पारदर्शी शासन का अधिकार - अरुणा राय, निखिल डे

भारत में पिछले कुछ वर्षों में अधिकारों के लिए रचनात्मक सामाजिक आंदोलनों में तेजी आई है। जैसे कि काम का अधिकार, वन अधिकार, विस्थापित न किए जाने का अधिकार, भोजन का अधिकार तथा शिक्षा का अधिकार। इस लेख में भारत में सूचना का अधिकार तथा अन्य आंदोलनों से इसके संबंध के बारे में संक्षिप्त लेखा-जोखा पेश किया जा रहा है। इसमें पारदर्शी शासन और लोकतंत्र में भागीदारी के व्यापक सर्ंञ्ष के संदर्भ में इस प्रक्रिया से सीखे गए सबक पर भी चर्चा की जाएगी।
संदर्भ
भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की एकमात्र महत्वपूर्ण उपलब्धि यह राष्ट्रीय सहमति थी कि सम्प्रभु सत्ता आम जन के पास रहे। मॉडल को अपने अनुसार ढालने के बजाय वेस्टमिंस्टर को लगभग मूल स्वरूप में ही लागू कर दिया गया। अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने पर शासन करने की लोकतांत्रिक धारणा को दो विरोधी ताकतों का सामना करना पड़ रहा था, जिनका शिकंजा पहले से ही समाज और शासन के ताने-बाने पर कसा हुआ था। पहली थी औपनिवेशिक नौकरशाही जिसने केवल अपना नाम बदला, लेकिन वसूली, नियंत्रण तथा लोगों पर शासन का जरिया उसी तरह बनी रही। दूसरी थी सामंती सामाजिक व्यवस्था, जिसमें अंग्रेजों ने जानबूझ कर जाति नियंत्रण को जस का तस रहने दिया और जो आज भी समाज के ञ्ृणित वर्गीकरण का आधार बना हुआ है। भारत में, जैसा कि डा. आम्बेडकर ने कहा कि जब हमने अपना संविधान बनाया तब हमने सबसे अधिक परस्पर विरोधी स्थिति पैदा की मसलन कानून के सामने सभी नागरिकों को समानता दी जबकि समाज में जन्म के आधार पर वर्गों और श्रेणियों में बंटे होने की परम्परा कायम थी। यह दोहरापन सभी समुदायों के बीच समानता की समानांतर समस्या में भी उतना ही स्पष्ट था, जो अब भी खतरा बना हुआ है। इस संदर्भ में यह एक उपलब्धि ही है कि भारत में पिछले 60 वर्षों से लोकतंत्र कायम है।
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लोकतंत्र के लिए ताजा खतरा नव-उदार आर्थिक वैश्वीकरण से सम्बद्ञ् कानूनों और नीतियों से भी है, जिसने गरीबों का जीना मुहाल कर दिया है। देश भर में लोग सार्वजनिक बहस के बिना पारित कानूनों के खिलाफ लड़ रहे हैं, जिन्होंने एक झटके में जमीन, जल, प्राकृतिक संसाधन से सम्बद्ञ् लोगों के अधिकार छीन लिए और इस तरह उन्हें जीविका और जीने के अधिकार से महरूम कर दिया। इस नयी अर्थव्यवस्था के हिमायती यह नहीं देख पा रहे हैं कि अपने ही लोगों को बड़ी संख्या में उनके ही संसाधनों से विस्थापित करना न केवल उनके जीवन बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और शांति के लिए भी खतरा है।
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अपनी स्पष्ट खामियों के बावजूद लोकतंत्र गरीब और सीमांत (कमजोर) लोगों को परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल करता है। हालांकि उनके लिए काम हुए और वे लाभान्वित भी हुए हैं, लेकिन उन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं दी गई। अधिकतर सभी सरकारों ने गरीबों को केवल आश्वासन ही दिए हैं तथा हाल तक ये दावे किए जाते रहे कि विकास योजनाओं के केंद्र में वे ही हैं।
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लोकतांत्रिक तरीके से कामकाज के लिए पंचायत जैसी स्थानीय संस्थाएं स्थापित की गईं तथा गरीबों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सिद्ञंतत: कई गरीबी-विरोधी कार्यक्रम शुरू किए गए। लेकिन पता चला कि अमीर और प्रभावशाली लोगों के लाभ के लिए इन संस्थाओं और योजनाओं का खुलेआम दुरुपयोग किया गया। आज बेशर्मी के साथ स्वीकार किया जाता है कि जो चीज मायने रखती है वह है आर्थिक विकास। इस नव उदारवादी ढांचे के बावजूद, गरीबों की बहुत बड़ी संख्या तथा चुनावी राजनीति की मजबूरी के कारण राजनीतिक दल गरीबों की आवश्यकताओं पर ध्यान देने के लिए बाध्य हैं। लेकिन चाहे वह 'गरीबी हटाओ' का युग हो या हाल में 'गरीब हटाओ' का दौर, दलित और सीमांत समुदायों के लिए अपनी व्यथा सार्वजनिक करने के वास्ते लोकतंत्र और लोकतांत्रिक साधन महत्वपूर्ण रहे हैं। व्यापक प्रश्न यह है कि क्या लोकतंत्र कमजोर तबके को अपना भाग्य बनाने के लिए सक्रिय भूमिका का अवसर भी प्रदान करता है। क्या एक-तरफा विकास-प्राथमिकताओं का पर्दाफाश करने तथा वैकल्पिक विकास व्यवस्था की मांग के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों का रचनात्मक उपयोग किया जा सकता है, ताकि गरीब और सीमांत लोगों को बुनियादी सुविधाएं मिल सकें।
यह तथ्य कि एक ऐसे समय में जब राज्य अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों से हट रहा है उस समय सूचना का अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) कानून का बनाया जाना बता देता है कि वह कितना प्रभावी हो पाएगा। भारतीय जनता पार्टी ने अपने ''शाइनिंग इंडिया'' अभियान की जो राजनीतिक कीमत चुकाई है वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के दिमाग में ताजा है। इसी वजह से उसने गरीबों की आवश्यकताओं पर केंद्रित राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम (एनसीएमपी) तैयार किया। एनआरईजीए को स्वतंत्रता के बाद गरीबों के प्रति सबसे महत्वपूर्ण कानूनी वचनबद्ञ्ताओं में से एक माना जा रहा है, लेकिन इसके बावजूद सीमित रोजगार गारंटी के कारण यह महज खानापूर्ति रह गया है। इसके विपरीत बड़े व्यवसायियों को, अक्सर गरीबों की कीमत पर, असीमित आर्थिक सुविधाएं दी जा रही हैं। अमीरों और गरीबों के बीच की इस असमान लड़ाई में सूचना का अधिकार लोकतंत्र में नैतिक सरोकारों को सामने लाने के लिए जन अभियान को पारदर्शिता और जवाबदेही की सुविधा प्रदान करता है। आरटीआइ का अगर सही इस्तेमाल किया गया तो यह आम आदमी और उसकी आवश्यकताओं के खिलाफ खड़ी सत्ता की ताकत के संतुलन को बदलने के लिए कमजोरों का महत्वपूर्ण हथियार बन सकता है।
सूचना के अधिकार के लिए सर्ंञ्ष
राजनीति में, अक्सर आम आदमी का जीवन हम सभी के लिए सबसे महत्वपूर्ण सबक होता है। हम आपको मध्य राजस्थान के लोगों के जीवन की कुछ दृष्टांतपरक कहानियां और सबक बताते हैं जिनके बीच हम रहे और काम किये। यह आम जीवन तथा कुछ लोगों के असाधारण प्रयासों के बारे में है, जिन्होंने अपने विचारों और रचनात्मक ऊर्जा से संयुक्त रूप से बदलाव लाने के प्रयास किये, जिसे वे व्यक्तिगत रूप से नहीं ला सकते थे। सामाजिक-राजनीतिक समस्याएं अन्य लोगों की करनी का फल हो सकते हैं, लेकिन इसका हल हमलोगों के पास है जो इनसे परेशान हैं। यह साबित हो गया है कि स्वशासन के अधिकार के लिए यदि मिलकर दृढ़संकल्प हो प्रयास किए जाएं तो इससे उन सभी लोगों में एक नई आशा जगेगी जो अन्याय का सामना करने में अपने को कमजोर और असहाय पाते हैं। यह अपना नजरिया बदलने और आशा जगाने की कहानी है।
सरकार का पैसा किसका पैसा है?
भारत में निचले स्तर पर लोग मानते हैं कि सरकार ऐसी वस्तु है जिस पर वे नियंत्रण नहीं रख सकते हैं। जब 1980 के दशक के अंत में मध्य राजस्थान में एमकेएसएस अपने शुरूआती दौर में था, उस समय यह एक आम तथ्य था। लोग सालों से चले आ रहे कुशासन तथा सरकारी कर्मचारियों की निर्दयता से तंग आ चुके थे तथा हताश और निराश हो कर मान चुके थे कि सरकार अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाएगी। यहां तक कि उनके गांवों में लोक निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार और अक्षमता को भी यह कहते हुए अनदेखा कर दिया जाता कि 'सरकारी पैसा है - जलने दो'। सरकारी कामकाज की यह परिभाषा, भ्रष्टाचार के प्रति उदासीनता और इन कार्यक्रमों को चलाने में अक्षमता तथा सत्तारूढ़ लोगों द्वारा जानबूझ कर आम आदमी को निर्णय लेने की प्रक्रिया से अलग करने के कारण यह विकट स्थिति बनी। प्रश्न और चुनौती ये थी कि इस असहायपन की स्थिति को कैसे बदला जाए।
पहली सफलता: हमारा पैसा, हमारा हिसाब
कई बैठकों में इस समस्या पर विचार किया गया और मध्य राजस्थान के आर्थिक रूप से अत्यधिक पिछड़े इलाकों में से एक के निरक्षर महिलाओं और पुरुषों ने साथ बैठकर विचार किया कि इस विकट स्थिति से कैसे निपटा जाए। इसका उत्तर विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं या शहरी बुदि्ञ्जीवियों से नहीं मिला। ये मोहनजी, नारायण लाल सिंह, सुशीला, चुन्नी सिंह और कई अन्य थे जिनका विश्वास था कि यदि दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं किया गया तो हमारे किसी भी दृष्टिकोण की वस्तुनिष्ठ आंकड़ों के जरिए पुष्टि नहीं हो सकेगी। गरीब अपने अधिकार के लिए लड़ने को तैयार थे, परंतु इस असमान लड़ाई में उनसे हमेशा कहा जाता कि उनका 'सच्चाई से संबंधित विवरण' सरकारी दस्तावेजों के विपरीत है। लड़ाई के इस दौर में उन्हें महसूस हुआ कि उनके प्रति हो रहे अन्याय और शोषण को साबित करने के लिए उन्हें इन दस्तावेजों तक पहुंचना होगा और उन्हें सार्वजनिक करना होगा। इसलिए सूचना का अधिकार दिहाड़ी कमाने, सम्मान से जीने, यहां तक कि जीवन का अधिकार हासिल करने के साधन के रूप में सामने आया। उसने जीविका के मुद्दे को व्यापक नैतिक मुद्दों से जोड़ने के लिए लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल किया।
सरकारी कर्मचारियों की प्रतिक्रिया
सरकार और उसके कर्मचारी किसी चीज को कृपा के तौर पर देने को तैयार रहते हैं न कि किसी हक या अधिकार के तौर पर। इसीलिए दस्तावेज देखने और स्थानीय स्तर पर हुए खर्चे की प्रतिलिपि हासिल करने की मांग पर दो समानांतर प्रतिक्रियाएं सामने आईं। एक प्रतिक्रिया निचले स्तर के कर्मचारियों की थी, जिनके गलत कामों के इस तरह सार्वजनिक करने से, पर्दाफाश होने की संभावना थी। लेकिन जो सीधे तौर पर प्रभावित नहीं थे उनकी भी नकारात्मक प्रतिक्रिया जल्दी ही सामने आई। शासन पर नियंत्रण की इस लड़ाई के लंबे सर्ंञ्ष में बदल जाने के पीछे सत्तारूढ़ लोगों को यह आशंका थी कि बिना जवाबदेही के शासन करने का उनका एकाधिकार समाप्त हो जाएगा। भारत में लोकतांत्रिक ढांचे के कारण सरकार के लिए यह असंभव है कि वह सूचना की मांग का खुलेआम विरोध करे। लेकिन छल-कपट, देरी, दिखावटी आश्वासन जैसे तरीके इस आशा से अपनाए गए कि इस लंबी लड़ाई में लोग थक कर हार मान लेेंगे।
व्यक्ति से समूह तक
शुरुआत में चुनी हुई पंचायतों में विकास व्यय से सम्बद्ञ् दस्तावेजों की जानकारी हासिल की गई तथा मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) ने फैसला किया कि उनका खुलासा करके उन्हें सम्बद्ञ् पंचायतों के लोगों के सामने रखा जाए। दस्तावेजों के सार्वजनिक होते ही लोगों के नजरिए में बड़ा बदलाव आया। न्यूनतम वेतन का भुगतान जैसी लड़ाइयां व्यक्तिगत हक के लिए थीं। यह 'अपने पैसे' की मांग थी। जैसे ही दस्तावेज सार्वजनिक हुए लड़ाई सामूहिक हो गई। दस्तावेजों ने स्पष्ट कर दिया कि केवल मजदूरी से वंचित किए जाने वाले लोगों का ही शोषण नहीं हुआ बल्कि पूरे गांव और क्षेत्र के विकास को नुकसान पहुंचा। लोगों के नजरिए में तेजी से नाटकीय बदलाव आया और 'मेरा पैसा' 'हमारा पैसा' बन गया तथा पहली बार गांवों में शोषण के खिलाफ लड़ रहे गरीबों और भ्रष्टाचार से लड़ रहे मध्य वर्ग के बीच एक महत्वपूर्ण गठबंधन बन गया। इस गठबंधन को बनाने के पीछे एकमात्र कारक था दस्तावेजों के विश्लेषण से मिली जानकारी। दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग से उत्पन्न खतरे को सरकारी कर्मचारी तुरंत भांप गए। वे मांगी गई सूचनाओं को न देने के लिए तुरंत लामबंद हो गए। लेकिन लोग जान चुके थे और यह उनके सशक्त नारे ''हमारा पैसा हमारा हिसाब'' से जाहिर था। इससे पता चलता था कि लोग अपने सर्ंञ्ष में कितने आगे निकल आए थे।
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स्थानीय स्तर के खर्च से सम्बद्ञ् दस्तावेजों तक पहुंच का अधिकार जीविका के मुद्दे से शुरू हुआ। काम, मजदूरी, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं की कमी गरीबों के लिए सबसे अधिक चिंताजनक बात है। सरकार से सालों तक बाहर से लड़ने के बाद सूचना के अधिकार ने अंतत: सोच को एकदम उलट दिया। लोग अब मानने लगे हैं कि शासन के सभी संस्थाओं का, जिन पर उनका नैसर्गिक अधिकार होना चाहिए, अपहरण किया जा रहा है। इसका असर हुआ और उन्हें सर्ंञ्ष के रास्ते में आने वाले सबसे बड़े अवरोध लोगों की उदासीनता और असहायपन, को दूर करने में मदद मिली। एक और नारा उभरा जिसने लोकतांत्रिक अधिकार को आर्थिक अधिकार के साथ जोड़ा। 'हम जानेंगे-हम जिएंगे' ने विश्व भर में सूचना के अधिकार पर विचार-विमर्श को नई दिशा दी।
दूसरी सफलता : जवाबदेही
दिसम्बर, 1994 में जब 'जन सुनवाई' के सार्वजनिक मंच पर लोगों के सामने पहली बार दस्तावेज रखे गए तो प्रतिक्रिया अभूतपूर्व थी। ऐसा नहीं कि लोगों को पहली बार भ्रष्टाचार के बारे में पता चला या उसपर गौर किया, बल्कि उन्हें एकदम से यह पता चल गया कि कौन भ्रष्ट है, कहां पर और कैसे भ्रष्टाचार हुआ तथा चोरों की पहचान हुई। व्यक्तिगत शिकायतों की जगह व्यापक मुद्दे के तौर पर पंचायत को सौंपे गए पैसे में की गयी हेराफेरी ने ले ली।
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सबसे अधिक चौंकाने वाली बात थी नियम और कानून को ताक पर रखने की प्रवृत्ति। मजदूरों के मस्टर रोल में मृतक व्यक्तियों के नाम डाल देना जिनके पास बैलगाड़ी नहीं थी उनसे उनका भुगतान करने को कहना, गैर-पंजीकृत कम्पनियों द्वारा काल्पनिक सामग्री का उपलब्ध कराया जाना, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं था। ''हमारा पैसा, हमारा हिसाब'' के नजरिए ने इस सर्ंञ्ष को व्यापक राजनीतिक भागीदारी तक पहुंचा दिया, जिसमें जवाबदेही और वास्तविक स्वशासन की जरूरत पर जोर दिया गया। मेरे पैसे की जगह हमारे विकास, और हमारे काम को तरजीह देने से स्कूल, सड़क, तालाब, चेक डैम, सामाजिक वानिकी जैसे मुद्दे केंद्र में आ गए। ऐसी बात नहीं थी कि पहले लोग इन मुद्दों का विरोध करते थे लेकिन इस तरफ उनका ध्यान नहीं जाता था। मजदूरी का भुगतान न किए जाने और विकास के ढांचे के टूटने के बीच संबंध होने से गरीब और ग्रामीण मध्य वर्ग साझे हित में इस बात पर एकजुट हो गए कि सार्वजनिक पैसे को किस तरह खर्च किया जाएगा। विकास के बारे में चर्चा अब अपेक्षाकृत ज्यादा रोचक और अर्थपूर्ण होने लगी तथा विकास योजनाओं के हाशिए पर रहने वाले योजना से सम्बद्ञ् मुद्दों के महत्व को समझने लगे, जिनकी वे पहले अनदेखी करते थे। भूख और विकास योजनाओं के बीच संबंध के साथ-साथ प्राथमिकताओं तथा आवंटन की परिभाषा की समझ से स्वशासन की प्रक्रिया के प्रति आम लोगों की रुचि में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए।
तीसरी सफलता : स्वशासन का अधिकार
'ये सरकार हमारी आप की, नहीं किसी के बाप की'
