दो-तीन साल पहले एक खबर निकली थी कि पंजाब के एक गांव ने गांव की सीमा पर इश्तहार लगा दिया है कि 'यह गांव बिकाऊ है।' गांव के हर किसान पर इतना कर्ज हो गया था कि उसे चुकाना नामुमकिन हो गया था। इसीलिए इश्तहार लगाने की मजबूरी हो गई थी। पिछले दो साल में हवा इतनी बदली कि हरित क्रांति के महानायक पंजाब के पटियाला में संपन्न किसान पंचायत में दबे या मुखर स्वर में एक ही मन-मन की आवाज थी कि जमीन के पैसे किस तरकीब से ज्यादा से ज्यादा मिल सकते हैं? अपनी हेकड़ी के लिए मशहूर हरयाणा से भी वही 'मन की आवाज' सुनाई दे रही थी। 'काश, मेरे पास भी दो बीघा जमीन पैर रखने के लिए होती' की कोशिश न जाने कहां विलीन हो गई, किसी को पता भी नहीं चला। सरकारी सर्वे बताते हैं कि सौ में चालीस किसान कोई दूसरा धंधा करने के इच्छुक हैं। उधर नया करोड़पति - अरबपतियों का वर्ग औने-पौने जिधर देखो उधर जमीन पर अपना झंडा गाड़ता जा रहा है। कहीं कोई विरोध नहीं है! है भी तो आगे-पीछे वह 'कितना पैसा चाहिए? के सवाल में बदल जाता है। आज से उपरले 10 फीसदी लोगों के हाथ में पैसे की इतनी बड़ी ताकत हो गई है कि वह देश के जल, जंगल, जमीन के सभी संसाधनों को चुटकी मारते खरीद सकता है। आखिर पैसा है भी क्या- कागज की माया और उसका महाजाल। जमीन लो, कागज बनवा लो, बैंक के पास रख दो, और नोटों के कागज की गड्डियां झड़ने लगती हैं सो भुगतान कर दो। और वह पैसा भी तो घूम-फिर कर उन्हीं के पास आ जाना है, पुराने कर्ज की अदायगी, बेटी के ब्याह के लिए दहेज, असाध्य बीमारी की दवाई और तीमारदारी, मचलते बेटे की पढ़ाई और उसके नये शौक- टी.वी., मोटरसाइकिल- सीता माता की तरह जिस धरती से जन्मी थी हल को नोक के इशारे पर उसी में समा जाती है देखते-देखते। और किसान रूप राम धरती की मिट्टी में भाव विह्वल ढूढ़ते रह जाते हैं अपनी सीता को!
देख रही है पूरी अयोध्या इस दर्दनाक दृश्य को! होनी के सामने भला किस की चल सकती है? आज तक जो नहीं सुना जा रहा था, वह खुल कर सुनने में आ रहा है- अब किसान नहीं बचेगा। आज तक जो कथा- कहानियों की बातें थी वे सामने घटित हो रही हैं- जिस बाड़ को खेत की रखवाली के लिए बड़े जतन से बनाया वही बाड़ खेत को चरे डाल रही है। जिन सांसदों और विधायकों को अपने प्रतिनिधि के रूप में राजकाज चलाने के लिए भेजा था उन्होंने ऐसा राज चलाया कि उसमें आम आदमी के लिए कोई जगह ही नहीं है। संविधान में लिखा है -समानता होगी सो शुरूआती दौर के वे सभी कानून शिथिल कर दिए या खरिज कर दिये जिनसे गैर बराबरी पर अंकुश लगता। आज करोड़पतियों का राज है। संसद में 85 फीसदी सांसद करोड़पति हैं। कहां से आई यह अकूत संपदा? कोई पूछने वाला नहीं है।
पैसा पहले भी था कुछ लोगों के पास, परन्तु पैसे वाले का समाज में सम्मान नहीं था। पैसा पहले भी था परन्तु उस पैसे का कोई उपयोग नहीं था। विदेशों में ऐय्याशी की वस्तुओं का आयात नहीं हो सकता था। वातानुकूलति गाड़ियां नहीं बन सकती थी। पैसा पहले भी था, परन्तु उससे खेती की जमीनें नहीं खरीदी जा सकती थी। नियम और कानून पैसे की ताकत पर अंकुश थे। परन्तु देखते-देखते हमारे ही पहरेदारों ने उस पैसे की ताकत को खत्म करने वाले सब नियम औश्र कानून कचड़े की पेटी में फेंक दिए। 'सर्वे गुणा: कांचनमान्प्रयन्ति' ('सब गुणों का सोने में निवास है') का झंडा फहरा रहा है।
