विश्वबैंक और मानवाधिकार -एरिक टुसेन्ट

जब मैं बैंक में आया तब हमें corruption शब्द का उल्लेख करने की अनुमति नहीं थी, इसे ‘c’ शब्द कहा जाता था, लेकिन हमें ‘r’ यानी ‘right’ शब्द का उल्लेख करने की जरूरत है।- जेम्स बोल्फेन्सोह्न (1 मार्च, 2004)

मानव अधिकारों का सवाल कभी विश्वबैंक की प्राथमिक चिन्ता नहीं रहे हैं। बैंक द्वारा लगाई गई शर्तों में 'निजी संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार' का एक अधिकार अकेला ही सभी पर भारी पड़ रहा है जो व्यवहारिक रूप धन्ना-सेठों को मुनाफा पहुंचाने के लिए काम करता है, ये धन्ना सेठ कोई धनी व्यक्ति या राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियां हो सकती हैं।

विश्वबैंक की शर्तों में जनता के सामूहिक अधिकारों का कोई जिक्र तक नहीं है। अगर विश्व बैंक में कहीं मानव अधिकारों पर जरा भी ध्यान दिया जाता है तो वह संयुक्त राष्ट्र के नीतिगत दस्तावेजों की तरह ही प्रगतिशील नहीं होता। अधिकार जैसी संकल्पनाओं की वह अपने ही तरीके से व्याख्या करता है।

जेन-फिलिप्पी पीमन्स ने बिल्कुल सही कहा है ''वर्तमान पश्चिमी परिप्रेक्ष्य में मानव अधिकारों का संबंध हर हाल में निश्चित तौर पर कार्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजी कार्यों में अहस्तक्षेप, अपनी संपत्ति की देखरेख के अधिकार से है और इन सबसे ऊपर है, किसी भी ऐसे कार्य को रोकने की राज्य की जिम्मेदारी; जो उत्पादन और विनिमय में समय, पूंजी और संसाधनों के निवेश की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है... नव उदारवारी सामाजिक और आर्थिक मांगे वैधानिक इच्छाएं तो कही जा सकती हैं, लेकिन अधिकार नहीं... नव उदारीकरण का विचार अधिकारों के किसी भी सवाल के सामूहिक सिध्दांत को नकारता है। केवल मात्र व्यक्ति ही अधिकारों की मांग कर सकता है और जो अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, वह भी अनिवार्य रूप से व्यक्ति ही हैं, अपने कार्यों के प्रति उनकी जवाबदेही भी होनी चाहिए। अधिकारों के उल्लंघन का संबंध किसी भी संगठन या निकाय से नहीं जोड़ा जा सकता है।''

विश्वबैंक भी आईएमएफ की तरह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी से मुक्त होने के लिए, ऐसी ही विचारधारा का जामा पहने हुए है। हालांकि नागरिक व राजनीतिक अधिकारों से इन्हें अलग नहीं किया जा सकता, सामूहिक अधिकार का सम्मान किये बिना व्यक्तिगत अधिकारों का सम्मान करना असंभव है।

विश्वबैंक और आईएमएफ जैसी बहुपक्षीय संस्थाएं अंतरराष्ट्रीय संधियों और अधिकारों से बंधी हैं, क्योंकि उनमें व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार के अधिकारों की घोषणा की गई है।

पारदर्शिता और सुशासन के मानक सभी पर लागू होते हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं अपने कर्जदार देशों से इनकी उम्मीद करती हैं, लेकिन अपने कामों में इन मानकों को ताक पर रख देती हैं। कार्यों के मूल्यांकन और रपट की जिम्मेदारी राज्यों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसमें निजी क्षेत्र, खासतौर पर अंतरराष्ट्रीय संगठनों को शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का मानव अधिकारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

ढांचागत समायोजन कार्यक्रमों का आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों (खासतौर से गरीब तबके पर) और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इसके लिए इन संस्थाओं को अपने कार्यों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।

ढांचागत समायोजन में मानव अधिकारों की उपेक्षा-
मानव अधिकारों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं पूंजीवाद और 'प्राइवेट फिनांनशियल एंटरप्राइज' के सिध्दांत पर काम कर रही हैं और इस बात की जरा भी परवाह नहीं करतीं कि उनके इन कामों का आर्थिक और सामाजिक अंजाम क्या होगा?