सार्वजनिक लेखा परीक्षा के तरीके तथा लोगों के प्रति सरकार की जवाबदेही की अवधारणा सार्वजनिक सुनवाई के जरिए स्पष्ट हो गयी। इस अभियान के दौरान नजरिए में एक और महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई दिया। लोगों द्वारा सरकार के कार्यों और कुकृत्यों के हिसाब-किताब के अधिकार की मांग किए जाने तथा चुने गए प्रतिनिधियों और सरकारी कर्मचारियों द्वारा इसका विरोध किए जाने से यह प्रश्न पैदा हुआ कि वास्तव में आखिरकार सरकार पर किसका मालिकाना हक है। सार्वजनिक कार्य की लेखा परीक्षा करने के एमकेएसएस के अधिकार क्षेत्र पर शायद प्रश्न उठाए जा सकते हैं। लेकिन लोगों की तरफ से शासन करने वालों की बजाय खुद लोगों द्वारा फैसला करने के तुलनात्मक अधिकार क्षेत्र पर कौन प्रश्न उठा सकता है। यह नारा 'सरकार हमारी आप की नहीं किसी के बाप की!' शासन पर स्वामित्व के प्रति नजरिए में बदलाव की ओर संकेत करता है। इस अभियान में जवाबदेही के लिए लोकतांत्रिक आश्वासनों का उपयोग किया गया। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा अचानक दिए गए इस बयान को गंभीरता से लिया गया कि वह लोगों को पंचायतों के मस्टर रोल, बिल और वाउचरों की फोटो प्रतिलिपि देखने के लिए 'सूचना का अधिकार' देंगे। इस बयान का महत्व इसलिए भी था क्योंकि यह बयान विधानसभा में दिया गया था तथा राजस्थान के एक अखबार 'दैनिक नवज्योति' के पहले पन्ने पर छपा था। लेकिन सरकारी कार्यालयों में बार-बार जाने से कुछ हासिल नहीं हुआ। अंतत: आम लोगों के मन में सभी राजनीतिक वादों की जवाबदेही को जानने के अधिकार से जोड़ने की बात उठी। 1996 में ब्यावर में और 1997 में जयपुर में लंबे धरने के दौरान यह मुद्दा केंद्र में था। इस समय तक यह स्पष्ट हो गया था कि सूचना के अधिकार के बारे में एक नई चर्चा उभर रही है, जिसमें सूचना को जीवन के अधिकार से जोड़ा गया है। 'हम जानेंगे, हम जिएंगे' के नारे ने इस मुद्दे पर न केवल लोगों की भागीदारी को रेखांकित किया बल्कि एक विशाल और सक्रिय जनसमूह को भी जोड़ा, जो इस मुद्दे के लिए सर्ंञ्ष और राजनीतिक लामबंदी के जरिए अभियान चलाने का इच्छुक था। इस नए गठबंधन ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी मुद्दे को समझने में काफी मदद की।
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चुनावी या अन्य वायदों के प्रति राजनीतिक जवाबदेही तय करने की मुहिम ने केवल वोट मांगने के लिए और फिर तुरंत भूल जाने के लिए किए गए अनगिनत वायदों को जवाबदेहीपूर्ण बनाने पर जोर दिया। इस मुद्दे की गंभीरता और लोगों द्वारा तैयार किया गया सैद्ञंतिक आधार सिर्फ सफलता में खत्म नहीं होते बल्कि यह साधारण जनता को बनाये रखने और विधायिका के संक्रमण की प्रक्रिया को ऊर्जावान किये रहने का शक्तिशाली आधार तैयार करता है। एक मजबूत आरटीआइ अधिनियम की आवश्यकता स्पष्ट हो गई थी न केवल इसलिए कि सरकारी गोपनीय कानून (1923) जिसे एशिया और अफ्रीका के अधिकतर ब्रिटिश उपनिवेशों ने औपनिवेशिक विरासत के तौर पर अपना लिया था, बल्कि इसलिए भी कि नौकरशाहों को सक्रिय ढंग से सूचना देने के लिए बाध्य करने के वास्ते एक सशक्त कानून की जरूरत थी। 1996 में ब्यावर के धरने में बड़ी संख्या में सभी वर्गों के लोगों ने हिस्सा लिया और राजस्थान से उठी यह मांग राष्ट्रीय मुद्दा बन गई, तथा जनता के सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान (एनसीपी आरटीआइ) का जन्म हुआ। प्रेस के वरिष्ठ सदस्यों ने विशेष रूप से इसमें रुचि ली तथा न्यायमूर्ति पीबी सावंत की अध्यक्षता में भारतीय प्रेस परिषद ने नागर समाज के विभिन्न वर्गों के सदस्यों - न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिज्ञों, प्रशासनिक अधिकारियों तथा मुख्यधारा के समाचारपत्रों के संपादकों आदि के साथ विचार-विमर्श के बाद पहला कानून तैयार करने की जिम्मेदारी ली। प्रेस परिषद मसौदा नामक इस मसौदे ने बाद के सभी कानूनों के लिए मूल मसौदे का काम किया तथा इसे 1996 में सभी राज्यों और संसद सदस्यों को भेजा गया। कई राज्यों ने अपने कानून बनाए, तथा 1996 में तमिलनाडु द्वारा की गई शुरूआत के बाद कई राज्यों में यह कानून पारित किया गया।
सूचना के अधिकार पर कार्रवाई
विभिन्न राज्यों के आरटीआइ कानून में कई खामियां हैं, जिससे उन्हें लागू करना कठिन हो रहा है। हर व्यक्ति उनकी अलग व्याख्या करता है। लेकिन विभिन्न राज्यों में इसके इस्तेमाल के बारे में सामाजिक कार्यकर्ताओं के सतत एवं नवीन प्रयासों से इस अभियान को गति मिली है। उदाहरण के तौर पर राजस्थान के कानून में दंड का प्रावधान नहीं है। इसका मतलब यह है कि दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई अब भी प्रशासनिक सेवा आचार नियमों की अविश्वसनीय और दुष्कर प्रक्रिया पर निर्भर है। लेकिन इस कानून और इसकी कमियों ने ज्यादा सजग नागरिक कार्रवाई तथा राष्ट्रीय कानून की तैयारी के लिए आवश्यक जागरूकता के वास्ते रास्ता तैयार किया। कर्नाटक में इस अभियान में मजबूती आई क्योंकि लोग 'कर्नाटक सूचना का अधिकार अधिनियम मंच' (केआरआईए-कट्टे) नामक सक्रिय मंच में संगठित हुए। इस नेटवर्क ने न केवल राज्य के कानून से सम्बद्ञ् मुद्दे उठाए बल्कि राष्ट्रीय कानून के क्रियान्वयन, इसके नियम और राज्य में सूचना आयुक्त की नियुक्ति के बारे में त्वरित और कारगर प्रतिक्रिया भी व्यकत की। महाराष्ट्र में राज्य के कानून से सम्बद्ञ् प्रक्रिया ज्यादा महत्वपूर्ण थी। अन्ना हजारे के नेतृत्व में जन संगठनों के अत्यधिक दबाव के कारण राज्य के इस अत्यधिक कमजोर कानून को रद्द कर दिया गया। इस अभियान की वजह से महाराष्ट्र में देश का सबसे अच्छा कानून पारित किया गया, जिसने राष्ट्रीय अधिनियम को तैयार करते समय क ई मुद्दों पर नमूने का काम किया। इसलिए इस तथ्य के बावजूद कि महाराष्ट्र सहित कई राज्य राष्ट्रीय कानून लागू होने के कारण अपने कानून रद्द कर रहे हैं, हर एक राज्य के अनुभव ने ज्यादा प्रभावकारी केंद्रीय अधिनियम तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इस आंदोलन का व्यापक आधार इस बात का सबूत है कि साझा सरोकार वाले अनगिनत लोगों और संगठनों के लिए यह मुद्दा महत्वपूर्ण है।
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इन प्रयासों की पराकाष्ठा राष्ट्रीय सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 था, जिसे 2005 के मध्य में पारित किया गया। आरटीआइ कानून ने अपने क्रियान्वयन के पहले साल में नागरिकों की कार्रवाई में नई जान फूंकी तथा प्रकम्पित नौकरशाही ढांचे के होश उड़ा दिए। इसने प्रदर्शित किया कि किस तरह से सही किस्म का कानून लोगों की साझेदारी और कार्रवाई को प्रोत्साहित करता है। लोग देश भर में इस कानून का इस्तेमाल करने लगे हैं, उन क्षेत्रों में भी जहां कोई आरटीआई आंदोलन नहीं हुआ। इसके इस्तेमाल को लोकप्रिय बनाने के लिए अभियान चलाए गए। संचार माध्यमों के एक वर्ग ने इसके उपयोग की वकालत की और खुद भी इसका इस्तेमाल किया तथा नियमित रूप से इसके क्रियान्वयन के बारे में जानकारी दी। इसके जनता का कानून होने का सबसे नाटकीय सबूत था जुलाई-अगस्त, 2006 में इसके प्रावधानाें को संशोधित करने तथा कमजोर बनाने के सरकार के प्रयास का देशव्यापी त्वरित और तीव्र विरोध। देश भर से लोगों द्वारा पूछे गए गहन प्रश्न उन असीमित संभावनाओं की ओर संकेत करते हैं जिनका इस्तेमाल होना अभी शुरू ही हुआ है।
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कार्मिक विभाग के नेतृत्व में सरकार द्वारा की जा रही कोशिश कि फाइल पर की जाने वाली टिप्पणियों और आरटीआइ अधिनियम के महत्वपूर्ण हिस्से को बाहर कर दिया जाए, आने वाले दिनों में इन नेटवर्कों का इम्तिहान लेंगे। लेकिन कार्यकर्ताओं के अलावा अन्य लोगों के बीच जागरुकता बढ़ने से यह मुद्दा लोकप्रिय हो रहा है।
सूचना का अधिकार और अन्य अभियान
तथाकथित मुख्यधारा की राजनीतिक प्रक्रिया के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में फैसला करने की प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी के लिए अभियानों और आंदोलनों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। केरल में जन योजना अभियान, जनजातीय स्वशासन अभियान, स्थाई विकास के वास्तविक मॉडल जिनका प्रतिनिधित्व मछुआरों और मजदूरों के संगठन करते हैं, बजट विश्लेषण समूहों का गठन, बिजली-क्षेत्र की नीति का व्यापक विश्लेषण तथा कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में नागरिक समूहों द्वारा सुधार कार्यक्रम और विकास के वर्तमान प्रारूप के सक्रिय और कट्टर आलोचकों द्वारा नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसा सर्ंञ्ष संभव हो पाया। लोगों द्वारा राजनीतिक भागीदारी के भी अनगिनत प्रयास किए जा रहे हैं, जहां लोगों के संगठन और नागरिक समूह न केवल अनैतिक और भ्रामक नीतियों की आलोचना कर रहे हैं बल्कि विकल्प भी सुझा रहे हैं।
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इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सभी समूहों द्वारा चुनावी प्रक्रिया के बाहर लोकतांत्रिक जगहों का रचनात्मक इस्तेमाल है। स्थापित राजनीतिक दलों की यह स्वयं सिद्ञ् आलोचना है कि जहां वे असफल रहे वहीं ये छोटे समूह वास्तविक राजनीतिक विकल्प तैयार करने में सफल रहे। इससे पता चलता है कि यदि नैतिक मुद्दे प्रतिबद्ञ् लोगों के छोटे समूहों द्वारा भी उठाए जाते हैं तो ये लोकतांत्रिक बहस को सकारात्मक और बुनियादी ढंग से प्रभावित कर सकते हैं।
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सूचना के अधिकार के अभियान ने इस प्रक्रिया को लोकतांत्रिक बनाने तथा पहले से चल रहे जन अभियानों के दायरे से बाहर तक ले जाने मेें मदद की है। प्रत्येक राज्य में जैसे महाराष्ट्र में शिवाजी राउत या शीलेश गांधी, ऐसे व्यक्ति हैं जो आरटीआइ अभियान का प्रतीक बन गए हैं और जनहित के मामलों के बारे में उनकी लगातार पूछताछ से स्पष्ट हो गया है कि कैसे एक अकेला व्यक्ति प्रश्न पूछने की प्रक्रिया की शुरूआत कर सकता है। दूसरे लोग भी हैं, जैसे त्रिवेणी, जिसका राशनकार्ड दिल्ली में आरटीआइ के इस्तेमाल के नाटकीय असर का प्रतिनिधि बन गया। उसने अन्य लोगों को भी अपने हिस्से की राशन की मांग करने के लिए प्रेरित किया। दूसरी तरफ, राजस्थान में जनवाद की गोपी कई अन्य लोगों की टूटी आशाओं का प्रतीक बन गयी है। उसके मामले ने भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया और उसे राष्ट्रीय प्रचार भी मिला। लेकिन मजदूरी पाए बिना उसकी मृत्यु हो गई, जिसके लिए उसने लंबे समय तक सर्ंञ्ष किया था। इनकी ये व्यक्तिगत लड़ाईयां नीति और क्रियान्वयन से सम्बद्ञ् बड़ी लड़ाई का प्रतीक बन गयी हैं।
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हालांकि आरटीआइ ने कई लोगों की व्यक्तिगत शिकायतें दूर करने में मदद की है, लेकिन यह स्पष्ट है कि व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए आरटीआइ के इस्तेमाल की व्यापक संभावना है। इस तरह का परिवर्तन तभी संभव है, जब एक प्रश्न अपने को समूह के साथ जोड़े और व्यापक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बने। राष्ट्रीय कानून के लागू हो जाने से हम इस तरह की लोकतांत्रिक कार्रवाई की आशा कर सकते हैं, जिसमें से कुछ व्यक्तिगत पहल से शुरू हो सकते हैं। लेकिन व्यापक मुद्दों के साथ इसके जुड़ जाने से निश्चित रूप से यह लोकतांत्रिक बहस और सामूहिक कार्रवाई की तरफ बढ़ेगा।
इसका एक उदाहरण दिल्ली में जलापूर्ति का निजीकरण है। 'परिवर्तन' की मधु भादुड़ी ने दिल्ली जल बोर्ड द्वारा जल सुधार के लिए उठाए गए कदमों के बारे में जानकारी मांगी। एक प्रारंभिक प्रश्न से शुरू होकर यह मामला चार हजार पेजों के दस्तावेज तक जा पहुंचा। इस दस्तावेज की प्रतिलिपियों से विश्व बैंक की भूमिका का पर्दाफाश हुआ, जो पीने के पानी के वितरण के प्रबंधन के निजीकरण के लिए दिल्ली सरकार पर दबाव डाल रहा था। अंतत: नागरिक समूहों के तीव्र दबाव के तहत दिल्ली सरकार और विश्वबैंक ने यह योजना वापस ले ली।
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भारत भर में सूचना का अधिकार के अभियान का असर उसके हालिया संदर्भ तक ही सीमित नहीं रहा है। सार्वजनिक सुनवाई, सामाजिक हिसाब-किताब के जरिए आरटीआइ का संस्थानीकरण, कुछ मामलों में अनुकरणीय कार्रवाई, भविष्य में भी व्यक्तिगत रूप से विवरणों की जांच द्वारा किसी भी अधिकारी के कार्यों और करतूतों पर नियंत्रण के अवसर ने व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने में नाटकीय और कारगर असर दिखाया है।
सूचना अधिकार का अस्तित्व शून्य में नहीं हो सकता। परिभाषा के तहत इसे किसी मुद्दे या अभियान से जोड़ा जाना जरूरी है। तिरछी काट वाला यह गठजोड़ अधिकार की प्रवृत्ति को भी स्थापित करता है : यह अन्याय और असमानता के खिलाफ सभी संञ्र्षों के लिए लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार है। यह मान्यता इसकी शक्ति है और अन्य अभियानों तथा आंदोलनों से इसके अटूट संबंध को स्पष्ट करती है, जिन्हें यह रचनात्मकता और शक्ति देती है। उदाहरण के तौर पर राजस्थान में महिलाओं के आंदोलन ने महिलाओं पर अत्याचार के मामले में हुई प्रगति की जानकारी के लिए इसका इस्तेमाल किया और मांग की कि सम्बद्ञ् महिलाओं को उनके मामलों की प्रगति के बारे में तथा विभिन्न महत्वपूर्ण चिकित्सा-कानूनी पहलुओं और फोरेंसिक रिपोर्ट की जानकारी दी जाती रहे। नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार समूह पुलिस और बंदी गृहों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए सूचना के अधिकार के सिद्ञंतों का उपयोग कर रहे हैं। बांध और फैक्ट्रियों के कारण विस्थापित, राशन की दुकानों द्वारा अपने अधिकारों से वंचित लोग, औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषण से प्रभावित समुदाय, अपने खेतों और ञ्रों से निकाले गए वनवासी, विभिन्न जन आंदोलनों के उदाहरण हैं, जो उनके जीवन की लड़ाई की सच्चाई को सामने लाने के लिए सूचना के अधिकार के प्रावधानों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
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हालांकि, लोगों को सूचना के अधिकार से वंचित करना अब लगभग असंभव हो गया है, लेकिन कई मामलों में सूचनाएं निर्धारित तरीके या समय सीमा के भीतर नहीं मिल पा रही है। कुछ मामलों में ये उपलब्ध ही नहीं कराई जा रही है। जैसे-जैसे प्रश्न तीखे होते जाते हैं, प्रशासन इनसे अलग होने को बाध्य हो जाता है। सामूहिक प्रश्नों को सार्वजनिक किए जाने से आरटीआई को फैसले की प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए जनमत तैयार करने और इस तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था को और जबावदेह बनाने के साधन के रूप में लोग देखने लगे हैं।
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इसलिए ऐसा नहीं है कि आरटीआइ ने केवल मनमाने प्रशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में ही अपना महत्व सिद्ञ् किया है। पारदर्शी शासन के सिद्ञंतों ने भी विकास के वैकल्पिक तरीके की वकालत करने वाले पहले से सक्रिय एजेंडे के साथ इस अभियान की सहायता की है।

