इतिहास हमें इस बात का ज्ञान कराता है कि अनेक राष्ट्रों का विनाश का कारण बाहरी आक्रमण से ज्यादा अक्सर आंतरिक पतन और भ्रष्टाचार ही होता है। आंतरिक पतन और भ्रष्टाचार; कठोर और अपारदर्शी कानूनों से और मजबूत होता है तथा जनता को उनके अधिकारों से वंचित करता है। यह समाज के जानने की स्वतंत्रता से समझौता कर जनता के विकल्प को सीमित तथा उनके अधिकारों को कमजोर बनाता है। जबकि दूसरी तरफ पारदर्शिता विकास के दरवाजे खोलता है तथा ठीक आधारों पर लोगों को समर्थ बनाता है। सरकारी कार्यों में पारदर्शिता की आवश्यकता लोकतांत्रिक सरकार के लिए बुनियादी सिध्दांत है। सूचनाओं का महत्व सिर्फ राज्य, सरकार या सरकारी कर्मचारियों के लिए ही नहीं होती बल्कि आम लोगों के लिए भी होती है।
ऐसा ही एक अपारदर्शी कानून है शासकीय गोपनीयता अधिनियम या ओएसए। यह अधिनियम 1923 के औपनिवेशिक भारत का है। यह इंगलैंड में मर्विन (1878) और एंडरसन (1889) की घटना के बाद बनाया गया। ऐसा देखा गया कि सामान्य कानून जासूसों के अभियोजन के मामले में अपर्याप्त थे। जासूस दस्तावेजों को खरीदा करते थे जिस कारण उन पर चोरी का कोई आरोप नहीं बनता था। इसलिए इंग्लैंड में 1889 में शासकीय गोपनीयता अधिनियम, 1889 लाया गया। इसी कानून को 1923 में भारत में लागू कर दिया गया। युनाइटेड किंगडम में इंग्लैंड का शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1889 वैधानिक सूचना की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए लाया गया ताकि सरकारी कर्मचारियों में गोपनीयता का माहौल बने, जिससे सरकार के कार्यों के बारे में सूचना प्राप्त करने और उसे प्रकाशित करने की इच्छा रखने वालों के प्रयास को रोका जा सके। अब जबकि इंग्लैंड में ही इस कानून को बदला जा चुका है बजाय इसके भारत और पाकिस्तान दोनाें जगह शासकीय गोपनीयता का यह खतरनाक कानून बना हुआ है।
जैसा कि उपर कहा जा चुका है प्रारंभ में यह कानून ब्रिटिश द्वारा प्रशासको ंकी रक्षा के लिए और शासकीय सूचना के सार्वजनिक प्रसार पर प्रतिबंध की रणनीति के विकास के लिए तैयार किया गया था। केवल उच्च पदस्थ शासकीय अधिकारियों या सरकारी कर्मचारियों की ही इन दस्तावेजों तक पहुंच थी। उसी कानून का प्रतिरूप भारत की स्वतंत्र विधायिका द्वारा भी बनाया गया। भारत-पाकिस्तान के युध्द के बाद तो इस अधिनियम का उद्देश्य समकालीन रूप से विस्तृत हो गया और दंड को कठोर बनाना और अभियोजन को सरल बनाना हो गया।
सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस समय तक इस अधिनियम से संबंधित उदाहरण काफी कम हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक निर्णय में यह कहा गया कि कोई भी सूचना जो राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता को खतरा पहुंचाने वाले विषय से जुड़ा हुआ हो या विदेशी देशों के साथ संबंधों को प्रभावित करने वाला हो या शत्रु देशों के लिए उपयोगी हो उसको प्रसारित करना ओएसए की धारा 3 के अंतर्गत अपराध है तथा इसके अलावा अन्य किसी भी विषय से जुड़ी सूचना को गुप्त नहीं रखा जा सकता। नंदलाल मोर और राज्य के बजट लीक के मुकदमे में राज्य धारा 5 के अंतर्गत आरोप दर्ज करवाने में असफल रहा। सलमा अलना अब्दुल्ला और गुजरात सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के सुनील रंजन दास और बंगाल सरकार मामले के निर्णय पर जोर दिया और कहा कि धारा(3)की उपधारा(1) के खंड(सी) में वर्णित गोपनीय शब्द का अर्थ सिर्फ शासकीय कोड या पासवर्ड से है न कि किसी स्केच, योजना, मॉडल, लेख, नोट, दस्तावेज या अन्य सूचनाओं से है। इसलिए किसी भी स्केच, योजना, मॉडल, दस्तावेज इत्यादि जिसे सरकार ओएसए के तहत शासकीय गोपनीय मानती है वे उपलब्ध होंगे। ऐसी ही दूसरा मामला है दिल्ली की एनसीटी सरकार और जसपाल सिंह का। धारा की शर्त 3(2) जो साक्ष्यों के बोझ की धारणा से संबंधित है वह भी काफी कठिन है क्योंकि यह आरोपी कि किसी भी बचाव को व्यवहारिक रूप से नकार देता है।