एक विशिष्ट पत्रकार और स्वतंत्र विशेषज्ञ द्वारा मानव अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र आयोग को सौंपी गई रपट में कहा गया है कि ''पिछले लगभग 20 सालों से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं और साहूकार देशों की सरकारें एक रहस्यमय और विनाशकारी खेल खेल रही हैं और तीसरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को नियंत्रित करने के लिए 'रिमोट कंट्रोल' अपने हाथ में रखे हुए हैं। इतना ही नहीं- ये खिलाड़ी कमजोर देशों पर यह कहकर अपनी आर्थिक नीतियां लाद रहे हैं कि 'मैक्रो-इकॉनोमिक एडजस्टमेंट' नाम की यह कड़वी गोली अन्त में उन्हें कर्ज से मुक्ति और समृध्दि दिलाएगी। आईएमएफ और विश्वबैंक द्वारा जबरदस्ती ढांचागत समायोजन कार्यक्रम लादे जाने के बाद बहुत से देशों की हालत, बीस सालों के भीतर ही पहले से भी बदतर हो गई है। इन विनाशकारी कार्यक्रमों की भारी सामाजिक और जैविक कीमत चुकानी पड़ रही है और बहुत से देशों में तो मानव विकास की नाटकीय भूमिका ही चल रही है।

रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि ''कर्जदार देशों के बुनियादी अधिकारों को कर्ज संबंधी आर्थिक सुधारों और ढांचागत समायोजन नीतियों के द्वारा दबाया नहीं जा सकता...''

आईएमएफ द्वारा लागू की गई नीतियां, सरकारों की कार्यक्रमों को लागू करने की वैधता और मानव अधिकारों पर हावी हो रही हैं। व्यवहार में ढांचागत समायोजन कार्यक्रम घरेलू स्तर पर मैक्रो-इकॉनोमिक मानकों को लागू करने में अपनी सीमाओं को भी लांघ गए हैं। यह साफ तौर पर राजनीतिक साजिश है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक बदलाव की सोची समी रणनीति है जिसका मकसद पूरी पृथ्वी को खेल का एक ऐसा मैदान बनाना है, जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना खेल खेलने की पूरी छूट हो। यानी ढांचागत समायोजन कार्यक्रम पूरी तरह से एक 'ट्रांसमिशन बेल्ट' की तरह काम कर रहे हैं ताकि राष्ट्रीय विकास में राज्य की भूमिका और नियमों में कमी और उदारीकरण पर टिके वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया जा सके।

संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग ने भी कहा है कि ढांचागत समायोजन नीतियां विकासशील देशों की राष्ट्रीय विकास की उन नीतियों को लागू करने की योग्यता को बुरी तरह से प्रभावित कर रही हैं, जिनका मुख्य लक्ष्य स्थानीय लोगों के जीवन स्तर को सुधारकर मानव अधिकारों, खासतौर से आर्थिक, सामजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का सम्मान करना है।

एक स्वतंत्र विशेषज्ञ बर्नार्ड मुहडो के मुताबिक ' ढ़ांचागत समायोजन कार्यक्रम- एक ऐसी नीति है जिसे आईएमएफ और विश्वबैंक के डायरेक्टर जान-बूकर लागू कर रहे हैं, जिसका आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से खासतौर से- स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, अन्न, सुरक्षा आदि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