सूचना का अधिकार और काम का अधिकार
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) के लिए हाल के सर्ंञ्ष से यह स्पष्ट हो गया है कि सूचना का अधिकार और अन्य अभियान एक दूसरे के पूरक हैं। एनआरईजीए को मध्य 2005 में लगभग उसी समय पारित किया गया जब सूचना का अधिकार अधिनियम लागू किया जा रहा था और इस मुकाम को पाने के लिए चलाए गए अभियानों ने कई तरह से एक-दूसरे को मजबूती प्रदान की।
सार्वजनिक कार्यों में रोजगार के बारे में आरटीआइ के जरिये उठाए गए प्रश्नों के कारण एनआरईजीए की मांग बढ़ी। व्यापक रूप से इस बात को स्वीकारा गया कि आरटीआइ अभियान के जरिये राजस्थान में 2001-2002 में सूखा राहत कार्यक्रमों पर खर्च किए गए छह अरब रुपये में संभावित भ्रष्टाचार के स्तर को ञ्टाया गया। मस्टर रोल और सूखा राहत कार्यक्रमों पर जनता की निगाह के कारण हाल में पारित रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत स्वीकृत कार्यों में भ्रष्टाचार से निपटने में कारगर ढंग से मदद मिली है।
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शीञ््र ही रोजगार कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के साथ-साथ लोग इससे सम्बद्ञ् नीतियों पर भी ध्यान देने लगे हैं। सरकार के खर्च के स्वरूप को लेकर लोग नीतिगत प्रश्न उठाने लगे और चूंकि लोगों को भ्रष्टाचार और उनकी जीविका पर इसके असर का पता चल चुका था, उन्हें यह समझने की कोशिश नहीं करनी पड़ी कि पैसे के आवंटन के बारे में भी प्रश्न किए जा सकते हैं, विशेष रूप से जब गरीबों के हित में पैसे का आवंटन न हो। दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से लोगों को पता चला कि भ्रष्टाचार, अक्षमता और गैर जवाबदेही से लड़ने के लिए उनके पास एक हथियार मौजूद है। इसे देखते हुए एनआरईजीए के लिए सर्ंञ्ष करने का उनका इरादा और मजबूत हो गया। वे आधिकारिक रूप से सत्यापित तथ्यों की मदद से अपनी दलील पेश कर सकते थे तथा गरीब विरोधी मुद्दों की तरफ ध्यान खींच सकते थे।
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जैसे ही राजस्थान में एनआरइजीए की मांग बढ़ी वैसे ही अन्य समूह, राजनीतिक गठबंधन, मजदूर संगठन और एनआरईजीए के लिए लड़ रहे जन समूह एकजुट हुए तथा 2003-04 के दौरान विभिन्न बैठकें कर विधेयक का मसौदा तैयार किया गया। पीपुल्स एक्शन फॉर इम्प्लॉयमेंट गारंटी नामक व्यापक गठबंधन के नेतृत्व में इस समूह ने राजनीतिक दलों के साथ विचार-विमर्श किया और कई दलों ने इसे अपने चुनावी ञेषणा पत्रों में शामिल किया। 2004 में यूपीए सरकार सत्ता में आयी जिसने चुनावी वायदे पूरे करने के लिए एजेंडे के तौर पर राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार किया। पहली प्रतिबद्ञ्ता निमलिखित थी : ''यूपीए सरकार तुरंत राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम पारित करेगी। यह शुरू में हर साल सम्पत्ति का निर्माण करने वाले सार्वजनिक कार्यक्रमों में प्रत्येक ग्रामीण, शहरी गरीब निम मध्य वर्ग के परिवार में से काम करने योग्य कम से कम एक व्यक्ति को न्यूनतम मजदूरी के साथ सौ दिन के रोजगार की कानूनी गारंटी प्रदान करेगा।''
गरमागरम बहस और विवाद के बीच यह कानून पारित किया गया। आरटीआइ और एनआरईजीए दोनों को हालांकि एक ही साल पारित किया गया, लेकिन इन दोनों कानूनों के प्रतिरोध की भिन्न वजहें थीं। जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने एनआरईजीए और आरटीआइ के बारे में कहा था कि 'एक में मनी (पैसा) नहीं है और दूसरे में मन नहीं है' कुछ समय तक यह चर्चा टीवी कार्यक्रमों में भी छायी रही तथा कई दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री एनआरईजीए समर्थकों से वाद-विवाद करते रहे। अन्य अर्थशास्त्रियों ने इसकी व्यवहारिकता पर प्रश्न उठाए। इसका नतीजा यह भी हुआ कि कई सालों के बाद मुख्यधारा के प्रचार माध्यमों में गरीबी और बेरोजगारी पर केन्द्रित बहस ने स्थान पाया और इससे सार्थक चर्चा शुरू हुई। इस विवाद का फायदा उठाते हुए सरकार ने इसके अधिकार क्षेत्र को सीमित कर दिया और सार्वजनिक तौर पर इसके स्पष्टीकरण और औचित्य के बारे में पूछा। अंतत: इस कानून को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया जहां कई आशंकाओं के बावजूद अपेक्षाकृत अच्छी सिफारिशें पेश की गयीं।
जिस समय भारतीय संसद रोजगार गारंटी अधिनियम (ईजीए) को पारित करने वाली थी, भ्रष्टाचार के किस्सों ने इस ऐतिहासिक कानून पर अपनी लंबी छाया डाल दी। संशयवादियों का दावा था कि हालांकि एनआरईजीए गरीबी से लड़ने के लिए एक अभूतपूर्व अवसर है लेकिन भ्रष्टाचार इस अवसर को ऐतिहासिक गलती में बदल देगा। परंतु राजस्थान में जन आंदोलनों द्वारा दी गयी दलीलें इन आरोपों का विरोध करने में अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ञ् हुईं। कार्यकर्ताओं का कहना था कि लोक निर्माण कार्यक्रमों के बुरे पक्ष का पर्दाफाश होने के बावजूद उन्हें जारी रखा जाना चाहिए, क्योंकि ये गरीब ग्रामीणों के लिए अपरिहार्य जीवन रेखा प्रदान करते हैं। सूखा राहत के लिए पैसा तदर्थ और अनियोजित तरीके से खर्च किया जाता है। इसके विपरीत ईजीए एक स्थायी सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का आधार उपलब्ध करा सकता है तथा नियोजित और समान ग्रामीण विकास का जरिया भी बन सकता है। उदाहरणस्वरूप राजस्थान के बारां जिले में भुखमरी से मृत्यु के कारणों का भंडाफोड़ किए जाने से 'काम के बदले अनाज' और बाढ़ राहत कार्यक्रमों में काफी सुधार आया जिससे न केवल बारां बल्कि राजस्थान के कई हिससों में लोगों की जानें बचाई जा सकीं। अनाज का इससे अच्छा इस्तेमाल नहीं हो सकता था। राहत कार्यों के बिना राजस्थान के कुछ हिस्सों में साल-दर-साल पड़ने वाले सूखे से गयी जानों से होने वाले नुकसान को मापा नहीं जा सकता। जैसा कि राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि जबतक हमारे पास ईजीए नहीं है हमें भुखमरी से मृत्यु के समाचार मिलते रहेंगे।
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राजस्थान के अनुभव ने अनुमानों या संभावनाओं की बजाय वास्तविक अनुभव के आधार पर भ्रष्टाचार की दलील को काटने में मदद की। ऐसा नहीं कहा जा रहा है कि लोक निर्माण कार्यक्रमों में से भ्रष्टाचार समाप्त हो गया है, लेकिन पिछले दस-एक सालों से इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में काफी सुधार हुआ है तथा इस अनुभव से और सीखा जा सकता है। इससे भ्रष्टाचार के विरुद्ञ् सर्ंञ्ष तथा पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए व्यापक अभियान को संभव बनाने वाले कारकों को पहचानने और उन्हें मजबूत करने में मदद मिल सकती है।
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सबसे महत्वपूर्ण कारक है सार्वजनिक चौकसी के प्रति सजग होना, जिसकी शुरूआत बार-बार सूखा पड़ने के दौरान लोगों की बुनियादी आवश्यकताआें तथा लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व के लिए उनके रचनात्मक संघर्ष से हुई। लोगों ने लड़ाइयां लड़ीं और अपने हक का इस्तेमाल किया। सूखे की अवधि के दौरान उन्हें काम और न्यूनतम मजदूरी पाने का अधिकार है। समय के साथ-साथ व्यापक जन चेतना की इस प्रवृत्ति ने सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व के लिए प्रतिबध्द लोगों को भी अपने दायरे में ले लियां राजनीतिक टकराव, अखबारों और मीडिया की रिपोर्टिंग और भागीदारी तथा अन्य नागरिक समूहों के सरोकार ने भी इस चौकसी को मजबूती प्रदान की।
रोजगार गारंटी कानून आज विश्वभर में सामूहिक जिम्मेदारी की सबसे अधिक साहसिक और महत्वपूर्ण पहलों में से एक है। इसक विरुध्द दलील थी कि भारत इस तरह के खर्च को वहन नहीं कर सकेगा। इस दलील का मुकाबला राजनीतिक ढंग से किया गया। गरीबों को थोड़ा सा सम्मान और राष्ट्रनिर्माण में श्रमदान का अवसर देकर उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को अधिकारों का केवल अंश ही प्रदान किया गया।

बेटियों की जिस्मफरोशी से जिंदा समाज - मंदसौर से दयाशंकर मिश्र

दिन-दहाड़े सरे-राह बाछड़ा जाति करवाती है, अपनी ही बेटियों से वेश्यावृत्ति -जिस तरह देश में मंदसौर अफीम उत्पादन, तस्करी के लिए मशहूर है, उसी तरह नीमच, मंदसौर, रतलाम के कुछ खास इलाके भी बाछड़ा समाज की देह मंडी के रुप में कुख्यात है। जो वेश्यावृत्ति के दूसरे ठिकानों की तुलना में इस मायनें में अनूठे हैं, कि यहां सदियों से लोग अपनी ही बेटियों को इस काम में लगाए हुए हैं। इनके लिए ज्यादा बेटियों का मतलब है, ज्यादा ग्राहक! ऐसे में जब आप किसी टैक्सी वाले से नीमच चलने के लिए कहते हैं, तो उसके चेहरे में एक प्रश्नवाचक मुस्कुराहट स्वत: तैर आती है। इस यात्रा में अनायास ही ऐसे दृश्य सामने आने लगते हैं, जो आमतौर पर सरेराह दिनदहाड़े कम से कम मप्र में तो कहीं नहीं देखने को मिलते। हां, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जरूर कभी- कभार दिख रहते हैं। पलक झपकते ही मौसम की शर्मिला टैगोर , चांदनी बार की तब्बू , चमेली की करीना आंखों के सामने तैरने लगती हैं।

महू- नीमच राजमार्ग से गुजरते हुए जैसे ही मंदसौर शहर पीछे छूटता है। सड़क किनारे ही बने कच्चे-पक्के घरों के बाहर अजीब सी चेष्टाएं दिखने लगती हैं। वाहनों विशेषकर ट्रक, कारों को रुकने के इशारे करती अवयस्क, कस्बाई इत्र से महकती लड़कियों की कमनीय भाव-भंगिमाएं इतनी प्रवीण हैं कि पहली बार यहां से गुजरने वाले यात्री हक्का-बक्का रह जाते हैं। इस देह की खुली मंडी से गुजरना आसान है। रुककर देह की अतृप्त ग्रंथियों की वासना मिटाना सहज है। लेकिन किसी सेक्स वर्कर, महिला दलाल से बात हो जाए यह बेहद मुश्किल है। उनको पुलिस का डर नहीं है, क्योंकि वह इनकी पक्की हिस्सेदार है। किसी के देख लेने का डर नहीं, क्योंकि सारा काम सड़क के किनारे खुले में होता है। डर है, तो इस बात का कहीं टीवी चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन में उनकी तस्वीर न दिखाई जाए। ग्राहकों को यह न लगे कि उनकी ऐशगाह असुरक्षित है। समुदाय में धंधे में लगी लड़कियों की संख्या पहले ही कम नहीं थी, उस पर से गरीबी, भुखमरी के चलते अब पड़ोसी जिलों, राज्यों से भी यहां पर जमकर लड़कियां लाई जा रही हैं। इनके मां-बाप इन्हें एक मुश्त रकम देकर बेच जाते हैं। या फिर तय अवधि में आते हैं और दलाल से उसके कमीशन, बेटी के रहने,खाने का खर्च काटकर उसकी कमाई ले जाते हैं। अर्थात बेटी अपनी जिंदगी महज दाल रोटी के लिए नरक कर रही है। लेकिन ऐसी लड़कियों को स्थानीय बाछड़ा लड़कियों की भीड़ में पहचानना बेहद मुश्किल है, क्योंकि उनके इर्द-गिर्द सुरक्षा घेरा भी है।

सड़क के किनारे बसे मल्लारगढ़ में बड़ी मुश्किल से अधेड़ उम्र की भंवरीबाई बातचीत को तैयार हुईं। वैसे उन्होंने भी पहले उनके मकान की ओर मुझे आते देख एक तेरह बरस की लड़की को मेरी ओर लपकाया था। भंवरीबाई ने अपने समाज की व्यवस्थाओं, देह व्यापार से जुड़े सवालों पर लाजवाब साफगोई से बात की। साठ से अधिक की हो चलीं भंवरी को उनके परिवार ने तेरह की उमर में ही इस धंधे में उतार दिया था। वह कहती हैं कि हमारे समाज में सिसकियों, मिन्नतों का कोई मोल नहीं है। क्योंकि परिवार के मर्द चाहते हैं कि बेटियां धंधा करें ताकि वह रोज़ी की फ्रिक से दूर शराब पीने में मशगूल रह सकें।

बाछड़ा समुदाय में बेटियों से वेश्यावृत्ति करवाना बेहद आम रिवाज है। रतलाम, मंदसौर और नीमच जिलो के सैकड़ों गांवों में यह कुप्रथा आज भी जारी है। इनमें कचनारा, रुंडी, परोलिया, सिमलिया, हिंगोरिया, मोया, चिकलाना आदि प्रमुख हैं। किसी को नहीं मालूम यह कब से चला आ रहा है, लेकिन जब बुजुर्ग महिलाएं बताती हैं कि उनकी मां-दादी/ नानी भी धंधा करती थी, तो जाहिर है कि मामला दशकों का नहीं सदियों का है। दूसरी ओर ज्यादातर पुरुष निठल्ले, शराबखोर ही मिलेंगे। उनके लिए इस बात के कोई मायने नहीं हैं कि उनकी अपनी बेटी/बेटियों को स्लेट, कापियों की उम्र में ग्राहको को रिझाने के गुर सिखाए जाते हैं। मंदसौर से नीमच के बीच सड़कों के किनारे जिस्मफरोशी की जितनी दुकाने हैं, उससे अधिक दुकाने, अड्डे गांवों के भीतर हैं। रास्ते से गुजरते वाहनों के सामने लिपस्टिक पोते, अपने उभारों को भरसक दिखाने की अधिक चेष्टा करती लड़कियां आपकी झिझक दूर करने की पूरी कोशिश करती हैं। ऐसी ही एक बाला ने कहा, साहब पहली बार आए हो! कोई बात नहीं, यहां पहली बार आने पर लोग ऐसे ही शर्माते हैं। झिझक मिटने में अधिक देर नहीं लगती।

भंवरी की बातों में खांटी सच्चाई, अनुभव की ताप है। उस अनुभव से उपजी पीड़ा की, जिसे न चाहते हुए भी वासना की भट्टी में झोंक दिया गया था। कमसिन उम्र में उसके नाजुक बदन को दिन-रात यहां से गुजरने वाले ट्रक चालकों और इलाके के सवर्णों के सामने परोस दिया गया। यह सिलसिला तब जाकर थमा, जब भंवरी के साथ उसके ग्राहक रामसिंह ने ही दिल मिलने के बाद (यहां प्यार होने के लिए यही जुमला चलता है) शादी कर ली थी।

