नहीं है बल्कि उससे कहीं बढ़कर कुछ करने का प्रयास है। जन न्यायाधिकरण एक सुविचारित राजनीतिक विचारधारा है, जिसका उद्देश्य 'नव-उदारवाद और आर्थिक नीति' के मुद्दे पर बहस को जगाना है। लेकिन मुख्य रूप से यह विश्वबैंक और एलीट वर्ग की 'ज्ञान पर तानाशाही' के खिलाफ सीधा प्रहार है। गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं और अन्य वंचित लोगों के अनुभवों और साक्ष्यों को उजागर करता हुआ यह न्यायाधिकरण विश्वबैंक के अपने ही (आर्थिक और सामाजिक नीति के ज्ञान के) साधनों के खिलाफ सीधा संघर्ष है।
1949 से ही जब से भारत विश्वबैंक की फेहरिस्त में शामिल हुआ है, भारत ने बैंक से इतना ज्यादा कर्ज लिया, जितना किसी दूसरे देश ने नहीं लिया। भारत कर्ज लेने वाले देशों में चीन, रूस और इंडोनेशिया के बाद चौथे नम्बर पर है। अन्य कर्जदार देशों की तरह नहीं, बल्कि भारत हमेशा वफादारी से कर्ज चुकाता रहा है, और निरन्तर कर्ज चुकाकर विश्वबैंक का विश्वासपात्र बना रहा है। भारत जैसे कुछ वफादार ग्राहकों के न होने पर विश्वबैंक को अन्य कर्जदारों के साथ मजबूरन कठोरता से पेश आना पड़ेगा।
अपने प्रारंभिक दशकों में भारत में विश्वबैंक ने 'इन्फ्रास्ट्रक्चरल प्रोजेक्ट्स' पर बल दिया और बांधों, नहरों, रेलवे हाइवे और अन्य बड़ी निर्माण योजनाओं के लिए कर्ज भी दिया। इन सभी योजनाओं में विदेशी कौशल की जरूरत थी, इसलिए कर्ज का एक बड़ा हिस्सा तो 'इन्फ्रास्ट्रक्चर' खड़ा करने के लिए बुलाई गई बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने में खर्च हो गया। इन योजनाओं में भारत की नर्मदा पर सरदार सरोवर बांध योजना सबसे बदनाम योजना थी, धीरे- धीरे यह विश्वबैंक की राजनीतिक जवाबदेही बन गई, ऐसे में विश्वबैंक ने इस योजना को छोड़ दिया था। फिर भी उसने अन्य इंफ्रास्ट्रक्चरल कामों पर पैसा लगाना जारी रखा और हाल में नर्मदा योजना पर 'हाई रिस्क, हाई रिवार्ड' कहकर पुन: अपनी प्रतिबध्दता जताई है।
कई दशकों से विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष कर्जदार देशों पर ऐसी नीतियां अपनाने के लिए दबाव डाल रहे हैं, जिसे वे आर्थिक विकास के लिये आवश्यक समझते हैं। 'स्टैंडर्ड पैकेज' के रूप में ये नवउदारवादी नीतियां, देशों के अनुसार थोड़ा-बहुत इनमें परिवर्तन कर लिए जाते थे, इनको ''उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण'' विचारधारा भी कहा जाता है। संक्षेप में कहें, तो ये देशों पर दबाव डालती हैं कि वे सार्वजनिक संपत्तियों का निजीकरण करें, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऊपर कानून और राज्य नियंत्रण को कम करें और निर्यातोन्मुखी, परावलम्बी अर्थव्यवस्था का निर्माण करें, श्रम और पर्यावरण मानकों को कम करें और संपत्ति के केंद्रीयकरण से हर तरह के दूसरे प्रतिबंध हटा लें।
उस दौरान भारत ने विश्वबैंक से योजनाओं के लिये बहुत सारा धन तो ले लिया लेकिन 1990 तक पर इसने अपनी बड़े नीतिगत नीतियों को आमतौर पर नहीं बदला। 1990 के समय भारत तेल निर्यात पर अधिक निर्भर था, जब खाड़ी युध्द के कारण तेल के दाम बढ़ गए, तब भारत के पास तेल आयात जारी रखने के लिए पर्याप्त 'फारेन रिजर्व' नहीं था। इसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से सहायता मांगी, जो उसे मिली, लेकिन बहुत सी शर्तों के साथ। ऊपर बढ़ने को आतुर मध्यवर्ग की बेचैनी और बाहरी दबाव के आगे सिर झुकाकर, भारत ने नवउदारवादी नीतियों को स्वीकार कर लिया।
