गोपनीयकारक -जयसिंह

प्राचीन काल में ब्रितानियों द्वारा लाया गया शासकीय गोपनीयता कानून ताकतवर के हित में है तथा आज तक लोगों को उनके जानने तथा चयनात्मक रूप से उपयोग में लाने के अधिकार से वंचित करता है एवं जब यह अनुकूल हो सकता है तो राज्य का भय सूचना के अधिकार के रास्ते आ गया है.

इतिहास हमें इस बात का ज्ञान कराता है कि अनेक राष्ट्रों का विनाश का कारण बाहरी आक्रमण से ज्यादा अक्सर आंतरिक पतन और भ्रष्टाचार ही होता है। आंतरिक पतन और भ्रष्टाचार; कठोर और अपारदर्शी कानूनों से और मजबूत होता है तथा जनता को उनके अधिकारों से वंचित करता है। यह समाज के जानने की स्वतंत्रता से समझौता कर जनता के विकल्प को सीमित तथा उनके अधिकारों को कमजोर बनाता है। जबकि दूसरी तरफ पारदर्शिता विकास के दरवाजे खोलता है तथा ठीक आधारों पर लोगों को समर्थ बनाता है। सरकारी कार्यों में पारदर्शिता की आवश्यकता लोकतांत्रिक सरकार के लिए बुनियादी सिध्दांत है। सूचनाओं का महत्व सिर्फ राज्य, सरकार या सरकारी कर्मचारियों के लिए ही नहीं होती बल्कि आम लोगों के लिए भी होती है।

ऐसा ही एक अपारदर्शी कानून है शासकीय गोपनीयता अधिनियम या ओएसए। यह अधिनियम 1923 के औपनिवेशिक भारत का है। यह इंगलैंड में मर्विन (1878) और एंडरसन (1889) की घटना के बाद बनाया गया। ऐसा देखा गया कि सामान्य कानून जासूसों के अभियोजन के मामले में अपर्याप्त थे। जासूस दस्तावेजों को खरीदा करते थे जिस कारण उन पर चोरी का कोई आरोप नहीं बनता था। इसलिए इंग्लैंड में 1889 में शासकीय गोपनीयता अधिनियम, 1889 लाया गया। इसी कानून को 1923 में भारत में लागू कर दिया गया। युनाइटेड किंगडम में इंग्लैंड का शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1889 वैधानिक सूचना की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए लाया गया ताकि सरकारी कर्मचारियों में गोपनीयता का माहौल बने, जिससे सरकार के कार्यों के बारे में सूचना प्राप्त करने और उसे प्रकाशित करने की इच्छा रखने वालों के प्रयास को रोका जा सके। अब जबकि इंग्लैंड में ही इस कानून को बदला जा चुका है बजाय इसके भारत और पाकिस्तान दोनाें जगह शासकीय गोपनीयता का यह खतरनाक कानून बना हुआ है।


जैसा कि उपर कहा जा चुका है प्रारंभ में यह कानून ब्रिटिश द्वारा प्रशासको ंकी रक्षा के लिए और शासकीय सूचना के सार्वजनिक प्रसार पर प्रतिबंध की रणनीति के विकास के लिए तैयार किया गया था। केवल उच्च पदस्थ शासकीय अधिकारियों या सरकारी कर्मचारियों की ही इन दस्तावेजों तक पहुंच थी। उसी कानून का प्रतिरूप भारत की स्वतंत्र विधायिका द्वारा भी बनाया गया। भारत-पाकिस्तान के युध्द के बाद तो इस अधिनियम का उद्देश्य समकालीन रूप से विस्तृत हो गया और दंड को कठोर बनाना और अभियोजन को सरल बनाना हो गया।

सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस समय तक इस अधिनियम से संबंधित उदाहरण काफी कम हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक निर्णय में यह कहा गया कि कोई भी सूचना जो राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता को खतरा पहुंचाने वाले विषय से जुड़ा हुआ हो या विदेशी देशों के साथ संबंधों को प्रभावित करने वाला हो या शत्रु देशों के लिए उपयोगी हो उसको प्रसारित करना ओएसए की धारा 3 के अंतर्गत अपराध है तथा इसके अलावा अन्य किसी भी विषय से जुड़ी सूचना को गुप्त नहीं रखा जा सकता। नंदलाल मोर और राज्य के बजट लीक के मुकदमे में राज्य धारा 5 के अंतर्गत आरोप दर्ज करवाने में असफल रहा। सलमा अलना अब्दुल्ला और गुजरात सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के सुनील रंजन दास और बंगाल सरकार मामले के निर्णय पर जोर दिया और कहा कि धारा(3)की उपधारा(1) के खंड(सी) में वर्णित गोपनीय शब्द का अर्थ सिर्फ शासकीय कोड या पासवर्ड से है न कि किसी स्केच, योजना, मॉडल, लेख, नोट, दस्तावेज या अन्य सूचनाओं से है। इसलिए किसी भी स्केच, योजना, मॉडल, दस्तावेज इत्यादि जिसे सरकार ओएसए के तहत शासकीय गोपनीय मानती है वे उपलब्ध होंगे। ऐसी ही दूसरा मामला है दिल्ली की एनसीटी सरकार और जसपाल सिंह का। धारा की शर्त 3(2) जो साक्ष्यों के बोझ की धारणा से संबंधित है वह भी काफी कठिन है क्योंकि यह आरोपी कि किसी भी बचाव को व्यवहारिक रूप से नकार देता है।

जो कुछ उपर कहा गया उस पर विचार किया जाय कि जिस देश के लोग सरकार के कार्यों में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की माँग कर रहे हैं वहाँ इस प्रकार के कानूनों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करती है। ऐसा सवाल बड़े पैमाने पर हो रहे भ्रष्टाचार के कारण खड़ा हुआ है, जो भारत में अनियंत्रिण्त हो चुका है। यद्यपि भारत कागज पर सबसे बड़े लोकतंत्र की सवारी करता है; लेकिन माँग सहभागी लोकतंत्र की हो रही है ताकि लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया मे ंसच्चे सहभागी बन सकें। बोहरा समिति की 2003 की रिपोर्ट प्रशासन में उपर से नीचे तक व्याप्त अनियंत्रित भ्रष्टाचार को बयां करता है। यहां तक कि न्यायपालिका भी इस सूची में शामिल है। अफसरशाही की सक्रिय भूमिका से नेताओं और अपराधियों का गठजोड़ सिध्द हो चुका है।

इसी तरह धार्मिक कट्टरता देश में फिर से सर उठा रहा है। सांप्रदायिक हिंसा की घटना बताती है कि इन शक्तियों को देश के आधारभूत संवैधानिक वचनबध्दता के प्रति कोई सम्मान नहीं है। इससे न सिर्फ धर्म निरपेक्षता बल्कि लोकतंत्र भी दांव पर है। पुलिस और स्थानीय प्रशासन अल्पसंख्यक समुदाय के पीड़ितों को सुरक्षा देने के बदले सांप्रदायिक हिंसा में शामिल हो जाते हैं और उसे बढ़ावा देते हैं। कार्यपालिका के साथ न्यायपालिका ने भी ज्यादातर मामलों में कट्टरपंथी शक्तियों को नियम-कानूनों को न सिर्फ तोड़ने के साथ दंड देने, यहां तक कि हत्या की भी अनुमति दी। खासकर ऐसे समय में जब देश की अखंडता खतरे में है। हाल ही में गुजरात के साथ ही, पंजाब पुलिस पर अपराध सिध्द होना जनता के इस विश्वास को सिध्द करता है कि पुलिस सांप्रदायिक राजनीतिक दलों और अपराधियों को दंगा करने और निर्दोष लोगों की निर्ममतापूर्वक हत्या के लिए भड़काते हैं और उनका सहयोग करते हैं। इसलिए इस स्थिति में ओएसए जैसे अधिनियम का होना कहां तक न्यायसंगत है जबकि इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि इन कानूनों का उच्च पदस्थ अधिकारियों द्वारा अल्पसंख्यक समूहों के शोषण के उद्ेदश्य से लगातार दुरूपयोग होता रहा है।

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने यह अनुशंसा की कि शासकीय गोपनीयता अधिनियम-1923 को समाप्त कर देना चाहिए; क्योंकि यह लोकतांत्रिक समाज की पारदर्शिता के लिए असंगत है। आयोग के अध्यक्ष वीरप्पा मोइली ने अपना विचार रखा कि राज्य के सुरक्षा उपायों को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में समाहित कर देना चाहिए। नियम के दुरूपयोग की सबसे ताजा घटना सेवानिवृत मेजर जनरल वी के सिंह का है जिन पर रॉ के भ्रष्टाचार के बारे में लिखने का आरोप अधिनियम के तहत लगाया गया है। यह मामला ओएसए और सूचना के अधिकार अधिनियम के बीच विवाद को सीधे सामने लाता है।
मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने प्रेस को दिए अपने बयान में कहा कि ओएसए एक औपनिवेशिक कानून है जो जनता से सरकार को सुरक्षित करता है। एक लोकतंत्र में जनता ही सरकार होती है। पहले ओएसए सरकार द्वारा सूचना पर नियंत्रण के संबंध में निर्देश का काम करता था। परन्तु अब सूचना पर नियंत्रण सरकार द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम से समाप्त कर दिया गया है।

हाल में केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा अनुसंधान और विश्लेषण विंग के एक सेवानिवृत अधिकारी के घर पर शासकीय गोपनीयता अधिनियम के अतिक्रमण के आरोप में छापे ने इस अधिनियम की भूमिका को लेकर विवाद छेड़ दिया है जो सरकार में पारदर्शिता और खुलेपन को रोकता है। यद्यपि वजाहत अब्दुल्ला से जब पूछा गया कि क्या सूचना के अधिकार की सफलता में ओएसए रूकावट है तो उन्होंने स्पष्ट किया कि अगर सूचना के अधिकार और ओएसए के बीच विवाद हो तो सूचना का अधिकार प्रभावी होगा तथापि यह प्रश्न बना हुआ है कि ओएसए को बनाए रखने का क्या औचित्य है।
-लेखक पेशे से वकील हैं और ह्यूमन राइट ला नेटवर्क।

गोद लेने की आड़ में बच्चों का व्यापार - गीता वरदराजन चेन्नई से

हाल ही में चेन्नई उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक फैसले में गोद लेने (इंटर-कंट्री एडॉप्शन- आईसीए) के एक घटनाक्रम में तीन बच्चों के अपहरण की जांच के आदेश सीबीआई को देने के मामले ने एक बार फिर कानूनी विधायी तंत्र की असफलता को उजागर कर दिया है। एक दम्पत्ति को गिरफ्तार किया गया है जो गोद लेने (एडॉप्शन) के आड़ में सरकार तथा उसकी एजेंसीयों के आंखों में धूल झोंककर बच्चों का व्यापार करता था।
कुछ समय पहले तमिलनाडु पुलिस ने बच्चों का व्यापार करने वाले एक रैकेट, जिसमें कई व्यक्तिगत तथा सरकारी एजेंसियां शामिल थीं; का भांडाफोड़ किया था। ये व्यापारी सड़क छाप बच्चों या गरीब परिवार के बच्चों और सरकारी अस्पतालों के मातृत्व कक्ष में भर्ती महिलाओं के बच्चों को अपहृत करते और तथाकथित गोद ग्रहण करनेवाली एजेंसियों को 5000 रू से 25000 रू प्रति बच्चे की दर से बेच देते थे। एक समाचारपत्र की सूचना के अनुसार इन व्यापारी माफियाओं पर मलेशिया की समाजसेवी संस्था, जो सात साल तक के बच्चे का गोदग्रहण करती है; को 350 बच्चे बेचने का आरोप है।
चेन्नई की साल्या ने अपनी चार की बेटी खोई, जिसे गली में खेलते समय ऑटोरिक्शा से आए एक गैंग ने अपहृत कर लिया। कथिरवेलु ने अपना एक साल का बेटा खोया जो फुटपाथ पर सोते समय अपहृत कर लिया गया। दोनों परिवारों ने स्थानीय पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाया। एफआईआर 1997 में बने 'मिसिंग चाइल्ड' एक्ट की धारा के अंतर्गत दर्ज किया गया। चुराए गए बच्चे मलेशिया की समाजसेवी संस्था को बेचे गए, संस्था ने दोनों बच्चों को क्रमश: आस्ट्रेलिया और नीदरलैंड के धनी जरूरतमंद अभिभावकों को अच्छे दामों पर गोद दे दिया गया। दोनों मामलों में बच्चों का गोद-व्यापार जाली कागजातों पर हुआ। उच्च न्यायालय से जाली कागजातों के आधार पर आदेश लेकर बच्चों को देश के बाहर भेज दिया गया और उनके वास्तविक अभिभावक से अलग कर दिया गया। जबकि अभिभावकाें द्वारा पुलिस में दर्ज एफआईआर पड़ा रहा और गोद लेने वाली एजेंसी ने बच्चों के गोद लेने के स्थान की स्वीकृति का आदेश भी न्यायालय से हासिल कर लिया तथा चोरी बच्चों के लिए पासपोर्ट भी जारी करवा लिए।
वे अभिभावक जिन्होंने अपने बच्चे खोए वे इस बात से अनजान रहे कि उनके बच्चे गोद लेने के लिए बाहर भेजे गए तथा अपने बच्चों को खोजने में मस्त रहे। कड़वा सच यह है कि गोद लेनेवाले माफियाओं ने वैधानिक संस्थाओं जैसे सामाज कल्याण विभाग, स्वयंसेवी समन्वय समिति यहां तक कि न्यायिक प्रणाली का भीे अपनी लालच के लिए उपयोग किया। बच्चों के स्रोत की जांच की जिम्मेदारी और इस बात की जांच भी नहीं की गयी कि बच्चे चुराए नहीं गए हैं बल्कि उनके अभिभावक उन्हें त्याग रहे हैं काफी संक्षिप्त रही।
आज गोद लेने से संबंधित कोई कानून नहीं है; खासकर अंतरदेशीय गोद लेने के संबंध में। ''हिन्दु गोदग्रहण और परवरिश अधिनियम'' दो हिन्दुओं के बीच के समझौते से संबंधित है। यह अधिनियम की अंतर्देशीय गोद ग्रहण को नियंत्रित नहीं करता है। महत्वपूर्ण न्याय संसोधन अधिनियम 2006 'ग‌ोदग्रहण' को पारिभाषित करता है (अ) 'ग‌ोदग्रहण' ‌ का अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसके अंतर्गत गोद लिए गए बच्चे को उसके वास्तविक अभिभावक से अलग किया जाता है और गोद ग्रहण करने वाले अभिभावक से संबंधित तमाम अधिकारों, सुविधाओं तथा उत्तरदायित्वों में वह शामिल हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने 1982 में ही ग‌ोदग्रहण के नाम पर बच्चों के व्यापार को ध्यान में लिया था, जब एक सामाजिक कार्यकर्ता के प्रयास पर न्यायालय में 'अंतरदेशीय गोद ग्रहण' के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अंत:देशीय और अंतरदेशीय गोद ग्रहण के संबंध में कुछ दिशा निर्देश तय किए गए। ये निर्देश अभावग्रस्त बच्चों और अभिभावकों द्वारा बच्चों को छोड़ने के संबंध में थे। अपने निर्देश में सर्वोच्च न्यायलय ने यह स्पष्ट किया कि बच्चे आईसीए को तभी दिए जाएंगे जब कोई भारतीय अभिभावक उपलब्ध नहीं होगा और भारतीय परिवार में बच्चों को भेजने के लिए एजेंसियां हर संभव प्रयास करेगी।
न तो सर्वोच्च न्यायलय का निर्देश और न ही केन्द्रीय गोदग्रहण संसाधन एजेंसी से संबंधित निर्देश पुलिस विभाग और समाज कल्याण विभाग को गोद ग्रहण किए गए बच्चों के संबंध में शिकायत की जांच में शामिल करता है। और अंतत: न्यायिक मुहर जहां बच्चे को अभिभावक और वार्ड अधिनियम के अंतर्गत विदेशी अभिभावक के नियंत्रण में भेज देता है इस कारण माफियाओं को बच्चों को जन्मस्थान से या देश से बाहर भेजने में आसानी होती है। जो गैरकानूनी है वह एक न्यायिक मुहर से कानूनी हो जाता है। वर्तमान संदर्भ में इन विभागों में समन्वय आवश्यक है।
चेन्नई उच्च न्यायालय ने सीबीआई को तीन बच्चों के कथित अपहरण की जांच तथा तीन महीने के भीतर शिकायत की रिपोर्ट दर्ज करने का आदेश दिया है। सीबीआई की जांच माफियाओं के- स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतरदेशीय संबंध, कार्यप्रणाली को उजागर कर सकता है।
लेकिन उन अभिभावकों का क्या होगा जो अपनी संताने खो चुके हैं? उन बच्चों का क्या होगा जो दूसरे परिवेश में बढ़ रहे हैं तथा जिनके वास्तविक अभिभावक उनकी राह देख रहे हैं? कोई बच्चों के देश के बाहर गोद ग्रहण में। उनके अपने समाज और संस्कृति को खोने की भावना के बारे में क्या कर सकता है? सभी इस प्रक्रिया में शामिल नहीं हैं, इन ढेर सारी जिंदगी को बचानेवाले जबाब के हम आभारी हैं।
क्या हमारे केन्द्र और राज्य सरकारों के पास गायब बच्चों का आंकड़ा है? क्या वे साल्या और कथिरवेलु जैसे बच्चे खोए अभिभावकों के दुख के जिम्मेदार नहीं हैं? बच्चा गोद लेने में बच्चों के भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए इसमें शामिल सभी एजेंसियों के लिए अनिवार्य है कि ऐसे कदम उठाएं जिससे गोदग्रहण के नाम पर बच्चों के व्यापार की संभावना को कम किया जा सके।
उधर नीदरलैंड की संसद ने कथिरवेलु के बच्चे के व्यापार की बात उजागर होने के बाद एक संसदीय समिति का गठन किया है और भारत से गोदग्रहण के तमाम संबंधित मामलों की जांच कर रही है।

लोक अदालतें : खट्टे-मीठे अनुभव

लोक अदालतों का मुख्य लक्ष्य विवाद के त्वरित निर्णय और दोस्ताना समझौते के साथ-साथ विवादित पक्ष तथा न्यायालय के समय और पैसे की बचत भी है। लेकिन राज्य के उद्देष्यों को पूरा करने में लोक अदालतों के लक्ष्यों की सफलता अभी भी विवादित ही है। फैजल ने लोक अदालतों के सार्थकता और प्रभाव की जानकारी के लिए कष्मीर के कानूनी मामलों से जुड़े कुछ लोगों से बात की। उनकी राय-विचारों का सारांष यहां प्रस्तुत है :

मीर सैयद लतीफ (कश्मीर बार एसोसिएशन के सदस्य)
जन अदालतों की स्थापना का उद्देष्य मुकदमों में लगनेवाले समय को कम करना तथा सुविधा में वृध्दि करना और जल्दी निपटारा करना था। लेकिन लोक अदालतों को लेकर आम लोगों में जागरूकता की कमी है जो इस उद्देष्य को हासिल करने में एक रूकावट है। इसके अलावा वकील अपने मुवक्किल से मामले को लोक अदालतों में ले जाने से पहले सलाह नहीं करते जिसके कारण मुकदमों के निपटारे की गति काफी धीमी है। वकीलों को चाहिए कि वे संबंधित पक्षों को एक सद्भावपूर्ण समझौते के लिए प्रेरित करें और मुकदमों के निपटारे को आसान बनाएं।

