-प्रोफेसर माइकल गोल्डमैन (मिनिसोटा विश्वविद्यालय)
वोल्फोविट्ज के बाद विश्वबैंक के ग्यारहवें अध्यक्ष बने अमरीका के पूर्व व्यापार-वाणिज्य प्रतिनिधि राबर्ट जोएलिक विश्बबैंक को उस शर्मिंदगी से उबारने की कोशिश कर रहे हैं जो वोल्फोविट्ज के कारण बैंक के चेहरे पर छा गई थी। ऐसे में एक सवाल तो जोएलिक से पूछा ही जा सकता है कि वोल्फोविट्ज की गललियों से क्या कुछ उन्होंने सीखा-समझा है? और क्या कुछ बदलने की तमन्ना वे अपने दिल में रखते हैं? वाशिंगटन डीसी के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि बैंक की समस्या है कि वह मूल लक्ष्य के अलावा बहुत सारे कामों को अंजाम देता रहता है और वह भी केंचुआ चाल से जमीन पर घिसटते हुए। आलोचकों का कहना है कि विश्व बैंक को अपने मूल एजेंडे पर वापस लौट जाना चाहिए और उन्हीं लक्ष्यों को हासिल करना चाहिए जिसके लिए इसकी स्थापना हुई थी। उसे उन सरकारों के ढांचागत विकास में मदद करनी चाहिए जिनके पास ढांचागत विकास के लिए पैसे नहीं हैं। तो क्या इतना भर कर देने से विश्व बैंक अपने हित साधन कर लेता है? उसका ऐतिहासिक दायित्व पूरा हो जाता है?
विश्वबैंक का इतिहास
आइये सबसे पहले विश्वबैंक का इतिहास देखते हैं। विश्वबैंक का इतिहास ........... हालांकि आज बैंक को एक ऐसी विकासात्मक संस्था के रूप में जाना जाता है जो आत्म-निर्भरता के सिध्दांत पर काम करती है और ''गरीबों को सिखाती है कि उन्हें ऊपर कैसे उठना है'' अपने शुरुआती 22 वर्षों तक भी विश्व बैंक का 'गरीबी हटाने' जैसे कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं था। विश्व बैंक ने 1946 में अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ( जिस पर उत्तरी देश हावी थे) के पुनर्निर्माण के लिये उपनिवेशों में बिजली, परिवहन और कच्चा माल बनाने वाले उद्योगों के आवश्यक पुनर्निर्माण के लिए उत्तरी फर्मों से सामान और सेवाएं खरीदना-क्रय शुरू किया, जिसके लिये बैंक को लोन के बदले में मिलने वाली ब्याज राशि का इस्तेमाल किया गया। यह 'क्रय-शक्ति' बैंक की 'मतदान- शक्ति' में भी नजर आई। पांच महाशक्तियों- अमरीका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी और फ्रांस ने बैंक में ज्यादातर मतों पर नियंत्रण कायम कर लिया । जबकि अफ्रीकी महाद्वीप को एक भी मत प्राप्त नहीं था। उपनिवेशवाद के इन अंतिम वर्षों में, ऐसा साम्राज्यवादी व्यवहार लंदन, पेरिस और वाशिंगटन डीसी में सामान्य बात थी।
आज के परिदृश्य में विश्वबैंक के रवैये में थोड़ा बहुत ही बदलाव आया है : अब भी उत्तरी देशों की फर्मों को ही ज्यादातर विदेशी कांट्रेक्ट मिलते हैं। 2003 में केवल इन पांच महाशक्तियों की फर्मों को मिलने वाले कांट्रेक्ट 45 फीसदी थे। गरीब देशों को जो कर्ज दिया जाता है, ऊंची ब्याज दरों पर; और वह भी इन उत्तरी फर्मों के पास ही लौट जाता है, क्योंकि कर्ज ऊंचे मूल्य वाली मुद्राओं- येन, डॉलर, और यूरो में चुकाना पड़ता है। आज भी मतदान व्यवस्था असमानता का ही पोषण कर रही है : अब भी ये पांच महाशक्तियां ही विश्व बैंक के 38 फीसदी यानी एक-तिहाई से भी ज्यादा मतों को नियंत्रित कर रही हैं और अन्य पश्चिमी यूरोपीय पार्टनरों का हिस्सा भी कुल 43 फीसदी है, जबकि वे देश जिनके विकास के नाम पर सारा