और अंत में राज्य किसका है? किसके साथ खड़ा है? के सवाल पर सब उलट-पलट गए। जमीन के मामले में पहले तो गुलामी के जमाने की राज्य की प्रभुसत्ता को आजादी के बाद भी उसी ताह कायम रखा। राज्य का अर्थ आम जन का प्रतिनिधि न होकर उन प्रतिनिधियों और उनके कारकुनों का राज्य हो गया। सो संसाधनों का मालिक उनसे अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले आम लोग न होकर शासन-तंत्र हो गया। पहले तो गुलामी के कानून भू- अर्जन अनिधियम के तहत मनमाने ढंग से लोगों की जमीन हड़प कर उद्योगपतियों को कौड़ी के मोल दे डाली। जब लोगों में इस बाबत कुछ जागरूकता आई और भूमि- अधिग्रहण करने के अधिकार पर ही सवालिया निशान लगाना शुरू की तो सरकारी लोगों ने ऐसी चाल चली जिसके सामने चाणक्य नीति तक शरमा जाए। कह दिया चलो अब इन मामलों में सरकार बीच में नहीं पड़ेगी, किसान और उद्योगपति आपस में लेनदेन का फैसला कर लें।
यहां आकर धूर्ता पर शरमा गई :
कैसा ऊंचा पांसा फेंका आम लोगों के प्रतिष्ठानों और उनके कारकुनों ने! सफाई से कह दिया चलो हमारे यानी सरकार के बीच पड़ने से एतराज है तो आपस में फैसलाकर लो। हमारा पूछना है कि आखिर राज्य किस मर्ज की दवा है? राज्य बीच से हट जाए तो क्या स्थिति बनती है- एक ओर किसान अकेला खड़ा है, दूसरी ओर पैसे की ताकत से लैस पूंजीपति। उस पैसे की ताकत से लैस है पूंजीपति जिस पर आज कहीं कोई अंकुश नहीं। जिसने खरीद डाला है सब जन प्रतिनिधियों को भी, अन्यथा धरती से उठने वाले आम लोगों के प्रतिनिधि करोड़पति कैसे हो गए? याद आती है सौ साल पहले हिंद स्वराज में अंग्रेजों की अपनी संसद के बारे में गांधी जी टिप्पणी थी- निपूती वेश्या। पैसे के बल पर वेश्या की तरह उसमें सब कुछ करवाया जा सकता है। सो किसान बनाम पूंजीपति में किसान और पूंजीपति एकल बगाल में हिस्सेदार नहीं है जिसमें बराबरी का जोड़ हो। पूंजीपति के पास पैसा है और पैसे से खरीदा गया पूरा प्रशासन तंत्र। यह प्रशासन तंत्र जन सेवक न होकर पूंजी सेवक है। यही नहीं, पैसे के बल पर रखा गया पूरा गुंडा तंत्र और भविष्य पर भरोसा दिलाया गया दिशाहीन युवा भी उसक इर्द-गिर्द मड़रा रहा है। दूसरी ओर किसान नितांत अकेला है। अरे और तो और लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार ने आज तक ग्राम सभा यानी गांव की सामान्य सभा को भी तो मान्यता नहीं दी है। ऐसे में अगर किसान आपस में मिलकर कोई बात करना चाहें या प्रतिरोध करना चाहें तो उसे कानून का उल्लंघन करार दिया जा सकता है। कहने का अर्थ है कि पूरी दुनिया एक और किसान नितांत एकाकी एक ओर। ऐसे में अगर जमीन के साथ उसकी लंगोटी भी न चली जाए तो निपट नंगा होकर दुनिया के खुले और भरे बाजार में घूमने के लिए न मजबूर हो जाए तो अपना भाग्य सराहे!