हालांकि लोक अदालतों ने भूकंप राहत के मामले में काफी सफल रही थीं लेकिन इसके बाद भी कुछ लोग षिकायतें रह गयीं हैं कि उनकी मांगों की पर्याप्त रूप से पूर्ति नहीं की गई। जहां तक लोक अदालतों के कार्य के लिए बजट में आवंटित राषि की मंजूरी की बात है, जो विधि और न्याय मंत्रालय से संबंधित है, को यह देखने की आवष्यता है कि लोक अदालतों के वित्तीय पक्ष के बारे में अलग से विचार करके कि क्या इसका खर्च नियमित अदालतों के खर्च से ज्यादा जो नहीं है।

एजाज बदर (कश्मीर बार एसोसिएशन के संयुक्त सचिव)
लोक अदालत में विवाद को ले जाने से पहले संबंधित पक्षों को ंआपस में सलाह कर लेनी चाहिए। सामान्यतया लोक अदालतों में मामलों के निपटारे की उच्च दर ज्यादातर वाहन दुर्घटना में देखी जाती है, दरअसल इतने मात्र के लिए लोक अदालतों की आवष्यकता नहीं है। लोक अदालतों की वास्तविक सफलता तो महत्वपूर्ण मुकदमो के मुकदमेबाजीं के निपटारे में है जो वास्तव में होता नहीं है।


सबीर अहमद बट (कश्मीर बार एसोसिएशन के संयुक्त सचिव)
वकीलों को लोक अदालतों में करने के लिए कुछ विषेश होता नहीं है क्योंकि संबंधित पक्ष स्वयं ही कानूनी-बेंच की मदद से निर्णय पर पहुँच जाते हैं। यह जरूरतमंदोें के लिए षीघ्र और सस्ता रास्ता है, लेकिन जरूरत यह है कि लोक अदालत में विवादों के निर्णय में वरीश्ठ वकीलों को भी सहायता करनी चाहिए।

मो अयूब शेख (कार्यकर्ता)
विवादों के षीघ्र निर्णय और न्याय दिलाने में लोक अदालत एक सफल प्रयास सिध्द हुआ है। लोक अदालतों में आपराधिक मुकदमे को षामिल करने के लिए कानून में संसोधन की आवष्यकता है, जिससे आपराधिक मुकदमों के षीध्र निर्णय में भी मदद मिलेगी ।

राहिला (कानून अधिकारी, राज्य विधान सेवा प्राधिकरण)
राज्य विधान सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987(एसएलएसए) मुकदमें के पहले और मुकदमे के बाद के मामलों की सुनवाई करता है। लेकिन लोगों मे पर्याप्त जागरूकता के अभाव के कारण ज्यादातर विवादित मामले लोक अदालतों में ले जाये जाते हैं। ज्यादातर मामले जो कष्मीर जिले से संबंधित हैं वे वाहन दुर्घटना के हैं जिसमें क्षतिपूर्ति के रूप में करोड़ों रूपये का भुगतान हुआ है। इसके अलावा ढेरों आपराधिक और श्रम विवादों का निपटारा भी लोक अदालतों में किया जाता है। लोक अदालतें वैवाहिक मामलों से जुड़े विवादों में समझौते कराने, परिवरिष को सषक्त बनाने और निगरानी तथा अभिभावकत्व के समझौतों में काफी सफल रहा है। इसने ढेर सारी महिलाओं को उनके वैवाहिक अधिकारों को प्राप्त करने में कानूनकी लंबी प्रक्रिया से निजात दिलाया है। लोक अदालतों को भूकंप पीड़ित क्षेत्र में सहायता राषि के वितरण में भारी सफलता मिली है जहां क्षतिपूर्ति की राषि लोक अदालतों के माध्यम से षीघ्र वितरित हो गई । जबकि कष्मीर के हाल में आए बाढ़ में लोक अदालतों को नहीं बुलाया गया क्योकि कोई आवेदन नहीं था। नियमित कार्यों की तरह एसएलएसए महीने में दो बार लोक अदालत बुलाता है ।
लोक अदालतों में विवादों के निर्णय में वकीलों की भूमिका सराहनीय है, अगर वे थोड़ा और ज्यादा सहयोग करें तो निपटारे की गति और तेज हो जाएगी।

पुनीत (नगर मजिस्ट्रेट, श्रीनगर)
लोक अदालतों की वास्तविक सफलता न्यायालय को ठोस और गंभीर मुकदमों के बोझ को कम करने में है जो लोक अदालतों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का मुख्य अंग है। वैवाहिक मामलों से संबंधित निर्णयों में निपटारे की दर 30 प्रतिषत से कम है। इन मामलों में लोक अदालतों की कम प्रभावषीलता इस बात का संकेत देता है कि मामलों को लोक अदालत में ले जाने से पहले आवष्यक जमीनी कार्य- जैसे संबंधित पक्षों से विस्तृत बातचीत तथा निपटारे की संभावना का विष्लेशण नहीं किया जाता है। इसके अलावा यह भी ज्यादा उपयुक्त होगा कि मामले की सुनवाई कोई वास्तविक न्यायाधीष करे जब मामले लोक अदालत में पुन: लाए जाएं ताकि उसे मामले की सुनवाई में प्रगति का ध्यान रहे और निर्णय की संभावना ज्यादा हो।

शिक्षा में छिपा है महिला सशक्तिकरण का रहस्य - राजु कुमार

महिला सशक्तिकरण की जब भी बात की जाती है, तब सिर्फ राजनीतिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण पर चर्चा होती है पर सामाजिक सशक्तिकरण की चर्चा नहीं होती.
ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है. उन्हें सिर्फ पुरुषों से ही नहीं बल्कि जातीय संरचना में भी सबसे पीछे रखा गया है. इन परिस्थितियों में उन्हें राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त करने की बात बेमानी लगती है, भले ही उन्हें कई कानूनी अधिकार मिल चुके हैं. महिलाओं का जब तक सामाजिक सशक्तिकरण नहीं होगा, तब तक वह अपने कानूनी अधिकारों का समुचित उपयोग नहीं कर सकेंगी. सामाजिक अधिकार या समानता एक जटिल प्रक्रिया है, कई प्रतिगामी ताकतें सामाजिक यथास्थितिवाद को बढ़ावा देती हैं और कभी-कभी तो वह सामाजिक विकास को पीछे धकेलती हैं.
प्रश्न यह है कि सामाजिक सशक्तिकरण का जरिया क्या हो सकती हैं? इसका जवाब बहुत ही सरल, पर लक्ष्य कठिन है. शिक्षा एक ऐसा कारगर हथियार है, जो सामाजिक विकास की गति को तेज करता है. समानता, स्वतंत्रता के साथ-साथ शिक्षित व्यक्ति अपने कानूनी अधिकारों का बेहतर उपयोग भी करता है और राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त भी होता है. महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से शिक्षा से वंचित रखने का षडयंत्र भी इसलिए किया गया कि न वह शिक्षित होंगी और न ही वह अपने अधिकारों की मांग करेंगी. यानी, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाये रखने में सहुलियत होगी. इसी वजह से महिलाओं में शिक्षा का प्रतिशत बहुत ही कम है. हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों एवं स्वाभाविक सामाजिक विकास के कारण शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, जिस कारण बालिका शिक्षा को परे रखना संभव नहीं रहा है. इसके बावजूद सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से शिक्षा को किसी ने प्राथमिकता सूची में पहले पायदान पर रखकर इसके लिए विशेष प्रयास नहीं किया. कई सरकारी एवं गैर सरकारी आंकड़ें यह दर्शाते हैं कि महिला साक्षरता दर बहुत ही कम है और उनके लिए प्राथमिक स्तर पर अभी भी विषम परिस्थितियाँ हैं. यानी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए जो भी प्रयास हो रहे हैं, उसमें बालिकाओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित करने की सोच नहीं दिखती. महिला शिक्षकों की कमी एवं बालिकाओं के लिए अलग शौचालय नहीं होने से बालिका शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और प्राथमिक एवं मिडिल स्तर पर बालकों की तुलना में बालिकाओं की शाला त्यागने की दर ज्यादा है. यद्यपि प्राथमिक स्तर की पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही कई कमियां हैं.
प्राथमिक शिक्षा पूरी शिक्षा प्रणाली की नींव है और इसकी उपलब्धता स्थानीय स्तर पर होती है. इस वजह से बड़े अधिकारी या राजनेता प्रारम्भिक शिक्षा व्यवस्था की कमियों, जरूरतों से लगातार वाकिफ नहीं होते, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था. अत: यह जरूरी है कि प्रारंभिक शिक्षा की निगरानी एवं जरूरतों के प्रति स्थानीय प्रतिनिधि अधिक सजगता रखें. चूंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की स्थिति बदतर है, इसलिए गांवों में बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने और बच्चों में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने पर खास जोर देने की जरूरत है.
73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज व्यवस्था के तहत निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों ने भी पिछले 10-15 वर्षों में शिक्षा के लिए उल्लेखनीय कार्य नहीं किया. सामान्य तौर पर ऐसा देखने में आया है कि पुरुष पंचायत प्रतिनिधियों ने निर्माण कार्यों पर जोर दिया क्योंकि इसमें भ्रष्टाचार की संभावनाएं होती हैं. शुरुआती दौर में महिला पंचायत प्रतिनिधियों ने भी कठपुतली की तरह पुरुषों के इशारे एवं दबाव में उनकी मर्जी के खिलाफ अलग कार्य नहीं किया. आज भी अधिकांश जगहों पर महिला पंच-सरपंच मुखर तो हुई हैं पर सामाजिक मुद्दों के प्रति उनमें अभी भी उदासीनता है. इसके बावजूद महिला पंचों एवं सरपंचों से ही सामाजिक मुद्दों पर कार्य करने की अपेक्षा की जा रही है क्योंकि सामाजिक सशक्तिकरण के लिहाज से यह उनके लिए भी जरूरी है. इन विषम परिस्थितियों के बावजूद प्रदेश के कई पंचायतों मेें आशा की किरण दिख रही है. मध्यप्रदेश में सबसे पहले पंचायत चुनाव हुआ था इसलिए बदलाव की बयार भी सबसे बेहतर यहीं दिख रही हैं. झाबुआ, सतना, होशंगाबाद, हरदा सहित कई जिलों के कई पंचायतों की महिला सरपंचों एवं पंचों ने सामाजिक मुद्दों पर कार्य शुरू कर दिया है.
खासतौर से शिक्षा के प्रति उनमें मुखरता आई है. अंतत: महिलाओं ने इस बात को समझना शुरू कर दिय है कि उनकी वास्तविक सशक्तिकरण के लिए शिक्षा एक कारगर हथियार है. शिक्षा को अपनी प्राथमिकता सूची में पहले स्थान पर रखने वाली महिला सरपंचों एवं पंचों का स्पष्ट कहना है कि शिक्षा में ही गांव का विकास निहित है और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली महिला सरपंचों एवं पंचों को ही वास्तविक रूप से सशक्त माना जा सकता हैं.

नोवार्टिस का चीनी दवा कंपनियों और भारतीय जयचंदों से गठजोड़ -मीनाक्षी अरोड़ा

पिछले वर्षों में भारत की कई दवा बनाने वालों ने विश्व में सस्ती और अच्छी दवाएँ बनाने के लिए ख्याति पाई है। एड्स की दवाएँ जो पहले केवल पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियाँ ही बनाती थीं, भारतीय सिपला जैसी कम्पनियों ने इन्हीं दवाओं को 10 गुने सस्ते दामों पर उपलब्ध कराया। कुछ वर्ष पहले जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने पश्चिमी देशों के बजाय भारत से बनी सस्ती दवाओं को खरीदना चाहा तो 39 बड़ी दवा कम्पनियों ने मिलकर दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर मुकदमा कर दिया। इस पर सारी दुनिया में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वोी गैर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनचेतना अभियान प्रारम्भ किया और दुनिया के विभिन्न देशों से लाखों लोगों ने इस अपील पर अपने दस्तखत किये। अपनी जनछवि को बिगड़ता देख कर घबरा कर बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने दक्षिण अफ्रीका सरकार पर किया मुकदमा वापस ले लिया।

नोवार्टिस की चाल
पर दवा में अकूत मुनाफे के लालच में पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने एक नई चाल चली; रक्त कैंसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर कर दिया कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी अदला-बदली करके किया गया है। इस पर नोवार्टिस ने भारत सरकार पर मुकदमा कर दिया है कि 'भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुध्द है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये।' पर काफी लड़ाइयों के बाद चेन्नई हाईकोर्र्ट में नोवार्टिस की याचिका खारिज कर दी।

चेन्नई हाईकोर्र्ट में याचिका खारिज होने के बाद नोवार्टिस एक बार फिर भारतीय पेटेंट कानून को कुछ और दांव-पेंच के साथ चुनौती देने की तैयारी कर रही है :-

इस बार नोवार्टिस अकेली नहीं है बल्कि माशेल्कर और शमनाद बशीर जैसे जयचंदों और चीन की 'ओपीटीआर' के दबाव से मुकदमा जीतने की तैयारी की जा रही है।
रोचक मोड़ तो यह है कि चेन्नई हाईकोर्ट में खाए हुए तमाचे के बाद बौखलायी नोवार्टिस ने तुरन्त यह घोषणा कर दी कि भारत में पेटेन्ट कानूनों पर कठोर प्रतिबन्धों के चलते यह चीन में निवेश करेगी।
नोवार्टिस को जब पेटेंट की मंजूरी नहीं मिली तो उसने भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियों सिपला आदि की दवा कीमतों को ही चुनौती देना शुरू कर दिया। हाल ही में 'द हिंदू' में सिपला को चुनौती देने वाले विज्ञापन ने इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नीच हथकण्डों की साजिश का पर्दाफाश कर दिया है।

गौरतलब है कि तीसरी दुनिया के सौ के करीब देश भारत से सस्ती दवाओं पर काफी हद तक निर्भर रहते हैं। इसके विपरीत नोवार्टिस जैसी कंपनियों का उद्देश्य दवाओं पर पेटेंट एकाधिकार कायम रखते हुए अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। लेकिन डब्ल्यूटीओ के ट्रिप्स समझौते के तहत भारतीय पेटेंट कानून में संशोधन करते हुए भारी जन दबाव के कारण यूपीए सरकार को यह प्रावधान करना पड़ा कि दवाओं के पेटेंट के लिए सदाबहार प्रक्रिया को इजाजत नहीं दी जाएगी और केवल उन्हीं दवाओं को पेटेंट किया जाएगा।

नोवार्टिस की मुकदमा
नोवार्टिस एजी और नोवार्टिस इंडिया लि. ने कोर्ट से अनुरोध किया था कि वह पेटेंट (संशोधन) कानून, 2005 के सेक्शन-3डी को असंवैधानिक करार दे, क्योंकि यह प्रावधान 'अस्पष्ट और पक्षपातपूर्ण' है। कानून का यह प्रावधान कहता है कि पुरानी दवा को तब तक पेटेंट नहीं दिया जा सकता, जब तक कि उसमें किया गया सुधार दवा को ज्यादा कारगर न बना दे। न्यायमूर्ति आर बालसुब्रमण्यम और न्यायमूर्ति और न्यायमूर्ति प्रभा श्री देवन की एक खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा, 'इस अदालत के पास यह निर्णय करने का अधिकार नहीं है कि संशोधित अनुच्छेद ट्रिप्स समझौते की धारा 27 का उल्लंघन करता है।' स्विस कंपनी की दलील थी कि भारतीय पेटेंट कानून का संशोधित अनुच्छेद ट्रिप्स समझौते को धता बताता है। नई दवा पहले वाली दवा से भिन्न न होने के कारण उसकी याचिका खारिज कर दी गई। नोवार्टिस ने यह दावा किया था कि उसकी नई दवा पहले वाली दवा से 30 फीसदी ज्यादा गुणकारी है लेकिन रोचक मोड़ तो तब आया जब नोवार्टिस को इस बात के प्रमाण साबित करने के लिये गया उस वक्त उसने जो रिपोर्ट पेश की उसके बारे में तो सुनकर भी हैरानी हुई कि इतनी बड़ी कम्पनी लाखों करोड़ों लोगों की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ कैसे कर सकती है, दरअसल दवा का परीक्षण चूहों पर किया गया था, चेन्नई हाई कोर्ट के माननीय न्यायाधीश ने स्वयं यह कहा कि ''यह दवा चूहों के लिये नहीं बल्कि लाखों इंसानों के लिये है।''

इतना बड़ा तमाचा खाने के बाद भी नोवार्टिस को शर्म नहीं आ रही है, वह दोबारा मुकदमा दायर करने की तैयारी कर रही है। हालांकि स्विस सरकार ने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया है कि यह कंपनी और भारत का आपसी मामला है। भारतीय पेटेंट कानून ट्रिप्स के खिलाफ नहीं है, लेकिन नोवार्टिस अब भी भारतीय पेटेंट कानून को चुनौती देने पर आमादा है और हो भी क्यो नहीं? आखिर भारत में बैठे माशेल्कर और शमनाद बशीर जैसे दलालों ने उसके हौंसले जो बढ़ा दिये हैं।

दरअसल भारत सरकार ने एक गलती की कि पेटेंट मुद्दों पर अध्ययन के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दलाल माशेल्कर साहब की अध्यक्षता में एक समिति बना दी जिसमें चार अन्य विशेषज्ञ भी शामिल थे- प्रो गोवर्धन मेहता, असिस दत्ता, एनआर माधव मेनन और मूलचंद शर्मा। इस समिति को दो विवादित मुद्दों की जांच का काम सौंपा गया था- पहला-किसी दवा में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके उसे नई पहचान देने पर दिये गए पेटेंट को सीमित करना और दूसरा, सूक्ष्म जैव रूपों को पेटेंट के दायरे से बाहर करना, क्या ये परिवर्तन डब्लूटीओ के 'ट्रिप्स समझौते' के अनुकूल होंगे?

अब जरा सोचिये! भई चोर के हाथ में चाबी देंगे तो क्या होगा? अब माशेल्कर साहब को उस नमक का हक तो अदा करना ही था ना जो उन्होंने बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मोटी रकम के रूप में खाया था। फिर क्या था- विशेषज्ञों की समिति ने 1/1/2 वर्ष का समय लगाकर रिपोर्ट की नकल करने में। शमनाद बशीर द्वारा लिखे गए पेपर- 'लिमिटिंग द पेटेंटबिलिटि ऑव फार्मास्यूटिकल इंवेन्शंस एण्ड माइक्रो-आर्गेनिज्म: अ ट्रिप्स कम्पैटिबिलिटिरिव्यू' से शब्दश: चोरी की गई थी। शमनाद बशीर से यह रिपोर्ट यूरोपीय, अमरीकी और जापानी दवा अनुसंधान कंपानियों की स्विस असोसिएशन 'इंटरपेट' द्वारा पैसा देकर बनवाई गई थी। चोरी की पोल खुलने पर माशेलकर समिति ने दिस. 2006 में तकनीकी गड़बड़ी के नाम पर रिपोर्ट वापिस ले ली और संशोधित रूप में रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये तीन माह का समय मांगा था जिसे नकार दिया गया था। लेकिन अब एक बार फिर पर्दे के पीछे छिपे माशेलकर और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के रिश्ते जगजाहिर हो गए हैं। कमलनाथ मंत्रालय की सिफारिश पर 'संशोधित रूप में माशेल्कर समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही आगामी एक माह के भीतर गुपचुप तरीके से 'ड्रग एण्ड कॉस्मेटिक एक्ट' पारित करने की तैयारी की जा रही है। आम-आदमी को तो इसकी भनक तक नहीं होगी कि एक खतरनाक अधिनियम बिना किसी संसदीय बहस के गुपचुप तरीके से पारित किये जा रहा है। हैरानी की बात नहीं है जिस देश की वैज्ञानिक और अनुसंधान व्यवस्था के मुखिया माशेलकर जैसे लोग होंगे, उस देश के गरीब आदमी के पास आत्महत्या के अतिरिक्त और क्या विकल्प है?