खेल खेला जा रहा है-सहारा उपमहाद्वीप के अफ्रीकी देशों की मतों में भागीदारी मात्र 5 फीसदी है जो न के बराबर है। शक्ति की इस असमानता का ही परिणाम है कि पिछले कुछ दशकों से दक्षिण के देशों का पूंजी प्रवाह उत्तरी देशों में हो रहा है। इसी तथाकथित विकास को हम बैंक की महान उपलब्धि का नाम देते हैं, और विकास के 'ज्ञान उत्पादन' के व्यवसाय में बैंक और इसके उद्देश्य को पूरा करने वाले विकास के व्यवसायियों के प्रभुत्व का समर्थन कर रहे हैं।
स्थानीय स्तर पर जहां भी विश्व बैंक की योजनाएं काम कर रही हैं, वहां भी ये ढांचागत असमानता स्वत: पैदा हो रही हैं। उदाहरण के तौर पर, आज भारत में विश्वबैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) की प्राथमिकता- 'मेगा-सिटी परियोजनाओं में पैसा लगाना है- (यह हो रहा है, विकेंद्रीकरण, सुशासन और स्थानीय एजेंसियों को साक्ष्य बनाना जैसी नीतियां के नाम पर) और इसके लिए यह भारत के बड़े शहरों में आर्थिक विकास के लिये औद्योगिक कॉम्पलेक्स, सड़कों, पानी, सीवरेज और बिजली जैसे 'नगरीय इन्फ्रास्ट्रक्चर' के लिये करोड़ों डॉलर कर्ज दे रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि इस शहरी विकास से गरीबी दूर होगी, रोजगार बढ़ेंगे और स्वास्थ्य तथा आवासीय सुविधाओं में सुधार होगा, आदि- आदि। लेकिन अगर इस स्ट्रेटेजी को गौर से देखें तो सच्चाई कुछ और ही है। ज्यादातर कर्ज स्थानीय स्तर की जवाबदेह या लोकतांत्रिक एजेंसियों को मिलते ही नहीं हैं बल्कि कुछ ऐसी विशिष्ट एजेंसियों को मिलते हैं जिन्हें वास्तव में बैंक ने लोगों को भ्रमित करने के लिये 'बिजली बोर्ड और जल बोर्ड' के रूप में 'शक्तिशाली' बना रखा है। इन ऋणों का प्रबंधन विशेष रूप से प्राइवेट और मैनेजमेंट कंसल्टेन्टस (बीएनसी) के द्वारा किया जाता है और फायदेमंद कांट्रेक्ट की योजनाओं पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बोली लगाई जाती है, जिसमें ऐसी शर्तें लगी होती हैं, जिनके अनुसार भारतीय कंपनियों को इन सौदों के लिए अयोग्य ठहराया जाता है, जबकि फ्रांस, ब्रिटेन और अमरीका की फर्में डील की बोली में शामिल होती हैं। कौन से ऐसे कारण हैं कि 'साइंस सिटी' और एशिया के सिलिकॉन वैली के रूप में प्रतिष्ठित बंगलौर की सार्वजनिक एजेसियों और व्यवसायियों को अब विदेशी फर्मों को हायर करना पड़ रहा है? क्यों ये एजेंसियां सीवर बनाने और सड़कों को चौड़ा करने के लिये विदेशी मुद्राओं में कर्ज ले रही हैं? 15 सालों तक विश्वबैंक ने इन्फ्रास्ट्रक्चर में सर्वाधिक निवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था, तब सरकारी एजेंसियां बहुत कम बजट में मुश्किल से काम कर रही थीं, लेकिन अब वहां भी पूंजी का अम्बार है, लेकिन वे इसे छू नहीं सकते, क्योंकि एक ओर से पैसा अंदर आता है तो दूसरी ओर से बाहर चला जाता है।