जो कुछ उपर कहा गया उस पर विचार किया जाय कि जिस देश के लोग सरकार के कार्यों में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की माँग कर रहे हैं वहाँ इस प्रकार के कानूनों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करती है। ऐसा सवाल बड़े पैमाने पर हो रहे भ्रष्टाचार के कारण खड़ा हुआ है, जो भारत में अनियंत्रिण्त हो चुका है। यद्यपि भारत कागज पर सबसे बड़े लोकतंत्र की सवारी करता है; लेकिन माँग सहभागी लोकतंत्र की हो रही है ताकि लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया मे ंसच्चे सहभागी बन सकें। बोहरा समिति की 2003 की रिपोर्ट प्रशासन में उपर से नीचे तक व्याप्त अनियंत्रित भ्रष्टाचार को बयां करता है। यहां तक कि न्यायपालिका भी इस सूची में शामिल है। अफसरशाही की सक्रिय भूमिका से नेताओं और अपराधियों का गठजोड़ सिध्द हो चुका है।
इसी तरह धार्मिक कट्टरता देश में फिर से सर उठा रहा है। सांप्रदायिक हिंसा की घटना बताती है कि इन शक्तियों को देश के आधारभूत संवैधानिक वचनबध्दता के प्रति कोई सम्मान नहीं है। इससे न सिर्फ धर्म निरपेक्षता बल्कि लोकतंत्र भी दांव पर है। पुलिस और स्थानीय प्रशासन अल्पसंख्यक समुदाय के पीड़ितों को सुरक्षा देने के बदले सांप्रदायिक हिंसा में शामिल हो जाते हैं और उसे बढ़ावा देते हैं। कार्यपालिका के साथ न्यायपालिका ने भी ज्यादातर मामलों में कट्टरपंथी शक्तियों को नियम-कानूनों को न सिर्फ तोड़ने के साथ दंड देने, यहां तक कि हत्या की भी अनुमति दी। खासकर ऐसे समय में जब देश की अखंडता खतरे में है। हाल ही में गुजरात के साथ ही, पंजाब पुलिस पर अपराध सिध्द होना जनता के इस विश्वास को सिध्द करता है कि पुलिस सांप्रदायिक राजनीतिक दलों और अपराधियों को दंगा करने और निर्दोष लोगों की निर्ममतापूर्वक हत्या के लिए भड़काते हैं और उनका सहयोग करते हैं। इसलिए इस स्थिति में ओएसए जैसे अधिनियम का होना कहां तक न्यायसंगत है जबकि इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि इन कानूनों का उच्च पदस्थ अधिकारियों द्वारा अल्पसंख्यक समूहों के शोषण के उद्ेदश्य से लगातार दुरूपयोग होता रहा है।
दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने यह अनुशंसा की कि शासकीय गोपनीयता अधिनियम-1923 को समाप्त कर देना चाहिए; क्योंकि यह लोकतांत्रिक समाज की पारदर्शिता के लिए असंगत है। आयोग के अध्यक्ष वीरप्पा मोइली ने अपना विचार रखा कि राज्य के सुरक्षा उपायों को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में समाहित कर देना चाहिए। नियम के दुरूपयोग की सबसे ताजा घटना सेवानिवृत मेजर जनरल वी के सिंह का है जिन पर रॉ के भ्रष्टाचार के बारे में लिखने का आरोप अधिनियम के तहत लगाया गया है। यह मामला ओएसए और सूचना के अधिकार अधिनियम के बीच विवाद को सीधे सामने लाता है।
मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने प्रेस को दिए अपने बयान में कहा कि ओएसए एक औपनिवेशिक कानून है जो जनता से सरकार को सुरक्षित करता है। एक लोकतंत्र में जनता ही सरकार होती है। पहले ओएसए सरकार द्वारा सूचना पर नियंत्रण के संबंध में निर्देश का काम करता था। परन्तु अब सूचना पर नियंत्रण सरकार द्वारा सूचना के अधिकार अधिनियम से समाप्त कर दिया गया है।
हाल में केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा अनुसंधान और विश्लेषण विंग के एक सेवानिवृत अधिकारी के घर पर शासकीय गोपनीयता अधिनियम के अतिक्रमण के आरोप में छापे ने इस अधिनियम की भूमिका को लेकर विवाद छेड़ दिया है जो सरकार में पारदर्शिता और खुलेपन को रोकता है। यद्यपि वजाहत अब्दुल्ला से जब पूछा गया कि क्या सूचना के अधिकार की सफलता में ओएसए रूकावट है तो उन्होंने स्पष्ट किया कि अगर सूचना के अधिकार और ओएसए के बीच विवाद हो तो सूचना का अधिकार प्रभावी होगा तथापि यह प्रश्न बना हुआ है कि ओएसए को बनाए रखने का क्या औचित्य है।
-लेखक पेशे से वकील हैं और ह्यूमन राइट ला नेटवर्क।