नोवार्टिस की मंशा
नोवार्टिस की याचिका खारिज होने के बाद जहां एक ओर विभिन्न संगठन इसे 'पेटेंट पर मरीजों के अधिकारों की जीत' के रूप में देख रहे थे, वहीं नोवार्टिस के लिये यह मात्र एक व्यापार है, इसलिये उसने तुरन्त यह घोषणा कर दी कि ऐसे प्रतिबन्धाें और निर्णयों के चलते, भारतीय दवा कंपनियां आविष्कार और संशोधन जैसे प्रयासों के लिये, पूंजीनिवेश के लिये मोहताज हो जाएंगी, क्योंकि अब ये सब बड़ी-दवा कंपनियां भारत में नहीं बल्कि चीनी दवा उद्योग में पूंजी लगाएंगी। इसके ठीक विपरीत पेरिस में चार दिनों तक चले एक अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन में यह बात जोर-शोर से उठी कि 'पश्चिमी देशों की दवा निर्माता कंपनियाँ' के मुनाफे के लिए करोड़ों एड्सग्रस्त लोगों की ज़िंदगियों से खेल रही हैं और इसी सिलसिले में भारत में बन रही सस्ती दवाओं का स्वागत भी किया गया। ब्राज़ील के एक स्वयंसेवी संगठन ने सस्ती दवाओं की ज़रूरत पर जोर देते हुए बताया कि किस तरह वहाँ की सरकार कई भारतीय कंपनियों से जेनेरिक दवाएँ ख़रीदकर एड्सग्रस्त लोगों का इलाज करवा रही है। वहीं नाइजीरिया के एक डॉक्टर ने भारतीय कंपनियों की तारीफ़ करते हुए कहा कि भारतीय कंपनियों की बनाई हुई जेनेरिक दवाओं से अफ्रीका में एड्स से लड़ने में काफ़ी मदद मिल रही है। लेकिन भारत में एड्स की दवा बनाने वाली प्रमुख कंपनी रैनबैक्सी के अनुसार अब सस्ती दवाओं की माँग केवल ग़रीब देशों में ही नहीं रही., बल्कि अमीर देशों के गरीब भी भारत की तरफ सस्ती दवाओं के लिए देख रहे हैं।

अपना उल्लू सधता न देखकर भारतीय राजनीति के ठेकेदारों और नौकरशाही को हरकत में लाने के लिये नोवार्टिस 'गीदड़-धमकियां' देने पर उतर आई है, जब सीधी अंगुली से घी नहीं निकला तो उसने अंगुली टेढी कर ली है। चीन की ओपीटीआर (ऑप्टिमर फार्मास्यूटिकल और रिसर्च एण्ड डेवलपमेन्ट) को मोहरा बनाकर, अब भारतीय दवा उद्योग पर हमला करने की तैयारी की जा रही है। नोवार्टिस को शायद इस बात का गुमान है कि इनके दबाव में आकर, शायद भारत अपने पेटेंट कानून में बदलाव कर देगा। इस सबके लिये न केवल माशेल्कर और कमलनाथ जैसे दलालों को सीढ़ी बनाया गया है बल्कि लॉस एंजिल्स स्थित एएचएफ(एडस् हैल्थकेयर फाउंडेशन) जैसी संस्थाओं की सहायता से भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियों को बदनाम करने की नीच हरकतें शुरू कर दी गई है। हाल ही में एक मुख्य समाचार-पत्र में छपे, सिपला दवा कंपनी को चुनौती देने वाले विज्ञापन ने इन बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की हमारे देश की मीडिया को विज्ञापनों और उनसे मिलने वाले रुपये की चिन्ता तो है, पर उन लाखों-करोड़ों जिन्दगियों की कोई चिन्ता नहीं, जिनकी जिन्दगी से विदेशी कंपनियां, निहित स्वार्थों के लिये खिलवाड़ कर रही हैं। ऐसी मीडिया को देश का प्रहरी नहीं बल्कि 'मौत का सौदागर' ही का जा सकता है।

नोवार्टिस जैसी कंपनियों की तो मंशा ही यह है कि भारत में ज्यादा से ज्यादा दलाल खड़े करके, पेटेंट व्यवस्था में बदलाव के लिये दबाव बनाया जाए। नोवार्टिस के वाइस चेयरमैन डॉ रणजीत साहनी का कहना है कि वह न्यायालय के निर्णय से सहमत नहीं हैं। कंपनी के प्रवक्ता ने भी स्पष्ट स्वर में घोषणा की है कि ''न्यायालय के निर्णय से विवाद खत्म नहीं हुआ है, बल्कि हम लोग इस अभियान में उन सभी के साथ मिलकर काम करेंगे, जिनकी सम्बन्धित मुद्दे पर रूचि है। ''अब नोवार्टिस को इंतजार है 'बौध्दिक सम्पदा अधिकार, अपीलीय बोर्ड, दिल्ली के फैसले का।

भारतीय-अमेरिकी बिजनेस संगठन 'युनाईटेड स्टेट्स इंडिया बिजनेस कांउसिल के डायरेक्टर ग्रेग कैलबॉघ ने वाशिंगटन में कहा कि कोर्ट के फैसले के बाद यह मसला अब भारत की विधायिका के सामने है। उम्मीद है कि इस पर जिम्मेदार बहस शुरू होगी और मेडिकल क्षेत्र में नई खोजों को प्रोत्साहित करने वाले नियम बनेंगे। दूसरी ओर सिपला फार्मास्यूटिकल कंपनी के चेयरमैन यूसुफ हामीद और 'मुम्बई कैंसर पेशेन्टस सप्पोर्ट ग्रुप के अध्यक्ष वाईके सप्रू ने कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए कहा ''यह न केवल घरेलू बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की जीत है। भारत में करीब 5 बिलियन डॉलर का दवा कारोबार है जिसमें से 65 फीसदी विकासशील और विकसित देशों के गरीब लोगों को जाता है, अगर कोर्ट का फैसला अन्यथा होता तो, उन गरीबों को सस्ती दवाएं मिलना बन्द हो जाती, कोर्ट के फैसले से यह आपदा टल गई है। ''

दवा उद्योग और 'ग्लोबल रिलीफ ऑगनाइजेशन्स भी इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं। आवश्यक दवाओं के लिये 'डॉक्टर्स विदाउट बोर्डर' अभियान के डायरेक्टर टिडो वॉन शुएन-एंजीरर ने इसे विकासशील देशों के लाखों मरीजों के लिये राहत का कदम बताया है। फिर भी सूरत-ए-हाल यह है कि नोवार्टिस अब भी भारतीय पेटेंट कानून को चुनौती देने पर आमादा है, वह इस सच्चाई से आंखें मूंद रही है कि भारतीय पेटेंट कानून की दोहा वार्ता में किये गए निर्णय के अनुसार काम कर रहा है। तो ऐसे में क्या नोवार्टिस को भारतीय पेटेंट कानून को चुनौती देने का अधिकार है? क्या एक दवा कंपनी की इतनी औकात हो गई है कि वह एक ऐसे कानून को चुनौती दे जो अन्तरराष्ट्रीय स्तर के दिग्गज मंत्रियों की उपस्थिति में तय किया गया था? यह चुनौती वास्तव में भारतीय कानून को नहीं डब्लूटीओ र्वात्ताओं और समझौतों को चुनौती है? यह चुनौती है उन सभी देशों के प्रतिनिधियाें के लिये, जो उस र्वात्ता में शामिल हुए थे।

ग्लीवाक दवा का मामला भारतीय पेटेंट कानून के लिए एक परीक्षा साबित होने जा रहा है। यदि नोवार्टिस ग्लीवाक पर पेटेंट हासिल कर लेती है, तब तमाम जीवन रक्षक दवाओं पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा पुन: पेटेंट लेने का दरवाजा खुल जायेगा और फिर ये दवाऐं सामान्य आदमी की पहुंच से बाहर हो जायेंगी। उदाहरण के लिए ग्लीवाक की घरेलू कीमत महज 8,000रुपया महीना पड़ती है जबकि नोवार्टिस द्वारा पेटेंट की हुई ग्लीवाक की कीमत 1,20,000 रुपया महीना बैठती है। ये दवाइयॉ 1995 से पहले भी ज्ञात थीं और इसी कारण भारत में इन दवाइयों पर अब पुन: पेटेंट नहीं दिया जा सकता। परन्तु दवा बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन दवाओं के फार्मूलों में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके, या दो दवाओं का मिश्रण बना कर और उसे नयी दवा का नाम देकर नया पेटेंट लेने की कोशिश कर रही है। ये चाल-बाजियां बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमेशा से करती रहती है जिससे उनका पेटेंट अधिकार 'एवरग्रीन' बना रहे। यदि नये भारतीय पेटेंट कानून में से सेक्शन 3(डी) निकाल दिया जाता है या उसे कमजोर कर दिया जाता है, जैसा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाें की मांग है, तो ये चाल बाजियां कामयाब हो जायेंगी और भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा की धज्जियां उड़ जायेगीं। इसका परिणाम होगा एड्स की दवाइयां 20-25 गुना महंगी हो जायेंगी।

घरेलू और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लाखों-करोड़ों लोगों की जिन्दगियों के बचाने के लिये बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की साजिशों को नाकाम करना ही होगा।

घटता लिंगानुपात और महिला नेत्रियाँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

कितना विचित्र लगता है कि जो सुख-सुविधाएँ हमे आसानी से मिल जाना थी उसके लिए हमे भारी जद्दोजहद करना पड़ती है और आज तीव्र विकास के चलते हमे जहाँ होना चाहिये वहाँ नहीं पहुँच पाने का अवसाद झेलना पड़ता है। इन सब के पीछे सबसे महत्वपूर्ण एवं विकराल समस्या हमारी जनसंख्या में अंधाधुंध बढ़ोतरी है। हमारे देश की उतरोत्तर प्रगति में हमेशा से बाधक बनी रही जनसंख्या विस्फोट की समस्या इन दिनों अपने नए-नए जाल फैलाती जा रही है। विशेषकर अशिक्षा, जागरूकता के अभाव और समस्या की भयावहता से अपरिचित होने के कारण ग्रामीण जनसंख्या में भारी बढ़ोतरी हमारे सारे विकास कार्यक्रमों को पीछे धकेल रही है। पंचायती राज के तहत विकेन्द्रीकृत जमीनी स्तर की प्रशासन व्यवस्था तो लागू भी कर दी गई है और जनसंख्या में कमी लाने के प्रावधान भी विभिन्न तरीकों से किए जा रहे हैं। घर में अधिक जनसंख्या और उससे होने वाले प्रतिप्रभावों से महिलाएँ अधिक परिचित होती हैं इसलिए शासन द्वारा किए गए 33 प्रतिशत आरक्षण के द्वारा महिलाएँ भी जमीनी स्तर के प्रशासन से जुड़कर राज-काज में हिस्सा ले रही हैं, और देखा जाय तो स्थितियाँ निराशाजनक भी नहीं है।

पिछले दो दशकों में जनसंख्या में एक नया असंतुलन लिंग अनुपात में भारी बदलाव के तहत उभर कर सामने आया है। यह सही है कि वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर देश के प्रति हजार पुरुषों पर 933 महिलाएँ हैं जो कि वर्ष 1991 की जनगणना के 927 के आकड़े से अधिक है परंतु यदि शून्य से छ: वर्ष तक के बच्चों का लिंग अनुपात देखा जाय तो स्थिति की भयावहता स्पष्ट को जाती है। पिछले दस वर्षों में यह 945 से गिरकर 927 प्रति हजार पुरुष बच्चे तक पहँच गई है। छ: वर्ष से कम आयु वाला आबादी का यह वर्ग जिसे आज से 10-15 वर्ष बाद देश की वयस्क जनसंख्या में शामिल होना है तो उस समय का लिंगानुपात आज से भी कम होगा।

रीवा जिले के घुसउल ग्राम पंचायत की पंच विद्या मिश्र जो अशिक्षित हैं, से यह पूछने पर कि लड़की पैदा होने पर आप दुखी होती हैं तो उनका जवाब त्वरित आता है, ''सच पूछिये तो हम जब पंच नहीं बने थे तब जरूर हमारी भी लड़कियों के प्रति वही सोच थी जो दूसरे ग्रामीणों की है, परंतु पंच बनने के बाद और कई जगह घूमने के बाद मैं सोचती हँ लड़की होना भी बहुत अच्छा है....'' इसी तरह इसी पंचायत की एक आदिवासी पंच प्रेमवती बाई इस मसले पर कहती हैं, ''अब तो सरकार भी लड़कियों को बहुत सुविधा दे रही है और पढ़ने में मदद कर रही है.... साइकिलें दे रही है... फीस भी नहीं ली जाती है.... तो अब लड़के और लड़की में कोई खास फर्क नहीं है...।''

यदि हम राज्यगत ऑंकडों में जाते हैं तो स्थिति का थोड़ा बहुत खुलासा होता है। जनगणना 2001 के ऑंकडों के अनुसार शून्य से छ: वर्ष तक के बच्चों का लिंग अनुपात पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट््र, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडू, दिल्ली, चंड़ीगढ़ में विशेष रुप से बहुत खराब ही नहीं बल्कि कई जगह तो खतरे के निशान के भी नीचे चला गया है। ऐसे राज्य ''डिमारू'' राज्य की श्रेणी में आते हैं। यहाँ 'डि' का अर्थ 'डॉटर' और 'मारू' का अर्थ 'घातक'।

अभी भी कहा यह जाता है कि तमाम प्रयासों के पश्चात भी विकास की इस दौड़ में अक्सर हमारी आदिवासी महिलाएँ पिछड़ जाती हैं और मुख्य धारा से कटी रह जाती हैं। लेखक ने आदिवासी बहुल जिले मंडला और बालाघाट चुने और क्षेत्र के दौरे के पश्चात स्थितियों को देखा कि यहाँ सभ्य और विकसित कहे जाने वाले समाज से विपरीत लड़कियों को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। दोनों जिलों में गोंड़ और बैगा जनजातियाँ ही प्रमुखता से पाई जाती हैं और इनमें से भी बैगा जतजाति को केन्द्र से विशेष दर्जा प्राप्त है। प्रकृति की पूजा-आराधना करने वाली इन जनजातियों में अपनी परम्परा, अपने संस्कार, अपना संगीत, अपने आचार-विचार हैं और यही उन्हे दूसरों से अलग करते हुए अपना संसार रचने में मदद देते हैं। यहाँ दहेज उल्टे लड़के वालों को देना होता है।

मंड़ला जिले की बिछिया तहसील की खटिया पंचायत की महिला सरपंच सुखवती बाई जो मूलत: गोंड़ हैं और उनका गाँव बैगा बहुल है। वे दूसरी बार सरपंच चुनी गई हैं। उनसे लड़के व लड़कियों में भेदभाव के विषय में पूछने पर वे कहती हैं कि वैसे भी हमारे यहाँ कभी भी लड़की को बोझ नहीं माना गया है। पंचायत के सचिव बालकुमार यादव जो पिछली तीन पारियों से यहाँ के सचिव हैं कहते हैं, ''महिलाएँ अधिक संवेदनशील होती हैं और उनमें कार्य को सही ढ़ंग से करने का सलीका तथा प्रबंधन के नैसर्गिक गुण पाए जाते हैं इसलिए मैं उनके साथ कार्य करने में पुरूषों की तुलना में बहुत ज्यादा खुश रहता हूँ।''


हरियाणा में एक भी जिला ऐसा नहीं था जिसमें 800 से अधिक लिंगानुपात पाया गया हो। वास्तव में यह सब जनांकिकी (डेमोग्राफी) के सिध्दांतों के विपरीत ही है। ये सभी राज्य दूसरे राज्यों की तुलना में समृध्द राज्य हैं और जहाँ समृध्दी होगी वहाँ बेहतर शिक्षा व बेहतर आर्थिक सुरक्षा होगी तथा यही सब स्त्री-पुरुष के भेद को भी खत्म कर देगी। अच्छी शिक्षा का परिणाम तो यही होना चाहिये कि 'बेटा ही सब कुछ है' वाली पारम्परिक रुढ़ियों विनाश हो परंतु हमारे देश में इस सिध्दांत के विपरीत परिणाम सामने आए हैं। समृध्दी ने इतनी ताकत दे दी है कि जन्म से पूर्व ही खर्चिला लिंग परीक्षण कर कन्या होने की स्थिति में उसकी हत्या कर दी जाती है।

जहाँ तक मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचल का सवाल है कई महिला सरपंच जैसे धार जिले की दीतूबाई नरवे, सीधी जिले की सुनीता यादव, सतना जिले की रधियाबाई और उज्जैन जिले की माधुरी राठौर से लिंग परीक्षण के विषय में पूछने पर सभी लगभग अनभिज्ञता दर्शाती हैं और स्थिति को और अधिक स्पष्ट कर बताने पर वे इसे महापाप की श्रेणी में डालती हैं। उनके मुताबिक यह किसी की हत्या करने के बराबर है। वास्तव में गाँवों में इतना धन लगाने की शक्ति न होने और प्रचलित धार्मिक भावनाओं के चलते भी फिलहाल स्थिति इतनी खराब नहीं हुई है।

जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्रयुक्त 'हम दो और हमारे दो' का नारा भी इन दिनों हमारे लिए समस्या बनता जा रहा है क्योंकि हर परिवार को जहाँ तक हो सके अब दो लड़के ही चाहिये। एक भी लड़की का सीधा मतलब निकाला जाता है 'खर्च' और एक पुत्र का मतलब 'आमदानी।' यह सब उन समृध्द परिवारों में ज्यादा होता है जहाँ ज्यादा जायदाद होती है। एक गरीब परिवार आज भी उतना ध्यान इस गणित पर नहीं दे पाता है और न ही खर्चिले लिंग परिक्षण्ा को वह वहन कर सकता है। परम्परा और आधुनिक तकनीक का यह अवांछित गठजोड़ समाज में नई विकृति को जन्म दे रहा है।

लिंगानुपात को लेकर एक संशय हमेशा व्यक्त किया जाता है कि जनगणना से प्राप्त ऑंकडे क़ितने वास्तविकता के करीब हैं। जनगणना आयोग कितने ही आधुनिकता की दुहाई दे परंतु भारत जैसे विषद एवं विविधताओं को लिए इस देश में यह स्वाभाविक भी है। जब शहरों में जन्म-मृत्यु के ऑंकडे व्यवस्थित नहीं हैं तो गाँवों के हालातों के विषय में तो कहना भी लाजमी नहीं होगा। और तो और गाँवों में सत्तर प्रतिशत से अधिक जनसंख्या निवास करती हो।

कुल मिलाकर देख जाय तो आज जरुरत इस बात की है कि हमे अपनी योजनाओं की पुर्नव्याख्या करना होगी। आज हमारी आदत साँप निकल जाने के बाद लकडी पीटने की हो गई है। जबकि स्थितियाँ तेजी से बदल जाती है और हम अपने ढर्रों से ही नहीं निकल पाते है। लिंग परीक्षण के लिए कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है। उसके लिए कडे व मजबूत प्रबंधन एवं उसकी अनिवार्यता को भी लागू करने की भी आवश्यकता होती है। इस ओर हमारा ध्यान बहुत कम ही जा पाता है। इसी तरह जन्म-मृत्यु पंजीकरण की अनिवार्यता, लड़कियों को प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ावा और जन जागरुकता को प्रोत्साहन पर भी पूर्णकालीक ध्यान दिया जाना चाहिये। यही वे प्रयास होंगे जो हमे इस लिंगानुपात में असंतुलन की विनाशकारी विकृति से उबार सकेंगे।