एक औसत बाछड़ा लड़की की नियति यही है। जब तक वे ग्राहकों को रिझाने के काबिल होती हैं, उनके परिवार के मर्दों को यह कतई मंजूर नहीं होता कि लड़कियां घर (इसे कोठा पढें) दहलीज पार करें। क्योंकि ऐसा करने से उनको हर महीने मिलने वाली मोटी रकम से हाथ धोना पड़ सकता है। अनेक प्रगतिशील विचारों के धनी ऐसे भी हैं, जिन्होंने इस मोटे अर्थशास्त्र को समझा। यहीं बस गए। वेश्यावृत्ति करने वाली किसी लड़की से शादी कर ली फिर उसको तो इस धंधे से दूर रखा, लेकिन उसके नेटवर्क का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं और उसकी दूसरी बहनों से धंधा भी करवा रहे है। चलिए इनको तो फिर भी बख्शा जा सकता है, लेकिन उन भाइयों, पिताओं को कैसे क्षमा किया जा सकता है, जो बहन, बेटी की रक्षा का दम भरते हैं। उससे रिश्तों की दुहाई देते हैं। फिर उसे विवश करते हैं कि वह अपने जिस्म से उनके लिए रोटियां सेंके। उसे मजबूर करते हैं कि वह तितलियों को पकड़ने, सपने बुनने की उम्र में ग्राहकों की बाहों में मसली जाएं। एक ग्राहक के जाने के बाद दूसरे के लिए फिर सजकर रोड़ किनारे बैठ जाए।

बाछड़ा समाज अपनी बेटियों से ही धंधा करवाता है। इस काम में बहुओं को आमतौर पर नहीं उतारा जाता है। भंवरी जोर देकर कहती हैं कि बहुएं पराए मर्द की ओर देख लें तो हमारे बेटे उनके हाथ-पांव काटकर फेंकने से भी नहीं हिचकते हैं। वह आगे कहती हैं, “कमबख्त मर्द अपनी जोरू को संभल कर रखन चाहत हैं, और बेटी/ बहन को पैदा होत ही ग्राहक का बिस्तर गरम करन को बिठा देत हैं।”

कुल मिलाकर बाछड़ा समाज के लिए बेटी मोटी कमाई का सहज, सुलभ साधन है। परिवार के उदर पोषण के लिए रुपया लाने वाला विद्रोह की संभावना रहित, ईमानदार माध्यम। ग्राहकों को बुलाने और सौदा तय करने के काम में कहीं भी आपको कोई पुरूष नजर नहीं आएगा। इसे समाज के मर्दों की शान के खिलाफ समझा जाता है। यानि मां और उसकी बेटी/बेटियां ही धंधे के समय घर के दरवाजे और ढाबों, होटलों के इर्द-गिर्द नजर आती हैं। इनकी जाति पंचायतों की बात और भी निराली है। जहां एक ओर दुनिया के सामने मंच से शरीर के सौदे की मुखालफत की जाती है, वहीं दूसरी ओर पंचायत, सरकारी अफसर इसे बढ़ावा देते रहते हैं, ताकि उनकी दुकाने बंद न हों। वैसे भी यह सारा धंधा मर्दो के आलस और उनके निकम्मेपन की ही देन है। मर्दों के पास चूंकि एक तय रकम होती है, इसलिए वह मेहनत-मजदूरी से परहेज करते हैं। एक ओर तो वह इस पेशे के लिए औरतों को ही जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन दूसरी ओर इसी 'औरत' (उनकी बहनों) के नोच खसोट का पैसा वह बिना शर्म पीढ़ियों से डकार रहे हैं।

आमतौर पर कहा जाता है कि वेश्यावृत्ति के मूल में गरीबी, अशिक्षा है, लेकिन यहां आकर तो यह तर्क भी गले से नहीं उतरता है, क्योंकि अनेक पढे लिखे लोग इस काम को अपने घरों में अंजाम दे रहे हैं। उनके पास ऐसी संभावना, योग्यता है कि वह दूसरे पेशे को अपनाकर जीवनयापन कर सकें, लेकिन वह ऐसा करते नहीं हैं। क्योंकि उनके पास रोजगार का सबसे बढ़िया साधन है, उनकी बेटियां। इसी कारण वह ऐसी लड़कियों को भी इस धंधे में उतार देते हैं, जो पढ़ाई में जुटी हुई हैं। नीमच मार्ग पर ही बसे मुरली गांव में एक ऐसे दंपति ऐसे भी मुलाकात हुई, जिनके तीनों बच्चे सरकारी सेवा में हैं, लेकिन उसके बाद भी वह दलाली के काम में लगे हुए हैं। इसी तरह सड़क किनारे चारपाई पर बैठकर ग्राहकों को बुलाने एक प्रौढ़ महिला की कहानी भी खासी रोचक है। उसने अपनी दो बेटियों, बेटे की शादी कर दी है और अब बाहर यानि उड़ीसा, राजस्थान से आने वाली लड़कियों की दलाली खाती हैं। वह इस बात को बेहद अभिमान के साथ कहती है कि उसने अपनी बेटियों को इस धंधे में नहीं उतारा, लेकिन उसके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं है कि फिर इस दलाली में क्यों हाथ काले कर रही हो। दरअसल इस काम के न छूटने के पीछे बिना मेहनत आने वाली रकम भी है। एक बार हराम का पैसा जीमने की आदत पड़ जाए तो जिंदगी भर नहीं छूटती। इस काम में यहां के पुरुर्षों की भूमिका बेहद अहम है, क्योंकि वही परिवार के नियंता हैं, और पूरी तरह से पर्दे के पीछे स्त्रियों को ही स्त्रियों की दलाली करने के लिए उकसाते, मजबूर करते हैं।

बाछड़ा समुदाय पर काम कर रहे अनेक इस संगठनों और सरकार को यह बात चौंकाने वाली लग सकती है कि देह की इस मंडी में अब राजस्थान और उड़ीसा की लड़कियां उतारी जा रही हैं। तेरह साल की अनीता हालात की मारी एक ऐसी ही बेबस है, जिसे राजस्थान से उसका परिवार यहां छोड़ गया है। यह वही लड़की है, जिसे मेरी पीछे भंवरी बाई ने लपकाया था। वह दिनभर में कम से कम पांच ग्राहकों की वासना को संतुष्ट करती है। यह सारा इलाका ऐसी हजारों लड़कियों से भरता जा रहा है। इसके साथ ही महाराष्ट्र से बेकार होने के बाद बार बालाओं के ठुमके और जिस्म के सौदों के लिए भी यह राजमार्ग नया ठिकाना है। देह के कारोबार में तीस साल से अधिक बिताने के बाद उम्र के अंतिम पड़ाव पर जा पहुंची सेमरी बाई बताती हैं, हम लोग अपनी बच्चियों को सात की उम्र से ही ग्राहकों को पटाने के तरीके सिखाने लगते हैं। यह समय लड़कियों के 'प्रशिक्षण' का होता है। कम उम्र में उनके विरोध का खतरा नहीं होता और इनकी कीमत भी मोटी मिलती होती है।

देह की इस मंडी में उतारी गई लड़कियों की साक्षरता के बारे में कोई स्पष्ट आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन इन दिनों अनेक एसी लड़कियां खुद को ग्राहकों के सामने परोसने में लगीं हैं जो दसवीं और बारहवीं की छात्राएं हैं। अब वे इसके लिए तकनीक का भी भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। मोबाइल नंबरों की पहुंच इंदौर के अनेक माालदारों तक है। जो कभी यहां आते हैं, तो कभी लड़कियों की आपूर्ति बिजनेस मीटिंग के लिए इंदौर आने वाले सफेदपोश लोगों के लिए होती है। वासना के प्यासे धनकुबेरों और वैश्वीकरण की कथित कमाई से फूल कर कुप्पा हुए लोगों के सामने देह की ऐसी मंडी है, जिसका सारा कारोबार मासूम उम्र की लड़कियों के इर्द-गिर्द ही सिमटा है। जिनकी औसत उम्र नौ से पैंतीस साल है।

जिस तरह दिनदहाड़े सड़क पर बने कच्चे-पक्के मकानों में जिस्मफरोशी होती है, उससे जाहिर है कि पुलिस इस कारोबार में बराबर की हिस्सेदार है। बार-बार ग्राहकों, धंधा करने वालों को होने वाली दिक्कतों से अच्छा है एक मुश्त रकम एक बार दो। टेंशन फ्री होकर काम करो। पहरे में चलने वाले कारोबार का शाम गहराते ही नज़ारा ही बदल जाता है। दोपहर में सौ से दो सौ रुपए की मांग करने वाली लड़कियां बीस से पचास रुपए में ही राजी हो जाती हैं। वजह, रात को यहां कोई भी वाहन नहीं रुकता, साथ ही अब यहां लड़कियों की संख्या अधिक हो गई है, जिनके अनुपात में ग्राहक कम आते हैं। इस तरह रतलाम, मंदसौर, नीमच जिलों में बाछड़ा समुदाय की लड़कियां, महिलाएं एक ऐसा जीवन जीने को अभिशप्त हैं, जो उनके अपनों ने ही उनके लिए चुना है। इसलिए उनके नारकीय जीवन से मुक्ति के लिए भी महिला नेतृत्व को ही आगे आना होगा।


(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विकास संवाद, भोपाल द्वारा सामाजिक बहिष्कार एवं भेदभाव विषय पर फैलोशिप के तहत अध्ययनरत हैं।)

शिक्षा का अधिकार, राज्य और नवउदारवादी हमला

शिक्षा का अधिकार गहरे अर्थों में एक मूल अधिकार है। यह आलेख शिक्षा के अधिकार वेफ खिलाफ खड़ी व्यवस्था की जांच-पड़ताल करता है। शिक्षा से जुड़े सवालों को राजनीति के केंद्र में लाने की जरूरत पर बल देता है। इस आलेख में उठाए गए मुद्दे राजनीतिक चर्चा और पहल-कदमी की मांग करते हैं और एक सचेत नागरिक को अपनी भूमिका तय करने में मदद करते हैं।

सवा सौ साल पहले महात्मा ज्योतिराव फुले ने ब्रिटिश राज द्वारा गठित भारतीय शिक्षा आयोग (1882) को प्रस्तुत अपने ज्ञापन में एक विडंबना का जिक्र करते हुए कहा था कि सरकार का अधिकांश राजस्व तो मेहनतकश किसान-मजदूरों से आता है लेकिन इसके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का प्रमुख लाभ उच्च वर्ग और उच्च वर्ण उठा लेता है। महात्मा फुले की यह टिप्पणी भारत की आज की शिक्षा पर भी सटीक बैठेगी। सन् 1911 में इम्पीरियल असेम्बली में गोपाल कृष्ण गोखले ने मुफ्रत और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का विधेयक पेश किया। लेकिन यह विधेयक सामंती और नव-ध्नाढय ताकतों के विरोध् के कारण पारित न हो सका। विरोध् का एक आधर संसाधनों की कमी बताया गया। सन् 1937 में वर्ध (महाराष्ट्र) में आयोजित अखिल भारतीय शिक्षा सम्मेलन में महात्मा गांधी ने नव-निर्वाचित सात प्रांतीय सरकारों के शिक्षा मंत्रियों को चुनौती देते हुए कहा कि उनकी पहली प्राथमिकता है कि वे सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देना सुनिश्चित करें और वह भी उत्पादक काम पर आधारित शिक्षा। लेकिन सभी मंत्रिायों ने गांधीजी को कहा कि देश के पास इसके लिए संसाधन नहीं हैं। जब संविधान लिखा जा रहा था तब संविधान सभा के एक सदस्य ने प्रारूप समिति के अधयक्ष डा. बाबासाहेब अंबेडकर से अनुरोध् किया कि प्रस्तावित अनुच्छेद 45 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों को मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा के वायदे को घटाकर 11 साल तक का कर देना चाहिए क्योंकि भारत एक गरीब देश है और संसाधनों की कमी है। लेकिन डाअंबेडकर ने यह कहकर इस कुतर्क को नहीं माना कि आजाद भारत में इस उम्र के बच्चों के लिए सही जगह स्कूल होनी चाहिए, न कि खेत-खलिहान व कारखाने। लेकिन यह सिलसिला आज भी जारी है। जून 2006 में वर्तमान भारत सरकार ने संसाधनों की कमी का दावा करते हुए 86वें संविधान संशोधन के अनुच्छेद 21(क) के तहत प्रस्तावित शिक्षा के अधिकार विधेयक को संसद में पेश करने से इंकार कर दिया और विधेयक का एक बेहद कमजोर प्रारूप राज्य सरकारों को भेजकर अपनी संवैधानिक जवाबदेही से पल्ला झाड़ लिया।

संविधान में शिक्षा के मौलिक अधिकार की दृष्टि

डा. अंबेडकर के प्रयासों के बावजूद शिक्षा को संविधान के मौलिक अधिकार वाले खंड तीन में नहीं रखा जा सका। हालांकि 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों को मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा का वायदा देने वाला अनुच्छेद 45 संविधान के राज्य के नीति निर्देशक सिध्दांतों के खंड चार में रखा गया, लेकिन शिक्षा के बारे में संवैधानिक दृष्टि के चार महत्वपूर्ण बिंदुओं पर गौर करना जरूरी है। पहला, खंड चार में यह एकमात्रा अनुच्छेद है जिसकी पूर्ति के लिए समय सीमा रखी गई थी - संविधान लागू होने के दस साल के भीतर इस संकल्प को पूरा करना था यह आज तक नहीं हुआ है। दूसरा, 14 साल की उम्र तक में छह वर्ष से कम उम्र के भी बच्चे शामिल थे यानी जन्म से लेकर 6 वर्ष तक के बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य और पूर्व-प्राथमिक शिक्षा को राज्य की जवाबदेही में शामिल किया गया था। तीसरा, संविधान ने आठ वर्ष की प्रारंभिक शिक्षा का एजेंडा राज्य के सामने रखा था, न कि महज पांच साल की प्राथमिक शिक्षा का। चौथा, इस अनुच्छेद को अनुच्छेद 46 के साथ पढ़ा जाना चाहिए जिसमें संविधान ने दलित और आदिवासी बच्चों की शिक्षा पर विशेष धयान देने के लिए राज्य को निर्देशित किया था।

शिक्षा के अधिकार के विमर्श में नया मोड़ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन् 1993 में दिए गए उन्नीकृष्णन फैसले से आया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 45 को खंड तीन के जीवन के हक वाले अनुच्छेद 21 के साथ जोड़कर पढ़ने की जरूरत है क्योंकि ज्ञान देनेवाली शिक्षा के बगैर इंसान का जीवन निरर्थक है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों के लिए मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया।

मौलिक अधिकार और शासक वर्ग का नजरिया
सर्वोच्च न्यायालय के उक्त ऐतिहासिक फैसले के बाद भारत का शासक वर्ग लगातार इस कोशिश में लगा रहा कि किस प्रकार उन्नीकृष्णन फैसले के असर को घटाया या विकृत किया जाए। भारत सरकार की सैकिया समिति रपट (1997) और 83वां संविधान संशोधन विधेयक (1997) व उस पर मंत्रालय की संसदीय समिति की रपट इस बात के गवाह हैं कि केंद्रीय सरकार ने शिक्षा के मौलिक अधिकार के मायने को ही घटाने और विकृत करने एवं शिक्षा में बाजार की ताकतों को जगह देने के उद्देश्य से क्या-क्या चतुर उपाय किए। लेकिन सरकार के इस नजरिए की सार्वजनिक तौर पर तीखी आलोचना हुई और संसदीय समिति को भी शिक्षाविदों व जन संगठनों ने ज्ञापन पेश किए। अत: अगले चार साल के लिए शिक्षा के अधिकार का मसला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
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लेकिन अचरज तो यह है कि सभी राजनैतिक दल चुप्पी साधे रहे। नवंबर 2001 में 86वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश हुआ। संसद के अंदर और बाहर इस विधेयक के जन-विरोधी चरित्र पर व्यापक बहस हुई - जन सभाएं हुईं व रैलियां निकलीं। स्पष्ट था कि इसको पेश करने का परोक्ष उद्देश्य शिक्षा का हक देना नहीं वरन् सर्वोच्च न्यायालय के उन्नीकृष्णन फैसले से मिले हक को छीनना था। जो अधिकार उन्नीकृष्णन फैसले से जनता को मिल चुके थे वे भी 86वें संशोधन के चलते छिन गये। इसके बावजूद अंतत: सार्वजनिक आलोचना को नजरअंदाज करते हुए सभी राजनैतिक दलों में आपसी सहमति बन गयी और यह विधेयक संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित हो गया। दिसंबर 2002 में विधेयक पर राष्ट्रपति के दस्तखत हो गये और यह संशोधन संविधान का अंग बन गया। इस संशोधन के जरिए खंड तीन में अनुच्छेद 21(क) जोड़ा गया जिसके तहत 6-14 आयु समूह के बच्चों को मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया तो गया लेकिन एक शर्त के साथ। पूरे खंड तीन में यह मौलिक अधिकार अकेला ऐसा मौलिक अधिकार है जो सशर्त दिया गया है। बाकि सभी मौलिक अधिकार बगैर किसी शर्त के दिए गए हैं। शर्त यह है कि शिक्षा का मौलिक अधिकार 'उस रीति से दिया गया जो राज्य कानूनन निर्धारित करेगा।' ऐसी शर्त क्यों लगाई गयी, यह समझने के लिए हमें वैश्वीकरण के चलते भारत की शिक्षा नीति और व्यवस्था में जो भारी परिवर्तन हुए हैं उनको जानना होगा।

