विकासशील देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां-कंवलजीत सिंह

नब्बे के दशक में अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में काफ़ी बदलाव आया। मध्य 90 में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां विकासशील देशों से उभर कर आर्इं। जहाँ एक तरफ ये कंपनियां विकासशील देशों में तो निवेश कर रही हैं, वहीं उलटे ये विकसित देशों में भी बड़े पैमाने पर निवेश कर रही हैं। इनका प्रत्यक्ष विदेशी निवेश विकासशील और विकसित देशों में तेजी के साथ बढ़ा है। इसका परिणाम हुआ है कि विकसित देशों के द्वारा विकासशील देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से ज्यादा आज विकासशील देश विकसित देशों में निवेश कर रहे हैं।

विदेशी सम्पत्ति के लिहाज से मुख्य 50 विकासशील देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के 32 मुख्यालय एशिया में है, उसके बाद लातिनी अमेरिका में 11 और दक्षिण अफ्रीका में 7। दिलचस्प बात यह है कि जिन देशों (चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफि्रक़ा और मैक्सिको) में सबसे ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो रहा है, वही देश दूसरे देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कर रहे हैं। चीन का ही उदाहरण लें, चीन का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 1980 में 400 मिलियन डॉलर से 2004 में 38 बिलियन डॉलर का हो गया। अमेरिका के बाद चीन ने अफ्रीका में सबसे ज्यादा निवेश किया हुआ है। वहीं भारत ने 2005 मेंं 4.3 बिलियन डॉलर दूसरे देशों में निवेश किया। यह निवेश लगभग भारत में किए गए सभी विदेशी निवेश के बराबर है। अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों के उठ जाने और पूँजी में अधिकार में छूट मिलने के बाद दक्षिण अफ्रीका की बहुराष्ट्रीय कंपनी जैसे एंग्लो अमेरिकन कारपोरेशन, डीबीयर्स, तथा सबमिलर ऐसे ही नाम हैं। सबमिलर के सीईओ मैके के शब्दों में 'अगर और अफ्रीका होते तो हम वहां निवेश जरूर करते, क्योंकि वहां से लाभांश अधिक हैं।'

विकासशील देशों की कम्पनियों के निवेश करने के कारण विकसित देशों की कम्पनियों से अलग नहीं है। भूमण्डलीकरण और प्रतियोगिता के दौर ने इन्हें अन्य देशों में निवेश करने को प्रेरित किया है ताकि ये वहां के प्राकृतिक संसाधन, बाजार, तकनीक पर काबिज हो सकें। कुछ मामलों में जैसे चीन की लीनोवो द्वारा आईबीएम के अधिग्रहण के पीछे मुख्य वजह ब्रंाड नाम का चक्कर है।

विदेशों में निवेश यही दर्शाता है कि विकासशील देशों का वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ाव तेजी से हुआ है। क्षेत्रीय जुड़ाव, व्यापार एवं निवेश में करार, व्यापार एवं आर्थिक उदारीकरण, अधिक से अधिक धन की चाह तथा सीमित ञ्रेलू बाजार ने विदेशों में निवेश करने के लिए प्रेरित किया है। बजाय नया कारखाना लगाने के विकासशील देश अपना निवेश अधिग्रहण के माध्यम से कर रहे हैं। जैसा कि हाल ही में हुए कुछ सौदे (बीजिंग की लीनोवो द्वारा आईबीएम का अधिग्रहण, मैक्सिको की सीमैक्स द्वारा ब्रिटेन की आरसीएम का अधिग्रहण) यह दर्शातें हैं कि कम्पनियां विलय-और-अधिग्रहण डील्स की नीति अपना रही हैं। भारतीय कंपनियां भी विलय-और-अधिग्रहण की नीतियां ही अपना रही हैं। भारत ने मुख्यत: दूरसंचार, ऊर्जा एवं दवाइयों के क्षेत्र में विदेशों में निवेश किया है। भले ही विकासशील देशों ने विदेशों में कुछ अरब का ही निवेश किया हो, परन्तु इसे विदेशों में व्यापार की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता है।

विश्वबैंक के आयुक्त जोसेफ बट्टाट और दिलेक आइकुट के मुताबिक विकासशील देशों से विकासशील देशों में जहां 1995 में 15 अरब डॉलर का निवेश था; वह 2001 में बढ़कर डॉलर 46 अरब का हो गया जो कि विकासशील देशों में हुए वित्त निवेश का 35 प्रतिशत था। हालांकि इतना कम प्रतिशत होने के बावजूद भी यह मंगोलिया एवं नेपाल जैसे छोटे देशों के लिए महत्वपूर्ण होता है। दक्षिण-दक्षिण देशों में निवेश क्षेत्रीय है। मसलन चीन का 2/3 प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हांककांग, सिंगापुर एवं ताईवान से होता है। ऐसे ही चिली, ब्राजील एवं अर्जेंटीना की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां लैटिन अमेरिका में व्यापार करती हैं। रूस का निवेश उन राष्ट्रों में हैं, जो कभी अविभाजित रूस का भाग थे।

इसके साथ ही विकासशील देशों का निवेश कहीं भी मूलभूत सुविधाएं, खनिज और तेल के क्षेत्रों में ही होता है। इस तरह के निवेश में सरकारी कम्पनियों का ज्यादा निवेश होता है। चीन एवं भारत की कई सरकारी कम्पनियों ने अफ्रीका के सहारा मध्य एशिया एवं लैटिन अमेरिका की कई कम्पनियों का अधिग्रहण कर लिया है। चीन ने लगभग आधा निवेश लेटिन अमेरिका के प्राकृतिक संसाधनों को अधिग्रहण करने में किया है। इसी तरह भारत की ओएनजीसी ने रूस एवं अंगोला के तेल एवं गैस के क्षेत्र में निवेश किया है।