प्रबुध्द नागरिकता और जमीनी प्रजातंत्र में महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

राज दरबार खचाखच भरा था। कारण था एक अपराधी को राजा सजा सुनाएँगे। सभी के मन में कौतुहल मिश्रित उत्सुकता थी। राजा आए, अपराधी को लाया गया। राजा ने सिंह की सी आवाज में अपराधी से कहा, हम तुम पर रहम बरतते हैं क्योंकि आज हमारी बेटी का जन्मोत्सव है.....तुम्हे हम अपनी सजा स्वयं चुनने का मौका देते हैं। ये जो तीन तख्ते तुम्हारे सामने रखे हैं उनमें तुम्हारे लिए तीन सजाएँ लिखी हुई हैं......जो चाहो वो तुम चुन सकते हो। अपराधी खुश हुआ.... राजा ने भी एक लम्बा ठहाका लगाया। अपराधी ने एक तख्ता उठाया उस पर लिखा था मौत....। गुस्से में उसने दूसरा भी उठा लिया उस पर भी लिखा था मौत.... और तीसरा उठाया तो उस पर भी लिखा था मौत....।
मतलब साफ था कि अपराधी के पास कहने को तीन विकल्प थे, उनमें से एक को चुनना था। यह दर्शन हमारे आज के प्रजातंत्र पर पूर्ण रुप से फिट बैठता है। हमने नासमझी के चलते अपने विकल्प खत्म ही कर लिए हैं। जमीनी लोकतंत्र को ही देख लेते हैं। पंचायतों में चुनी गई महिलाओं से बात करने के दौरान पता चलता है कि चुनावों को कितना मशीनीकृत बना दिया गया है। सतना जिले के रामपुर बघेलन ब्लाक की इटमा पंचायत की सरपंच श्रीमती कमला कहती हैं कि ''कहने को तो पंचायतें दलगत राजनीति से दूर रखी गई हैं लेकिन वास्तव में राजनैतिक दलों का बहुत ज्यादा हस्तक्षेप इन चुनावों में होता है। मैं तो इस दलों के चक्कर से बचने के लिए निर्दलीय लड़ी और जीत कर दिखा दिया।'' कुल मिलाकर जमीनी स्तर पर लोगों के पास भी तमाम राजनैतिक प्रपंचों के चलते विकल्पों की कमी रही और जितने भी विकल्प रहे वे भी उपरोक्त उदाहरण की तरह ही थे। परिणामत: कई जगह निर्दलीय उम्मीदवारों को स्ािान मिला। बकौल शायर, 'तह के अंदर भी हाल वही है जो तह के उपर हाल/ मछली बचकर जाए कहाँ जब जल ही सारा जाल।'
दलगत राजनीति के चलते एक और बड़ी समस्या को न्यौता गया है। एक-ढेड़ हजार की जनसंख्या वाली पंचायतों में दलगत मतभेद होने पर दस से ग्यारह या उससे भी ज्यादा उम्मीदवार खड़े हो जाते हैं और हरेक उम्मीदवार को कुछेक सौ वोट मिल जाते हैं। इस तरह से कई बार महज सौ या उससे भी कम वोट पाने वाला व्यक्ति सरपंच तो बन जाता है लेकिन उसे एक विडंबना ही कहेंगे कि उसे हजार से अधिक लोगों का विरोध पूरे कार्यकाल में झेलना पड़ता है। कई बार तो विवाद इतने बढ़ जाते हैं कि विकास कार्य अवरूध्द होकर कोर्ट कचहरियों तक सिमट जाता है। एक धनात्मक पक्ष यह है कि जहाँ महिलाएँ खड़ी होती हैं वहाँ यह समस्या कम है क्योकि ज्यादातर मामलों में महिलाओं में चुनावी प्रतिद्वंदिता ज्यादा समय तक नहीं रहती हैं और वे अपने घरेलू प्रबंधन से इसका हल निकाल कर एकजुट हो जाती है। चाहे वह दूरस्थ मंडला जिले की खटिया पंचायत की सरपंच सुखवती बाई हो या राजोद, जिला धार की सरपंच दीतू बाई नरवे हो, या फिर रामपुर नैकिन, जिला सीधी की जनपद सदस्य प्रमीला बाई हो, सबने तमाम प्रतिद्वंदिताओं को भुलाकर विकास कार्य को आगे बढ़ाया है।
एक ओर हम कहते तो बहुत हैं कि जमीनी स्तर पर पंचायतों में साफ-सुथरा शासन होना चाहिये। और भी तमाम आदर्शों को अपनाने के लिए पंचायतों को आगे धकेला जाता है जबकि यह सब तो अधिक उन्नत, शिक्षित, समृध्द उपरी स्तर के प्रजातंत्र को करना चाहिये। एक साधाहरण से टिकट वितरण के लिए जितने सिर फुटव्वल, मारा-मारी, विरोध के जंगली तरीके एवं दल बदलने की घटनाएँ होती हैं उससे कोई बहुत अच्छे आदर्श तो हम स्थापित नहीं कर पाते हैं। अब इससे उस ग्रामीण लोकतंत्र पर क्या संदेश जाएगा, यह साफ है। चौफाल पंचायत जिला सीधी की सरपंच सुनीता यादव कहती हैं कि ''जब बडे-बडे लोग बिक जाते हैं और मरने मारने पर उतर आते हैं तो हमारी पंचायत तो बहुत छोटी है.... जैसे लोग देखेंगे वैसे लोग सीखेंगे....।'' शायर ने भी लिखा है, 'अपनी कमीनगी का सजावार मैं ही था/ खुद को मझधार में छोड़कर उसपार में ही था।' विडंबना तो फिर यही है कि जब यही सब भावी पीढ़ी और अधिक विध्वंसक रुप में करेगी तब नेंपथ्य से हम ही स्तब्ध खड़े रहने के अलावा कुछ नही कर सकेंगे। महिलाएँ जहाँ पंचायतों में खड़ी होती है वहाँ जरूर ऐसे घटनाक्रम कम ही होते हैं। रीवा से लगी हुई अजगरहा पंचायत की सरपंच माया देवी सिंह भी यही सोचती हैं और कहती हैं कि महिलाएँ होने से अराजक तत्व पहले-पहल तो खुद ही अलग हो जाते हैं और यदि कुछ करते भी हैं तो झेपते हैं। गांवों में महिलाओं के प्रति एक प्रकार की शर्म अभी भी रखी जाती है।
प्रबुध्द नागरिकता एवं प्रबुध्द प्रजातंत्र के प्रति तो हमारी सोच को ही ताला लग गया है। संपूर्ण मीडिया भी सूडो (छद्म) प्रजातंत्र की सतही स्तरों को ही कवर कर रहा है। समाज के महत्वपूर्ण पक्षों की समाज के प्रति भी बहुत प्रतिबध्दताएँ होती है। किसी से जोरदार प्रश्न भर पूछ कर या फिर प्रश्नों के घुमावदार, चतुराईपूर्ण उत्तर देकर ही हमारा दायित्व पूरा हो जाता है? हमारे यहाँ अनेक गणमान्य नेता कई मामलों में भ्रष्टाचार में संलग्न पाए गए। क्या हुआ उनका? सिवाय थोड़ी सी बदनामी के किसी का कुछ नहीं हो पाया....ऐसे में हर दूसरा आदमी नेता तो बनना चाहेगा ही। ऐसी ही प्रतिबध्दताओं के चलते एक और बात सामने आती है कि हम हमेशा चाहते हैं कि हमें सामने वाला व्यक्ति अच्छा ही मिले। एक व्यभिचारी पति भी चाहता है कि उसकी पत्नी शरीफ हो.....एक नशेबाज बाप भी अपनी बेटी के लिए सीधा-सादा दामाद ढूंढता है.....हम चाहे जितना भ्रष्टाचार कर रहे हों परंतु हमें अपने कार्य के लिए कोई भ्रष्टाचारी न मिले...कुल मिलाकर अपेक्षाएँ हैं..... लेकिन सबकुछ सामने वाले से ही स्वयं से नहीं। रीवा जिले की हर्दी पंचायत की सरपंच अरूणा देवी सरपंच रहने सं पूर्व से ही ग्रामीणों के मध्य सक्रीय रूप से कार्य कर रही हैं और कहती हैं कि ईमानदारी का फल यह है कि उनके स्वयं के बच्चे आज अच्छी जगहों पर सुखी हैं। वे कहती हैं कि ईमानदारी को कहा नहीं निभाया जाता है और परिणाम हमें अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होते हैं। इसी तरह चकदही पंचायत जिला सतना की सरपंच रधियाबाई प्रारंभ में परिवार के अन्य सदस्यों पर भरोसे व अनुभवहीनता के कारण किसी घोटाले का हिस्सा बन गई, लेकिन ग्राम सभा में सारी यथास्थिति स्पष्ट करते हुए गलती कबूल की व भरी सभा में ग्राम सभा से कहा कि उसे जो सजा दी जावेगी उसे स्वीकार है। ऐसी स्वीकारोक्ति कौनसा नेता आज के समय में करता है? यह हकीकत है कि आज जमीनी लोकतंत्र कई जगह आदर्श स्थापित करने में लगा है जो उपरी लोकतंत्र के लिए भी प्रेरणास्पद है। एक आम आदमी तो यही प्रार्थना कर सकता हैं कि हमारा प्रतिनिधि देवता नहीं तो कम व्यभिचारी, कम भ्रष्टाचारी, कम सत्ता लोलुप, कम बेईमान हो ...। कवि ने भी लिखा है, 'खुशी हो जाती है उनसे ही मिल कर/ जो शहर के दूसरे लोगों से कम झूठे हैं।'

गाँवों में जबरन घुसता बाजार और पंचायत में महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

मैं मिट्टी में खेला, मिट्टी में ही बना हूँ। गाँव में जन्मा, बचपन का बड़ा हिस्सा वहीं बीता, किशोरावस्था की भी बड़ी कशिश की दुपहरी और ऍंधेरी-उजाली रात गाँव में ही बीती। अब फिर गाँव में हूँ, फेलोशिप की वजह से। इस थोडे से अंतराल में गाँव में बडे-बडे क़्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, शक्ति के नए समीकरण बने हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज आ गया है। महिलाएँ भी नेतृत्व करने लगी हैं। होले-होले शहर की सभी न्यामतें यहाँ पहुंच गयीं हैं। शहरी आदतें धीरे से अपनी पैठ जमा रहीं हैं। देर तक जगना, देर से सोना, शोर-शराबे में एकान्त क्षण पाना। अब देखता हँ बच्चे रेड़ियों, टीवी, टेपरिकॉर्डर के मतवाले हैं और उन्हे पूरे वाल्यूम पर चला देते हैं, तभी उनके पढ़ने में एकाग्रता बनती है।
गोंड़ और बैगा आदिवासी बहुल मंड़ला और बालाघाट जिले की यात्रा के दौरान महिलाओं को शासन करते और उन्हे समाज द्वारा अपनाते हुए देखना उतना ही अच्छा लग रहा था जितना की किसी अच्छे बदलाव के होने पर लगता है। लेकिन लगभग पूरी तरह से बदलते गाँव में स्मृतियों में बसा पुराना गाँव और उसकी अमराई आज भी बुलाते प्रतीत होते रहे। वह खुला ऑंगन बुलाता रहा जहाँ कूटे गए धान की महक में, कूटने वाली चूड़ियों की खनक में और उसके भरे-पूरे होने की लहक में रोम-रोम खिल उठता था। वह बड़े से बरगद की छाँव बुलाती रही जहाँ जेठ की दुपहरी कबड्डी को और सावन की दुपहरी झूलों के मध्य खिलखिलाती ग्रामीण नवयौवनाओं को अर्पित होती थी। दूर उस पीपल की छांव में बच्चे दिन-दिन भर ढेरों तरह के खेल खेला करते थे और झगड़ते रहते थे अपने-अपने दाव के लिए। गाँव से थोड़ी ही दूर पर बारहमास बहने वाली नालेनुमा नदी जो पनघट के साथ-साथ सांस्कृतिक केन्द्र भी थी, वह बुलाती रही। पहले जब संध्या होती थी तब गांव के हर ऑंगन में उस छोटे से तुलसी के बिरवे के नीचे छोटा-सा दिया जलता था तो अनायास ही हाथ प्रार्थना की मुद्रा में जुड़ जाते थे, क्योंकि उस दिए में लौ मिली हुई थी संयुक्त परिवार की, माँ की, बहन की, भाभी की, पत्नी की, बहू की, बेटी की, रोटी की, भात की, नए गुड़ की ....।
अब यही गाँव शहरनुमा तर्ज पर बदल रहे हैं। उनका अपनी मौलिकता और ठेठपन गायब नजर आता है। मंड़ला जिले में स्थित विश्वप्रसिध्द कान्हा-किसली नेशनल पार्क से लगे हुई खटिया ग्राम पंचायत को ही लीजिए, बैगा और गोंड़ आदिवासी क्षेत्र इन दिनों विभिन्न लुभावने रिसोर्टों से अटा पड़ा है। सरपंच सुखवती बाई बताती हैं कि क्षेत्र में पानी की समस्या है और खेती के लिए भी पर्याप्त जल स्रोत नहीं हैं। दूसरी और हम देखते हैं कि वहाँ आपको बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तमाम तरह के शीतल पेय पग-पग पर मिल जावेंगे और रिसोर्टों के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध हो जाता है। बाजार के दखल ने आदिवासियों को हाशिए पर धकेलना प्रारंभ कर दिया है।
खटिया पंचायत के सचिव बालकुमार यादव जिनके हाथ में ब्लूट्रूथ, केमरा युक्त अत्याधुनिकतम मोबाईल फोन है, 25-30 मिनिट की बातचीत के दौरान वे कई बार बतियाते भी हैं, और एक कुशल प्रबंधक की तरह से कहते हैं कि हमने आदिवासियों की लोककला को पर्यटकों के लिए एक समूह के माध्यम से खोल दिया है। पंचायत में ऑपरेशन थिएटर एवं सुविधा सम्पन्न प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र भी है लेकिन अभी भी वहाँ प्रसवोपरांत मृत्यु दर्ज हो रही है। दूसरी बार सरपंच बनी सुखवती बाई जो स्वयं भी गोंड़ हैं, कई मुद्दों पर अनभिज्ञ हैं और सचिव को ही आगे ठेलती दिखती हैं। उनके आरसीसी के निर्माणाधीन घर में भी रंगीन टीवी, डीवीडी प्लेयर आदि उपलब्ध है।
मोबाईल हाथ में लिए 38 गांवों की जनपद की जनपद सदस्य मंडला जिले के मोगा ब्लॉक की और गोंड़ आदिवासी सोनाबाई उइके भी गांवों से शहरों की ओर होने वाले प्रव्रजन से चिंतित हैं। उनके स्वयं के गांव पलिया के आसपास पर्यटन विभाग की वृहद परियोजना 'चौगान' को व्यवहारिक रूप देने की चल रही है। पास ही बहती जीवनदायनी नर्मदा की टूटती धाराएँ और बहुत कम होता पानी भी अत्यधिक दोहन की ओर इशारा करता है।
मंडला और बालाघाट जिलों के अन्य गांवों को भी देखने के बाद उनमें बाजार की घुसपैठ का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक दूरस्थ गांव भानपुर खैड़ा के आदिवासियों की भी सामाजिक-आर्थिक हालत कमजोर है लेकिन एक सात-आठ साल के बच्चे को विभिन्न कंपनियों के 'गुटके' बेचते हुए देखकर स्थितियाँ और भी साफ हो जाती हैं। इसी गांव के लोगों से बातचीत करने पर पता चलता है कि किसी कथित प्रायवेट बैंक की एक ऐजेंट यहाँ से हजारों रूपए पक्के मकान बनवाने के नाम पर झांसा देकर भाग चुकी है।
बालाघाट जिले की हट्टा ग्राम पंचायत का दौरा करने के बाद तो लगता है कि पूरे कुँए में ही भांग घुली है। तमाम ईंट के भट्टों के ठेकेदारों ने पंचायत के विकास के समीकरण बदल से दिए हैं। इन आदिवासी पंचायतों में भी सारे शहरी तौर-तरीके, भागम-भाग, पैंतरे आ गए हैं। इसी क्षेत्र में कार्य करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता विवेक पवार कहते हैं कि हम आदिवासियों का विकास चाहते हैं, अभी तक गांधीवादी दृष्टिकोण से चलने वाले इन आदिवासियों के लिए विकास की कौनसी परिभाषा ली जावे ताकि ये विकास की मुख्य धारा में भी आ जावें और इनकी मौलिकता भी बची रहे...... यह प्रश्न अभी भी जस का तस हमारे समक्ष एक चुनौती की भाँति खड़ा है।
इन सबके कारण भी हैं और ठोस कारण हैं। अब हम आदर्शों, संस्कारों, परम्पराओं, भावनाओं, आस्थाओं के जीते नहीं है, वक्त आने पर इन्हे शब्दों की भाँति दोहरा भर लेते हैं या फिर भार की तरह ढ़ो लेते हैं। इस पर ज्यादा कुछ बात करो तो चाँद पर पहुँचने की दुहाई दी जाती है, दकियानूसी होने के आरोप लगाए जाते हैं और फिर से वही दौर प्रारंभ हो जाता है। दूसरा कारण है थोड़ी ही दूर पर उपलब्ध बाजार, जहाँ उपभोक्तावाद मॅुंह फाड़े खड़ा है। जिसके आगे भावनाएँ, इच्छाएँ, मान-मर्यादाएँ सब गौण हैं, महत्वपूर्ण है तो बस रूपया। इसके अलावा लुभावने, मन-भावन भौतिक संसाधन, सुख सुविधाओं की दिखावटी चमक-धमक और एक अजीब से आकर्षण की मृग-तृष्णा, सब कुछ तो है बाजार के पास। ऐसे में गाँव को महज यह कह कर रोकना कि सभी चमकने वाली वस्तु सोना नहीं होती, नक्कार खाने में तूती की आवाज जैसा लगता है। यह आवाज उस चालाक और बधिर बाजार के मायाजाल से टकराकर बोलने वाले के पास प्रतिध्वनि के रूप में पुन: लौट आती है। सब कुछ पा लेने की दौड़, झटपट काम करने की हौड़ और रोज बनते-बिगड़ते रिश्तों की जोड़-तोड़ के माहौल में किसी से यह आशा रखना कि वह हाथी के इन शोदार दातों या नकली चमकते सोने को पहचान ले अपने ज्ञान के जरिए तो यह बेमानी होगा, क्योंकि इतना ज्ञान भी किसके पास है?
औद्योगिकरण और मशीनीकरण के प्रभाव से कथित विकास हुआ, ग्रामीण शहरों की और भागने लगे। येन-केन-प्रकारेण धन कमाने के सारे साधन पूंजीवादी लोगों के कब्जे में आ गए और गांधी का सपना बिखर कर रह गया। ग्रामीण व्यवसाय शहरों की ओर पलायन कर गए और प्रत्येक गाँव की स्थिति वैसी ही हो गई जैसी अंग्रेजों के समय थी। उस समय कच्चा माल विदेश जाता था और उसी से बना माल उच्च कीमत पर बिकने भारत आता था।
मुगफली, तिल, सोयाबीन सस्ते दामों पर शहर जाने लगी और मिलों द्वारा तैयार तेल, खली महँगे दामों पर गाँव में बिकने के लिए आने लगे। गाँव में रहने वाले तेली, खाती, लुहार, कुम्हार, मोची अपने-अपने कार्यों के अभाव में मजदूरी करने शहर जाने लगे। कपास, दूध, दलहन सभी मिल मालिकों के कब्जे में आ गया। दही बिलौने, चरखें आदि के दिन लद गए। अब गाँव की दुकानों पर फलां छाप नमक, फलां छाप तेल, फलां साबुन-टूथपेस्ट आदि बिकने लगे। मशीनीकरण की वजह से कृपि के यंत्र बुवाई, सिंचाई, बीज, खाद आदि शहरों में केन्द्रित हो गए और सारी खेती शहरी उपकरणों की गुलाम हो गई। जमीन भी विपरीत परिस्थितियोंवश टुकडे-टुकड़े में बँट गई और कई लोग उन्हे बेच-बेचकर शहर में रोजगार की तलाश में निकल गए। खेत जुताई के लिए ट््रेक्टर, बीज, खाद के लिए बड़ी कंपनियों के माल का सहारा, सिंचाई के लिए बड़ी कंपनियों के ही इंजन या विद्युत पंप। कुल मिलाकर खेती वही कर सकता है जिसके पास नकद पैसा हो, नहीं तो उधारी और तगडा ब्याज भरो इसके अलावा कोई चारा नहीं।
पहले सारा परिवार खेती में लगा रहता था, खेती में इतना पैसा खर्च नहीं होता था, केवल कामगारों को फसल पर अनाज देना होता था, अब स्थिति यह है कि कमाई का आधे से अधिक भाग उन्ही पूंजीवादी संस्थानों को जा रहा है। इसतरह यह फिर से जमींदारी प्रथा का ही नयारूप जन्म ले रहा है। जहाँ खेती की पैदावार से बगैर मेहनत के बिचौलिए ही वारे-न्यारे हो जाते हैं वही उन्हीं किसानों का माल चमकीली थैलियों, डिब्बाबंद प्रदार्थों के रूप में पुन: उन्ही के पास अधिक दामों में आता है। गाँवों का यह ढांचा बिगड़ने से कई लोग 'फ्री' हो गए हैं। या तो ये लोग शहरों की और पलायन कर रहे हैं या फिर वहीं गाँव में राजनीति, प्रपंच, झगडे अादि में व्यस्त रहते हैं।
यह एक विडंबना ही है कि गाँव के लोग मजदूरी करने शहर जाते हैं और अपने बीबी-बच्चों को जो गाँव में रह रहे हैं, उन्हे भेजी गई पगार से जीवन यापन करना पड़ता है। शहर के संकुचित माहौल में जाकर ये ग्रामीण्ा अधिक से अधिक पैसा कमाने के चक्कर में अपना स्वास्थ्य खराब कर बैठते हैं। ग्रामीण उद्योग धंधों के नष्ट हो जाने के कारण खाट, बांण, मटके, लकड़ी व अन्य लोहे के सामान भी शहरों में उसी प्रकार से आने लगा है जैसा कि पचास साल पहले पैसिंल, सुई, गर्डर, मशीने लंकाशायर और लंदन से हमारे यहाँ आती थी।
आइये जरा ऑंकड़ों की जुबान से गाँवों को निहारें तो शहरों की भँाति गाँवों में भी हरित क्रंाति के बाद एक नव-धनाड़य वर्ग ने जन्म लिया है। चॅूंकि भारत में ग्रामीण जनता का प्रतिशत ज्यादा है इसलिए उदारीकरण के बाद विदेशी कंपनियाँ अपने उपभोक्ताओं को वहीं गाँव में पकड़ रही हैं। ग्रामीण उपभोक्ता की नब्ज दबाकर ये कंपनियाँ उनके हिसाब से अपने उत्पादों में बदलाव लाकर बेच रही है। पिछले साठ सालों की आजादी के बाद हमने उन्नति के नए-नए इतिहास रचे हैं, परंतु यदि मूल में जाकर देखें तो अंग्रेजों के समय का औपनिवेशिक दृष्टिकोण आज भी हमारे विचारों की गहराई में मिल जाएगा। यह आजादी 25 प्रतिशत लोगों को लाभकारी हुई है जबकि 75 प्रतिशत लोगों के लिए थोड़ी सी स्वतंत्रता के साथ वही अग्रेजी शासन की पुनरावृत्ति भर है। राष्ट््रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने समय जिस तरह के गाँव की कल्पना की थी वह अब केवल स्वप्न रह गया है।