शिक्षा पर वैश्वीकरण का हमला

भारत में वैश्वीकरण की शुरुआत की औपचारिक घोषणा तो 1991 में नई आर्थिक नीति की घोषणा के साथ हुई। लेकिन इसके एजेंडे का सूत्रपात 1980 के दशक के मधय में ही हो चुका था। इसका सबूत संसद द्वारा पारित हमारी 1986 की शिक्षा नीति में मौजूद परस्पर विरोधाभासी बयानों में देखा जा सकता है। एक ओर तो नीति में कहा गया कि कोठारी शिक्षा आयोग (1964-99) द्वारा सुझायी गयी 'पड़ोसी स्कूल' की अवधारणा पर आधारित 'समान स्कूल प्रणाली' की ओर बढ़ने के लिए कारगर कदम उठाये जायेंगे। लेकिन दूसरी ओर इस अवधारणा के ठीक विरुद्ध एजेंडा बनाया गया। आजाद भारत में शिक्षा नीति का यह पहला दस्तावेज है जिसने घोषित किया कि आठ साल की प्रारंभिक शिक्षा सभी बच्चों को स्कूल के जरिए नहीं दी जा सकेगी। संबंधित आयु समूह (यानी 6-14 आयु समूह) के कम-से-कम आधे बच्चे ऐसे होंगे जिन्हें स्कूल उपलब्ध नहीं कराया जायेगा बल्कि उन्हें औपचारिक स्कूल के समानांतर घटिया गुणवत्ता वाली औपचारिकेतर (नॉन-फॉर्मल) धारा के जरिए शिक्षित किया जायेगा। इस समानांतर धारा में नियमित शिक्षक नहीं पढ़ायेंगे - उनकी जगह बगैर अर्हता वाले ठेके पर रखे गये निर्देशक या शिक्षाकर्मी नियुक्त किये जायेंगे।

इस तरह सरकारी स्कूल के नीचे देश के आधे बच्चों के लिए घटिया शिक्षा की एक परत बिछाने का नीतिगत फैसला हुआ। इसी नीति में सरकारी स्कूल के उपर ग्रामीण क्षेत्र के मुट्ठी भर अपेक्षाकृत संपन्न तबके के बच्चों के लिए नवोदय विद्यालयों की एक और परत बिछाने की घोषणा हुई। 1986 की शिक्षा नीति ने 'समान स्कूल-प्रणाली' की जगह बहु-परती शिक्षा व्यवस्था स्थापित करने की वैधानिक घोषणा कर दी जिसने 1990 के दशक में वैश्विक बाजार की ताकतों को शिक्षा के निजीकरण व बाजारीकरण की जमीन दी। सन् 1991 में घोषित नई आर्थिक नीति के बाद वैश्विक बाजार का प्रतिनिधित्व करनेवाली दो ताकतवर संस्थाओं - अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक - ने भारत सरकार के सामने कर्ज और अनुदान पाने के लिए अपनी शर्तें रखीं। शर्तों के पैकेज का नाम रखा गया-'संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम' (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम) । इसके तहत सरकार के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह देश के शिक्षा और स्वास्थ्य समेत सभी समाज विकास और कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च घटाये। सरकार ने ये शर्तें स्वीकारीं। उल्लेखनीय है कि कोठारी शिक्षा आयोग ने कहा था कि पूर्व प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक उम्दा गुणवत्ता की शिक्षा देने के लिए जरूरी है कि देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद का कम-से-कम 6 प्रतिशत हर वर्ष खर्च किया जाए। इसके बावजूद 1991 की आर्थिक नीति के चलते अगले 15 सालों में सकल राष्ट्रीय उत्पाद के प्रतिशत के रूप में शिक्षा पर किए जाने वाला खर्च लगातार घटाया गया। 2005-06 में यह खर्च घटते-घटते बीस वर्ष पूर्व के स्तर पर आ गया यानी सकल राष्ट्रीय उत्पाद का महज 3.5 प्रतिशत। यह इसके बावजूद हुआ है कि सर्व शिक्षा अभियान का लगभग 40 प्रतिशत बजट विश्व बैंक व अन्य अंतरराष्ट्रीय वित्तापोषक संस्थाओं से आता है और वर्तमान संप्रग सरकार विगत दो वर्षों से प्रारंभिक शिक्षा के नाम पर 2 प्रतिशत उपकर अलग से इकट्ठा कर रही है। स्पष्ट है कि जनता के सभी तबकों को समतामूलक गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए शासक वर्ग की राजनैतिक इच्छाशक्ति विगत 15 वर्षों से लगातार घटती गयी है। ऐसा करने में वैश्विक बाजार की ताकतों का छिपा हुआ एजेंडा भारत की विशाल सरकारी स्कूल प्रणाली (आज लगभग 11.2 लाख स्कूल हैं) को धवस्त करना था ताकि उसकी जगह फीस लेने वाले निजी स्कूल ले सकें। इसी एजेंडे का दूसरा पहलू सरकार को शिक्षा के प्रति अपनी संवैधानिक जवाबदेही से बरी होने का मौका भी देना था। लेकिन इतनी बड़ी और स्थापित व्यवस्था को खत्म करना आसान न था। अत: विश्व बैंक ने 1993-94 से सरकारी खर्च में कटौती के फलस्वरूप हुई क्षति की आंशिक पूर्ति के नाम पर शिक्षा के लिए कर्ज व अनुदान का कार्यक्रम शुरु किया जिसको जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डी.पी.ई.पी.) के नाम से जाना जाता है। जहां पूरे भारत में केंद्रीय और राज्य सरकारें मिलकर आठ साल की प्रारंभिक शिक्षा पर लगभग 40,000 करोड़ सालाना खर्च कर रही थीं वहीं विश्व बैंक ने स्वयं द्वारा प्रायोजित डीपी. ई.पी. में मात्रा रु. 500-1,000 करोड़ सालाना खर्च करके स्कूली शिक्षा नीति पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। विश्व बैंक और इसकी सहचर अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषक संस्थाओं की इस घुसपैठ के फलस्वरूप अगले 10-15 सालों में भारत की पूरी स्कूल व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। वैश्विक बाजार की इस रण्ानीति के निम्नलिखित तत्व पहचाने जा सकते हैं - 1. शिक्षा के समग्र सामाजिक विकास के उद्देश्यों की जगह महज साक्षरता-संबंधी कौशलों ने ले ली। 2. 'समान स्कूल-प्रणाली' की जगह 'बहु-परती शिक्षा व्यवस्था' स्थापित हुई - हरेक तबके के लिए एक अलग गुणवत्ता की शैक्षिक परत बिछाने का नया समाजशास्त्रीय सिद्धांत गढ़ा गया। 3. नियमित शिक्षक की जगह अर्हता-विहीन, प्रशिक्षण-विहीन और कम वेतन पाने वाले ठेके पर नियुक्त पैरा-शिक्षक ने ली। इस नए कैडर को विभिन्न राज्यों में नाना प्रकार के लुभावने नाम देकर घटिया शिक्षा की हकीकत छिपाने की कोशिश की गयी। 4. 1986 की शिक्षा नीति में संसद द्वारा निर्देशित न्यूनतम तीन कक्षाभवन और तीन शिक्षकों वाले स्कूलों की जगह बहु-कक्षायी अधयापन जैसी 'चमत्कारिक' अवधारणा के तहत शिक्षकों को अकेले एक साथ पांच कक्षाओं को पढ़ाने का प्रशिक्षण दिया गया जिस पर सैकड़ों करोड़ रुपये का खर्च किया गया जो कर्ज के रूप में देश की अगली पीढ़ी चुकायेगी। 5. आठ साल की प्रारंभिक शिक्षा के संवैधानिक एजेंडे की जगह पांच साल की प्राथमिक शिक्षा ने ली। 6. पाठयचर्या को ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों से काटकर बाजार के संदर्भ से जोड़ा गया (संदर्भ - मिनिमम लेवल लर्निंग की अवधारणा, भारत सरकार, 1991)। 7. शिक्षण पद्धति का निर्धारण शिक्षाशास्त्रीय सिध्दांतों पर न होकर बढ़ते क्रम में सूचना प्रौद्योगिकी एवं उसका व्यापार करने वाली कंपनियों की तर्ज पर होने लगा। 8. शिक्षा प्रणाली में प्रणालीगत परिवर्तन करके उसका देश की जरूरतों के अनुरूप फनर्निर्माण करने का उद्देश्य हाशिए पर धकेल दिया गया। इसकी जगह तदर्थ व अल्पकालीन स्कीमों और परियोजनाओं ने ले ली जिन्हें बगैर जांचे-परखे शुरु करने और बिना वैज्ञानिक आकलन के मनचाहे ढंग से बंद करने की खुली छूट मिल गई (उदाहरण - डी.पी.ई.पी. एवं सर्व शिक्षा अभियान) । 9. राज्य की संवैधानिक जवाब देही की जगह बाजार की ताकतों ने ले ली। 10. सरकार और पंचायती राज संस्थानों जैसे संवैधानिक निकायों की जगह शिक्षा की जिम्मेदारी तेजी के साथ गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) एवं धर्मिक सांप्रदायिक संगठनों को सौंपने का खतरनाक सिलसिला शुरु हुआ। 11. शिक्षा नीति के निर्णय हमारी संसद और विधान सभाओं में न होकर देशी व अंतर्राष्ट्रीय बाजार और विश्व बैंक के मुख्यालय में होने लगे। 12. शिक्षा के अधिकार वाली सोच की जगह बाजार में शिक्षा की कीमत और बच्चे के परिवार की आर्थिक हैसियत वाली सोच स्थापित हुई।
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यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि शिक्षा का विकास संवैधानिक एवं लोक कल्याणकारी परिप्रेक्ष्य में न करने का उच्च-स्तरीय राजनैतिक निर्णय लिया जा चुका है। शिक्षा बाजार में खरीद-फरोख्त की वस्तु बन चुकी है और इसे विश्व व्यापार संगठन के पटल पर रखने का फैसला बगैर किसी लोकतांत्रिक बहस के चुपचाप लिया जा चुका है। शिक्षा नीति की जगह अंतर्राष्ट्रीय वित्ता पर आधारित स्कीमों व परियोजनाओं (बहु-चर्चित 'सर्वशिक्षा अभियान' समेत) ने ले ली है जिनके तहत स्कूली शिक्षा के समानांतर निम्न गुणवत्तावाली कई शैक्षिक परतें बिछायी जा चुकी हैं। शर्त केवल एक है - यह वैकल्पिक व्यवस्था केवल गरीब जनता के लिए खड़ी की जाएगी यानी दो-तिहाई जनता के लिए इसमें प्रमुखत: दलित, आदिवासी, अति-पिछड़े, अल्पसंख्यक और विकलांग शामिल हैं और इन समुदायों में भी विशेषकर लड़कियां। इस प्रकार संविधान के समानता एवं सामाजिक न्याय के सिद्धांत का खुलकर उल्लंघन हुआ है। इस नई वैश्वीकृत बहु-परती शिक्षा नीति का छिपा हुआ एजेंडा देश की विशाल सरकारी स्कूल प्रणाली की गुणवत्ता गिराकर उसको इतना जर्जर बना देना था कि गरीब लोग भी अपने बच्चों को वहां से निकाल लें और निजी स्कूलों की तलाश करने लगें। इसमें विश्व बैंक और उनकी अनुयायी हजारों गैर-सरकारी संस्थाओं को अपेक्षित सफलता मिली है। सरकारी स्कूलों की विश्वसनीयता तेजी से गिरी और हर प्रकार के दुकाननुमा निजी स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हुए जिनमें बड़ी तादाद में मान्यता-विहीन स्कूल शामिल हैं। सरकारी स्कूल प्रणाली से 1970 के दशक से उच्च एवं मध्यम वर्गों ने जो महापलायन शुरु किया उस प्रक्रिया में अंग्रेजी माध्यम के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रेखांकित करने की जरूरत है। इसके चलते सरकारी स्कूल प्रणाली की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए आवश्यक राजनैतिक व सामाजिक रूप से प्रभावी आवाज भी लुप्त हो गयी। आज पूर्व-प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च व प्रोफेशनल स्तर तक की शिक्षा का बाजारीकरण करना सरकारी नीति बन चुकी है। नीति निर्माण की लगाम संसद और विधान सभाओं से खींचकर वैश्विक बाजार की ताकतों यानी विश्व बैंक की अगुवाई में सक्रिय अंतर्राष्ट्रीय वित्तापोषक संस्थाओं और देशी-विदेशी घरानों को सौंपी जा रही है। इसके साथ-साथ शिक्षा के जरिए वर्ग-भेद, जाति-भेद, धर्मिक कट्टरवाद, नस्लवाद, पितृसत्ताा, सामंती व गैर-तार्किक सोच, पिछड़ेपन आदि विकृतियों के खिलाफ लड़ाई आगे बढ़ाने के सरोकार गौण हो रहे हैं। शिक्षा, वैश्विक बाजार की ताकतों के हाथ में वर्चस्ववाद, शोषण, सांप्रदायि कता व विषमता फैलाने का हथियार बनती जा रही है। दरअसल, वैश्वीकरण के शिक्षा पर हुए आक्रमण को मात्रा निजीकरण व बाजारीकरण मान लेना अति-सरलीकरण होगा। पूरी सच्चाई तो यह है कि वैश्वीकरण का आक्रमण शिक्षा में निहित ज्ञान के चरित्र पर है ताकि ज्ञान के सृजन, संप्रेषण और वितरण पर बाजार की ताकतों का नियंत्राण हो सके। तभी तो जनमानस को बाजार के हित में मोड़ा जा सकेगा।

आज की हकीकत
आज 6-14 वर्ष आयु समूह के आधे से अधिक बच्चे (दो-तिहाई लड़कियां) संविधान में निर्देशित आठ वर्ष की प्रारंभिक शिक्षा से वंचित हैं। पांचवीं कक्षा तक अधिकाांश बच्चे एक भी सही वाक्य नहीं लिख पाते हैं (न अपनी भाषा में, न किसी अन्य में) और दो अंकों का गुणा-भाग तक नहीं कर पाते हैं। कुल मिलाकर एक-तिहाई बच्चे ही हाई स्कूल तक पढ़ पाते हैं (दलित, आदिवासी और अल्प-संख्यक समुदायों में यह आंकड़ा बमुश्किल 20-25 प्रतिशत है ' मात्रा 18 प्रतिशत आदिवासी लड़कियां दसवीं तक पहुंच पाती हैं और पास तो आधी ही होती होंगी) । इन्हीं समुदायों में 12वीं पास करने वाले बच्चों का प्रतिशत 5-6 प्रतिशत से अधिक नहीं है। उच्च शिक्षा, संबंधित आयु समूह (18-23 वर्ष) के मात्रा 7 प्रतिशत को ही उपलब्ध है, जबकि चीन में यह आंकड़ा 16 प्रतिशत है। एक विकसित राष्ट्र बनने के लिए यह आंकड़ा कम-से-कम 20 प्रतिशत होना चाहिए और चीन जल्द ही इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। गिने-चुने उच्च शिक्षा संस्थानों को छोड़कर अधिकांश संस्थानों की गुणवत्ता, निजी संस्थानों समेत पिछले 15-20 वर्षों में गिरती गई है।
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एक और हकीकत