उदारीकरण के परिणामों पर विश्वबैंक ने आज पूरे दिल से स्वीकार ली है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जो एक समय बिल्कुल कम था, आज वह चीन के बाद दूसरे नंबर पर है। आर्थिक वृध्दि की दर भी लगभग 8- 9 फीसदी प्रति वर्ष है। स्टॉक एक्सचेंज बढ़ रहा है, और भारत की बहुराष्ट्रीय कंपनियां अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी बन रही हैं। लातिन अमरीका, अफ्रीका, पूर्वी यूरोप, रूस और दक्षिण पूर्वी एशिया में इन (उदारीकरण आदि) नीतियों से विश्वबैंक ने जो रेत का महल बनाया था, वह ढह गया है।
अन्य बहुत से ऐसे तथ्य हैं जो अच्छी तस्वीर नहीं रखते। 1975 से खाद्यान्न आपूर्ति अपने निम्न स्तर से भी नीचे गिर गई, कुपोषण निरंतर बढ़ रहा है। औद्योगिक क्षेत्रों में प्रदूषण बढ़ रहा है। 'झुग्गी हटाओ और शहरी नवीकरण योजनाएं' लाखों गरीबों को घरों से बेघर कर रही हैं। व्यक्तिगत कर्ज आसमान छू रहा है- किसानों की बढ़ती हुई आत्महत्याएं इस बात की सबसे बड़ी सबूत हैं। इस नई अर्थव्यवस्था की प्राकृतिक संसाधनों के लिए बढ़ती हवस ने आदिवासियों और ग्राम्यजनों के साथ हिंसक संघर्ष पैदा कर दिया है। नक्सलियों और दूसरे सशस्त्र विरोधी आंदोलनों में लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। हालांकि नव उदारीकरण ने अमीरों और शहरी मध्यवर्ग के लिये बहुत सुविधाएं जुटाई हैं, लेकिन उसके लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है और वह कीमत चुकाई है उन लोगों ने, जिनके अधिकार छीन लिए गए हैं; जिन गरीबों की आज कोई पहचान नहीं है।
1949 से ही जब से भारत विश्वबैंक की फेहरिस्त में शामिल हुआ है, भारत ने बैंक से इतना ज्यादा कर्ज लिया, जितना किसी दूसरे देश ने नहीं लिया। भारत कर्ज लेने वाले देशों में चीन, रूस और इंडोनेशिया के बाद चौथे नम्बर पर है। अन्य कर्जदार देशों की तरह नहीं, बल्कि भारत हमेशा वफादारी से कर्ज चुकाता रहा है, और निरन्तर कर्ज चुकाकर विश्वबैंक का विश्वासपात्र बना रहा है। भारत जैसे कुछ वफादार ग्राहकों के न होने पर विश्वबैंक को अन्य कर्जदारों के साथ मजबूरन कठोरता से पेश आना पड़ेगा।
अपने प्रारंभिक दशकों में भारत में विश्वबैंक ने 'इन्फ्रास्ट्रक्चरल प्रोजेक्ट्स' पर बल दिया और बांधों, नहरों, रेलवे हाइवे और अन्य बड़ी निर्माण योजनाओं के लिए कर्ज भी दिया। इन सभी योजनाओं में विदेशी कौशल की जरूरत थी, इसलिए कर्ज का एक बड़ा हिस्सा तो 'इन्फ्रास्ट्रक्चर' खड़ा करने के लिए बुलाई गई बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने में खर्च हो गया। इन योजनाओं में भारत की नर्मदा पर सरदार सरोवर बांध योजना सबसे बदनाम योजना थी, धीरे- धीरे यह विश्वबैंक की राजनीतिक जवाबदेही बन गई, ऐसे में विश्वबैंक ने इस योजना को छोड़ दिया था। फिर भी उसने अन्य इंफ्रास्ट्रक्चरल कामों पर पैसा लगाना जारी रखा और हाल में नर्मदा योजना पर 'हाई रिस्क, हाई रिवार्ड' कहकर पुन: अपनी प्रतिबध्दता जताई है।
कई दशकों से विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष कर्जदार देशों पर ऐसी नीतियां अपनाने के लिए दबाव डाल रहे हैं, जिसे वे आर्थिक विकास के लिये आवश्यक समझते हैं। 'स्टैंडर्ड पैकेज' के रूप में ये नवउदारवादी नीतियां, देशों के अनुसार थोड़ा-बहुत इनमें परिवर्तन कर लिए जाते थे, इनको ''उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण'' विचारधारा भी कहा जाता है। संक्षेप में कहें, तो ये देशों पर दबाव डालती हैं कि वे सार्वजनिक संपत्तियों का निजीकरण करें, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऊपर कानून और राज्य नियंत्रण को कम करें और निर्यातोन्मुखी, परावलम्बी अर्थव्यवस्था का निर्माण करें, श्रम और पर्यावरण मानकों को कम करें और संपत्ति के केंद्रीयकरण से हर तरह के दूसरे प्रतिबंध हटा लें।