कहां है राजनीतिक दल
चलिए अकेले में नेता बिक गए, अकेले में प्रशसक बिक गए, परन्तु वह पूरा राजनीतिक तंत्र जिसे लोकतंत्र की आत्मा कहा जाता है, वह कहां है इस अभूतपूर्व घमासान में! कहने को सब किसानों के हिमायती हैं। सब उसे समर्थन देने का वायदा करके ही उसका वोट पाये हैं। सबसे अफसोस की बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल आज तक भारत में किसान खत्म होगा या होने के कगार पर पहुंच गया है इस बावत लोगों के बीच चर्चा करने की जरूरत नहीं समझ रहे हैं। मोटे तौर पर दलों को दो भागों में बांटा जाता है। एक पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थक यानी दक्षिण पंथी। दूसरी ओर समाजवादी/साम्यवादी व्यवस्था के समर्थक यानी वामपंथी। वामपंथियों में यह माना जाता है कि समाजवाद के पहले एक ऐसा दौर आयेगा जिसमें पूंजीवादी व्यवस्था कायम होगी। उनका मानना है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में उसकी मृत्यु के बीज होते हैं। यानी एक ओर मुट्ठी भर पूंजीपति होंगे जो पूंजी के बल पर उत्पादन के सभी साधनों पर अपना कब्जा जमा लेंगे। दूसरी ओर होंगे अपना सब कुछ गंवाने वाला सर्वहारा वर्ग, जिसके पास पैर में बेड़ी के अलावा टूटने के लिए कुछ नहीं बच रहेगा। यह सर्वहारा इस अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह कर, उसके चकनाचूर कर देगी और सर्वहारा की एकाधिकारी व्यवस्था कायम होगी। वहां से समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना की निष्कंटक राह होगी जिस पर मानव समाज आगे बढ़ेगा।
इस दक्षिण पंथियों और वाम पंथियों के सोच में अगले चरण में तो पूंजीवादी व्यवस्था का वर्चस्व होगा। उसमें पूंजी के बल पर वह सभी संसाधनों पर कब्जा कर लेगा। दक्षिण पंथियों के अनुसार वही सबसे तर्कपूर्ण और फायदेमंद व्यवस्था होगी। उसमें पूंजीपति सबके लिऐ बाजार के नियमों के अनुसार व्यवस्था करेगा। बाजार में अगर कामगारों की जरूरत नहीं है तो यह तो सिर्ग अनेक रूपों में उसका इंतजाम करेगी- बीमारी, महामारी, कुपोषण। दूसरा यह कि मानव समाज प्रजनन पर नियंत्रण करेगा। हमारे यहां भी तो दो या तीन बच्चों के बाद अब दो से अधिक नहीं की बात चल रही है। चीन में तो 'परिवार में एक बच्चा' की मान्यता क्रांति के तुरत बाद शुरू हो गई थी। जो घोर पूंजीवादी देश हैं उनमें से कुछ में जैसे फ्रांस में आबादी कम हो रही है और साधारण कामकाज के लिए उन्हें दूसरे देशों के नागरिकों को प्रवेश देने की मजबूरी है। इस तरह एक नया संतुलन कायम होगा, इसमें हाय तोबा की जरूरत नहीं है।