विशेषज्ञ का यह भी मानना है कि आईएफआई (संस्थागत विदेशी निवेशक) द्वारा अपनाई गई इन नीतियों के खिलाफ नागरिकों ने विरोध आंदोलन भी किए हैं, जिन्हें सरकारें और सरकारी अधिकारी, इन कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिये कुचल रहे हैं। इन कार्यक्रमों में पानी, ऊर्जा, सरकारी परिवहन, अस्पतालों का निजीकरण करना, दवाइयों की बेइन्तहा कीमतें, निवेश और प्राकृतिक संसाधनों के मामलों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों (और अन्य बुनियादी जरूरतों) हितों की रक्षा करना आदि शामिल हैं। इस प्रकार सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों के हनन और नागरिक व राजनीतिक अधिकारों के हनन के बीच एक गहरा संबंध है। राज्य के अधिकारियों को अधिकारों का हनन करते हुए देखकर आईएमएफ और विश्वबैंक को चाहिए कि वह उन्हें उनकी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी का एहसास कराए कि उन्हें नागरिक व राजनीतिक अधिकारों और मानव अधिकारों की रक्षा करनी है। ऐसे मानक अपनाने की बजाय, उल्टे ये संस्थाएं तो खुद ही हनन करने में लगी हैं। आईएमएफ के निवेशकों के साथ हुई एक बैठक में स्वतंत्र विशेषज्ञ ने इस बात का खुलासा किया- ''...मानव अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर किसी कार्यक्रम को रोक देना तो आईएमएफ के लिए बुध्दिमत्ता का काम नहीं है।'' यह तो बड़ा ही गंभीर मामला है, ये संस्थाएं तो ऐसे व्यवहार करने लगी हैं गोया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं बनती, ये सिर्फ और सिर्फ व्यापार और निवेश समौतों से ही जुड़ी हैं। निश्चित रूप से इनका मकसद साफ है।

1999 में मानव अधिकार आयोग द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ ने इस बात का पता लगाया कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में वित्तीय संस्थाओं की भूमिका क्या है? अंतरराष्ट्रीय कानून में मानव अधिकारों की रक्षा करने वाले बुनियादी और मूलभूत कानूनी सिध्दांत दिए गए हैं जो अंतरराष्ट्रीय कानून के सभी विषयों पर लागू होते हैं।

राज्य, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं और निहित स्वार्थ-
विश्व बैंक और आईएमएफ भी अलग नहीं है; इन संस्थाओं से आने वाले फैसले- हाड़-मांस से बने आदमी या औरत ही होते हैं जो अपने राज्य या राज्यों के समूह के प्रतिनिधि बनकर काम करते हैं। राज्य खुद ही संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजों से बंधे हैं, लेकिन विश्वबैंक और आईएमएफ के सदस्य देश भी इसी तरह मानव अधिकार संबंधी निर्णयों के मामलों में कानूनी रूप से बाध्य हैं।

इसे आगे भी देखा जा सकता है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, जी-8 और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का शुक्रगुजार होना चाहिए कि राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारी अधिकारियों ने आर्थिक और सामाजिक मामलों में खुद ही अपनी शक्तियां कम कर ली हैं। राज्य भी मानव अधिकारों को सुरक्षित करने के बजाय प्राइवेट स्वार्थों को पूरा करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं।

विश्व बैंक का तर्क है कि गरीबी और विकास न होने की समस्या की जड़ सरकारी अधिकारियों का सामाजिक और आर्थिक कार्यों में जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप है, क्योंकि इससे वे प्राइवेट सेक्टर के व्यापार और कार्यों में बाधा डाल रहे हैं। 'प्राइवेट सेक्टर डेवलपमेंट' शीर्षक से उपलब्ध दस्तावेजों में यह बात साफ हो जाती है। इन दस्तावेजों में विश्वबैंक के अध्यक्ष का कहना है, ''गरीबी हटाने और स्थायी विकास के लिए, निजी क्षेत्रों द्वारा लाया गया विकास जरूरी है।''