उस दौरान भारत ने विश्वबैंक से योजनाओं के लिये बहुत सारा धन तो ले लिया लेकिन 1990 तक पर इसने अपनी बड़े नीतिगत नीतियों को आमतौर पर नहीं बदला। 1990 के समय भारत तेल निर्यात पर अधिक निर्भर था, जब खाड़ी युध्द के कारण तेल के दाम बढ़ गए, तब भारत के पास तेल आयात जारी रखने के लिए पर्याप्त 'फारेन रिजर्व' नहीं था। इसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से सहायता मांगी, जो उसे मिली, लेकिन बहुत सी शर्तों के साथ। ऊपर बढ़ने को आतुर मध्यवर्ग की बेचैनी और बाहरी दबाव के आगे सिर झुकाकर, भारत ने नवउदारवादी नीतियों को स्वीकार कर लिया।
उदारीकरण के परिणामों पर विश्वबैंक ने आज पूरे दिल से स्वीकार ली है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जो एक समय बिल्कुल कम था, आज वह चीन के बाद दूसरे नंबर पर है। आर्थिक वृध्दि की दर भी लगभग 8- 9 फीसदी प्रति वर्ष है। स्टॉक एक्सचेंज बढ़ रहा है, और भारत की बहुराष्ट्रीय कंपनियां अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी बन रही हैं। लातिन अमरीका, अफ्रीका, पूर्वी यूरोप, रूस और दक्षिण पूर्वी एशिया में इन (उदारीकरण आदि) नीतियों से विश्वबैंक ने जो रेत का महल बनाया था, वह ढह गया है।
अन्य बहुत से ऐसे तथ्य हैं जो अच्छी तस्वीर नहीं रखते। 1975 से खाद्यान्न आपूर्ति अपने निम्न स्तर से भी नीचे गिर गई, कुपोषण निरंतर बढ़ रहा है। औद्योगिक क्षेत्रों में प्रदूषण बढ़ रहा है। 'झुग्गी हटाओ और शहरी नवीकरण योजनाएं' लाखों गरीबों को घरों से बेघर कर रही हैं। व्यक्तिगत कर्ज आसमान छू रहा है- किसानों की बढ़ती हुई आत्महत्याएं इस बात की सबसे बड़ी सबूत हैं। इस नई अर्थव्यवस्था की प्राकृतिक संसाधनों के लिए बढ़ती हवस ने आदिवासियों और ग्राम्यजनों के साथ हिंसक संघर्ष पैदा कर दिया है। नक्सलियों और दूसरे सशस्त्र विरोधी आंदोलनों में लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। हालांकि नव उदारीकरण ने अमीरों और शहरी मध्यवर्ग के लिये बहुत सुविधाएं जुटाई हैं, लेकिन उसके लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है और वह कीमत चुकाई है उन लोगों ने, जिनके अधिकार छीन लिए गए हैं; जिन गरीबों की आज कोई पहचान नहीं है।
जब भारत ने 1990 में नव- उदारीकरण में कदम रखा तब प्रेस, संसद, शैक्षिक संस्थानों और यहां तक कि चाय की दुकानों पर भी काफी गर्म चर्चा हुई थी। इसके लाभ- हानि पर हर दृष्टि से चर्चा की गई लेकिन अब सब खामोश हैं। गोया कि अब बहस के कोई मायने नहीं हो या फिर नव-उदारीकरण एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन चुकी है। सचमुच यह मारग्रेट थैचर के बदनाम एक्रोनिम जैसा ही है, उसने कहा था- टीना - यानी अब कोई रास्ता नहीं है। आर्थिक नीतियों के इस सर्वाधिक विवादित मुद्दे पर बहस खत्म करने का यह एक पारदर्शी प्रयास था। ठीक उसी समय, अमरीका में रीगन के सलाहकारों ने भी वैसा ही करने का प्रयास किया और दावा किया कि ''नव उदारवादी नीतियां'' राजनीतिक मुद्दा नहीं हैं, बस अच्छा प्रबंधन हैं। बहस करने वाली कोई बात ही नहीं है। साथ- साथ चलो।