इस तरह दोनों ही विचारधाराओं में किसान का खात्मा और पूंजीवादी खेती को अनिवार्य माना गया है। यह इतिहास का नियम है, उसे बदला नहीं जा सकता है। आगे चर्चा के पहले यह जानना जरूरी होगा कि क्या कोई मध्यमार्गी विचारधारा भी है? सच पूछा जाय तो मध्यमार्ग में जो जोते उसकी जमीन पर आम सहमति दे रही हैं। इसी पर बात होती रही है, इसी के नारे लगते रहे हैं। दक्षिण पंथियों और वाम पंथियों ने भी इसमें हां में हां मिालई है क्योंकि इसके खिलाफ कहने का सासह नहीं जुटा पाए। दक्षिण पंथियों का विश्वास था कि ये आदर्शवादी नारे बहुत दिन चलेंगे नहीं और हार-थक कर लोग परिस्थिति से समझौता कर लेंगे। उधर पूंजी की ताकत का असर घटता जाएगा सो किसान अंत में अपनी मौत को स्वाभाविक मान लेगा। नारे चलते रहेंगे और पूंजीवाद की शोभायात्रा चलती रहेगी। आज हम उसी स्थिति में पहुंच गए हैं।
उधर वामपंथियों को -जो जोते उसकी जमीन- से कोई लेना-देना नहीं रहा। उन्हें मार्क्सवादी विवेचन पर पूरा भरोसा था और है। नारे लगाते रहो लेकिन यह समझ लो कि उनका कोई अर्थ नहीं है। किसानों के खैर- ख्वाह भी बने रहो और अंतिम रात कतल की रात का इंतजार करो। इस बीच ना मरने की किसान की पीड़ा हो रही है, उसमें हमदर्दी का इजहार करते रहो। बस!
देख रही है पूरी अयोध्या इस दर्दनाक दृश्य को! होनी के सामने भला किस की चल सकती है? आज तक जो नहीं सुना जा रहा था, वह खुल कर सुनने में आ रहा है- अब किसान नहीं बचेगा। आज तक जो कथा- कहानियों की बातें थी वे सामने घटित हो रही हैं- जिस बाड़ को खेत की रखवाली के लिए बड़े जतन से बनाया वही बाड़ खेत को चरे डाल रही है। जिन सांसदों और विधायकों को अपने प्रतिनिधि के रूप में राजकाज चलाने के लिए भेजा था उन्होंने ऐसा राज चलाया कि उसमें आम आदमी के लिए कोई जगह ही नहीं है। संविधान में लिखा है -समानता होगी सो शुरूआती दौर के वे सभी कानून शिथिल कर दिए या खरिज कर दिये जिनसे गैर बराबरी पर अंकुश लगता। आज करोड़पतियों का राज है। संसद में 85 फीसदी सांसद करोड़पति हैं। कहां से आई यह अकूत संपदा? कोई पूछने वाला नहीं है।
पैसा पहले भी था कुछ लोगों के पास, परन्तु पैसे वाले का समाज में सम्मान नहीं था। पैसा पहले भी था परन्तु उस पैसे का कोई उपयोग नहीं था। विदेशों में ऐय्याशी की वस्तुओं का आयात नहीं हो सकता था। वातानुकूलति गाड़ियां नहीं बन सकती थी। पैसा पहले भी था, परन्तु उससे खेती की जमीनें नहीं खरीदी जा सकती थी। नियम और कानून पैसे की ताकत पर अंकुश थे। परन्तु देखते-देखते हमारे ही पहरेदारों ने उस पैसे की ताकत को खत्म करने वाले सब नियम औश्र कानून कचड़े की पेटी में फेंक दिए। 'सर्वे गुणा: कांचनमान्प्रयन्ति' ('सब गुणों का सोने में निवास है') का झंडा फहरा रहा है।