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को सौंपी गई रिपोर्ट में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं राज्यों पर आरोप लगाती हैं कि आजकल आमतौर पर सरकारों को बहुत सारी जिम्मेदारियां सौंप दी जाती है, बिना यह सोचे कि विकास में राज्य की भूमिका का विचार अब पुराना और महत्वहीन हो गया है, क्योंकि भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्रीय सरकारों के पास अब वे औजार और संसाधन नहीं हैं, जो पहले कभी उनके पास हुआ करते थे। चूंकि अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों, वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था की भूमिका और आधुनिक विश्व में शासन व्यवस्था और इन व्यवस्थाओं की जिम्मेदारियों को भी अंकित नहीं गया गया है तो ऐसे में अंतरराष्ट्रीय माहौल में उठने वाली समस्याओं, कठिनाइयों और मसलों के लिए सरकारों पर आरोप लगाया गया है। इस तरह की सोच न तो उद्देश्यात्मक है न ही निष्पक्ष है, खासतौर से विकासशील देशों के लिए, जिनका अंतरराष्ट्रीय मंच पर लिए गए फैसलों में शायद बहुत थोड़ा ही हिस्सा होता है, फिर भी विकास में बाधा डालने के लिए उन्हें दोषी करार दिया जाता है, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही असमानताओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है।'' इसलिए ऐसे माहौल में जबकि आईएमएफ और विश्वबैंक के मानकों और बहुपक्षीय व्यापार नियमों को लागू किया जा रहा है, तब मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए अकेले राज्यों को दोषी ठहराना बिल्कुल गलत है।

हालांकि यह शोध-प्रबंध आईएमएफ और विश्व बैंक में भी बांटा गया है : 'द रियल विलेन्स इन द ह्यूमैन राइट्स स्टोरी आर द मेम्बर स्टेट्स- टेकन इनडिविजुअली' यानी राज्य ही मानव अधिकारों का उल्लंघन करने वाले असली खलनायक हैं, क्योंकि इन संस्थाओं की नीतियों को लागू करने का अंतिम निर्णय ये ही लेते हैं।

अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार आप जिम्मेदारी से मुकर नहीं सकते।

आईएमएफ, विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओ ऐसे अंतरराष्ट्रीय संगठन हैं, जिनका अंतरराष्ट्रीय कानूनी अस्तित्व है, उनकी अपनी संस्थाएं हैं, बुनियादी समौते या सन्धि के आधार पर उन्हें न्यायिक शक्ति भी प्राप्त है। मुख्य बात तो यह है कि अंतरराष्ट्रीय संगठन होने के नाते उनके अधिकार औरर् कत्तव्य भी हैं।

यह कहने की बात नहीं है कि कोई भी गंभीर निकाय या अंतरराष्ट्रीय संगठन अंतरराष्ट्रीय कानून के विषय के अनुसार काम करने का दावा नहीं कर सकता। वाद-योग्यता और कानूनी अस्तित्व रखने वाला कोई भी अंतर राष्ट्रीय संग्ठन अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकता, खासतौर पर मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए शासन करने वाले संगठन तो जवाबदेही से पीछा नहीं छुड़ा सकते। अंतरराष्ट्रीय कानून का विषय होने के नाते सभी अंतरराष्ट्रीय संगठन यहां तक कि मानव अधिकारों की रक्षा करने वाले नियम भी एक ही अंतरराष्ट्रीय कानून से बंधे हैं।

मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा-
अंतरराष्ट्रीय परम्परागत कानून में वर्णित मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा अपने नाम के अनुसार ही सब पर लागू होती है। सभी राज्य और अंतरराष्ट्रीय कानून के विषय अपने विशिष्ट कार्यों की कार्रवाही और जवाबदेही के मामलों में इसके अधीन हैं। कोई भी अंतरराष्ट्रीय संगठन अपने सदस्यों द्वारा प्रमाणित अंतरराष्ट्रीय समौतों संबंधी मामलों की जवाबदेही से बचने के लिए मानव अधिकारों के संबंध में किसी नियम प्रक्रिया की आड़ नहीं ले सकता।

इसलिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की यह जिम्मेदारी है कि वे मानव अधिकारों के पूर्ण प्रयोग के लिए उचित वातावरण बनाएं और साथ ही इन अधिकारों की सुरक्षा और कार्यान्वयन भी करें। हालांकि 'ढांचागत समायोजन कार्यक्रम' आज इस सिध्दांत से हट गए हैं। हालांकि इनका नाम बदलकर 'गरीबी विरोधी रणनीति' कर दिया गया है, विश्वबैंक के अनुसार आर्थिक वृध्दि स्वत: ही विकास लाएगी, हालांकि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रिपोर्ट इसके विपरीत कहती है; ''अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रस्तावित तथा-कथित आर्थिक वृध्दि जहां एक ओर साधन-संपन्न वर्ग को लाभ पहुंचा रही है; वहीं तीसरे विश्व को परनिर्भरता की स्थिति में ला खड़ा किया है।'' इसके अलावा व्यवहार में जिस तरह की आर्थिक वृध्दि का रास्ता अपनाया जा रहा है, वह पर्यावरण की सुरक्षा के लिए भी ठीक नहीं है।

विकास के अधिकार की घोषणा- पेटेंट असफलता के बावजूद, विश्व बैंक द्वारा अपनाया गया विकास का दृष्टिकोण, 1986 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाए गए सामाजिक रूप से उत्कृष्ट और प्रशंसनीय 'विकास के अधिकार की घोषणा' प्रपत्र से भी मेल नहीं खाता।

अनु. 1: 1. विकास का अधिकार मानव अधिकारों से अलग नहीं है...

अनु. 1. : 2, विकास के मानवीय अधिकार का मतलब है- लोगों के आत्म-निर्णय के अधिकार को पूर्ण मान्यता देना, जिसमें (.........) उनका अपनी प्राकृतिक सम्पदा और संसाधनों पर पूर्ण स्वामित्व का अधिकार भी अनिवार्य रूप से शामिल है।

अनु. 3 : 2, विकास के अधिकारों की मान्यता में अंतरराष्ट्रीय कानून के सिध्दांतों का पूर्ण सम्मान भी शामिल है...

अनु. 8 : 1. विकास के अधिकार को स्वीकार करने के लिए राज्यों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर सभी आवश्यक मापदंडों को अपनाया जाना चाहिए... सभी सामाजिक अन्यायों को समूल नष्ट करने के विचार से उचित आर्थिक और सामाजिक सुधारों को अपनाया जाना चाहिए।


मार्च 1981 में पहली बार संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग ने आर्थिक और सामाजिक परिषद के सामने, विकास के अधिकार पर काम करने वाले पहले समूह की स्थापना का प्रस्ताव रखा। यह समूह कई बार मिला और परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र महासभा के रिजोल्यूशन (संकल्प) 41/128 को चार दिसम्बर, 1986 को स्वीकार कर लिया गया, जिसे बाद में 'विकास के अधिकार की घोषणा' के रूप में जाना गया। ''केवल एक देश- अमरीका ने इसके खिलाफ मतदान किया, उसका तर्क था कि यह घोषणा भ्रमित करने वाली और विस्तृत है और विकास और नि:शस्त्रीकरण के बीच के संबंध और साथ ही विकसित उत्तर से विकासशील दक्षिण में संसाधनों के हस्तांतरण को भी नकारती है।
आठ देशों- डेनमार्क, फिनलैंड, संघीय-जर्मनी, आइसलैंड, इजरायल, जापान, स्वीडन और ग्रेट ब्रिटेन को भी इससे परहेज था, उन्होंने लोगों के अधिकारों के ऊपर व्यक्तिगत अधिकारों की पहल पर बल दिया और गरीबों के विकास के लिए सहायता को नकारते हुए अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत बाध्यता को भी नकार दिया।''