जी-8 (अमरीका, कनाडा, इंग्लैंड, प्रफांस, जर्मनी, जापान आदि) के उच्च-विकसित देशों में अकूत संपदा व ताकत के अलावा एक और साझी बात है - उन सभी देशों में सार्वजनिक धन पर सुचारु रूप से चलनेवाली सबको उपलब्ध पड़ोसी 'समान स्कूल व्यवस्था' है जिसके बगैर वे मुल्क वहां नहीं पहुंच पाते जहां वे आज पहुंच पाए हैं। यही बात स्कैंडेनेवियाई मुल्कों पर भी लागू होती है और अन्य कई मुल्कों पर भी। निजी स्कूल खोलना और इस स्तर पर फीस और कैपीटेशन चार्ज लेना पिछड़े मुल्कों की पहचान है। यह भारतीय 'राज्य' द्वारा अपनी संवैधानिक जवाबदेहियों से पल्ला झाड़ने की नीति का सबूत है। दरअसल, शिक्षा को मुनाफे का जरिया मान लेने से ही तमाम विकृतियों के दरवाजे खुल जाते हैं। अधिकांश विकसित देशों में उच्च शिक्षा को भी सरकार धन मुहैशया कराती है और उनका नियंत्राण भी करती है। सार्वजनिक धन पर चलनेवाली उच्च शिक्षा संस्थाओं में अमरीका में 76 प्रतिशत, प्रफांस में 88 प्रतिशत, रूस में 89 प्रतिशत, कनाडा में 100 प्रतिशत और जर्मनी में 100 प्रतिशत विद्यार्थी पढ़ते हैं। इन विकसित मुल्कों की सरकारें ज्ञान सृजन, संप्रेषण व वितरण में बाजार की भूमिका पर अपने-अपने राष्ट्र हित में सचेत नियंत्रण रखती हैं। लेकिन वे ही ताकतें भारत जैसे प्रगतिशील देशों को बाजार की वर्ग-भेद पर आधारित 'च्वाइस' यानी 'चयन के हक' का भ्रामक पाठ पढ़ाती हैं। इस तथाकथित चयन के हक का भ्रम फैलाकर देश का शासक वर्ग दो-तिहाई जनता को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित रखने के इरादे से हर स्तर पर शिक्षा को वैश्विक बाजार में खरीद-फरोख्त की वस्तु बनाने के कदम उठा चुका है। यह रणनीति ज्ञान व्यवस्था पर उच्च वर्ग और उच्च वर्ण के वर्चस्व को बरकरार रखने की रणनीति है।
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'समान स्कूल-प्रणाली'
कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) ने पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित 'समान-स्कूल प्रणाली' की अनुशंसा करते हुए कहा था कि इसके बगैर एक समतामूलक व समरस समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। यदि ऐसा नहीं हो सका तो विषमता और आपसी दूरियां बढ़ती जायगी। इसका नकारात्मक प्रभाव न केवल गरीबों पर वरन् संपन्न तबकों पर भी पड़ेगा चूंकि वे यह जान ही नहीं पायेंगे कि देश की दो-तिहाई जनता की हकीकत क्या है और उनके सरोकार क्या हैं। इससे इन तबकों की भी शिक्षा अधकचरी व अपूर्ण रह जाएगी। आयोग के अनुसार 'समान स्कूल-प्रणाली' के आधर पर ही एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का निर्माण हो सकेगा जहां सभी वर्गों व तबकों के लोग इकट्ठे पढ़ सकेंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आयोग ने चेतावनी दी कि समाज के प्रभावकारी वर्ग सरकारी स्कूल से पलायन करके निजी स्कूलों की ओर बढ़ेंगे और सरकारी स्कूल प्रणाली की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए आवश्यक दबाव खत्म हो जाएगा। 1970 के दशक के मधय से उच्च वर्गों ने अंग्रेजी के बढ़ते हुए प्रभुत्व को पहचान कर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की तलाश में निजी स्कूलों की ओर भागना शुरु किया। यदि सरकार में सही शिक्षा के प्रति राजनैतिक इच्छाशक्ति होती तो कोठारी आयोग द्वारा अनुशंसित त्रि-भाषा सूत्र की तर्ज पर पूरे देश में समान भाषा नीति लागू करती। इसके तहत हर स्कूल में सभी बच्चों को बिना किसी भेदभाव के भारत की बहु-भाषाई पृष्ठभूमि के अनुरूप मातृभाषा से शुरु करके राज्यविशेष की भाषा को माध्यम बनाते हुए उम्दा गुणवत्ता की अंग्रेजी सिखाने की सुविध दी जाती। लेकिन ऐसा करने से उच्च वर्गों और वर्णों का वर्चस्व खत्म हो जाता। अत: समान स्कूल प्रणाली के लिए आवश्यक समान भाषा नीति नहीं अपनाई गयी। जो हुआ वह अपेक्षित था। उस काल के तमाम उम्दा गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूलों में - जहां आज की बुजुर्ग और अधेड़ पीढ़ी के विद्वानों, शिक्षक, नौकरशाह और अन्य पेशेवरों ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाई है - तेजी से गिरावट आनी शुरु हुई है। जैसा कि उपर विवरण दिया है कि वैश्वीकरण के बाद गुणवत्ता को गिराना एक सचेत नीति का हिस्सा बन गया। आज इस बहु-परती सरकारी शिक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता इस कदर गिर चुकी है कि इसमें केंद्रीय व नवोदय विद्यालयों को छोड़कर, केवल उस तबके के बच्चे पढ़ते हैं जिनकी हैसियत कम फीस व घटिया सुविधाओं वाले मान्यता-विहीन दुकाननुमा स्कूलों में भी अपने बच्चों को भेजने की नहीं है। इस तरह तीस साल पहले की तुलना में समान स्कूल प्रणाली स्थापित करने का काम आज कहीं अधिक मुश्किल हो चुका है। समान स्कूल प्रणाली के बारे में तीन मनगढ़ंत धरणाएं निजी स्कूल लॉबी द्वारा जानबूझकर फैलाई जाती हैं। पहला, यह कहा जाता है कि यह प्रणाली सारे देश में एकरूपी लोचहीन प्रणाली स्थापित कर देगी। सच तो यह है कि एकरूपता की जकड़न तो वर्तमान प्रणाली की पहचान है जहां बोर्ड व प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं के चलते विविधता और लोच के खिलाफ एक अघोषित लड़ाई चलती रही है। समान स्कूल प्रणाली तभी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली बन सकेगी जब इसकी पाठयचर्या का आधारभूत सिद्धांत होगा देश में व्याप्त विविधता - हर प्रकार की विविधता - भू-सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई और नस्ली। शर्त केवल यह होगी कि हरेक स्कूल के पास न्यूनतम ढांचागत, शिक्षक-संबंधी व अन्य शैक्षिक मापदंड बरकरार रखने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों जिसकी पूरी जवाबदेही सरकार की होगी। दूसरा, जमकर दुष्प्रचार किया गया है कि इसमें निजी स्कूलों के लिए जगह नहीं होगी। उलटे, उक्त प्रणाली में निजी स्कूलों के लिए पूरी जगह होगी, लेकिन शिक्षा से मुनाफा कमाने के लिए कतई जगह नहीं होगी। ध्यान केवल यह रखना होगा कि निजी स्कूल संविधान में निहित सिध्दांतों के अनुसार चलेंगे और अनुच्छेद 21(क) के जरिए दिए गए समतामूलक व मुफ्रत शिक्षा के अधिकार के तहत पड़ोसी स्कूल की तरह काम करेंगे। तीसरा, निजी स्कूल लॉबी ने यह प्रचार भी किया है कि इस प्रणाली के लागू होते ही हर स्कूल पर सरकार का पूरा नियंत्राण हो जायेगा। हमें समझना होगा कि सरकारी धन या अनुदान का अर्थ प्रबंध्कीय या शैक्षिक नियंत्राण कतई नहीं है, हालांकि आजतक यही होता आया है। सरकारी अनुदान के बावजूद हर स्कूल की स्वायत्तता रह सकती है बशर्ते कि स्कूल संवैधानिक खाके में रहकर काम करें। 73वें और 74वें संविधान संशोधनों ने जन भागीदारी पर आधारित विकेंद्रित व्यवस्था खड़ी करने की पूरी गुंजाइश दी है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं हो सकता कि सरकार को नीति बनाने, आवश्यक संसाधन देने एवं निगरानी रखने जैसी अपनी संवैधानिक जवाबदेही से छूट मिल जायेगी। आज बाजार की ताकतें शिक्षा के निजीकरण व बाजारीकरण की रफ्तार तेज करने के इरादे से विकेंद्रीकरण की ऐसी विकृत अवधारणा को फैला रही हैं जिसके तहत सरकार को उसकी उक्त जवाबदेहियों से बरी करने का रास्ता खुल जाये। हमें बाजार की इस रणनीति के प्रति सचेत रहना होगा। अमरीका व कनाडा जैसे विकसित देशों में सार्वजनिक धन पर आधारित होने के बावजूद वहां की स्कूल व्यवस्था पूरी तरह विकेंद्रित है जिसके संचालन में आम जन और विशेषकर अभिभावकों की निर्णायक भूमिका है। हम ऐसे मुल्कों से सबक ले सकते हैं। एक और मुद्दा। बगैर समान स्कूल प्रणाली के पाठयचर्या में सुधर की बात करने का मतलब होगा कि विभिन्न परतों के स्कूलों के बीच गुणात्मक गैर-बराबरी बढ़ाना। यानी पाठयचर्या में देशव्यापी सुधर तभी संभव होगा जब सभी स्कूलों में गुणात्मक सुधर के लिए समतामूलक धरातल होगा। इसके लिए समान स्कूल प्रणाली आवश्यक शर्त है। हाल में इसी मुद्दे को लेकर तीखी बहस हुई जब एनसीईआरटी ने राष्ट्रीय पाठयचर्या की रूपरेखा-2005 (एन.सी. एफ.-2005) बनाने की कवायद की। एक पक्ष यह मानने को तैयार ही नहीं था कि पाठयचर्या में सुधर का समान स्कूल प्रणाली से कोई सार्थक रिश्ता हो सकता है। अंतत: काफी जद्दोजहद के बाद एन.सी.एफ.-2005 में समान स्कूल प्रणाली का जिक्रभर तो हो पाया लेकिन पाठयचर्या सुधर और समान स्कूल प्रणाली के रिश्ते का सिद्धांत स्थापित करवाने के लिए शासक वर्ग पर जनता का दबाव बनाना होगा। यह तय है कि हरेक स्कूल जब सच्चे मायने में पड़ोसी स्कूल बनेगा तभी हर तबके, जाति, मजहब या भाषा के बच्चे एक साथ पढ़ पायेंगे। यह पूर्व शर्त होगी एक लोकतांत्रिाक र्ध्मनिरपेक्ष एवं समतामूलक भारत के निर्माण के लिए। तभी ऐसे हालात बनेंगे कि भारत की संपूर्ण प्रतिभा का इस्तेमाल सामाजिक विकास के लिए हो पायेगा।

शिक्षा अधिकार और समान स्कूल-प्रणाली का रिश्ता
नि:संदेह 86वें संविधान संशोधन का चरित्र कई मायनों में जन-विरोधी था और इसका असली मकसद वैश्वीकरण के चलते 1990 के दशक में हमारी शिक्षा नीति व व्यवस्था में जो विकृतियां आने थीं उनका वैधानीकरण करना था। लेकिन तब भी इसके द्वारा 6-14 आयु समूह की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा मिलना भारतीय इतिहास में एक ऐतिहासिक परिघटना है। इसके निम्नलिखित व्यापक निहितार्थ हैं - 1. प्रारंभिक शिक्षा का मौलिक अधिकार तभी सार्थक होगा जब इसे अन्य मौलिक अधिकारों के साथ जोड़कर दिया जाये। यानी ऐसी प्रारंभिक शिक्षा नहीं दी जा सकती जो समानता, सामाजिक न्याय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मजहब चुनने की स्वतंत्रता या जीने के हक का उल्लंघन करे। इसके साफ मायने हैं कि पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित समान स्कूल प्रणाली के जरिए शिक्षा पाना कम-से-कम 6-14 आयु समूह के बच्चों का मौलिक अधिकार बन चुका है। यह इसलिए कि अन्य कोई भी विकल्प समानता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित नहीं करता। 2. केवल ऐसी ही प्रारंभिक शिक्षा दी जा सकती है जो संविधान के अनुरूप एक लोकतांत्रिक, समतामूलक, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रबुद्ध समाज के निर्माण के लिए कारगर हो। कोई भी शिक्षा व्यवस्था या पाठयचर्या जो ऐसे समाज के लिए सक्षम नागरिकता का निर्माण नहीं करती वह मौलिक अधिकार का उल्लंघन करेगी। 3. अनुच्छेद 21(क) के चलते किसी भी स्कूल द्वारा - चाहे वह सहायता-विहीन निजी स्कूल ही हो - 6-14 आयु समूह के बच्चों से फीस या अन्य किसी भी प्रकार का शुल्क/चार्ज लेना गैर-संवैधानिक होगा। अब निजी स्कूलों के पास केवल दो विकल्प बचे हैं - पहला, वे मुफ्त प्रारंभिक शिक्षा देने के लिए समाज से धन बटोरें- दूसरा, वे सरकार से अनुदान लें। 4. समतामूलक गुणवत्ता की प्रारंभिक शिक्षा देना राज्य की संवैधानिक जवाबदेही है जिससे बरी होने के इरादे से सरकार संसाधनों की कमी का बहाना नहीं कर सकती। संसाधनों के आबंटन में प्रारंभिक शिक्षा की तुलना में ऐसी किसी भी अन्य मद को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती जो मौलिक अधिकार न हो। इसका निहितार्थ है कि यदि संसाधन की कमी है तो राज्य की जवाबदेही है कि वह राष्ट्रमंडलीय खेल-2010, कॉर्पोरेट घरानों द्वारा लिये गये बैंक कर्जों की माफी एवं विशेष आर्थिक क्षेत्रा (सेज) के लिए सब्सिडी आदि पर रोक लगाकर प्रारंभिक शिक्षा के लिए निवेश करे चूंकि उपरोक्त में से कोई भी खर्च कॉर्पोरेट भारत के मौलिक अधिकार के लिए नहीं है। 5. सर्वोच्च न्यायालय के उन्नीकृष्णन फैसले के अनुसार अनुच्छेद 41 के तहत प्रारंभिक शिक्षा के अलावा माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा (तकनीकी व प्रोफेशनल शिक्षा समेत) भी मौलिक अधिकार के दायरे में आते हैं लेकिन इस अधिकार को राज्य अपनी आर्थिक क्षमता की सीमाओं के मद्देनजर ही मान्यता देगा। माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा को खासतौर पर मौलिक अधिकार के दायरे में लाना जन आंदोलन का तात्कालिक एजेंडा बनना चाहिए चूंकि इसके बगैर बेहतर कैरियर और उच्च शिक्षा व प्रोफेशनल कोर्सों के सब दरवाजे बंद हैं। नि:संदेह, सामाजिक विकास का सवाल केवल कैरियर और कोर्सों का सवाल नहीं है। लेकिन जब तक वर्तमान जनविरोधी पूंजीवादी विकास का खाका हावी है तब तक शिक्षा को आगे बढ़ने की उपलब्ध्ता तमाम संभावनाओं से जोड़ना मौलिक अधिकार का मुद्दा बनता है। दरअसल, उच्च शिक्षा व प्रोफेशनल संस्थानों में आरक्षण का मुद्दा दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए विकास के दरवाजे तभी खोल सकता है जब इन वर्गों के बच्चों को समान स्कूल प्रणाली के खाके में समतामूलक माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा पाने का मौलिक अधिकार मिल जाए। इस दृष्टि से अनुच्छेद 21 (क) में संशोधन करके ''18 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों'' को मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार दिलाना और वह भी बिना किसी शर्त के, जनता की अगली लड़ाई होगी।

शिक्षा अधिकार और समान स्कूल प्रणाली पर हमले

देश की शिक्षा नीति व व्यवस्था पर वैश्वीकरण के कारण हुए दुष्प्रभावों का विवरण ऊपर दिया गया है। लेकिन विगत 2-3 वर्षों में वैश्विक बाजार की ताकतों के हौसले सब हदों को पार कर रहे हैं। इसलिए शिक्षा के अधिकार और 'समान स्कूल-प्रणाली' पर हो रहे निम्नांकित नये हमलों को पहचानना जरूरी हो गया है - शिक्षा के अधिकार का विधेयक बनाने के लिए हाल में जो बहस चली है उसमें 'समान स्कूल-प्रणाली' और पड़ोसी स्कूल की अवधारणा को हाशिए पर धकेलने के लिए एक नया शगूफा छोड़ा गया - निजी स्कूलों में पड़ोस के कमजोर तबके के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का शगूफा। सारी बहस 'समान स्कूल-प्रणाली' और पड़ोसी स्कूल के महत्वपूर्ण मुद्दे से हटकर निजी स्कूलों के मालिकों की दिक्कतों, वहां के अभिजात माहौल में गरीब व पिछड़ी जातियों के बच्चों को आनेवाली सांस्कृतिक व मनोवैज्ञानिक परेशानियों और ऐसे आरक्षण के लिए संसाधनों के स्रोतों पर फोकस हो गयी। यह मुद्दा गौण हो गया कि यदि इस प्रावधान के अनुसार 25 प्रतिशत गरीब बच्चे पड़ोस से आयेंगे तो जाहिर है कि 75 प्रतिशत फीस देनेवाले संपन्न बच्चे पड़ोस से नहीं आयेंगे - तो फिर यह बराबरी हुई या खैरात? क्या संपन्न बच्चों से फीस लेना अनुच्छेद 21 (क) का उल्लंघन नहीं होगा? इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि इस प्रावधन से कितने गरीब बच्चों को लाभ मिलने की उम्मीद है। आज देश भर में प्रारंभिक स्तर पर निजी स्कूलों में बच्चे कुल संख्या का बमुश्किल 20 प्रतिशत हैं। यानी तमाम निजी स्कूलों की प्रारंभिक शिक्षा देने की क्षमता 6-14 वर्ष आयु समूह के कुल 20 करोड़ बच्चों में से मात्रा 4 करोड़ बच्चों की है। यदि निजी स्कूलों की इस क्षमता का पड़ोस के 25 प्रतिशत कमजोर तबके के लिए आरक्षित कर दिया जाये तो इससे लाभान्वित होने वाले बच्चों की संख्या 1 करोड़ से अधिक की नहीं हो सकती। तो शेष 19 करोड़ बच्चों के मौलिक अधिकार का क्या होगा? जाहिर है कि 25 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधन का न तो शिक्षा के अधिकार से कोई संबंध है, न 'समान स्कूल- प्रणाली' से और ना ही 86वें संशोधन के अनुरूप शिक्षा प्रणाली के फनर्निर्माण से। तब भी न केवल नीति निर्माण करनेवाला राजनैतिक नेतृत्व और सरकारी तंत्रा बल्कि पूरा मीडिया, गैर-सरकारी संगठन और यहां तक कि न्यायपालिका भी इसमें ऐसी उलझी हुई है जैसे कि मौलिक अधिकार का सारा दारोमदार इसी 25 प्रतिशत आरक्षण में है। शायद इसलिए क्योंकि इसके चलते शासक वर्ग के पक्ष में खड़ी देश की आर्थिक व्यवस्था और अन्य सुविधाओं में कोई परिवर्तन नहीं करने पड़ेंगे और साथ में शिक्षा के बाजारीकरण की रफ्तार भी यथावत बनी रहेगी। जून 2006 में योजना आयोग ने 11वीं पंचवर्षीय योजना का दृष्टिपत्र जारी किया। इसमें अचानक बगैर किसी शैक्षिक विमर्श के वाउचर प्रणाली का प्रस्ताव रखा गया। वाउचर प्रणाली क्या है? इसके अनुसार कमजोर तबके के बच्चों को (कितने बच्चों को, यह नहीं बताया) वाउचर दे दिये जायेंगे जिसको लेकर ये बच्चे जिस भी निजी स्कूल में प्रवेश पा लें, उसकी फीस सरकार अदा कर देगी। यह कोई नहीं बता रहा है कि क्या ये वाउचर 20 करोड़ बच्चों को दिये जायेंगे। ना ही यह बताया जा रहा है कि इन वाउचरों के जरिए किसी निजी स्कूल की फीस के कितने बड़े अंश का भुगतान किया जायेगा। क्या यह वाउचर कैपीटेशन फीस, भवन विकास फंड और अभिजात तर्ज पर आयोजित वार्षिक पिकनिक/डांस के खर्च का भी भुगतान करेगा? और उस स्थिति में क्या होगा जब अलग-अलग निजी स्कूलों की फीस अलग-अलग होगी? यह भी कोई नहीं बता रहा कि वाउचर प्रणाली कई देशों में असफल हो चुकी है। हाल में कुछ लोग वाउचर प्रणाली की जगह निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण का शगूफा छोड़कर मौलिक अधिकार की बहस को भ्रमित करने की कोशिश में हैं। योजना आयोग की इस मुद्दे पर अस्पष्टता या चुप्पी की एक ही व्याख्या हो सकती है - वाउचर प्रणाली निजी स्कूलों को पिछले दरवाजे से सरकारी धन उपलब्ध कराने और वैश्विक बाजार को संतुष्ट करने का नायाब तरीका है। जैसा कि उपर बताया है कि विगत 15 वर्षों में वैश्वीकरण के तहत सरकारी स्कूल प्रणाली को धवस्त करने की नीति लागू की गयी । इसमें जब काफी सफलता मिल गयी तो विश्व बैंक और बाजार की अन्य ताकतें विभिन्न सहचर गैर-सरकारी एजेंसियों के जरिए तथाकथित शोध्-अधययन आयोजित करके ऐसे आंकड़े पैदा करवा रही हैं कि किसी तरह सिद्ध हो जाये (यानी भ्रम फैल जाए) कि सरकारी स्कूल एकदम बेकार हो चुके हैं और इनको बंद करना ही देश के हित में होगा। आये दिन रिपोर्ट छप रही हैं यह बताते हुए कि सरकारी स्कूल कितने बदहाल हैं, सरकारी स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं, यदि हैं तो वे पढ़ाते नहीं हैं और वहां जाने वाले विद्यार्थी न लिखना जानते हैं और न हिसाब करना। कोई रपट यह नहीं बताती कि ये बदहाल कैसे हुए और इस प्रक्रिया में देश के शासक वर्ग एवं बाजार की ताकतों की क्या भूमिका रही है।