और अंत में राज्य किसका है? किसके साथ खड़ा है? के सवाल पर सब उलट-पलट गए। जमीन के मामले में पहले तो गुलामी के जमाने की राज्य की प्रभुसत्ता को आजादी के बाद भी उसी ताह कायम रखा। राज्य का अर्थ आम जन का प्रतिनिधि न होकर उन प्रतिनिधियों और उनके कारकुनों का राज्य हो गया। सो संसाधनों का मालिक उनसे अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले आम लोग न होकर शासन-तंत्र हो गया। पहले तो गुलामी के कानून भू- अर्जन अनिधियम के तहत मनमाने ढंग से लोगों की जमीन हड़प कर उद्योगपतियों को कौड़ी के मोल दे डाली। जब लोगों में इस बाबत कुछ जागरूकता आई और भूमि- अधिग्रहण करने के अधिकार पर ही सवालिया निशान लगाना शुरू की तो सरकारी लोगों ने ऐसी चाल चली जिसके सामने चाणक्य नीति तक शरमा जाए। कह दिया चलो अब इन मामलों में सरकार बीच में नहीं पड़ेगी, किसान और उद्योगपति आपस में लेनदेन का फैसला कर लें।
यहां आकर धूर्ता पर शरमा गई :
कैसा ऊंचा पांसा फेंका आम लोगों के प्रतिष्ठानों और उनके कारकुनों ने! सफाई से कह दिया चलो हमारे यानी सरकार के बीच पड़ने से एतराज है तो आपस में फैसलाकर लो। हमारा पूछना है कि आखिर राज्य किस मर्ज की दवा है? राज्य बीच से हट जाए तो क्या स्थिति बनती है- एक ओर किसान अकेला खड़ा है, दूसरी ओर पैसे की ताकत से लैस पूंजीपति। उस पैसे की ताकत से लैस है पूंजीपति जिस पर आज कहीं कोई अंकुश नहीं। जिसने खरीद डाला है सब जन प्रतिनिधियों को भी, अन्यथा धरती से उठने वाले आम लोगों के प्रतिनिधि करोड़पति कैसे हो गए? याद आती है सौ साल पहले हिंद स्वराज में अंग्रेजों की अपनी संसद के बारे में गांधी जी टिप्पणी थी- निपूती वेश्या। पैसे के बल पर वेश्या की तरह उसमें सब कुछ करवाया जा सकता है। सो किसान बनाम पूंजीपति में किसान और पूंजीपति एकल बगाल में हिस्सेदार नहीं है जिसमें बराबरी का जोड़ हो। पूंजीपति के पास पैसा है और पैसे से खरीदा गया पूरा प्रशासन तंत्र। यह प्रशासन तंत्र जन सेवक न होकर पूंजी सेवक है। यही नहीं, पैसे के बल पर रखा गया पूरा गुंडा तंत्र और भविष्य पर भरोसा दिलाया गया दिशाहीन युवा भी उसक इर्द-गिर्द मड़रा रहा है। दूसरी ओर किसान नितांत अकेला है। अरे और तो और लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार ने आज तक ग्राम सभा यानी गांव की सामान्य सभा को भी तो मान्यता नहीं दी है। ऐसे में अगर किसान आपस में मिलकर कोई बात करना चाहें या प्रतिरोध करना चाहें तो उसे कानून का उल्लंघन करार दिया जा सकता है। कहने का अर्थ है कि पूरी दुनिया एक और किसान नितांत एकाकी एक ओर। ऐसे में अगर जमीन के साथ उसकी लंगोटी भी न चली जाए तो निपट नंगा होकर दुनिया के खुले और भरे बाजार में घूमने के लिए न मजबूर हो जाए तो अपना भाग्य सराहे!