इस तरह का निवेश मात्र आर्थिक नीतियों के लिए ही नहीं, बल्कि राजनीतिक एव कूटनीतिक संबंधों के लिए भी होते हैं। उदाहरण के लिये चीन द्वारा अफ्रीका में अरबों रुपए का निवेश (जिससे कंपनियां वहां तेल रिफाइनरी, बांध, सड़क और बुनियादी सुविधाएं बना रही हैं) के पीछे आर्थिक कारण के बजाए कूटनीति छिपी है। वह इन सबके माध्यम से विश्व में अपनी अच्छी छवि बना रहा है और ताइवान को विश्व में अलग-थलग करके कब्जा करना चाहता है। (ताईवान जिसके 26 देशों से राजनयिक संबंध है उनमें से 7 अफ्रीका के हैं।)

विदेशों में निवेश के लिए विकासशील देशों की सरकारें वहां के उद्योगपतियों की मदद कर रही हैं, जिससे वे बाहर निवेश कर सकें- चीन, मलेशिया, थाईलैण्ड एवं सिंगापुर ने कई ऐसी नीतियां बनाई है जिसमें से एक ''इन्श्योरेंस अगेन्सट रिस्क थ्रू क्रैडिट गारंटी'' है।

चीन सरकार ने 2004 में 'गो-ग्लोबल' नामक नीति बनाई, जिससे कम्पनियों को विदेशों में निवेश के लिए प्रेरित किया जा रहा है। इसके लिए वहां का आयात एवं निर्यात बैंक ऋण उपलब्ध कराता है। सहायता प्राप्त देशों में निवेश के लिए प्रमुखता से ऋण दिया जाता है। आर्थिक रियायत भी दी जाती है जिससे वह अपने लिए उपकरण ले सकें। 'साउथ-अफ्रीकन डेवलपमेंट कम्यूनिटी', 'एसोसिएशन ऑव साउथ-ईस्ट एशियन नेशन' भी कई तरह की राजकोषीय प्रोत्साहन जैसे करों एवं शुल्क में निवेश के लिए छूट देती हैं। विकासशील देशों में राजकोषीय एवं आर्थिक मदद के अलावा द्विपक्षीय निवेश करार, दोहरा कर छूट नीति जैसे करारों की प्रवृति तेजी से बढ़ रही है।

कुछ विकासशील देशों की कम्पनियों ने ऑस्ट्रेलिया एवं कनाडा जैसे विकसित देशों में भी निवेश किया है। इसमें बुनियादी क्षेत्र के अलावा विलय-और-अधिग्रहण पर निवेश किया है। जैसे चीन की कई कंपनियाँ ने कई ब्रांडेड ञ्रेलू सामान बनाने वाली कम्पनियों थामसन, आरसीए, आईबीएम का अधिग्रहण किया है। विकासशील देशों की कम्पनियां जहां रियायतें ज्यादा हों, उन विकसित देशों में ज्यादा निवेश करती हैं। दी केमैन, बरमूडा और साईप्रस मुख्य देश हैं जहां भारत, ब्राजील एवं रूस निवेश करना पसंद करते हैं। हांककांग चीन को अन्तरराष्ट्रीय बाजार में काबिज कराने में मुख्य भूमिका निभा रहा है। परन्तु हाल ही में हुए उत्तर-दक्षिण के कई समझौतों में उत्तर में राजनीतिक तनाव उत्पन्न हो गया है। जैसे चीनी कंपनी नेशनल ऑकशोर ओयल कार्पोरेशन के अमरीकी कंपनी यूनोकल के अधिग्रहण के प्रस्ताव से उत्तर के नीति-निर्माता नाखुश हो गए।

ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि विकासशील देश पूंजी के आयातकर्ता हैं और विकासशील देशों की नीतियां उनसे भिन्न हैं। यहाँ के नीतिकार अपने देश के हितों और जिन देशों में निवेश कर रहे हैं, के मध्य सामंजस्य बैठाने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं।

विकासशील देशों से हो रहे निवेश को किस तरह लिया जाए? क्या विकासशील देशों का विकासशील देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, निवेशक देश के पक्ष में हैं ? क्या इनकी नीतियां विकसित देशों से अलग हैं? विकसित देशों के मुकाबले इनके यहां कितनी पारदर्शिता और पर्यावरण एवं श्रम मानक क्या हैं? इनके निवेश का विकास पर क्या असर होगा? दक्षिण-दक्षिण निवेश से किसको फायदा होगा और किसको नुक्सान क्या दक्षिण-दक्षिण निवेश ,उत्तर-दक्षिण निवेश का विकल्प हो सकता है? दुर्भाग्यवश हमारे पास विश्वस्त आंकड़े न होने की वजह से इन प्रश्नों के जवाब ठीक-ठीक नहीं दिए जा सकते। जानकारी के अभाव के बावजूद भी एक चीज तंय है कि आने वाले समय में यह नए तरह का निवेश बहुराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाने जा रहा है। (पीएनएन) प्रस्तुति-मीनाक्षी अरोड़ा

1 टिप्पणी:

Sanjay Tiwari ने कहा…

अच्छा लेख है.

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