हालांकि हरेक प्रोजेक्ट में ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए, जो शायद ही कभी होती हो। अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट, आईटीकॉरिडोर, हाईवे औद्योगिक कॉम्पलेक्स और 24X 7 पानी और बिजली के वादे जैसे प्रश्न उठते हैं, इन सबसे किसे लाभ पहुंच रहा है? भारत, जो 'वर्ल्ड सिटी' के रूप में उभर रहा है, के संदर्भ में देखें तो यह सब विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) उद्योगों और आईटी सेक्टर के लिये है। हालांकि ये बड़ी फर्में हैं जो कुछ खास टैक्स भी नहीं चुकाती हैं, फिर भी बाजार मूल्य से भी कम दाम पर खरीदी गई जमीन से वे कई गुना पैसा बना रही हैं। इतना ही नहीं 'एक्सपोर्ट प्रोडक्शन' (निर्यात आय) के लिए हथियाई गई जमीन से जो लाखों लोग बेघर हुए हैं, उसकी भी कोई कीमत नहीं चुका रही हैं। आईटी और सेज मुनाफों को यूरोप के बजाय बैंगलोर में पुन: निवेश करने की समझदार-नीति कहां है? इन ऋणों के कारण न केवल रीयल एस्टेट में दाम अचानक बहुत बढ़ा दिये हैं, बल्कि बेघर और उजड़े लोगों के लिये कोई हरजाना तक नहीं है।
क्यों इस सबको विकास का स्वाभाविक परिणाम माना जा रहा है? डॉलरों में ये बड़े-बड़े कर्ज किसको चुकाने होंगे? विश्वबैंक के मूल्यांकन के प्रयास, सुधार या फिर समाप्ति जैसे प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करना होगा। बैंक-शैली पर आधारित विकास के 60 वर्षों बाद भी अगर कर्जदार देश, कर्ज में मिलने वाली रकम से भी ज्यादा बैंक को चुका रहे हैं। अगर लोन आज भी 'एलीट' वर्ग के विकास के लिये ही दिये जाते हैं, और विकास के व्यवसाय में लगी प्रत्येक संस्था -'सरकारी एजेंसी से लेकर बैंक तक' लोकतंत्र और सामाजिक-आर्थिक समानता के बजाय ज्यादा से ज्यादा धनिक होने के सिध्दांतों पर काम करती हैं तो शायद अब अनुकूल समय आ गया है कि जब इनके आधारभूत उद्देश्यों और संरचना पर सार्वजनिक बहस की जाए। इन्हीं कारणों के चलते ज्यादातर लातिन-अमरीकी देश विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के कर्ज-निवेश के उल्टे रास्ते पर जा रहे हैं, अपने कर्ज वापस करके वे बैंक और मुद्राकोष से मुक्त हो रहे हैं। उनके रास्ते का अगला राही दक्षिण एशिया हो सकता है। 21-24 सितम्बर को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में होने वाला 'विश्व बैंक पर जन न्यायाधिकरण” इस बहस को शुरू करने के लिए एक सर्वोत्तम मंच बन सकता है। यह तो तय है कि बैंक के अध्यक्ष जोएलिक के लिये बैंक की अन्यायी संरचना ही व्यवसाय है।
- प्रस्तुति मीनाक्षी अरोड़ा
वोल्फोविट्ज के बाद विश्वबैंक के ग्यारहवें अध्यक्ष बने अमरीका के पूर्व व्यापार-वाणिज्य प्रतिनिधि राबर्ट जोएलिक विश्बबैंक को उस शर्मिंदगी से उबारने की कोशिश कर रहे हैं जो वोल्फोविट्ज के कारण बैंक के चेहरे पर छा गई थी। ऐसे में एक सवाल तो जोएलिक से पूछा ही जा सकता है कि वोल्फोविट्ज की गललियों से क्या कुछ उन्होंने सीखा-समझा है? और क्या कुछ बदलने की तमन्ना वे अपने दिल में रखते हैं? वाशिंगटन डीसी के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि बैंक की समस्या है कि वह मूल लक्ष्य के अलावा बहुत सारे कामों को अंजाम देता रहता है और वह भी केंचुआ चाल से जमीन पर घिसटते हुए। आलोचकों का कहना है कि विश्व बैंक को अपने मूल एजेंडे पर वापस लौट जाना चाहिए और उन्हीं लक्ष्यों को हासिल करना चाहिए जिसके लिए इसकी स्थापना हुई थी। उसे उन सरकारों के ढांचागत विकास में मदद करनी चाहिए जिनके पास ढांचागत विकास के लिए पैसे नहीं हैं। तो क्या इतना भर कर देने से विश्व बैंक अपने हित साधन कर लेता है? उसका ऐतिहासिक दायित्व पूरा हो जाता है?