संयुक्त राष्ट्र और विशिष्ट एजेंसियों का चार्टर- हालांकि यह संयुक्त राष्ट्र महासभा का रिजोल्यूशन है फिर भी, व्यवहारिक तौर पर विकास के अधिकार की घोषणा अंतरराष्ट्रीय संधियों के दबाव से नहीं बंधी हैं। लेकिन अन्य प्रलेख यह भूमिका निभा सकते हैं : संयुक्त राष्ट्र का चार्टर (प्रस्तावना, पैरा 3, अनुच्छेद 1, अनु. 55 और अनु. 56) न केवल संयुक्त राष्ट्र का निर्माण करने वाला दस्तावेज है बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय संधि है, जिसमें अंतराष्ट्रीय संबंधों के मौलिक सिध्दांत भी इंगित किए गए हैं।

नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के दो समौते विकास के अधिकार से संबंधित मानदंडों के लेख भी है : इन समौतें में व्यक्त किए गए सभी अधिकार विकास के अधिकार में शामिल होते हैं।

संयुक्त राष्ट्र का मुख्य लेख व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों, विकास के अधिकार और राज्यों की राजनीतिक और आर्थिक सम्प्रभुता से संबंधित है। हालांकि व्यवहार में न केवल विश्वबैंक बल्कि आईएमएफ, डब्ल्यूटीओ और बहुराष्ट्रीय कंपनियां लगातार इनकी शर्तों को नकार रही हैं।

ये संस्थाएं अभी तक बिना किसी डर के दण्ड से भी बची हुई हैं, क्योंकि वर्तमान कानून में ही खामियां हैं। यह सही है कि इसमें व्यक्तिगत मानव अधिकारों और मानवता के खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए वाद-योग्यता और अन्य उपाय हैं, लेकिन आर्थिक अपराधों जैसे अन्य अपराध- जिनकी मार दुनिया के बहुत से लोग झेेल रहे हैं; के खिलाफ किसी भी अंतरराष्ट्रीय न्यायिक प्रक्रिया, समौते या अंतरराष्ट्रीय परिभाषा में कोई जगह नहीं है।

विश्व बैंक- संयुक्त राष्ट्र की विशेष एजेंसी- वास्तव में संयुक्त राष्ट्र संघ की परिभाषा के अनुसार विश्व बैंक ''अंतर्शासकीय समझौते द्वारा स्थापित विशेष एजेंसियों में से एक है, जिनकी बहुत सी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियां हैं ..............उनके विशेष-उपक्रमों में, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य और संबंधित क्षेत्र हैं, जैसा कि परिभाषित किया गया है।'' इस प्रकार परिभाषा के अनुसार विश्वबैंक आर्थिक और सामाजिक परिषद के द्वारा संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था से जुड़ा है, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र की घोषणा. के अनुच्छेद 57, पैरा 1 में कहा गया है।

संयुक्त राष्ट्र संघ-व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय सहयोग, खासकर आर्थिक और सामाजिक सहयोग पर आधारित है। अनुच्छेद 55 के तहत, राष्ट्रों के बीच सभी लोगों के आत्म-निर्णय और समान अधिकारों के सिध्दांत के सम्मान पर टिके शांतिपूर्ण और मैत्री संबंधों के निर्माण के लिए आवश्यक सम्पन्नता और स्थायित्व की परिस्थितियों के निर्माण के लिए संयुक्त राष्ट्र ये काम करेगा............
(1) उच्च जीवन स्तर, पूर्ण रोजगार और आर्थिक और सामाजिक प्रगति और विकास के लिए परिस्थितियों का निर्माण,
(2) अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का समाधान और अंतरराष्ट्रीय और सांस्कृतिक सहयोग;
(3) मानव अधिकारों और जाति, लिंग, भाषा और धर्म के भेदभाव के बिना सभी की बुनियादी स्वतंत्रता के लिए सम्मान और सुगमता


संयुक्त राष्ट्र की पूरी व्यवस्था निम्न सिध्दांतों पर टिकी है-

1. सभी सदस्य राष्ट्रों के लिए समान सम्प्रभुता।
2. घोषणापत्र की शर्तों के अनुसार सभी सदस्यों द्वारा सद्भावना से जिम्मेदारियों का निर्वाह।