नेतृत्व ने बदले नारी के तेवर - लोकेन्द्रसिंह कोट

विभिन्न स्तरों पर नारी
आज नारी समाज का अभिन्न अंग है भी, और नहीं भी। उपभोग करते समय नारी समाज का अभिन्न अंग है, वहीं शेष कार्यों में समाज का अभिन्न अंग नहीं है। यूँ तो आज के इस उपभोक्तावादी समाज में लगभग हर रिश्ते में एक अजीब प्रकार का शून्य उभर रहा है, फिर भी नारी के साथ जितने भी रिश्ते जुड़े हैं उनमें इस शून्य के साथ-साथ दोयम दर्जे का व्यवहार भी नारी के ही पल्ले बँधता है।
हमारा समाज वास्तव में अब स्पष्ट तौर पर तीन हिस्सों में विभक्त हो चुका है। पहला शहरी समाज दूसरा, कस्बाई समाज तथा तीसरा, ग्रामीण समाज। इन तीनों में अनेक समानताएं हैं, परन्तु महत्वपूर्ण पहलुओं पर विशाल अंतर है। शहरी समाज अपनी अधकचरी उन्नति के दंभ से फटा हुआ है और यहाँ की स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता मिली है, किन्तु नारी को एक विशेष संघर्ष करना होता है, क्योंकि नारी को दोयम दर्जे का रखने का खेल यहां सलीके से खेला जाता है। दूसरे पक्ष अर्थात् खुद नारी के पक्ष में देखें, तो नारी भी अपने आपको नारा बनाए जाने में योगदान ही करती है। नारियों में पुरूषों के पदचिन्हों पर चलने की, पुरूषों की तरह समस्याएँ सुलझाने की प्रवृति बहुत ज्यादा है। जबकि नारी को पुरूष का कार्य करने की जरूरत ही नहीं है। उसे तो पुरूषों के विचारों पर भी सोचने की आवश्यकता नहीं है, उसका लक्ष्य तो नारीत्व को अभिव्यक्ति देना है। उसका कार्य अपनी सभी गतिविधियों में नारीत्व के तत्व को जोड़ कर एक नई मानवीय दुनिया का निर्माण करना है।
कस्बाई नारी को कम स्वतंत्रता है। जहाँ एक ओर कस्बों में आ रही जबरन शहरी मानसिकता, स्वच्छंदता व गुमराह स्वतंत्रता को बढ़ावा दे रही है, वहीं कस्बाई नारी परिवार के तारों को ग्रामीण व शहरी संस्कृति के मध्य समायोजन कर बाँधने का प्रयास कर रही है। कस्बों में नारी, नारा न होकर उसकी क्षणिक उन्नति भी चटखारी चर्चा का आधार बनती है। नारी को उसके कमजोर होने का आभास बार-बार दिलाया जाता है।
वास्तव में नारी जागृति की जितनी भी बातें हैं, वे सभी शहरी मानसिकता की शिकार हैं। इनसे संबंधित योजनाएं आदि सिर्फ शहरी महिलाओं को मद्देनजर रखकर ही की जाती हैं, जबकि ग्रामीण महिलाएं लगभग आजादी के पूर्व जैसे ही विपरीत परिस्थितियों का सामना कर रही हैं। फिर आधुनिकता का गड्ड-मड्ड समावेश गांवो को उसकी संस्कृति से अलग कर रहा है। पहले ही शिक्षा की कमी व निम्न सामाजिक स्थान ने गाँव की नारी के पैरों में 'सेविका' रूपी बेड़ियां पहना रखी हैं। पंचायती राज और फिर उसमें महिलाओं का आरक्षण उन्हे सामुहिक रूप से कुछ सोचकर स्थिति सुधारने में मदद कर सकता है।
हम परिवर्तन चाहते हैं, उत्थान चाहते हैं, चाहे वह नारी का मामला हो या अन्य कोई, परंतु परिवर्तन और उत्थान, उन्नति के इस जुनून के चलते सारी किताबी बातें हम एक दम थोप देते हैं व अच्छे परिणामों की आशा करने लग जाते हैं। किन्तु कोई भी विचारधारा को बदलने में दशकों लग जाते हैं। प्रायोगिक धरातल पर समस्याओं के पहलुओं में बहुत अंतर होता है। नारी-कल्याण करना बहुत अच्छा है, तब तक, जब तक कि सरकार व योजना बनाने वालों तथा समाज को यह स्पष्ट रहे कि वे किस स्तर व किस तरह से महिलाओं को सहयोग कर रहे हैं। नारी को नारे नहीं, सहयोग चाहिए, आगे सब कुछ करने में वह स्वयं सक्षम है।
नेतृत्व के स्तर पर ग्रामीण नारी
अब देखिए न लोकतंत्र की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है पंचायत। यहीं से प्रारम्भ होती है लोकतंत्र की पहली सीढ़ी। वर्ष 1955 में पंचायतों की व्यवस्था की गई थी जो कई कारणों से असफल सिध्द हुई। इसे पुन: एक बहुत बड़े अंतराल के बाद वर्ष 1993 में 73वें एवं 74वें संशोधन के तहत प्रक्रिया में लाया गया। मध्यप्रदेश में अभी तक हाशिए पर रही ग्रामीण महिलाओं को इसमें 33 प्रतिशत आरक्षण देकर उनके लिए मार्ग प्रशस्त किया गया। इस उल्लेखनीय आरक्षण का परिणाम यह रहा कि प्रदेश भर की पंचायतों में इस समय लगभग 1,34,368 महिलाएँ विभिन्न पदों पर नियुक्त हुई तथा सरपंच के तौर पर लगभग 7707 महिलाएँ चुनी गई। एक पुरूष प्रधान समाज में इतना अच्छा कदम और फिर इतने अच्छे परिणाम, समाज के भाल पर उन्नति का टीक लगा चुके हैं।
लगातार बारह-तेरह बरस के पंचायती राज ने महिलाओं के मामले में प्रारंभ में लड़खड़ाते हुए अब अपनी धार तेज भी कर ली है। पहले-पहल के पाँच वर्षों में जहाँ कुछेक महिलाएँ उभर कर सामने आईं थीं जिन्हौने पुरूष सत्ता को पूर्णत: नकारते हुए दभंगता से अपनी सत्ता संभाली थी और राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित भी हुई थी। उन्ही आदर्शो को अपनाते हुए आज की पंचायतों में सैकड़ों महिलाएँ सार्थक कार्य ही नहीं कर रही हैं वरन् वे अब विकास को बराबरी से समझ कर आगे बढ़ रही हैं।
कुल 7707 महिला सरपंचों में आदिवासी समुदाय से जुडी मैनबाई भी कुर्लीकलां ग्राम पंचायत जिला सिहोर की एक सरपंच है। उनकी ग्राम पंचायत में चार गांव हैं और उनमें मुख्यत: उच्च जाति के लोग ही रहते हैं। वह पूण्र्
ात: मुखर तो नहीं हो पाती है परंतु उतनी दबी हुई भी नहीं है कि पंचायतों में हिस्सेदारी न ले। स्वाभाव से मिलनसार मैनबाई के लिए उठाया गया यह कदम उनके लिए ही नहीं बल्कि आने वाले समय के लिए एक सीढ़ी बन चुका होगा। बदलाव की वास्तविक प्रक्रिया वास्तव में धीमे-धीमे ही समाज में प्रवेश करती है और समाज में उसे ही सहजता से लिया जाता है।
जहाँ गाँवों से शहरों की ओर प्रव्रजन का मुद्दा सिर उठा रहा है और दोनों जगह कई समस्याओं को जन्म दे रहा है ऐसे में एक महिला जिसने एम.एससी, एल.एल.बी करने के बाद शहर में तमाम आकर्षणों के बाद भी ग्रामीण अंचल में ही रहकर बतौर सरपंच अपनी सेवाएँ प्रदान कर रही है। नाम है, वैशाली परिहार, सरपंच बयावड़ा ग्राम पंचायत, जिला होशंगाबाद। अब उच्च शिक्षा का प्रभाव देखिए कि पंचायत के सारे विकास कार्य वैशाली ने संभाल रखे हैं। सरकारी तंत्र भी उन्हे भरपूर सहयोग करता है। अक्सर उच्च शिक्षित महिलाओं को जो विशेषकर गाँवों में रह रही होती हैं, को यह कहकर हतोत्साहित किया जाता है कि जब यहीं पर जिंदगी बेकार करना थी तो इतना पढ़ने की क्या जरूरत थी....या फिर इतना पढ़ना लिखना क्या काम का जब उसका कोई 'फायदा' न हो.....। लेकिन वैशाली ने उल्टे इन जुमलों को गलत साबित कर दिया है और किसी शायर के उस शेर को चरितार्थ कर दिया है कि 'लोग हमसे पूछते हैं कि मोहब्बत से क्या फायदा/ हम उनसे कहते हैं फायदे से क्या फायदा।'
कुल 1,23,964 महिला पंचों में से एक मुस्लिम दलित पंच है तस्लीम। उज्जैन के क्वाथा गांव में मैला ढ़ोने का कार्य करती थीं। संयोग से तस्लीम की मुलाकात एक गैर सरकारी संगठन 'गरीमा' के कार्यकर्ताओं से होती है और 1993 के कानून जिसमे अस्पृश्यता को दंडनीय अपराध माना गया है का पता उसे चलता है। परिवार और गाँव वालों के भारी विरोध के बावजूद तस्लीम ने मैला फेकने के कार्य के लिए मना कर दिया। स्वयं उदाहरण बनकर उसने आस-पास के कई गांवों में भी इसके लिए मुहिम चलाई और किसी हद तक सफल भी रही। अक्सर गॉवों में इस तरह के बदलाव एवं बदलावकर्ता दोनों को बहुत ही बुरे ढ़ंग से लिया जाता है, यहाँ तक की बहुत कुछ सुनना-सहना भी होता है और विद्रोही करार दिए जाने के बाद सामाजिक स्थिति में भी हिकारत शामिल हो जाती है। लेकिन ग्रामीण समाज का एक मनोरंजक और सुखदाई पक्ष यह भी है कि विद्रोही स्वर यदि लगाातार और किसी सशक्त संस्था के माध्यम से चलाए जाते हैं तो वे गुजरते समय के साथ पूर्णत: तो नहीं परंतु आंशिक रूप सामान्य होते जाते हैं। कृषि जैसे व्यस्त कार्यों में लगा जनमानस ज्यादा उलझने के बजाय उसके विकल्पों की तलाश में लग जाता है।
धार जिले के चिकटाबढ़ गांव की ऐसी ही एक पंच हैं सावित्री और गांव की भाषा में बात की जावे तो उसने एक गुनाह किया। गुनाह भी यह कि सरपंच के खिलाफ कदम उठा दिए। गांव की अन्य महिलाओं के साथ मिलकर भ्रष्ट माहौल को जब बाहर लाया गया तो स्थितियाँ उनके विरूध्द थी। शासन के हस्तक्षेप से जीत सावित्री की हुई और शेष बचे कार्य को महिला मंडल द्वारा ही सम्पन्न किया गया जो तमाम व्यवस्थाओं पर करारे तमाचे की तरह था। वास्तव में देखा जाय तो आमतौर पर गांवों की जनसंख्या इतनी होती है कि उसमें रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को सहजता से जानता ही नहीं समझता भी है और ऐसे में अधिकांशत: भ्रष्टाचार के मामले दबे ही रह जाते हैं। कौन इससे पंगा ले.... या कौन संबंध खराब करे..... रोज तो कोई न कोई काम पड़ता है खेती-किसानी में..... या फिर बेटी ब्याही है तो उनके खिलाफ हम तो बोल ही नहीं सकते हैं..... आदि-आदि जैसे पक्ष भी हैं जो उभर कर सतह पर आते हैं।
हमारे यहाँ के सामाजिक ताने-बाने में इतनी विहंगमता, विविधता, विचित्रता है कि एक गांव और दूसरे गांव में मुश्किल से ही कुछेक समानताएँ मिल पाती हैं। विश्व में हमारा देश ही एकमात्र ऐसा है जहाँ किसी भी सैध्दांतिक पक्ष की बार-बार पुर्नव्याख्या की मांग हमेशा बनी रहती है।