बहस को खत्म करने के लिए विश्वबैंक के अपने ही अलग तरीके थे, इसने इस बात पर जोर देना शुरू किया कि गरीब देश विकास कैसे कर सकते हैं। इसके कर्मचारियों और सलाहकारों ने हजारों लेख और रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं, यहां तक कि यह बाहरी शोधार्थियों को वित्तीय सहायता भी उपलब्ध कराता है, लोक संपर्क के लिए इसका एक बड़ा तंत्र है, -'द इकैनोमिक डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट' नाम से विश्वबैंक एक मिनी यूनिवर्सिटी चलाता है, और अपनी नीतियों, उद्देश्यों को अन्य संस्थाओं तक पहुंचाने के लिए कर्मचारियों की बदली भी करता रहता है। इसके लिए लगभग 10,000 'डेवलपमेंट एक्सपर्ट' काम करते हैं- विकासात्मक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में शायद सर्वाधिक प्रतिष्ठित पद और सर्वोत्तम वेतन देने वाली यही संस्था है। लेकिन एक विश्वविद्यालय की तरह विश्वबैंक विचारों की विभिन्नता को बर्दाश्त नहीं करता, उसके प्रकाशनों पर दोबारा विचार नहीं किया जाता, बाहरी लेखा-परीक्षण को भी यह बर्दाश्त नहीं करता। हाल के वर्षों में विश्वबैंक ने यह कहकर अपनी तानाशाही कायम करने की कोशिश की है कि वह 'नॉलेज बैंक' है -सभी सूचनाओं, ज्ञान और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर विचार का एकमात्र स्रोत।
इस सबका सिर्फ एक ही मतलब है कि बैंक के नवउदारवादी एजेंडा के सामने विकल्पों को न केवल नकार दिया जाता है, बल्कि उन पर विचार तक नहीं किया जाता। जब नई दिल्ली ने अपनी नगरपालिका जल आपूर्ति व्यवस्था के सुधारने के लिए विश्वबैंक से कर्ज लिया तो इस बात पर कोई चर्चा तक नहीं की गई कि क्या प्राथमिकताएं होनी चाहिए या कौन सा मॉडल अपनाया जाना चाहिए? प्रोजेक्ट का पूरा डिजाइन -विश्वबैंक के पालतू ठेकेदारों में से एक अंतर्राष्ट्रीय सलाहकार फर्म 'प्राइस वाटर हाऊस कूपर्स -पीडब्ल्यूसी' को सौंप दिया गया। हैरानी की बात तो यह है कि 'पीडब्ल्यूसी' ने बिना विकल्प सुझाए, निजीकरण के लिये रूपरेखा बनाकर दे दी। सलाहकार फर्म और कर्जदार सरकारों को दबाने भर से विश्वबैंक को संतोष नहीं हुआ तो यह 'नॉलेज बैंक' इस बात को पक्का करने के लिये विश्वविद्यालयों में पहुंच गया है कि अर्थशास्त्र के हर क्षेत्र में उसकी विचारधारा को ही तथ्यों के रूप में बढ़ाया-पढ़ाया जाए।
नॉलेज बैंक में सब कुछ हो, लेकिन भारत के गरीबों और दलितों की आवाज कहीं नहीं है। उन्हें सुनने के लिए आपको नई दिल्ली ''विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' में आना होगा। वे आपको विश्वबैंक की नीतियों के बारे बताएंगे, जिन्होंने उनसे उनके खेत, जंगल और घर छीन लिये हैं; उनकी बचत को खत्म कर दिया है, उनका स्वास्थ्य तक खराब कर दिया है, उनके परिवारों को तोड़ दिया है, उनसे पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा को छीन लिया है और उन्हें स्थानीय सूदखोरों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ संघर्ष के अखाड़े में ला दिया है। उनकी व्यक्तिगत और सामूहिक कहानियां एक दूसरी ही सच्चाई बयां करती हैं। नई दिल्ली में, वे गरीब जिनके नाम पर यह विकास किया जा रहा है स्वयं सामने आकर एक बार फिर अपनी आवाज विश्वबैंक के खिलाफ बुलंद करेंगे।
प्रस्तुति-मीनाक्षी अरोड़ा
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