भाषाओं की सिकुड़ती दुनिया - चंदन श्रीवास्तव

मछली पानी में रहती है और मनुष्य भाषा में। मछली के जीवन की बुनियादी शर्त है - पानी। उसके पास पानी से अलग रहने का कोई विकल्प नहीं है। चाहें तो कह लें कि अस्तित्व के एक खास धरातल पर मछली और पानी दो नहीं एक हैं। मछली और पानी की पारस्परिकता का यही तकाजा है। मनुष्य के पास भी भाषा के सिवाय और कोई घर नहीं। जब से मनुष्य है तभी से भाषा भी है। आदमी रहता आया है दुनिया में मगर दुनिया को पाया उसने भाषा में। आदमी आधा अपनी स्मृतियों में होता है और आधा अपनी आकांक्षा में। स्मृतियां उसका भूत हैं और आकांक्षा उसका भविष्य। अपने होने के अर्थ को पाने के लिए आदमी चाहे जिस तरफ गति करे उसको पहला और अंतिम सहारा भाषा में मिलता है। यह सफर चाहे 'मैं' से 'हम' होने का हो या 'हम कौन थे और क्या होंगे अभी' का। इस सफर का एक-एक कदम भाषा के भीतर से होकर गुजरता है।

भाषा में शब्द होते हैं, शब्द में अर्थ, अर्थ में इतिहास, इतिहास में मूल्य और मूल्यों से ही जीवन का मानचित्र रचता-रंगता है। पानी कम पड़े, सूखने लगे या गंदला होता जाय। कुछ ऐसा हो कि मछली की सांसे अटकने लगे तो फिर समझिए कि मछली की जिजीविषा के आगे अब अंधी सुरंग है और इस सुरंग के आखिरी सिरे पर है एक तयशुदा मौत। दुनिया का पानी कम पड़ रहा है : तेजाब में तब्दील हो रहा है - मछलियां सड़ और मर रही हैं। हां! भाषाएं भी कम हो रही हैं और भाषाओं के बिछौने पर लेटे मानवता के कई-कई संस्करण या तो मिट गए हैं या मिटने के कगार पर हैं। अगर आपको यह बात किसी भयभीत और दुनिया के नाश की भविष्यवाणी में रस लेने वाले गपोड़ की मनोग्रंथि जान पड़े तो एक नजर प्रोफेसर हैरीसन और ग्रेगरी एंडरसन की बातों पर डालिए। खतरे में पड़ी भाषाओं की खोज-बीन से जुड़ी ओरेगांव की एक संस्था से संबध्द ये दो भाषा-प्रेमी (और भाषाविद् भी) संसार भर की खाक छान चुके हैं। नेशनल ज्यॉग्राफ्रिक सोसायटी की भाषा विषयक एक परियोजना के सिलसिले में इन दोनों ने दुनिया भर में घूम-घूम कर यह टटोला कि आखिर किन भाषाओं के सामने अब दुनिया की स्लेट से मिट जाने का खतरा है और खतरे की जद में आ चुकी इन भाषाओं के बोलने-चालने वाले कितने और कैसी दशा में हैं। प्रो. हैरीसन और एंडरसन का कहना है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएं विनाश के कगार पर हैं। पूर्वी साइबेरिया, उत्तारी आस्ट्रेलिया, मध्यवर्ती दक्षिण अमरीका और संयुक्त राज्य अमरीका के प्रशांत महासागरीय उत्तार-पश्चिमी इलाके में ऐसी सैकड़ों भाषाएं हैं जो अपनी गिनी-चुनी सांसे गिन रही हैं। पेन्सिलवेनिया स्थित वार्थमोर कॉलेज के भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डेविड हैरिसन चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि भाषाओं के अस्तित्व पर विश्वव्यापी खतरा मंडरा रहा है। भाषाओं के लुप्त होने की गति वनस्पतियों और जैव प्रजातियों के लुप्त होने की गति से कहीं अधिक तेज है और 'कहीं-कहीं तो हालत इतनी बद्तर है कि किसी-किसी भाषा का सिर्फ एक जाननहारा बचा है।' इन दोनों भाषाविदों ने अपनी खोजबीन में पाया कि कुछ भाषाएं आनन-फानन में मिट गईं। इसका कारण रही प्राकृतिक आपदा जिसने किसी छोटे-मोटे समुदाय को अपनी चपेट में लिया और उस समुदाय के साथ उसकी भाषा भी काल के गाल में समा गई। बहरहाल, ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं हुआ। अधिाकतर भाषाएं धीमे-धीमे अपने अंत को पहुंची - लोगों ने अपनी जबान छोड़ दी क्योंकि बदलते हुए हालात में उन्होंने अपने जीवन को गैरभाषा और इसके बोलने वालों से घिरा पाया। हालात के दबाव में यह गैरभाषा ही उनकी भाषा बन गई। मिसाल के लिए वोलिविया का उदाहरण लिया जा सकता है। इन दो शोधकर्ताओं का कहना है कि वोलिविया में योरोप की अपेक्षा भाषाओं की संख्या दोगुनी है लेकिन भाषाओं के इस भरे-पूरे संसार को स्पेनिश का दुर्दम्य विस्तार अपनी चपेट में ले रहा है। कुछ भाषाएं इस प्रक्रिया में उतनी ही बची हैं जितने उनके बोलने वाले। अपने इतिहास और विस्तार से वंचित होती ऐसी भाषाओं में उत्तारी आस्ट्रेलिया की एक भाषा मगाटा का नाम लिया जा सकता है। इस भाषा के अब बस तीन बोलनेवाले बचे हैं। पश्चिमी आस्ट्रेलिया की एक भाषा यावुरु के भी तीन ही नामलेवा इस दुनिया में शेष हैं और अमुरदाग नाम की भाषा को तो अब बस एक आदमी का सहारा है। उस एक आदमी के साथ यह भाषा भी दुनिया से विदा हो जाएगी। भाषाओं के मिटने की इस तेज रफ्तार को एक संकेत मानें तो इन शोधकर्ताओं का यह आकलन चाहे डरावना जितना हो लेकिन अतिशयोक्ति नहीं जान पड़ता कि इस सदी के समाप्त होते-होते दुनिया की 7 हजार भाषाओं में से आधी सदा के लिए खत्म हो जायेंगी और उनके खात्मे के साथ इन भाषाओं में निबध्द प्राकृतिक जगत का जतन से जुगाया हुआ सारा ज्ञान भी मिट जाएगा। प्रो. हैरिसन की चिंता है कि किसी भाषा के मरने पर सिर्फ भाषा नहीं मरती, वह सब भी मरता है जिसका संकेत और संरक्षण भाषा करते आयी है। हैरिसन की मानें तो - 'हम पारिस्थितिकी तंत्र अथवा जैव-प्रजातियों के बारे में जितना कुछ जानते हैं वह सारा का सारा लिखित नहीं है। मनुष्य के मस्तिष्क में ही उनका वजूद है और भाषा के मिटने के साथ वह ज्ञान मिट जाएगा। जैव-प्रजातियों का अस्सी फीसदी विज्ञान का जाना हुआ नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मनुष्य इन जैव-प्रजातियों से अनजान है। किसी खास पारिस्थितिकी तंत्र का मनुष्य उस तंत्र के जैव-प्रजातियों को बड़े करीब से जानता है और इन प्रजातियों के गुण-धार्म का वर्गीकरण भी वह अक्सर विज्ञान की तुलना में कहीं ज्यादा बारीकी से करके बरत रहा होता है। हम दरअसल भाषाओं को मिटने से न बचाकर सदियों से संरक्षित ज्ञान और आविष्कार को मिटा रहे हैं।' बोलिविया में इन भाषाविदों की पहचान कलावाया समुदाय के लोगों से हुई। यह समुदाय ईसापूर्व के दिनों से जड़ी-बूटियों का जानकार रहा है। रोजमर्रा के बरताव में कलावाया समुदाय क्वेचुआ भाषा का इस्तेमाल करता है लेकिन एक कूटभाषा इनकी और भी है। इस कूटभाषा में कलावाया समुदाय के लोगों ने ऐसे हजारों पौधों और उनके औषधीय प्रयोगों का ज्ञान निबध्द कर रखा है जो चिकित्सा विज्ञान के लिए अनजाने हैं। कलावाया समुदाय और उनकी भाषा की समाप्ति के साथ मानवता इस धान से भी वंचित हो जाएगी। इसी तरह माइक्रोनेशिया के बाशिंदों ने अपनी खास भाषा में नौवहन की जानकारी निबध्द की है और सदियों के जतन से सहेजी इस जानकारी का बेड़ा उस भाषा के मिटने के साथ गर्क हो जाएगा। इन शोधकर्ताओं ने विश्व के पांच ऐसे बड़े क्षेत्रों की पहचान की है जहां की भाषाओं को सबसे बड़ा खतरा है। ये वही क्षेत्र हैं जहां से लोग अब उजड़कर कहीं और जाकर बसने लगे हैं। इस उजाड़ के कारण आज की अर्थव्यवस्था में छुपे है। पिछले 500 वर्षों में टस्कन से तस्मानिया तक के भूगोल में विश्व की कुल भाषाओं में से आधी विलुप्त हो चुकी हैं। आज की तारीख में भाषाओं के विलुप्त होने की रफ्रतार कहीं ज्यादा तेज है। प्रो. हैरिसन की मानें तो आज विश्व में 500 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें 10 से भी कम लोग बोलते हैं। भाषाओं का मिटना खुद में कोई रोग नहीं है। वह एक लक्षण हो सकता है - किसी रुग्ण सभ्यता का। भाषाओं का मिटना समुदायों के मिटने का साक्ष्य है और समुदाय की समाप्ति सहज ही हमारे सामने एक अयाचित मगर उतना ही जरूरी यह सवाल पूछने को छोड़ जाती है कि क्या हमारी सभ्यता में ऐसा कुछ है जो अनिवार्य रूप से मनुष्य विरोधी है।

मध्य प्रदेश में लोकतंत्र को जिला-बदर - रपट - सुनील

भारत एक लोकतंत्र है। कई बार हम गर्व करते हैं कि जनसंख्या के हिसाब से यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। अपने पड़ोसियों की तुलना में भी हमने लोकतंत्र को बचाकर रखा है। लेकिन इस लोकतंत्र में आम लोगों की इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा चेतना को बाधिात करने व कुचलने की काफी गुंजाइश रखी गई है। ऐसा ही एक मामला मध्य प्रदेश के हरदा जिले में सामने आया है।
हरदा जिले के कलेक्टर ने इस जिले में आदिवासियों, दलितों और गरीब तबकों को संगठित करने का काम कर रहे एक दंपति को जिला बदर करने का नोटिस दिया है। समाजवादी जन परिषद् से जुड़े शमीम मोदी और अनुराग मोदी पर आरोप लगाया गया है कि वे बार-बार बिना सरकारी अनुमति के बैठकों, रैली, धरना आदि का आयोजन करते हैं तथा आदिवासियों को जंगल काटने और वनभूमि पर अतिक्रमण करने के लिए भड़काते हैं। वे परचे छपवाते हैं और जबरन चंदा करते हैं। मध्य प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम 1990 की धारा 5(ख) के तहत एक वर्ष की अवधि के लिए हरदा एवं निकटवर्ती जिलों होशंगाबाद, सीहोर, देवास, खंडवा तथा बैतूल से जिला बदर करने का नोटिस उन्हें दिया गया है। इस नोटिस से ऐसा प्रतीत होता है कि शमीम और अनुराग मानो कोई खतरनाक गुण्डों और अपराधी गिरोह के सरगना हैं। लेकिन इकहरे बदन वाले दुबले-पतले मोदी दंपत्ति से हरदा की सड़कों पर टकराएं, तो दूसरी ही धारणा बनती है। ''वे लोग गुण्डागर्दी तो क्या करेंगे, लेकिन पिछले कई सालों से सरकारी तंत्रा के गुण्डाराज से जरूर टकरा रहे हैं।'' बरगी बांध के विस्थापितों के संघर्ष में साथ देने के बाद पिछले दस वर्षों से वे बैतूल, हरदा और खण्डवा जिलों में आदिवासी तथा गरीब तबकों के साथ हो रहे अन्याय, अत्याचार व शोषण के खिलाफ उन्हें संगठित करने का काम कर रहे हैं। मूल रूप से हरदा के ही निवासी अनुराग शिक्षा से इंजीनियर है। शमीम ने मुंबई की प्रतिष्ठित टाटा इंस्टिटयूट ऑफ सोशल साइंसेज से शिक्षा प्राप्त की है। दोनों अपनी नौकरी को लात मारकर इस कठिन कार्य में आ कूदे हैं। इस कार्य के लिए उन्हें प्रतिष्ठा और मान्यता भी मिली है। आदिवासी वन अधिकार कानून के विषय में बनी संयुक्त संसदीय समिति और योजना आयोग ने समय-समय पर उन्हें आमंत्रित किया है। आज उन्हीं को हरदा जिला प्रशासन समाज-विरोधी तत्व तथा अपराधी गिरोह का सरगना बताकर जिला बदर करने को तुला है। इससे स्वयं मध्य प्रदेश सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा हो गया है। शमीम व अनुराग ने आज तक किसी को गाली भी नहीं दी है, मारना या मारने की धमकी देना तो दूर की बात है। उनका हर आंदोलन अनुशासित और शांतिपूर्ण होता है।

दरअसल, देश के आदिवासी इलाकों में विवाद का मुद्दा उस भूमि का है जिस पर वन नहीं हैं, आदिवासी खेती कर रहे हैं, किंतु सरकारी रिकार्ड में वह 'वनभूमि' के रूप में दर्ज है। इस कारण बड़ी संख्या में आदिवासी अपनी भूमि के जायज हक की मान्यता से वंचित हैं, अतिक्रमणकर्ता कहलाते हैं और उन पर अत्याचार होते हैं। इस ऐतिहासिक अन्याय को दुरुस्त करने के लिए पिछले वर्ष संसद में एक कानून भी बनाया गया, हालांकि इस कानून में अनेक खामियां रह गई हैं। आदिवासियों के इसी हक को मान्यता दिलाने तथा कानून की खामियों को दुरुस्त करने के लिए देश भर के जनसंगठनों ने अभियान चलाया था। किंतु हरदा जिले में यही अभियान 'जुर्म' बन गया। इसी के परचों, बुलेटिनों, बैठकों और सभाओं को जिला प्रशासन ने जिला बदर की कार्रवाई का आधार बनाया है।