जमीने बंदूक की जोर से छीनी जा रही हैं - सुमित सरकार

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ नंदीग्राम में औरतों और पुरूषों से लेकर छोटे बच्चों में भी भयानक रोष काफी पहले से है। गांव में पिछले डेढ़ साल से ही भूमि कब्जाने की अफवाह फैली हुई थी, जिसके चलते लोगों ने इसकी खिलाफ़त के लिए खुद को संगठित कर लिया था। पंचायतों और ग्रामसंसदों ने उनसे इस मुद्दे पर कोई बातचीत नहीं की। जब 'हल्दिया डेवलपमेंट अथारिटी' ने सलेम ग्रुप के सेज बनाने के लिए भूमि कब्जाने का नोटिस जारी किया, तब स्थानीय लोग 3 जनवरी को कालीचरणपुर पंचायत कार्यालय पर सूचना मांगने पहुंचे; तो प्रधान ने कहा कि उनके पास कोई भी सूचना नहीं है। लोग शान्तिपूर्वक वहाँ से लौट गए। इसके कुछ समय बाद ही पुलिस ने बैटन, आंसू गैस और गोलियों से स्थानीय लोगों पर आक्रमण किया जिसमें चार लोग घायल हुए। एक बड़ा जमावड़ा सड़कों पर उतर आया। महिलाएं हाथ में ञ्रेलू उपकरण जैसे चाकू आदि ही लेकर निकल पड़ीं, करीब एक घंटे तक पुलिस के साथ आमने-सामने की मुठभेंड़ हुई। भूटामोर गांव के मौके पर मौजूद स्थानीय लोगों के अनुसार बचकर भागने की कोशिश में पुलिस कीे जीप एक लैम्प पोस्ट से जा टकराई, जिससे शार्ट सर्किट होने की वजह से जीप बुरी तरह जल गई और एक पुलिसकर्मी तालाब में जा गिरा तो दूसरा सड़क पर। लोगों ने पुलिसवालों को मार-मारकर उल्टे पाँव भगा दिया। भगदड़ में वे अपनी एक राईफल भी गाँव में छोड़ गए, जो बाद में स्थानीय पुलिस थाने में जमा कर दी गई। पुलिस और माकपा कैडर दोबारा गाँव में न आ सकें इसके लिए लोगों ने नाकाबन्दी कर दी, पुल गिरा दिया और सड़कों को भी खोद दिया।
नंदीग्राम और खेजुरी गाँव के बीच सीमा पर पुलिस ने कैम्प लगाया हुआ था। 6 जनवरी को करीब पांच बजे पुलिस ने कैम्प को खाली कर दिया। सोनचुरा और स्थानीय लोगों के अनुसार 'बड़ी संख्या में अजनबी आए और इन कैम्पों में डेरा डाल लिया। करीब 3 बजे माकपा के संकर सामन्त के ञ्र से आने वाली बम और गोली की आवाज से लोग नींद से जाग गए और जैसे ही ञ्टनास्थल पर पहुँचे तो वहां गांव के दो युवकों- भरत मंडोल और शेख सलीम की लाशें मिलीं। जब तेरह वर्षीय विश्वजीत मंडोल की लाश मिली तो गुस्साए लोग सामंत के ञ्र पहुंचे और उसे मार डाला और तभी से वे लोग माकपा की बदले की हिंसा के आतंक में जी रहे हैं।
मुस्लिम औरतों ने भी आगे बढ़कर कहा ''जमीं आमरा छरबू'', ''चाहे हमारे बच्चे और पति कुर्बान हो जाए, हम लगातार संघर्ष करेंगे, वे कितने पुलिस वालों को ला सकते हैं? हमारे काश्तकारों का क्या होगा? हमने माकपा को सिंहासन पर बैठाया और वही हमें इनाम में डंडे दे रही है।'' राजरामचक में माकपा के स्थानीय कार्यालय को नष्ट करते उन्होंने कहा कि ''यह अपराध का ञ्र है, इसे हमने बनाया था आज हम ही खत्म कर रहे हैं। अब वे सरकार और उद्योगपतियों के इस झूठे झांसे में नहीं आने वाले कि वे बरोजगारों को रोजगार और अनपढ़ों को शिक्षा देंगे।''
अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि सारी जमीन उद्योगों के लिए इस्तेमाल होगी या फ़िर पॉश कालोनियों के लिए भी इस्तेमाल की जाएगी। इससे पहले भी 1977 में नंदीग्राम ब्लाक एक में जहाजों की मरम्मत के लिए जेलिंघम योजना के लिए चार सौ एकड़ जमीन कब्जाई गई थी। जिससे 142 परिवारों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया गया था, पांच साल बाद परियोजना रोक दी गयी और वह जगह आज भी खाली पड़ी है। न तो हल्दिया में न ही जलिंघम में कोई पुनर्स्थापन किया गया, न ही किसी को कोई मुआवजा दिया गया और नौकरी के नाम पर गांव के केवल कुछ लोगों को साइट पर लगा दिया गया था।
अपनी सफाई में माकपा के जिला समिति कहता है कि ''3 जनवरी को लोगों ने तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर पुलिस पर पत्थर फेंके और जीप को जला दिया था। उसके बाद ही पुलिस ने गोली चलाई और फ़िर 7 जनवरी को तृणमूल कांग्रेस के कहने पर ही संकर सामन्त को भी मार डाला।'' स्थानीय माकपा सांसद लक्ष्मण सेठ का कहना है कि 'वह बिल्कुल सीधा और किसी को नुकसान न पहुंचाने वाला आदमी था। लोगों ने उसकी गन भी उससे छीन ली, उसके घर से कोई गोली नहीं चलाई गई असल में गांववाले तृणमूल कांग्रेस के ही लोग हैं। वामपंथी होने का तो केवल नाटक करते हैं।''
माकपा की रिपोर्ट के अनुसार गाँव की जमीन एक फसली है, ऐसा लगता है कि शायद उन्होंने सत्तर के दशक में किए गए सर्वे की रिपोर्ट ही देखी है, उसके बाद तो जमीन की उर्वरता बढ़ाने के लिए अनेक आवश्यक प्रयास किये जा चुके हैं इसलिये अब स्थानीय लोगों के अनुसार जमीन चार से पाँच फसलें देती है। इसके आलावा हस्तकला और अन्य सहायक रोजगारों में भी लोग लगे हुए हैं। गांव में चारों तरफ़ हरियाली दिखाई दे रही थी।
किसी की भी यह दलील बेमानी है कि सूचना दी जाएगी, सिंगूर के लोगों को भी यह समाचार पत्रों से ही मालूम हुआ कि उनकी जमीने टाटा मोटर्स के कारखाने के लिए ली जानी है। न तो कोइ सूचना न ही पंचायत की कोई बैठक हुई। उन्होंने कोई मुआवजा लेने से भी इंकार कर दिया और बताया कि यह जमीन की असल कीमत से बहुत कम था। सिंगूर और नंदीग्राम दोनों ही मामलों में हुआ कि मुआवजे की सूची में बटाईदारों और खेतिहर मजदूरों को तो गिना ही नहीं गया। केवल संपत्ति की कीमत है, श्रम की नहीं। यह बात महत्वपूर्ण है कि जमीन कब्जाने के लिए पुलिस के हिंसक कदम के प्रतिरोध में भी सिंगूर के लोगों ने हिंसा से काम नहीं लिया, बल्कि शांतिपूण्र्
ा सत्याग्रह किया।
25 सितंबर और 2 दिसंबर 2006 को जनता के शांतिपूर्ण विरोध के बावजूद भी पूरे क्षेत्र में धारा 144 लगा दी गई थी। प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया, निजी वाहनों को जहां-तहां रोककर तलाशी ली गयी। पुरूष पुलिसकर्मियों ने औरतों के साथ बद्तमीजी की और उन्हें गालियां भी दीं, छात्रों और गाँववालों पर लाठियों भी बरसाई गयीं। इतना ही नहीं, एक दो-ढाई साल की नन्हीं सी मेरी बच्ची को भी कुछ दिनों के लिए जेल में डाल दिया गया। उससे उसका आहार तक छीन लिया गया। कई गांव वालों पर खतरनाक हथियार रखने का आरोप लगाया गया।
कोलकाता में तो धारा 144 न होते हुए भी भी लोगों को गिरफ्तार किया गया, प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया गया और शांन्तिपूर्ण विरोध करने के बावजूद भी जेल में बंद कर दिया गया। 18 दिसंबर को पाई गई एक लड़की तापसी मालिक के लाश का दृश्य तो और भी चौंकाने वाला था, क्योंकि उस लड़की की हत्या बड़ी निर्ममता से की गई थी, जबकि वह युवती सामाजिक आंदोलनकारी थी। उसके बाद पूछताछ के लिए पुलिस ने जो रवैया अपनाया, वह तो बिलकुल ही बेहूदा था। किसानों ने अपनी जमीनों के चारों ओर किलेबन्दी कर रखी थी, वे हर तरह से पुलिस से निपटने के लिए तैयार थे, चाहे इसके लिए उनकीे अपनी जान ही देनी पड़े।
हमने यह पाया कि किसानों का विरोध उचित है। उद्याेंगों से बड़ी मात्रा में रोजगार के अवसर प्राप्त नहीं हो सकते। कृषि भूमि का उद्योेंगों के लिए इस्तेमाल न केवल पर्यावरण का नुकसान होगा, बल्कि गरीब बेघर हो जायेंगे। इसलिए इसके लिए वैकल्पिक स्थानों का प्रयोग किया जाना चाहिए। केवल अमीरों की माँगों को पूरा करने से विकास नहीं होने वाला।
उपर की विवरणों से स्पष्ट है कि 14 मार्च की घटना की पृष्ठभूमि तो काफी पहले से बन गयी थी। ऐसे में भूमि अधिग्रहण नीति पर पुन: विचार किया जाना चाहिए, सभी क्षेत्रों के लोगों से बात करके, राय लेकर ही नीति बनाई जानी चाहिए। प्रशासकों को औद्योगीकरण के लिए वैकल्पिक स्थानों के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए, न कि गरीबों को उजाड़ने के बारे में। विकास के वैकल्पिक रूपों के बारे में जनता से परामर्श करने की आवश्यकता है, अन्यथा ग्राम्य गृह युध्द और भी भयानक हो सकता है।

संकट में हमारी जमीन - शिराज केसर

तथाकथित अर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत के लिए चमकता भारत (इंडिया शाइनिंग) समर्थ भारत (पॉइज्ड इंडिया) आदि के नारे लगाग जा रहे है। 8 फीसदी वृध्दि, कुछ अरबपतियों का जन्म और सूचना तकनीकी धूम का गीत गाया जा रहा है पर इन सबके पीछे की सच्चाई कुछ और ही दास्तां बयान कर रही है। यह दास्तां है 8 फीसदी वृध्दि व अमीरों के नाम पर गरीब किसानों की जमीनें जबरन छीनने की, किसानों के लिए चमकता भारत, समर्थ भारत की बजाय साधनहीन भारत उजड़ा भारत बन जाने की। रोजी-रोटी छिन जाने से उजड़े किसानों के सिर पर न छत है न पेट में रोट। कहां जाएं? किधर जाएं? आखिर मजबूर होकर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लोग आंदोलन करने को उठ खडे हुए है। और धीरे-धीरे लड़ाई 'जान देंगे, जमींन नहीं देंगे' तक पहुंच रही है।
वित्तमंत्री पी चिदंबरम कहते है, जमीन और किसान के बीच पवित्र और गहरा रिश्ता है, इस रिश्ते को जो भी तोड़ने की कोशिश करेगा, उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा।' पर चिदंबरम न तो किसानाें के हितैषी हैं न खेतों के। बल्कि भूमंडलीकरण के समर्थक है। बात यह है कि जहां जहां भी बहुराष्ट्रीय चारागाह बनाने के लिए जमीनों पर कब्जा किया जा रहा है, वहीं कब्जे से जमीनों को छुड़ाने के लिए जंग छिड़ गई है। जंग में हद तो यह हो गई कि कलिंगनगर से दादरी, सिंगूर से नदींग्राम तक हर जगह गरीब किसानों से जमीनें लेने के लिए पुलिस हथियार और गोला बारूद का इस्तेमाल कर रही है। पुलिस किसानों के साथ आंतकवादियों जैसा व्यवहार कररही है, डंडे की ताकत पर लोगाें को चुप कराने की कोशिश हो रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाहें काफी दिनाें से हमारी जमीनों पर थी, केंद्र सरकार न जानबूझकर कंपनियों की लालच को पूरा करने हेतु चमकते भारत के नाम पर सेज अधिनियम 2005 बनाया और फरवरी 2006 को लागू किया। इस कानून के बनते ही सरकारें बिना सोचे समझे अनेकों सेज स्वीकृत कर चुकी है। सेज के बारे में कुछ जानना जरूरी है।
सेज ऐसा क्षेत्र है, जिसको भारत के अंदर 'विदेशी क्षेत्र' के रूप में देखा जाएगा। भारत के अंदर लागू होने वाले कायदे कानून सेज में लागू नहीं होंगे। सेज में भारी कर छूट नवाज कर निर्यात बढ़ानें और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अनुकल माहौल बनाने की बात की जा रही है। ऐसे में जबकि सेज इकाइयों को विदेशी मुद्रा का कमाऊ पूत के रूप में देखा जा रहा है तो सेज इकाइयों को पूर्व निर्धारित मूल्यों में य निर्यात के लिए आवश्यकताओं में कमी या बढ़ोतरी करने के लिए कोई जावब देही नहीं होगी।
आयात कर दिए बिना ही सेज कंपनियां विकास कार्य और प्रबंध के लिए बिना किसी नियंत्रण के वस्तुओं का आयात कर सकतीहै। उन्हेंं दस वर्षों तक आयकर से छूट होगी। यह अवधि पंद्रह वर्ष तक की जा सकती है। सेज कंपनियां अपने अंदर स्वीकृति प्राप्त इकाइयों को व्यापारिक आधार पर प्लाट देने के लिए भी स्वतंत्र होंगी। सेज कंपनियां पानी, बिजली,सुरक्षा, रेस्टोरेंट और मनोंरंजन केंद्र आदि भी अपने अंदर स्वीकृति प्राप्त इकाइयों को पूरी तरह व्यापारिक आधार पर उपलब्ध कराएंगी। इसके अतिरिक्त कंपनियों को सेवाकर अदा करने से भी छूट होगी।
केंद्रीय सेज अधिनियम को अभी एक वर्ष ही हुआ है और हरियाणा राज्य अधिनियम तो मात्र छह माह ही बीते है। तुरंत ही बड़े जोर-शोर से हरियाणा सरकार देश का सबसे बड़ा सेज बनाने में जुट गई है। यह गुड़गांव से झज्जर तक 25,000 एकड़ के क्षेत्र मे फैला है। यह रिलायंस और हरियाणा स्टेट इंडस्ट्रियल एंड इंफ्रास्ट्रक्कर डेवलपमेंट द्वारा संयुक्त रूप से बनाया जा रहा है। इसमें अकेले रिलायंस 25000 करोड़ लगाएगी और 15,000 करोड़ दूसरी अन्य कंपनियों द्वारा लगाया जाएगा।
यह पूरी तरह स्पष्ट है कि आज के दौर का यह भयानक भूमि अधिग्रहण किसानों को कंगाल कर देगा। अब किसानों के पास मात्र औसतन 2 एकड़ या उससे भी कम जमीन रह गई है। वह भी छीनकर एक लाख करोड़ के मालिक रिलायंस जैसों के हाथों में दिया जा रहा है। इससे भारत संपन्न नहीं, कंगाल ही बनेगा।
अंग्रजों के भूमि- अधिग्रहण अधिनियम 1894 को जबरदस्ती किसानों पर लागू करके किसानों से कंपनियों के लिए जमीनें हथियाना और उनको बेघर कर देना, क्या नए तरह के 'अंग्रजी राज' की बात तो नहीं है? मजेदार बात तो यह है कि भूमि-अधिग्रहण उदारीकरण के भी विपरीत है। उदारीकरण तो अलग करता है। यहां तो भूमि-अधिग्रहण में कंपनियां सरकार के माध्यम से जमीन कब्जा रही है। धरती को सरकारें बलपूर्वक उपभोग और व्यापार की वस्तु बना रही है। यह भूमि अधिग्रहण नियम का भी एक तरह से उल्लंघन है। क्योंकि भूमि-अधिग्रहण अधिनियम में जमीन को सार्वजनिक उद्देश्य के लिए प्राप्त करने के लिए कहा गया है, निजी मुनाफे या एकाधिकार करने के लिए नहीं, पर यह सब अनदेखा किया जा रहा है। भूमि-अधिग्रहण ने भूमि सुधारों पर भी पानी फेर दिया है।
भूमि-अधिग्रहण को उचित ठहराने के लिए दो प्रकार के झूठे तर्कों का सहारा लिया जा रहा है। पहला कृषि विकास की दौड़ में दक्षम हो गई है इसलिए किसानों को जमीन छोड़ देनी चाहिए, वहीं दूसरा झूठा तर्क यह दिया जा रहा है कि भारत को औद्योगिकीकरण करना चाहिएं। इस झूठ को विभिन्न आधारों पर परखा जा सकता है। अधिकांश सेज भवन निर्माताओं और सूचना तकनीक के लिए है जिसमें नए अवसर पैदा ही नहीं होंगे क्योंकि यह वैश्विक स्तर पर पहले सेही 'पेपच' हो गए है। महाराष्ट्र के आईटी सचिव अरविंद कुमार ने ठीक ही कहा है कि सेज चोर दरवाजे से भूमि कब्जाने की नीति है। सेज कुछ नहीं है बस ज्यादा संपत्ति पाने के लिए अमीरों की एक चाल है जिसे रोका जाना चाहिए। कानूनन एक व्यक्ति के पास 52 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं हो सकती तो कुछ लोगों ने नायाब फार्मूला निकाला है कि वे 1,00,00 हेक्टे. से भी ज्यादा जमीन के मालिक बन रहे है।
लालच की भूख के कारण ही पश्चिम के विकसित देशों ने अपने उपभोग के लिए पूरी पृथ्वी का विनाश कर डाला है, तेल पानी आदि के लिए बम बरसा रहें है। ऐसे में पश्चिम के कबाड़ा और उपभोक्तावादी जीवन पध्दति को अपनाने और चालू रखने के लिए भारत को कितनी पृथ्वियों के विनाश कीजरूरत पड़ेगी। यह शाश्वत बात हेै कि कोई भी समाज बिना भोजन कमे जीवित नहीं रह सकता। अगर भारत अपनी खेतों को कंक्रीट के जंगलों के लिए विनाश करता है, हवाई अर्थव्यवस्था के लिए छोटे किसानों को उजाड़ता है, तो किसी देश कीयह औकात नहीं है कि वह भारत की करोड़ों की जनसंख्या का पेट भर सके। उपजाऊ और बहुफसली जमीन बहुत अनमोल और दुर्लभ चीज है, यह संसाधन सबको नही मिलता राष्ट्रीय विरासत और किसानों की संपत्ति के रूप में इसकी रक्षा की जानी चाहिए। कुछ कंपनियों के थोड़े से लालच के लिए इसे नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।
जो लोग भूमि अधिग्रहण के मुद्दे को औद्योगिकीकरण की बहस मे बदल रहें है उन्हें यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अगर विश्व में अमेरिकी तर्ज पर संसाधनों और ऊर्जा का उपभोग किया जाएगा तो हमें पृथ्वी जैसे पांच ग्रहों की जरूरत होगी। भारत के छोटे किसान वैश्विक निर्माण और उपभोग के अस्थाई पर्यावरणीय कदमों को तो सहन ही नहीं कर सकते, बर्बाद हो जाएंगें।