विश्वबैंक का इतिहास
आइये सबसे पहले विश्वबैंक का इतिहास देखते हैं। विश्वबैंक का इतिहास ........... हालांकि आज बैंक को एक ऐसी विकासात्मक संस्था के रूप में जाना जाता है जो आत्म-निर्भरता के सिध्दांत पर काम करती है और ''गरीबों को सिखाती है कि उन्हें ऊपर कैसे उठना है'' अपने शुरुआती 22 वर्षों तक भी विश्व बैंक का 'गरीबी हटाने' जैसे कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं था। विश्व बैंक ने 1946 में अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ( जिस पर उत्तरी देश हावी थे) के पुनर्निर्माण के लिये उपनिवेशों में बिजली, परिवहन और कच्चा माल बनाने वाले उद्योगों के आवश्यक पुनर्निर्माण के लिए उत्तरी फर्मों से सामान और सेवाएं खरीदना-क्रय शुरू किया, जिसके लिये बैंक को लोन के बदले में मिलने वाली ब्याज राशि का इस्तेमाल किया गया। यह 'क्रय-शक्ति' बैंक की 'मतदान- शक्ति' में भी नजर आई। पांच महाशक्तियों- अमरीका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी और फ्रांस ने बैंक में ज्यादातर मतों पर नियंत्रण कायम कर लिया । जबकि अफ्रीकी महाद्वीप को एक भी मत प्राप्त नहीं था। उपनिवेशवाद के इन अंतिम वर्षों में, ऐसा साम्राज्यवादी व्यवहार लंदन, पेरिस और वाशिंगटन डीसी में सामान्य बात थी।
आज के परिदृश्य में विश्वबैंक के रवैये में थोड़ा बहुत ही बदलाव आया है : अब भी उत्तरी देशों की फर्मों को ही ज्यादातर विदेशी कांट्रेक्ट मिलते हैं। 2003 में केवल इन पांच महाशक्तियों की फर्मों को मिलने वाले कांट्रेक्ट 45 फीसदी थे। गरीब देशों को जो कर्ज दिया जाता है, ऊंची ब्याज दरों पर; और वह भी इन उत्तरी फर्मों के पास ही लौट जाता है, क्योंकि कर्ज ऊंचे मूल्य वाली मुद्राओं- येन, डॉलर, और यूरो में चुकाना पड़ता है। आज भी मतदान व्यवस्था असमानता का ही पोषण कर रही है : अब भी ये पांच महाशक्तियां ही विश्व बैंक के 38 फीसदी यानी एक-तिहाई से भी ज्यादा मतों को नियंत्रित कर रही हैं और अन्य पश्चिमी यूरोपीय पार्टनरों का हिस्सा भी कुल 43 फीसदी है, जबकि वे देश जिनके विकास के नाम पर सारा खेल खेला जा रहा है-सहारा उपमहाद्वीप के अफ्रीकी देशों की मतों में भागीदारी मात्र 5 फीसदी है जो न के बराबर है। शक्ति की इस असमानता का ही परिणाम है कि पिछले कुछ दशकों से दक्षिण के देशों का पूंजी प्रवाह उत्तरी देशों में हो रहा है। इसी तथाकथित विकास को हम बैंक की महान उपलब्धि का नाम देते हैं, और विकास के 'ज्ञान उत्पादन' के व्यवसाय में बैंक और इसके उद्देश्य को पूरा करने वाले विकास के व्यवसायियों के प्रभुत्व का समर्थन कर रहे हैं।
स्थानीय स्तर पर जहां भी विश्व बैंक की योजनाएं काम कर रही हैं, वहां भी ये ढांचागत असमानता स्वत: पैदा हो रही हैं। उदाहरण के तौर पर, आज भारत में विश्वबैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) की प्राथमिकता- 'मेगा-सिटी परियोजनाओं में पैसा लगाना है- (यह हो रहा है, विकेंद्रीकरण, सुशासन और स्थानीय एजेंसियों को साक्ष्य बनाना जैसी नीतियां के नाम पर) और इसके लिए यह भारत के बड़े शहरों में आर्थिक विकास के लिये औद्योगिक कॉम्पलेक्स, सड़कों, पानी, सीवरेज और बिजली जैसे 'नगरीय इन्फ्रास्ट्रक्चर' के लिये करोड़ों डॉलर कर्ज दे रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि इस शहरी विकास से गरीबी दूर होगी, रोजगार बढ़ेंगे और स्वास्थ्य तथा आवासीय सुविधाओं में सुधार होगा, आदि- आदि। लेकिन अगर इस स्ट्रेटेजी को गौर से देखें तो सच्चाई कुछ और ही है। ज्यादातर कर्ज स्थानीय स्तर की जवाबदेह या लोकतांत्रिक एजेंसियों को मिलते ही नहीं हैं बल्कि कुछ ऐसी विशिष्ट एजेंसियों को मिलते हैं जिन्हें वास्तव में बैंक ने लोगों को भ्रमित करने के लिये 'बिजली बोर्ड और जल बोर्ड' के रूप में 'शक्तिशाली' बना रखा है। इन ऋणों का प्रबंधन विशेष