ऐतिहासिक दृष्टि से आईएमएफ और विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र की विशिष्ट एजेंसियां हैं तो वे भी संयुक्त राष्ट्र के इस घोषणा पत्र से बंधी हैं। इन तथ्यों की रोशनी में, यह प्रश्न उभरता है : क्या विश्व बैंक और आईएमएफ संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र में दिए गएर् कत्तव्यों, मानव अधिकारों संबंधीर् कत्तव्यों के संबंध में कानूनी रूप से बाध्य हैं?

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने 'बार्सिलोन ट्रेक्शन एंड ईस्ट टाइमर' केस में स्पष्ट निर्णय दिया : विश्वबैंक के अनुच्छेदों पर परम्परागत-कानून में व्यक्त सभी उत्तरदायित्व लागू होते हैं।

इन उत्तरदायित्वों को बाध्यकारी-कानून भी कहा जाता है, यानी अंतरराष्ट्रीय कानून के नियम, उनकी प्रकृति चाहे कुछ भी हो, कानूनी दृष्टि से हमेशा बाध्यकारी हैं, इनका उल्लंघन होने पर कानूनी कार्यवाही की जाती है।

उदाहरण के तौर पर, इनमें राज्यों की समान सम्प्रभुता, बल प्रयोग का निषेध, लोगों की सशस्त्र अनुपस्थिति के सिध्दांत सभी बाध्यकारी उत्तरदायित्व हैं। कुछ कानून तो अंतरराष्ट्रीय लोक निर्देशों का अभिन्न अंग हैं, जिनमें कोई भी विषय नहीं बचा है, चाहे वह किसी संधि से जुड़ा हो या नहीं।

हालांकि यह सच है कि कार्यान्वयन के स्तर पर विश्वबैंक और आईएमएफ संयुक्त राष्ट्र संघ से स्वतंत्र हैं, लेकिन फिर भी आमतौर पर परम्परागत कानूनों और मानवाधिकारों का सम्मान करना उनकार् कत्तव्य है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को मानवाधिकारों की बाध्यता प्रावधान को अपने सिध्दांतों के अमल में शामिल कर लेना चाहिए: अंतरराष्ट्रीय कानून का कोई भी विषय 'व्याख्या के अभाव' के बहाने बनाकर उत्तरदायित्वों से बचाया नहीं जा सकता।


इस अंतिम पहलू पर एरिक डेविड बल देते हुए कहते हैं- अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं पर लागू नियमों का जहां तक संबंध हैं ''आर्थिक और सामाजिक बदहाली से प्रभावित अधिकार, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार हैं। ऐसी परिस्थितियां भिन्न आबादी द्वारा उपयोग किये जाने वाले अधिकार के पूर्ण प्रयोग के लिए खतरा पैदा करती हैं।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बहुत ज्यादा गरीबी भी सभी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के उल्लंघन का कारण है। वह आगे कहते हैं : ''यदि सैप द्वारा प्रभावित अधिकार मुख्य रूप से आर्थिक और सामाजिक अधिकार हैं तो इन अधिकारों के उल्लंघन का मुद्दा भी प्रधानता से उठता है।

निष्कर्ष- न तो विश्व बैंक और न ही आईएमएफ को इतनी छूट होनी चाहिए कि वे मानवाधिकारों की रक्षा के दायित्व से बचने के लिए ''संवैधानिक अधिकार का सहारा लें, या फिर अपने निर्णयों को केवल आर्थिक सोच द्वारा निर्देशित कहकर बहाना बनाएं। यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ''ब्रेटन वुड्स संस्थाओं द्वारा अपनाई गई नीतियों में, जिनका कार्यक्षेत्र पूरी पृथ्वी है, लोगों के जीवन और मूलभूत अधिकारों के शोषण की दिशा निहित है।'' - प्रस्तुति मीनाक्षी अरोड़ा

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