एस.इ.जेड (सेज) का सच -प्र्भात कुमार

ग्लोबल कंपीटिशन, विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने और कुछ चुनिंदा वस्तुओं को निर्यातोन्मुखी बनाने आदि के लिए सरकार सेज बना रही है। इसके लिए निवेश करने वाले देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों को आमंत्रित किया जा रहा है। इसमें व्यापारियों को सस्ती जमीनें, बिजली, पानी के साथ-साथ निर्यात शुल्क, उत्पाद कर आदि की विशेष रियायत दी जा रही है। कहा तो यह जा रहा है कि सेज में कानून व्यवस्था पर स्थानीय प्रशासन का प्रभाव नहीं रहेगा। साथ ही श्रम कानून भी लागू नहीं होंगे।
कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 1999 के बाद से पिछले 7 वर्षों में लगभग 13 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि कार्य से हटाकर दूसरे काम में लगा दी गयी है। जाहिर है, इसका इस्तेमाल उद्योग आदि के लिए किया गया। सबसे चिन्ता का विषय यह है कि सेज भी कृषिभूमि को ही निगल रहे हैं। कारपोरेट जगत ने सरकार की साठगांठ से पूरे देश में जमीन की लूट का संगठित प्रयास चला रखा है। अब तक 30,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहीत हो चुकी है, जबकि 95,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहण करने की योजना पर काम जारी है।
सरकारें सेज के लिए दमन पर उतर आई हैं। उड़ीसा में टाटा स्टील को जमीन देने के नाम पर 12 आदिवासी मारे गये। कोलकाता के पास सिंगूर में टाटा का विरोध हो रहा है। नंदीग्राम में आए दिन सरकारें गोली चलवा रहीं हैं। महाराष्ट्र में रिलांयस द्वारा किये जा रहे अधिग्रहण के विरोध को बुरी तरह कुचल दिया गया। गाजियाबाद के समीप दादरी की उपजाऊ जमीन रिलायंस को आवंटित कर दी गयी। रैयत-दर-रैयत कानून के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के कारण आदिवासी पुस्त की जमीन से बिहार में बेदखल हो रहे हैं।
सेज की स्थापना को लेकर बड़ा विवाद तो किसानों के जीवन-यापन का साधन उनकी फसली जमीनों को सरकार द्वारा पूंजीपतियों को हस्तांतरण से उठा है। बिहार में भी सेज के लिए रास्ता बनाया जा रहा है। मंत्रीमंडल ने फैसला लिया है कि अधिग्रहित जमीन का ड़ेढ़ गुणा दाम दिया जाएगा। बिहार सरकार भी पूँजी निवेश विभिन्न क्षेत्रों में चाहती है। कुरसैला (कटिहार) में 200 एकड़ भूमि रिलायंस ने मक्का उगाने के लिए ली है। उत्तार बिहार के कई जिलों में फिल्म निर्देशक प्रकाश झा को जमीने दी गई हैं, जिसको प्रकाश झा बिल्डरों को देकर पैसा कमाने में लगे हुए हैं। बिहार में कृषि क्षेत्र 74.0 प्रतिशत आबादी की जीविका का आधार है, जबकि कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा मात्र 32.0 प्रतिशत है और राज्य सरकार के अनुसार 4 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। इसके बावजूद बिहार सरकार भी कान्ट्रेक्ट फार्मिंग एवं कारपोरेट कृषि की बात कर रही है। लेकिन बिहार की पिछली सरकार की भांति वर्तमान सरकार भी इस बात को समझ नहीं पा रही है कि निवेश वृद्वि पर आधारित उधार का माडल बिहार की समस्या का समाधान नहीं है।
महाराष्ट्र का कोंकण, पश्चिम बंगाल का सिंगूर और नंदीग्राम, पंजाब का बरनाला और अमृतसर, हरियाणा का झज्जर और गुड़गाँव, छत्तीसगढ़ का चुरली और बांसी, उत्तर-प्रदेश का दादरी, उड़ीसा का कलिंग क्षेत्र सेज के प्रभावक्षेत्र बन गये हैं। अकेले नंदीग्राम में तीस गाँव तथा चालीस हजार परिवार विस्थापित हो रहे हैं, बाकी सेज क्षेत्रों से भी लाखों परिवार उजाड़े जाने हैं।
इस बात को लेकर किसानों में काफी रोष है कि 'सेज' अचानक 61 से बढ़कर 401 के करीब पहुंचा दिये गये हैं। विश्व में सबसे ज्यादा संख्या में सेज भारत में बनने जा रहे हैं। 2.80 लाख एकड़ भूमि इसके लिए निर्धारित की जा चुकी है। हड़बड़ी में देश के अन्दर कंपनियों का राज स्थापित करना देश के लिए घातक ही होगा।
इसके अलावा वित्तामंत्री पी. चिदम्बरम कहते हैं कि अगले 5 वर्षों में सेज से सरकार को 1,75,000 करोड़ रूपये के राजस्व हानि होगी। इस बात की आशंका भी है कि निवेशकों को आयात शुल्क में बहुत हद तक छूट देने से भारत में विदेशी वस्तुओं की 'डंपिग' हो जाएगी, जिसका असर लघु व शिल्प उद्योगों पर पड़ेगा। कृषिभूमि के बेहिसाब अधिग्रहण से खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ेगा। कृषि से जुड़ी बड़ी जनसंख्या बेरोजगार होगी। सरकार व कारपोरेट जगत के पास ऐसा कुछ नहीं है, जिससे वे वैकल्पिक रोजगार के अवसर प्रदान कर सकें।
सेज एवं अन्य संरचनाओं के विकास के लिए भूमि अधिग्रहण कानून का जिस तरह से उपयोग हो रहा है, उससे यह प्रतीत होता है कि यह एक औपनिवेशिक कानून है, जिसमें लोगों की जिन्दगी के अधिकार की कल्पना नहीं है। असंख्य लोगों के प्राकृतिक संसाधन, जल, जंगल, जमीन को छीन कर कच्चा माल बनाया जा रहा है। इस कानून में खेत मालिक तो हैं, पर इसमें बटाईदार, खेतिहर मजदूर, चरवाहा, बहेलिया, कारीगर, दस्तकार, कुम्हार शामिल नहीं है। पूंजी का अर्थशास्त्र लोगों की रोटी, कपड़ा और मकान का सवाल हल नहीं कर पा रहा है। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अनेक देश इन परेशानियाें से त्रस्त हैं। भारत के 29 करोड़ भूमिहीनों, खेतिहर मजदूरों और वंचितों के अधिकार और सम्मान को आज जो छीनने की कोशिश हो रही है, इसके लिए जिम्मेदार किसे माना जाए ?
दरअसल अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा एवं यूरोपीय देशों में पर्यावरण कानून इतने कठोर हैं कि इनमें बहुराष्ट्रीय कंपनियां घुस नहीं पा रही हैं। ऐसी स्थिति में भारत के प्राकृतिक संसाधन जो आदिवासी क्षेत्र में हैं, उन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर है। ये समझते हैं कि अधिकार चेतना का अभाव व लचर कानून व्यवस्था का इस्तेमाल कर आदिवासियों को बेदखल कर सकते हैं और सरकार पर दबाव डालकर एवं भ्रष्ट आचरण द्वारा 5 वीं अनुसूची, फोरेस्ट कंजरवेशन एक्ट, पर्यावरण सुरक्षा कानून, पंचायती राज तथा अन्य कानूनों में फेरबदल कर सकते हैं।
भूमि का अधिकार खाद्य-संप्रभुता की दृष्टि से केन्द्र-बिन्दु है। वैश्वीकरण के कारण भूमि सुधार बाधित हुआ है, इसे फिर से लागू करने की जरूरत है। ऐसी स्थिति में किसानों, मजदूरों, कारीगरों, दलितों, भूमिहीनों, महिलाओं और आदिवासियों के लिए भूमि, जल एवं जंगल का प्रश्न अधिक मुखर हो कर उठ खड़े हुए हैं। नक्सलवादी आन्दोलन का फैलाव राज्य के गरीब विरोधी चरित्र, प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार और सामाजिक विषमता की ही देन है।

संशोधन नहीं, सेज रद्द करना ही हल है -मीनाक्षी अरोरा

नंदीग्राम और अन्य स्थानों पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ़ हो रहे जन विरोधो के दबाव में केंद्र सरकार के मंत्रीसमूह ने पाँच अप्रैल 07 को हुई बैठक में सेज एक्ट में सुधार के जो सुझाव दिए हैं, वह लोगों का ध्यान समस्या से हटाने की एक चाल भर है। ताकि लोग इन छोटे-मोटे सुधारों के चक्कर में सरकार पर भरोसा रखें, दूसरी ओर सरकार अपने विदेशी मित्रों के स्वागत के लिए दरवाजे खोल सके- बिना किसी जन विरोध के।
मंत्रीसमूह के द्वारा दिए गये सुझावों को देखकर यह तो अब स्पष्ट है कि सेज के खिलाफ़ जन विरोध, मासूम लोगों की हत्याओं और हजारों-लाखों किसानों के उजाड़े जाने के बावजूद भी केंद्र सरकार सेज बनाने की अपनी नीति पर आमादा है। बस उसने किसानों से भूमि अधिग्रहण करने में राज्य सरकारों के हस्तक्षेप को खत्म कर दिया है। अब सीधे कम्पनियाँ यह तय करेंगी कि किसानों से कैसे और कौन सी जमीन लेनी है? पहले सेज के लिए न्यूनतम सीमा तो निर्धारित थी, अधिकतम सीमा तय नहीं थी; कितना भी बड़ा सेज बनाया जा सकता था। लेकिन अब सेज की अधिकतम सीमा 5 हजार हेक्टेअर तय कर दी गई है और इन क्षेत्रों के रियल एस्टेट में परिवर्तित होने के खतरों को देखते हुए सेज के अंदर उद्योग के लिए 35 फ़ीसदी जमीन के प्रयोग को बढ़ाकर 50 फ़ीसदी कर दिया गया है। 83 नये सेजों को मंजूरी दी जा रही है। इसके अलावा केन्द्र का यह भी सुझाव है कि इन सेजों के लिए जो किसान स्वेच्छा से जमीन दे देंगे, उनके परिवार में से कम से कम एक आदमी को संबध्द प्रोजेक्ट में रोजगार मिलेगा।
शायद केंद्र सरकार इस बात को समझ नहीं पा रही है कि जमीन की अधिकतम या न्यूनतम सीमा तय करना मात्र ही विरोध की वजह नहीं है। मूल मुद्दा यह भी नहीं है कि जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकारें करेंगी या फ़िर सीधे कम्पनियां? दरअसल सवाल बहुत गहरे हैं सेज का विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि उद्योग के नाम पर देश की लाखों हेक्टेअर बहुफसली जमीन किसानों से ली जा रही हैं, जो करोड़ों किसानों की जीविका और जीवन का आधार है। जमीन की अधिकतम सीमा को लेकर वामदलों ने भी चिंता जताते हुए उसे दो हजार हेक्टेअर करने की बात की है, लेकिन यह सीमा भी देश की सुरक्षा के लिए खतरा है। इस पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है कि एक कंपनी को एक से ज्यादा सेज बनाने का अधिकार होगा या नहीं। एक ही कंपनी अलग-अलग नामों से भी सेज बना सकती है, तब क्या होगा? क्या इस बारे में केन्द्र ने कुछ सोचा है?
मंत्रीसमूह की बैठक ने अपने निर्णय में भूमि अधिग्रहण मामले में राज्य सरकार के हस्तक्षेप को खत्म करके किसान को सीधे कंपनी से मोल-भाव के लिए छोड़ दिया, ताकि खुद जन-विरोध और मुआवजे आदि की चिंताओं से मुक्त हुआ जा सके। लेकिन क्या देश के किसानों की सुरक्षा का दायित्व केंद्र सरकार का नहीं हैं? या हम यह उम्मीद करें की विदेशी आकर देश और देश के किसानों का भला सोचेंगे और उनका स्वर्णिम भविष्य लिखेंगे? क्या इतिहास में कभी ऐसा हुआ है? देश के किसानों को भूखे भेड़ियों- बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे डालना क्या केन्द्र सरकार की समझदारी है? क्या ऐसा करके सरकार अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ रही है? शायद सत्ता के मद में कांग्रेस आज गांधी जी के वचनों को भी भूल रही है कि ''अगर किसानों को कोई भी आंच आती है तो वह देश के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होगा।''
इतना ही नहीं पुनर्वास कीे समस्या का समाधान किए बिना ही 83 नये सेजाें को मंजूरी देकर और लोगों को उजाड़ने की तैयारी की जा रही है, उस पर तुर्रा ये कि जो किसान स्वेच्छा से विस्थापन स्वीकार करेगा उसके ञ्र से एक आदमी को रोजगार मिलेगा; अब कोई सरकार से यह पूछे कि किसी ञ्र के 20 लोगों को उजाड़कर दाने-दाने के लिए मोहताज करके एक आदमी को रोजगार देने में कौन सी समझदारी हैं जमीन के असली मालिक को नौकर बना देना क्या सही होगा? यदि सेज कंपनियों ने जमीन के बदले रोजगार नहीं दिए तो इसके लिए ऐसे कौन से कानूनी प्रावधान किए गए हैं; जिससे कंपनियों को मजबूर किया जा सके। रोजगार देने के मसले में वादाखिलाफ़ी की स्थिति में क्या किसान की जमीन वापस की जाएगी? प्राय: यह धोखा ही साबित हुआ है, ऐसा होंडा मामले में हम देख ही चुके हैं।
डॉ वन्दना शिवा, मेधा पाटकर, डा बनवारीलाल शर्मा, जनता दल यू. और वामदलों का भी यह मानना है कि केंद्र सरकार ने शायद नंदीग्राम से कोई सबक नहीं लिया हैं वह पूरी तरह अपने विदेशी मित्रों की दलाल बन चुकी है। केंद्र को यह भी दिखाई नहीं दे रहा है कि इन फ़ैसलों से हमारी खाद्य सुरक्षा को खतरा होगा। बड़ी मात्रा में लोग खेती से बाहर हो जाएँगे। रोजगार और आजीविका तो खत्म ही हो जाएगी। लेकिन मामला सिर्फ़ बेरोजगारी और लोगों के बेघर होने तक ही सीमित नहीं है। सेज के माध्यम से देश के अंदर विदेशी इलाका बनाया जा रहा है। केंद्र सरकार द्वारा सेज को परिभाषित किया गया है कि ''सेज विस्तार से वर्णित शुल्क मुक्त एंक्लेव है और व्यापार क्रियाकलापों, शुल्कों और सीमाकरों की दृष्टि से उन्हें विदेशी इलाका माना जाएगा।'' संसद द्वारा सेज एक्ट-2005 का सेक्शन-53 कहता है ''सेज एक नियत दिन और उसके बाद से एक ऐसा क्षेत्र माना जाएगा जो भारत के सीमा शुल्क क्षेत्र से बाहर हो।'' 250 वर्ष पहले अंग्रेजों की कोठियों और फैक्ट्रियों में जैसी व्यवस्था चलती थी, कुछ वैसी ही व्यवस्था सेज के लिए बनाई गई हैं। कोठियों और फैक्ट्रियों में रहने वाले अंग्रेजों के लिए 1782 में कंपनी गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने अलग न्याय प्रणाली और 1793 में अलग सिविल सेवाओं और पुलिस की व्यवस्था बना दी थी। सेज देश के अंदर एक नये किस्म के विदेशी अड्डे होंगे, जहां देशी-विदेशी व्यापारी वैसी ही सुख-सुविधाएं पा सकेंगे जैसी विकसित देशों में मिलती हैं। यहाँ होने वाले विवादों के संबंध में देश की कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्था किसीे काम नहीं आएगी, क्योंकि इनके मामलों के निपटारे के लिए तो अलग न्यायालयों का गठन किया जाएगा। राज्य या केंद्र की तो पुलिस भी यहाँ प्रवेश नहीं कर सकतीं। ऐसे में हमारी न्याय व प्रशासनिक व्यवस्था के बेमानीपन पर केंन्द्र की सहमती ही मानी जानी चाहिए।
यहाँ सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय संसद को अधिकार है कि वह देश के अंदर विदेशी अड्डे कानून बनाकर स्थापित कर सकती है? भारत की संप्रभुता जनता में निहित है या इन संस्थाओं में? मसला सिर्फ़ यह ही नहीं है कि सेज कृषि योग्य जमीन पर बने या बंजर जमीन पर। जमीन सरकार ले या सीधे कंपनियां? हिंद महासागर में गार्सिया टापू पर अमेरिकी कब्जा क्या देश की सुरक्षा को खतरा नहीं हैं, जब दूर टापू पर विदेशी कब्जे से देश की सुरक्षा पर प्रश्न चिह्व लग सकता है, तो देश के अंदर विदेशियों के आकर बैठ जाने से देश की सुरक्षा कैसे प्रभावित नहीं होगी?
सच तो यह है कि सेज के लिए जमीन 5000 हेक्टेअर हो या उससे कम; किसानों को मुँहमांगा दाम भी मिल जाए; पर जो भी सेज बनेगा वह ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह ही काम करेगा। क्या यह देश की जनता को मंजूर होगा? समस्या का हल सेज कानून में संशोधन नहीं बल्कि इसे पूरी तरह रद्द करना है।

आप्रवासियों के लिए निजी जेल - दीपा फर्नाण्डीज, प्रस्तुति-अफलातून

जेलों का निजीकरण? जी हाँ। कम्पनियों द्वारा संचालित जेलें, यह एक सच्चाई है। अमेरिकी पत्रकार दीपा फर्नाण्डीज़ की ताजा किताब टार्गेटेड में अमेरिका की निजी जेलों और जेल-उद्योग का तफ़सील से विवरण है, जो आजकल आप्रवासियों से भरी हुई हैं। -संपादक