रूप से प्राइवेट और मैनेजमेंट कंसल्टेन्टस (बीएनसी) के द्वारा किया जाता है और फायदेमंद कांट्रेक्ट की योजनाओं पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बोली लगाई जाती है, जिसमें ऐसी शर्तें लगी होती हैं, जिनके अनुसार भारतीय कंपनियों को इन सौदों के लिए अयोग्य ठहराया जाता है, जबकि फ्रांस, ब्रिटेन और अमरीका की फर्में डील की बोली में शामिल होती हैं। कौन से ऐसे कारण हैं कि 'साइंस सिटी' और एशिया के सिलिकॉन वैली के रूप में प्रतिष्ठित बंगलौर की सार्वजनिक एजेसियों और व्यवसायियों को अब विदेशी फर्मों को हायर करना पड़ रहा है? क्यों ये एजेंसियां सीवर बनाने और सड़कों को चौड़ा करने के लिये विदेशी मुद्राओं में कर्ज ले रही हैं? 15 सालों तक विश्वबैंक ने इन्फ्रास्ट्रक्चर में सर्वाधिक निवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था, तब सरकारी एजेंसियां बहुत कम बजट में मुश्किल से काम कर रही थीं, लेकिन अब वहां भी पूंजी का अम्बार है, लेकिन वे इसे छू नहीं सकते, क्योंकि एक ओर से पैसा अंदर आता है तो दूसरी ओर से बाहर चला जाता है।
हालांकि हरेक प्रोजेक्ट में ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए, जो शायद ही कभी होती हो। अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट, आईटीकॉरिडोर, हाईवे औद्योगिक कॉम्पलेक्स और 24X 7 पानी और बिजली के वादे जैसे प्रश्न उठते हैं, इन सबसे किसे लाभ पहुंच रहा है? भारत, जो 'वर्ल्ड सिटी' के रूप में उभर रहा है, के संदर्भ में देखें तो यह सब विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) उद्योगों और आईटी सेक्टर के लिये है। हालांकि ये बड़ी फर्में हैं जो कुछ खास टैक्स भी नहीं चुकाती हैं, फिर भी बाजार मूल्य से भी कम दाम पर खरीदी गई जमीन से वे कई गुना पैसा बना रही हैं। इतना ही नहीं 'एक्सपोर्ट प्रोडक्शन' (निर्यात आय) के लिए हथियाई गई जमीन से जो लाखों लोग बेघर हुए हैं, उसकी भी कोई कीमत नहीं चुका रही हैं। आईटी और सेज मुनाफों को यूरोप के बजाय बैंगलोर में पुन: निवेश करने की समझदार-नीति कहां है? इन ऋणों के कारण न केवल रीयल एस्टेट में दाम अचानक बहुत बढ़ा दिये हैं, बल्कि बेघर और उजड़े लोगों के लिये कोई हरजाना तक नहीं है।
क्यों इस सबको विकास का स्वाभाविक परिणाम माना जा रहा है? डॉलरों में ये बड़े-बड़े कर्ज किसको चुकाने होंगे? विश्वबैंक के मूल्यांकन के प्रयास, सुधार या फिर समाप्ति जैसे प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करना होगा। बैंक-शैली पर आधारित विकास के 60 वर्षों बाद भी अगर कर्जदार देश, कर्ज में मिलने वाली रकम से भी ज्यादा बैंक को चुका रहे हैं। अगर लोन आज भी 'एलीट' वर्ग के विकास के लिये ही दिये जाते हैं, और विकास के व्यवसाय में लगी प्रत्येक संस्था -'सरकारी एजेंसी से लेकर बैंक तक' लोकतंत्र और सामाजिक-आर्थिक समानता के बजाय ज्यादा से ज्यादा धनिक होने के सिध्दांतों पर काम करती हैं तो शायद अब अनुकूल समय आ गया है कि जब इनके आधारभूत उद्देश्यों और संरचना पर सार्वजनिक बहस की जाए। इन्हीं कारणों के चलते ज्यादातर लातिन-अमरीकी देश विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के कर्ज-निवेश के उल्टे रास्ते पर जा रहे हैं, अपने कर्ज वापस करके वे बैंक और मुद्राकोष से मुक्त हो रहे हैं। उनके रास्ते का अगला राही दक्षिण एशिया हो सकता है। 21-24 सितम्बर को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में होने वाला 'विश्व बैंक पर जन न्यायाधिकरण” इस बहस को शुरू करने के लिए एक सर्वोत्तम मंच बन सकता है। यह तो तय है कि बैंक के अध्यक्ष जोएलिक के लिये बैंक की अन्यायी संरचना ही व्यवसाय है।
- प्रस्तुति मीनाक्षी अरोड़ा
1 टिप्पणी:
अच्छा लेख है. जानकारीभरा. विश्वबैंक के बारे में लोगों को थोड़ी हकीकत पता चलेगी.
एक टिप्पणी भेजें