कहां है राजनीतिक दल
चलिए अकेले में नेता बिक गए, अकेले में प्रशसक बिक गए, परन्तु वह पूरा राजनीतिक तंत्र जिसे लोकतंत्र की आत्मा कहा जाता है, वह कहां है इस अभूतपूर्व घमासान में! कहने को सब किसानों के हिमायती हैं। सब उसे समर्थन देने का वायदा करके ही उसका वोट पाये हैं। सबसे अफसोस की बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल आज तक भारत में किसान खत्म होगा या होने के कगार पर पहुंच गया है इस बावत लोगों के बीच चर्चा करने की जरूरत नहीं समझ रहे हैं। मोटे तौर पर दलों को दो भागों में बांटा जाता है। एक पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थक यानी दक्षिण पंथी। दूसरी ओर समाजवादी/साम्यवादी व्यवस्था के समर्थक यानी वामपंथी। वामपंथियों में यह माना जाता है कि समाजवाद के पहले एक ऐसा दौर आयेगा जिसमें पूंजीवादी व्यवस्था कायम होगी। उनका मानना है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में उसकी मृत्यु के बीज होते हैं। यानी एक ओर मुट्ठी भर पूंजीपति होंगे जो पूंजी के बल पर उत्पादन के सभी साधनों पर अपना कब्जा जमा लेंगे। दूसरी ओर होंगे अपना सब कुछ गंवाने वाला सर्वहारा वर्ग, जिसके पास पैर में बेड़ी के अलावा टूटने के लिए कुछ नहीं बच रहेगा। यह सर्वहारा इस अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह कर, उसके चकनाचूर कर देगी और सर्वहारा की एकाधिकारी व्यवस्था कायम होगी। वहां से समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना की निष्कंटक राह होगी जिस पर मानव समाज आगे बढ़ेगा।
इस दक्षिण पंथियों और वाम पंथियों के सोच में अगले चरण में तो पूंजीवादी व्यवस्था का वर्चस्व होगा। उसमें पूंजी के बल पर वह सभी संसाधनों पर कब्जा कर लेगा। दक्षिण पंथियों के अनुसार वही सबसे तर्कपूर्ण और फायदेमंद व्यवस्था होगी। उसमें पूंजीपति सबके लिऐ बाजार के नियमों के अनुसार व्यवस्था करेगा। बाजार में अगर कामगारों की जरूरत नहीं है तो यह तो सिर्ग अनेक रूपों में उसका इंतजाम करेगी- बीमारी, महामारी, कुपोषण। दूसरा यह कि मानव समाज प्रजनन पर नियंत्रण करेगा। हमारे यहां भी तो दो या तीन बच्चों के बाद अब दो से अधिक नहीं की बात चल रही है। चीन में तो 'परिवार में एक बच्चा' की मान्यता क्रांति के तुरत बाद शुरू हो गई थी। जो घोर पूंजीवादी देश हैं उनमें से कुछ में जैसे फ्रांस में आबादी कम हो रही है और साधारण कामकाज के लिए उन्हें दूसरे देशों के नागरिकों को प्रवेश देने की मजबूरी है। इस तरह एक नया संतुलन कायम होगा, इसमें हाय तोबा की जरूरत नहीं है।
इस तरह दोनों ही विचारधाराओं में किसान का खात्मा और पूंजीवादी खेती को अनिवार्य माना गया है। यह इतिहास का नियम है, उसे बदला नहीं जा सकता है। आगे चर्चा के पहले यह जानना जरूरी होगा कि क्या कोई मध्यमार्गी विचारधारा भी है? सच पूछा जाय तो मध्यमार्ग में जो जोते उसकी जमीन पर आम सहमति दे रही हैं। इसी पर बात होती रही है, इसी के नारे लगते रहे हैं। दक्षिण पंथियों और वाम पंथियों ने भी इसमें हां में हां मिालई है क्योंकि इसके खिलाफ कहने का सासह नहीं जुटा पाए। दक्षिण पंथियों का विश्वास था कि ये आदर्शवादी नारे बहुत दिन चलेंगे नहीं और हार-थक कर लोग परिस्थिति से समझौता कर लेंगे। उधर पूंजी की ताकत का असर घटता जाएगा सो किसान अंत में अपनी मौत को स्वाभाविक मान लेगा। नारे चलते रहेंगे और पूंजीवाद की शोभायात्रा चलती रहेगी। आज हम उसी स्थिति में पहुंच गए हैं।
उधर वामपंथियों को -जो जोते उसकी जमीन- से कोई लेना-देना नहीं रहा। उन्हें मार्क्सवादी विवेचन पर पूरा भरोसा था और है। नारे लगाते रहो लेकिन यह समझ लो कि उनका कोई अर्थ नहीं है। किसानों के खैर- ख्वाह भी बने रहो और अंतिम रात कतल की रात का इंतजार करो। इस बीच ना मरने की किसान की पीड़ा हो रही है, उसमें हमदर्दी का इजहार करते रहो। बस!
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