दक्षिण -पश्चिम अमेरिका में मेक्सिको से सटा एक राज्य है, एरिज़ोना। एरिज़ोना में एक छोटा कस्बा है 'फ्लोरेन्स'। अमेरिका में निजी जेलों की हुई वृध्दि का एक केन्द्र यह कस्बा भी है। नागफनी, लाल चट्टानें और पहाड़ों के करीब से गुजरने वाले एक-लेन के राजमार्ग से पहुँचा जाता है, इस रेगिस्तानी जेल-कस्बे में।
फ्लोरेन्स में एरिज़ोना राज्य का शासकीय कारागार, निजी सुरक्षा कम्पनियों द्वारा संचालित दो कारागार और स्वदेश सुरक्षा विभाग (होमलैण्ड सिक्यूरिटि डिपार्टमेंट) द्वारा संचालित आप्रवासियों के लिए बना एक कारागार है। इस कस्बे में चलने वाले एकमात्र जनहित कानूनी सहायता केन्द्र की संचालिका अधिवक्ता विक्टोरिया लोपेज़ कहती हैं, ''यहाँ की अर्थव्यवस्था जेल-केन्द्रित है और जनसाधारण की सोच और चिन्तन भी जेल-केन्द्रित है।'' ज्यादातर स्थानीय बाशिन्दे पुश्तों से जेल-धंधा से जुड़े रहे हैं।
अमेरिका सरकार द्वारा आन्तरिक सुरक्षा उपाय लागू किए जाने के बाद जेलों में आप्रवासियों की तादाद में अभूतपूर्व वृध्दि हुई है, नतीजतन निजी जेल-उद्योग की भी काफी वृध्दि हुई है। न्यूयॉर्क पर हुए 11 सितम्बर के हमलों के परिणामस्वरूप अमरीकी जेलों में बन्द कुल आबादी में आप्रवासियों का तबका सबसे तेजी से बढ़ा है । वित्तीय वर्ष 2005 में साढ़े तीन लाख से ज्यादा आप्रवासियों को अदालतों का सामना करना पड़ा। इनमें अमेरिका आने के बाद किसी भी अपराध में शामिल न रहने वालों यानी निर्दोष लोगों की संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। 2005 में इस श्रेणी में 53 फ़ीसदी लोग थे जबकि वर्ष 2001 में ऐसे लोगों की तादाद 37 फ़ीसदी थी -डेनवर पोस्ट की रपट।
खदानों से जेल तक
इस देहाती-से कस्बे की स्थानीय आबादी में काफी लोगों के परिवार का कोई न कोई सदस्य चाँदी की खदानों से कभी न कभी जुड़ा रहा था। धीरे-धीरे चाँदी की खदानों का काम मन्दा पड़ता गया। इस कस्बे में फिर जान आयी-जब देश की सबसे बड़ी जेल-कंपनियों में एक टेनेसी स्थित करेक्शन कॉर्पोरेशन ऑॅफ़ अमेरिका (सीसीए) ने फ्लोरेन्स में दो कारागार स्थापित किए। आप्रवासी कैदियों की बाढ़ ने कस्बे में रोजगार के नए अवसर सृजित किए। वहाँ की स्थानीय अर्थव्यवस्था इसी के बूते चल निकली। कस्बे से सटे बाहरी इलाकों में नए-नए आवासीय कालोंनियां बनने लगीं और इनके पीछे-पीछे फुटकर व्यवसाय की बड़ी कम्पनी वॉलमार्ट का आगमन भी हुआ।
सन् 2000 और उसके बाद के समय में निजी जेल उद्योग पर एक अरब डॉलर का कर्ज था। सीसीए के शेयर 93 फ़ीसदी तक गिर गए थे। उस दौर की गिरावट के कारण बताते हुए अमेरिकन प्रॉस्पेक्ट नामक राष्ट्रीय पत्रिका ने लिखा कि निजी जेल कंपनियों के कैदियों के साथ दर्ुव्यवहार आदि के कारण इन पर जुर्मानों की वजह से ये काफी घाटे में पहुंच गयीं थीं। इन्हीं परिस्थितियों में न्यूयॉर्क पर 11 सितम्बर 2001 के हमले हुए। सरकार के निशाने पर गैर-नागरिक आप्रवासी आ गए। आप्रवासी-समुदाय में थोक में गिरफ्तारियाँ होने लगीं, बिना दस्तावेजों के सरहद पार करने वालों पर चलने वाले मुकदमे बढ़ गए तथा आपराधिक और आतंकी आरोपों को तय करने तक लोगों को कैद में रखने के आप्रवासन कानून के प्रावधान का उपयोग बढ़ गया।
अमेरिका सरकार का मानना है कि जिन लोगों की कोई कानूनी हैसियत नहीं है उनके देश में घुल-मिल जाने को रोकने का सबसे अच्छा उपाय उन्हें कैद कर देना है। स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग के महानिरीक्षक कार्यालय की सन 2004 की एक रपट का निष्कर्ष था कि इस बात के पूर्ण प्रमाण हैं कि- किसी परदेशी के देश-निकाला के पहले उसे निरुध्द रखना जरूरी है। बुश प्रशासन द्वारा गैर-नागरिकों को कैद में डालने की रफ्तार और विस्तार ऐसे हैं कि आप्रवासियों को कैद में रखने के लिए जगह की जरूरत असाधारण ढंग से बढ़ गई है।
कुप्रबन्ध और कलंक के इतिहास के बावजूद निजी जेल उद्योग की कंपनियों को नई जेलों के ठेके लगातार मिलते आए हैं। इनसे जुड़ी समस्याएं भी बदस्तूर जारी हैं। आप्रवासी बन्दियों के वकील अब भी अपने मुवक्किलों से दर्ुव्यवहार का मुद्दा उठाते हैं। इन वकीलों का आरोप है कि कंपनियाँ बन्दी रक्षकों को प्रशिक्षण देने के खर्च से तथा बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के मद में से पैसा बचाती हैं। सरकार ने इन जेलों के प्रशासन पर निगरानी और नियंत्रण रखने में कोताही बरती है। जेल प्रशासन द्वारा श्रम-शोषण की कारगुजारियों और बन्दियों को दी जाने वाली टेलिफोन सुविधा में कटौती का सरकार अनुमोदन करती है।
इराक के युध्द में शामिल रहे पूर्व सैनिक फिलिप लुई दर्ुव्यवहार के प्रकरणों को कुछ तफ़सील से बताते हैं। वे हैती के मूलनिवासी हैं, पाँच वर्ष कि उम्र से अमेरिका में ही रह रहे हैं। इन्होंने फौज में काफ़ी शीञ््रता से तरक्की की। युध्द के दौरान मिली पदोन्नति के आधार पर पुरस्कृत होने के लिए इराक से लौट कर इन्होंने प्रयास किया। बजाय पुरस्कृत करने के अधिकारियों ने उनके दस्तावेज खंगालने शुरु किए तब पाया कि कभी उसे सैन्य अदालत द्वारा 37 दिनों की सजा दी गई थी । सरकार ने इस तथ्य के आधार पर उसके विरुध्द देश-निकाले का मामला शुरु कर दिया और लुई को सीसीए संचालित सैन डिएगो 'सुधार गृह' में पटक दिया। वहाँ के हालात और बर्ताव से वह भयभीत हो गए। कहते हैं ''बन्दी रक्षक हम पर ऐसे चीखते-चिल्लाते थे, मानो हम बच्चे हों। ऐसा न करने के लिए उन्हें कहने पर वे कुछ दिनों के लिए हमे 'तन्हाई' में रखने की धमकी देते और अक्सर यह धमकी लागू भी कर दी जाती थी । दो लोगों के लिए बने 12'ग् 7' फ़ुट की कोठरी में तीन लोगों को रखा जाता था। ऐसा अक्सर होता था जब एक-दो बन्दियों को सबक सिखाने के चक्कर में सभी 105-115 अन्तेवासियों को खामियाजा भुगतना पड़ता था।''
2003 में स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग के महानिरीक्षक की एक रपट में विभिन्न जेलों में बन्द आप्रवासियों के प्रति बर्ताव की कड़ी निन्दा की गयी है; रपट में माना गया है कि बन्दियों के बुनियादी अधिकारों के रोजमर्रा हनन, शारीरिक एवं मानसिक उत्पीड़न, सेहत और चिकित्सा से वंचित किया जाना, जेलों में क्षमता से ज्यादा बन्दियों का होना तथा स्नान-शौचादि की सहूलियत का अभाव गौरतलब हैं।
समस्याओं की लम्बी फेहरिस्त के बावजूद सीसीए द्वारा जेल निजीकरण को बढ़ावा देना और नए-नए अनुबन्ध हासिल करना बदस्तूर जारी है। 'डयूक विश्वविद्यालय की विधि-शोध-पत्रिका में शैरॉन डोलोविच ने लिखा है कि- 'निजी जेल कंपनियाँ विधायकों के बीच 'लॉबींग' करने तथा निजीकरण के एजेण्डा के हक में विधायकों की गतिविधियों के लिए चन्दा देने में माहिर हैं।' सीसीए का धन्धा अच्छा चल रहा है । अपनी जेलों में वे जितने ज्यादा लोगों को ठूँसेंते हैं, उतना धन्धे के लिए अच्छा है।
वॉकेनहट
फ्लोरिडा स्थित वॉकेनहट एक प्रमुख सुरक्षा कंपनी है। 11 सितम्बर के न्यूयॉर्क के हमलों के बाद के वर्षों मर्ें यह कंपनी भी काफ़ी फली-फूली है। अपने बुरे रेकॉर्ड के बावजूद कई लाभप्रद सरकारी अनुबन्ध पाने में यह सफल रही है। सन् 2001 के पहले सीसीए की भाँति वॉकेनहट कम्पनी भी सब तरह के बन्दी-दर्ुव्यवहार काण्डों के केन्द्र में थी : अल्पवयस्क बन्दियों से सेक्स के दौरान बन्दी रक्षक पकड़े गए थे, भीषण दर्ुव्यवहारों की ञ्टनाएं आम थीं तथा उनके सुधार गृहों में मृत्यु की ञ्टनाएं असंगत तौर पर अधिक हुई थीं। दर्ुव्यवहार कि इन ञ्टनाओं के प्रति वॉकेनहट के मुख्य कार्यपालक अधिकारी जॉर्ज ज़ोले का रवैया अत्यन्त हल्का और छिछोर रहा है। वॉकेनहट संचालित एक बाल सुधार गृह में एक 14वर्षीय लड़की से लगातार बलात्कार का मामला सीबीएस टेलिविजन ने उद्ञटित किया था, दो गार्ड इस मामले में दोषी पाए गए थे। इस पर ज़ोले ने कहा, 'यह एक बेरहम धन्धा है। आखिर इन जेलों में कैद बच्चे किसी धार्मिक पाठशाला के सीधे-सादे विद्यार्थी तो नहीं हैं।'
लागत की बचत
अमेरिकी सरकार के लोगों का दावा है कि जेलों के निजीकरण से लागत काफी कम हो जाती है। अमेरिकी सामान्य लेखागार कि 1996 की एक रपट के निष्कर्ष में हाँलाकि कहा गया है कि इस दावे को पुष्ट करने के स्पष्ट साक्ष्य नहीं पाए गए। जेल-कंपनियाँ अन्य कंपनियों की तुलना में निश्चित फ़ायदे में रहती हैं। श्रम के मामलों के मद में ये कंपनियाँ ढ़ेर सारा पैसा बचा लेती हैं, जो अन्य परिस्थितियों में गैर कानूनी माना जाता है। बन्दियों को सभी जेलों में काम के बदले अत्यन्त कम मजदूरी दी जाती है। इस मामले में आप्रवासियों के लिए बनीं जेलें बद्तर होती हैं। स्वराष्ट्र-सुरक्षा विभाग का दिशा निर्देश है कि गैर-नागरिक बन्दियों को रोज एक डॉलर से अधिक नहीं दिया जाएगा। इस प्रकार जेल-कंपनियों को मामूली लागत पर दरबान, सफ़ाईकर्मी, मिस्त्री, धोबी, रसोइए और माली मिल जाते हैं ।
मानवाधिकार कार्यकर्ता और अधिवक्ता इसाबेल गार्सिया आप्रवासियों को बन्दी बनाने के अभियान की चर्चा करते हुए कहती हैं, जेल-उद्योग के ये संकुल 'ड्रग्स के खिलाफ़ जंग' के दौरान पहले-पहल परवान चढ़े थे। 'ड्रग्स के खिलाफ़ जंग' अत्यन्त सहजता से 'आप्रवासियों के खिलाफ़ जंग' में तब्दील हो गयी है। आप्रवासियों को कैद रखने में काफ़ी कमाई है ।' गार्सिया आगे बताती हैं कि इस उद्योग की अत्यन्त बलवान-धनवान लॉबी की पहुँच और संञ्ीय सरकार से इनके मजबूत रिश्तों की वजह से इस उद्योग में बहार आई हुई है। गार्सिया को इस बात कि चिन्ता है कि लाभ कमाने की उत्प्रेरणा से हो रही गिरफ्तारियां तो आप्रवासियों में अपराधीकरण की वृत्ति को बढ़ाएगी।
राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर स्वदेश सुरक्षा विभाग ने निजी उद्योग की अगुवाई में ऐसी व्यवस्थाएं और प्रक्रिया लागू की हैं जिनके द्वारा यह आभास दिया जा रहा है कि इनसे अमेरिका को भविष्य में होने वाले आतंकी हमलों से सुरक्षा मिलेगी। फिर भी कई मामलों में ऐसे आप्रवासी और गैर-नागरिक इस जाल में फँस जाते हैं जिनका आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। (पीएनएन)

टिटनेस वैक्सीन बनाम प्रजनन-रोधी वैक्सीन - मीनाक्षी अरोड़ा

90 के दशक में टिटनेस वैक्सीन के खिलाफ बहुत से आन्दोलन हुए। निकारागुआ, मैक्सिकों ओर फिलीपींस में मुख्य रूप् से वैक्सीन के खिलाफ आवाज उठाई गई। मैक्सिको की एक समिति ''कमिटि' प्रो विडा द मैक्सिको' ने आन्दोलनों से प्रभावित होकर ही वैक्सीन के कुछ सैम्पल लिए और केमिस्ट से उनका परीक्षण कराया। उनमें से कुछ वैक्सीन में (एच सी जी) हयूमैन कोरिओनिक गोनाडोट्रफिन पाया गया, यह गर्भधारण के लिये आवश्यक प्राकृतिक हारमोन है।
एचसीजी और एचसीजी रोधी प्रतिरक्षी- एचसीजी हारमोन प्राकृतिक रूप् से यह बताता है कि कोई स्त्री गर्भवती है या नहीं, इसके अतिरिक्त यह गर्भनाल में प्रसव के लिए आवश्यक हारमोंस को छोड़कर अन्य सभी को हटा देता है। एचसीजी का बढ़ता हुआ स्तर गर्भावस्था को निश्चित करता है। आमतौर पर जब महिलाएं गर्भधारण का परीक्षण कराती हैं तो वह परीक्षण एचसीजी की उपस्थिति जानने के लिए ही किया जाता है।
लेकिन जब एचसीजी को टिटनेस टॉक्सोइड के साथ शरीर में पहुंचाया जाता है तब न केवल टिटनेस प्रतिरोधी पैदा होने लगते हैं बल्कि एचसीजी के प्रतिरोधी भी पैदा होने लगते हैं और तब शरीर को यह संज्ञान ही नहीं हो पाता कि एचसीजी उसके भले के लिए है या बुरे के लिए, ऐसे में एचसीजी रोधी प्रतिरक्षी बनने लगेंगे। ये प्रतिरोधी ही एचसीजी ही गर्भावस्था के लिए आवश्यक है। जब एचसीजी प्रतिरोधियों का स्तर काफी बढ़ जाता है तो स्त्रियां गर्भ धारण नहीं कर पातीं।
मैक्सिकों की टिटनेस वैक्सीन के बारे में एचएचआई ने अपने वर्ल्ड कौंसिल और अन्य देशों के सम्बध्द सदस्यों को रिपोर्ट देते हुए तथ्यों का खुलासा किया। इसके बाद फिलीपींस से भी इस तरह की खबरें मिलने लगीं कि टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी हारमोंस है क्योंकि फिलीपींस में 3.4 मिलियन महिलाओं को यह वैक्सीन दी गई थीं जल्दी ही निकारागुआ में भी यह जंगल की आग की तरह फैलने लगी और वहां भी 1993 में इसके खिलाफ आंदोलन के स्वर गूंजने लगे।
मैक्सिको और फिलीपींस में आंदोलनों ने टिटनेस वैक्सीन पर अनेक सवालिया निशान लगा दिये। केवल महिलाओं को ही यह वैक्सीन दी जाती है उनमें भी 15 से 45 वर्ष की आयु की महिलाएं इसके मुख्य शिकार हैं, निकरागुआ में तो यह आयु 12 से 49 वर्ष है। लेकिन क्या महिलाओं की तरह पुरुष टिटनेस का शिकार नहीं होते? क्या बच्चे इसके शिकार नहीं होते? तो फिर उन्हें क्यों छोड़ दिया जाता है? केवल महिलाओं को ही टिटनेस वैक्सीन क्यो?
दूसरे, एचसीजी का वैक्सीन से कोई संबंध नहीं है फिर भी यह टिटनेस वैक्सीन में पाया गया, जिसे ओ. जे. सिम्पसन हत्या केस में न्यायालय के शब्दों में ''वैक्सीन में मिलावट'' (संक्रमण) कहा गया।
महिलाओं को टिटनेस वैक्सीन के लिए अनेक इंजेक्शन दिये जाते हैं- तीन इंजेक्शन तीन माह के अन्दर और फिर कुल मिलाकर पांच दिये जाते हैं लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि जब टिटनेस वैक्सीन एक बार लिए जाने पर 10 या ज्यादा सालों के लिए टिटनेस से रक्षा कर सकती है तो फिर इतने सारे इंजेक्शन की क्या जरूरत है?
डब्ल्यू एच ओ 20 से भी ज्यादा सालों से टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी का प्रयोग कर प्रजनन क्षमता विरोधी काम में लगा हुआ है। डब्ल्यूएचओ के साथ मिलकर यूएनएफपीए, यूएनडीपी, डब्ल्यूबी, पोपुलेशन कौंसिल, रोक्फीलर फाउंडेशन, एआईआईएमएस और बहुत से विश्वविद्यालय (हेलसिंकी), उप्पसला और ओहियो) भी प्रजनन क्षमता-विरोधी काम में लगे हुए हैं। अमरीका का 'नेशनल इंस्टीटयूट ऑव चाइल्ड हेल्थ एण्ड हयूमैन डेवलपमेन्ट' प्रजनन-क्षमता विरोधी वैक्सीन के प्रयोग के लिए एचसीजी का सबसे बड़ा सप्लायर था।
1972 में डब्ल्यूएचओ ने मानवीय प्रजनन पर अपना 'विशेष कार्यक्रम' शुरू किया और 1993 तक इससे सम्बध्द 'स्वास्थ्य शोध' पर 356 मिलियन डालर खर्च किए। यही पहला ऐसा कार्यक्रम था जिससे प्रजनन क्षमता विरोधी वैक्सीन का विकास हुआ। इस कार्यक्रम के लिए स्वीडन ने 90 मिलियन डालर से भी ज्यादा फण्ड दिया, ग्रेटब्रिटेन ने 52 मिलियन डालर से अधिक जबकि नार्वे, डेनमार्क और जर्मनी ने क्रमश: 41 मिलियन, 27 मिलियन और 12 मिलियन डालर का योगदान दिया। अमरीका से रीगन-बुश प्रशासन के दौरान केवल 5.7 मिलियन डालर की सहायता दी गई जो पुन: 1993 में क्लिंटन प्रशासन द्वारा 2.5 मिलियन डालर और दिया गया। इसके अतिरिक्त डब्ल्यूएचओ के कार्यक्रम में यूएनएफपीए ने 61 मिलियन, फोर्ड फाउंडेशन 1 मिलियन से ज्यादा और आईडीआरसी कनाडा ने 716.5 हजार डालर की वित्ताीय सहायता दी।
जब पहली बार फिलीपींस में टिटनेस वैक्सीन में एचसीजी के होने की खबरें फैली, तो डब्ल्यूएचओ और फिलीपींस के स्वास्थ्य विभाग ने इन्हें नकार दिया। चार में से तीन सेम्पलों में एचसीजी पाए जाने पर भी डब्ल्यूएचओ और डीओएच ने 'राइट टू लाइफ और कैथोलिक' स्रोतों के प्रमाणों का मजाक उडाया। मनीला के सेंट ल्यूक के मेडिकल सेन्टर द्वारा भी किये गए परीक्षणों में सकारात्मक परिणाम ही सामने आए। लेकिन अब डब्ल्यूएचओ और डीओएच ने सच को नकारने के लिए एक नया तर्क निकाल लिया कि वैक्सीन में उपस्थित एचसीजी वोल्यूम इतना कम है कि उससे एचसीजी-रोधी प्रतिरोधी नहीं बन सकते।
तभी फिलीपींस के 'लाइफ और कैथोलिक' ग्रुप ने स्त्रियों के रक्त में एचसीजी प्रतिरोधियों की उपस्थिति की जांच शुरू कर दी। जिन महिलाओं को टिटनेस वैक्सीन दी गई उनमें 30 में से 26 महिलाओं में एचसीजी रोधी का स्तर ऊंचा पाया गया, यदि वैक्सीन में एचसीजी नहीं थी या पर्याप्त मात्रा में नहीं थी, तो फिर उन स्त्रियों में एचसीजी रोधी कैसे पाए गए? इस सवाल का जवाब डब्ल्यूएचओ और डीओएच के पास शायद नहीं है।
सवाल का जवाब तो नहीं मिला बल्कि चोर ने ही कोतवाल को डांटना शुरू किया कि परीक्षणों के सब निष्कर्ष गलत हैं। फिर भी अगर वैक्सीन में एचसीजी है तो वह निर्माण प्रक्रिया से आई होगी। हमारा तर्क यह नहीं है कि एचसीजी कहां से, कैसे आया बल्कि टिटनेस टोक्साइड करियर की जरूरत क्या है?
शरीर स्वयं प्राकृतिक रूप से बनने वाले एचसीजी पर आक्रमण नहीं करता, बल्कि एचसीजी प्रतिरोधियों का इस्तेमाल करके सफलतापूर्वक प्रजनन-विरोधी वैक्सीन का विकास करने के लिए शरीर को एचसीजी से लड़ने के लिए भ्रमित किया जा रहा है।
पश्चिम जर्मनी में 26-29 जुलाई 1989 को रिप्रोडक्टिव इम्यूनोलॅजी पर चौथी अन्तरराष्ट्रीय कांग्रेस में प्रस्तुत पेपर में कहा गया है ''यह सब एचसीजी क्षमता को समाप्त करने के लिए किया गया था।''
अभी वैक्सीन विवाद चल ही रहा थ कि एक नया धमाका हुआ और सामने आया टिटनेस वैक्सीन कंपनियों का एक और झूठ। जिन तीन ब्राण्ड कंपनियों की वैक्सीन कई सालों से इस्तेमाल की जा रही थी उनमें से किसी के पास भी विक्रय या वितरण के लिए न तो लाइसेंस था न ही उन्होंने फिलीपींस न्यूरो ऑव फूड एण्ड ड्रग्स (बीएफएडी) में रजिस्ट्रेशन कराया था। विवादित कंपनियों में दो कनाडा की कनॉट लेबोरेट्रीज लिमिटिड और इण्टरवेक्स और सीएसएल लेबोरेट्रीज आस्ट्रेलिया से था।
शायद बीएफएडी में जांच में बहुत देरी कर दी। लकिन तभी सेक्रेटरी ऑव हेल्थ ने घोषणा की कि चूंकि ये कंपनिया डब्ल्यूएचओ से प्रमाणित हैं, अत: उनके अस्तित्व पर कोई सवाल नहीं उठता। सच तो यह है कि ये वैक्सीन निर्माता बड़ी कंपनिया थीं। यही कनॉट लेबोरेट्रीज 80 के दशक में एडस्ट सवंमित रक्त उत्पाद बेच रही थी। अफ्रीका में इसके काले कारनामों का उदाहरण देखा जा सकता है। ये सभी कंपनियां, अमरीका बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलकर प्रजनन-क्षमता विरोधी वैक्सीन के निर्माण में लगी हुई है। जिसे अगर रोका न गया तो शायद सृष्टि से मानव जाति का अंश ही मिट जाएगा।

मुद्दे-स्तम्भकार