66भारत की संसद जिस हक को कानूनी मान्यता देती है, उसे भारत के एक जिले का कलेक्टर 'गुनाह' बना देता है।'' विडम्बना यह है कि इसी वर्ष मध्य प्रदेश सरकार ने 1857 के विद्रोह में आदिवासियों के योगदान को याद किया, टण्टया भील और बिरसा मुण्डा के नाम से जिले-जिले में समारोह किये। ''अपने समय में अंग्रेज सरकार की निगाह में टण्टया भील भी 'लुटेरा' और 'डाकू' था। आज आदिवासी हक के लिए संघर्ष करने वाले भी 'समाज-विरोधी' तथा 'अपराधी' है। ऐसा लगता है कि डेढ़ सौ सालों में कुछ भी नहीं बदला है।'' जिस कानून में शमीम-अनुराग को जिला बदर करने का नोटिस दिया है, वह आमतौर पर शातिर अपराधियों, खूंखार गिरोहों, सटोरियों, जुआरियों, वैश्यावृत्ति का अड्डा चलाने वालों आदि के विरुध्द इस्तेमाल किया जाता है। उनकी श्रेणी में राजनैतिक कार्यकर्ताओं को रखकर जिला प्रशासन ने इस कानून का दुरुपयोग किया है। इसके पहले मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के जागृत आदिवासी दलित संगठन के आदिवासी नेता श्री वाल सिंह तथा सतना के मजदूर नेता एवं पूर्व विधायक विशंभर नाथ पाण्डे के विरुध्द भी इसी तरह की कार्रवाइयां की गई हैं। हाल ही में, छत्तीसगढ़ के एक अन्य कानून में श्रमिक नेता शहीद शंकर गुहा नियोगी के पूर्व सहयोगी, चिकित्सक और समाजसेवी डा. विनायक सेन को गिरफ्तार करके जेल में रखा गया है। स्पष्ट है कि इस प्रकार के कानूनों के मनमाने दुरुपयोग की काफी संभावनाएं छोड़ी गई हैं।

मध्य प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम, 1990 में भी सबसे बड़ा दोष है कि किसी व्यक्ति के खिलाफ यह कानून इसलिए नहीं लगाया जाता है कि उसने कोई जुर्म किया है। बल्कि इसलिए कि जिला मजिस्ट्रेट 'इस बात से संतुष्ट हैं' या उसे 'ऐसा प्रतीत होता है' कि वह व्यक्ति कोई अपराध करने वाला है या उसे प्रेरित करने वाला है या करने के लिए आमादा है या वह फन: अपराध करेगा। इस कानून की धारा 5 का इस्तेमाल तो उन व्यक्तियों के खिलाफ भी किया जा सकता है, जिन्होंने पहले कोई जुर्म नहीं किया हो। धारा 16 के तहत स्वयं को निर्दोष साबित करने का भार भी आरोपी पर ही डाल दिया गया है। यह भारतीय न्याय व्यवस्था के आम सिध्दांत के विपरीत है, जिसमें व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक उसके खिलाफ आरोप साबित न हो जाए। धारा 19 में कहा गया है कि राज्य सरकार को या उसके अफसरों को अपनी जानकारी का स्रोत बताने के लिए बाधय नहीं किया जा सकता। इसका मतलब है कि सरकारी अफसर बिल्कुल काल्पनिक, हवाई या मनगढ़ंत आरोप भी लगा सकते हैं और इस धारा की शरण ले सकते हैं। इस कानून का दुरुपयोग करने वाले अफसरों को धारा 33 ने भी अभयदान दे रखा है। इस धारा में प्रावधान है कि इस कानून के तहत अच्छे इरादे से की गई किसी भी कार्रवाई के लिए किसी भी अफसर के खिलाफ कोई दावा या अभियोग या मुकदमा नहीं चलाया जा सकेगा और न ही कोई हर्जाना मांगा जा सकेगा। इस कानून के तहत अधिकारियों को आरोपी व्यक्ति के खिलाफ कोई गवाह या सबूत पेश करने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि यह माना जा रहा है कि उस व्यक्ति ने गवाहों को भी डरा रखा है। इस कानून का सबसे बड़ा दोष यह है कि सारी कार्रवाइयां जिला मजिस्ट्रेट के हाथ में हैं, तथा पूरा प्रकरण न्यायालय में पेश करने की जरूरत नहीं है। भारतीय संविधान में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच स्पष्ट विभाजन किया गया है।

इस तरह के कानून न्याय का काम न्यायपालिका से छीनकर कार्यपालिका को देते हैं और इस मायने में यह कानून संविधान की भावना के खिलाफ है। संविधान में भारत के हर नागरिक को भारत के किसी भी हिस्से में घूमने, रहने तथा अभिव्यक्ति का अधिकार मिला है, यह कानून उसका भी हनन करता है। हाल ही में, 25 जून को भारतीय जनता पार्टी ने आपातकाल की बरसी मनाई और लगभग उसी समय मध्य प्रदेश में उनकी सरकार शमीम-अनुराग दंपत्ति को जिला-बदर का नोटिस देने की तैयारी कर रही थी। यदि इस प्रवृत्ति को नहीं रोका गया, तो देश में पिछले दरवाजे से तानाशाही आते देर नहीं लगेगी। कहीं ऐसा न हो कि गरीबों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ताओं को जिला-बदर करते-करते लोकतंत्र का ही देश-निकाला हो जाए।

कोला कम्पनियों का नया मंत्र: छीनो-झपटो और आगे बढ़ो - डा. कृष्ण स्वरूप आनन्दी

''एक काम जो मुझे कर देना चाहिये था वह यह कि मुझे भारत में तीन साल पहले आना चाहिये था और कहना चाहिये था; 'ये उत्पाद दुनिया के सबसे सुरक्षित उत्पाद है, कुछ भी हो, आपका ........' पेप्सी को की सीइओ इन्दिरा नुई ने यें बाते अमरीका की बिजिनेस बीक पत्रिका से एक इन्टरवियू के दौरान कही।
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यह उदाहरण है गुलाम मस्तिष्क की विमुखी अवस्था की मालिक भारत में पैदा हुई अब हाउस्टन की नागरिक इन्दिरा नुई का। एक अमरीकन कम्पनी के हितों की रक्षा करने का काम करने वाली, इन्दिरा नुई ने अपने वक्तव्य में न केवल विज्ञान को झिड़क दिया बल्कि भारतीय विज्ञान प्रयोगशालाओं की विश्वसनीयता, भरोसा और प्रमाणिकता पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया।
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'कोला में कीटनाशक' के विवाद के पूर्व उच्चतम न्यायालय ने 2 दिसम्बर 2002 को पेप्सी कोला कम्पनी की हिमालय पर्वत की चट्टानों पर पेंट से विज्ञापन लिखने के कारण हो रहे पर्यावराीय नुकसान के लिए खिंचाई की थी। उसके बाद, दुनिया भर में कम्पनी की इस बात के लिये भारी निन्दा हुई कि भारत में इसके कारखाने भूजल का भारी दोहन कर रहे हैं। उस समय इन्दिरा नूई पेप्सी कोला कम्पनी की मुख्य वित्ता अधिकारी हुआ करती थी।

-- पेप्सीको इण्डिया होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड ने भारत सरकार से कह है कि 1997 के उस कानून को रद्द किया जाय जिसके मुताबिक कम्पनी द्वारा भारत में अधिग्रहित किये गये स्थानीय बाटलिंग प्लांटो की 49 प्रतिशत अंशधारिता भारतीय निवेशकों को देने की अनिवार्य शर्त है। कम्पनी ने इस नियम को समाप्त करने के लिये तर्क दिया है कि अब चुकि देश में खाद्यान्न प्रसंस्करण इकाइयों में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष पूंजी निवेश की इजाजत है इसलिये इस नियम की कोई आवश्यकता नहीं है।
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--9 जून, 2007
- पेप्सी इंटरनेशनल ने कहा कि कम्पनी रसियन शहर अजोव में खाद्यान्न प्रसंस्करण की ईकाई लगायेगी जिसमें अगले 5 वर्षो में 17 करोड़ डालर निवेश किया जायेगा।
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-18 जून, 2007
-'कोला में कीटनाशक' विवाद की प्रष्ठभूमि में पेप्सी कोला कम्पनी ने निर्णय लिया कि यह अपने उत्पादों पर 'विश्वभर में एक जैसी गुणवत्ता' की मोहर गुणवत्ता प्रर्दशित करने के लिये लगायेगी। यह मोहर कार्बोनेट्ड ड्रिंक्स, फ्लैवर्स, स्पोर्ट्स ड्रिंक्स, एक्वाफीना, स्नैक्स फूड्स सभी पर लगायी जायेगी। 'पेप्सी कोला के' उत्पादो को छोड़ चुके उपभोक्ताओं का विश्वास जीतने की पेप्सी कोला कम्पनी की एक और तिकड़म है। कीटनाशक विवाद के बाद से कम्पनी लगातार विरोध अभियान चला रही है, मीडिया में विज्ञापन दे रही है। एक विज्ञापन मे तो कम्पनी के भारत के चेयरमैन, राजीव बक्शी स्वयं कम्पनी के उत्पादों को सुरक्षित बताते दिखायी पड़ रहे हैं।
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- सिंगापुर और अमरीका के 'रे लांउज अनुभव' से संकेत लेते हुए, कोकाकोला कम्पनी अब केवल फुटकर विक्रताओं को बोतलों की डिलीवरी नहीं करेगी बल्कि सीधे उपभोक्ताओं के बीच में पहुंचेगी और विश्राम स्थलों पर बड़े स्क्रीन पर टीवी देखने की सुविधा, विडियो गेम्स खेलने और नेट सर्फिंग करने की सुविधा देगी जिससे युवा आर्कर्षित हो सके और इसकी बोतलों को खरीद कर पियें।
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-27 जून, 2007
- कोका कोला इण्डिया ने जैन इरिगेशन सिस्टम्स को 84 करोड़ रुपये का ठेका आम का जूस सप्लाई करने के लिये दिया। यह जूस माजा बनाने में इस्तेमाल किया जायेगा। जैन इरिगेशन सिस्टम ने अभी हाल में ही इजरायली कम्पनी-नीआंदन का अधिग्रहण किया है।
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-1 जुलाई, 2007
- पेप्सी कोला की चेयरमैन इन्दिरा नुई, जो स्वयं विलयन और अधिग्रहण में माहिर हैं, ने अपनी कम्पनी के भारतीय अधिकरियों को नया मंत्र दिया ''छीनो-झपटो और आगे बढ़ो''।
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चुंकि कम्पनी विश्व स्तर पर प्रतिवर्ष 5 अरब डालर का शुध्द सरप्लस धन पैदा करती है, इसलिये कम्पनी द्वारा किसी भी प्रकार के अधिग्रहणों पर कोई रोक नहीं है। उन्होने अपनी भारतीय टीम को कहा कि भारत में दूध आधारित पेय, फल जूस बनाने वाली स्थानीय इकाइयों का अधिग्रहण करें। उनके द्वारा पेप्सी कम्पनी का विश्वभर में काफी विस्तार किया गया है। पेप्सी कोला ने 13.8 अरब डालर में क्वेकर ओट्स और 'ट्रोपिकन जूस' कम्पनियों का अधिग्रहण किया है।
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-2 जुलाई, 2007
-'कोक डेवलप्स थ्रस्ट फार सस्टेनेबिलिटी' नामक कहानी में जैनी विगिन्स लिखती है- ''कोक विरोधी बेव साइटे दावा करती है कि विश्व के विशाल साफ्ट ड्रिंक्स समूहों का बिजिनेस माडल गंदगी, प्रदूषण, सदेहास्पद पोषण फैलाने वाला है''।........... डच मैनेजमैंट स्कूल व्लेरिक लोवान घंट ने कोक यूरोप पर मार्च मे सर्वे करते हुए पाया कि 40 प्रतिशत से ज्यादा लोग मानते है कि साफ्ट ड्रिंक्स कम्पनियाँ समाज में सकारात्मक योगदान नहीं दे रही''

वो सुबह अभी तो नहीं आयेगी - प्रो. अरुण कुमार

नेहरू के ''नियती से मिलन'' नारे ने आशा जगाई की भारत नई चुनौतियों से मुकाबला करने के लिये जाग उठेगा। 60 वर्ष पूर्व उस ऐतिहासिक दिन के बाद से भारत ने काफी भौतिक उन्नति तो की है परंतु स्वतंत्रता संग्राम के कुछ अन्य लक्ष्य और भी थे। अनगिणत लोगो ने अपना 'आज' हमारे 'कल' के लिये कुर्बान कर दिया था। क्या वह सुंदर कल हमें मिला, क्या वह दृष्टि अलग नहीं थी उस दृष्टि से, जिसके लिये हमने काम किया। संदेह होता है क्योंकि भयंकर गरीबी, अक्षिक्षा और गंदगी एवं बिमारियाँ भारी कीमत वसूल रही हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि हमारे सामने पश्चिम का अनुसरण करने के अलावा और कोई भी दृष्टि नहीं रह गयी है और इस प्रक्रिया में हमने ये दोनो बदत्तार चीजें हीं हासिल की है।
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भौतिक दृष्टि से केवल 3 प्रतिशत आबादी तो ठीक-ठाक है बाकी के लोग निचले पायदान पर झूल रहे हैं। हम खुशी मनाते हैं कि हमारे यहां जापान से ज्यादा अरबपति हैं परंतु प्रति व्यक्ति आमदनी के हिसाब से दुनिया के 177 देशों में सबसे नीचे के 20 देशों में हमारा नंबर है। यह भयानक गैर बराबरी के अलावा कुछ नहीं दर्शाता। गरीबी रेखा के नीचे सबसे बड़ी आबादी, किसान आत्महत्याएं, विशाल शहरी झुग्गी बस्तियां, शहरों के चारो तरफ सार्वजनिक पैखाना बने विशाल मैदान, आधुनिक टैक्नोलॉजी को समझने में नाकामयाब तथाकथित शिक्षित, ये सब तथ्य बताते हैं कि एक राष्ट्र के रूप में हमें नई सुबह का अभी इंतजार है।
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1958 में बनी फिल्म ''फिर सुबह होगी'' में मुकेश का दर्द भरा गीत ''वो सूबह कभी तो आयेगी'' में 50-60 के दशक में आम भारतीय के सपने का सारांश झलखता है। हम जैसे बच्चो के मन में यह विचार बैठ गया था हम अपने देश वासियों के लिये एक बेहतर भविष्य बनायेगें और शायद एक नई सभ्यता गढ़ेगें जो पश्चिम से भी आगे निकल जायेगी। लेकिन स्वतंत्रता के 60 वर्ष बाद इस सपने का चिथरा भी उन लोगो के कूड़े दान में नहीं बचा है जो सत्ताा में बैठे हैं और देश की नियती तय कर रहे है वह सपना 9 प्रतिशत आर्थिक वृध्दि हासिल करने के नारे के तुफान में उड़ चुका है।
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यह गाना केवल गरीबी, भूख, बीमारी और अशिक्षा हटाने के बारे में ही नहीं है बल्कि एक भिन्न समाज-शांतिपुर्ण समाज, जहां प्रत्येक सम्मान के साथ जी सके- को बनाने के सपने के बारे में भी है। इस गाने में उस नई सुबह को ''जब अम्बर झूम कर नाचेगा, जब धरती नगमें गायेगी'' कहकर परिभाषित किया गया। आज निम्न स्तर के प्रतिव्यक्ति उपभोग के साथ भयानक रूप से गंदी हवा, पानी और मिट्टी नांच गा नहीं रही है बल्कि रो रही है। परम् पूजनीय गंगा और गोदावरी भयानक रूप से प्रदूषित हैं, उनकी तलहटी में जहरीले तत्वो का भयानक जमाव हो गया है जो आने वाली पीढ़ियों को प्रभावित करेगा। अब पवित्र, पवित्र नहीं रहा है।
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गाना आगे चलता है ''जब दु:ख के बादल पिघलेंगें, इंसानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तो ली जायेगी'', ''माना कि अभी तेरे-मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं हैं''। लेकिन एक विश्वास था कि एक दिन यह बदलेगा। विशाल सीमांत आबदी के लिये दुख तो रोज का और कभी खत्म नहीं होने वाला मामला बन गया है। निठारी में उनके दर्जनों बच्चे गायब हो जाते हैं और कुछ भी नहीं होता। शायद एकमात्र पलायन का रास्ता है जो बालीवुड उन्हें उपलब्ध करता है- सेक्स और हिंसा का। सरकार नाममात्र की मदद पहुँचाती है। गरीबो की इज्जत पैसे के सामने गिरवी रख दी जाती है क्योंकि बेरोजगारी ऊँची है और युवाओं को अपनी इच्छाओं को पुरी करने के लिए अपराध करने पड़ते हैं। वंचितों के सपनों का उन शासकों के लिए कोई अर्थ नहीं है जो अपने स्वार्थ में अंधे होकर उन वंचितों में अपनी अमीरी के संकीर्ण सपनो को पूरा करने का एक साधन ढूंढते हैं जैसे गरीब विस्थापित झुग्गी वासियों के लिए निर्धारित की गई जमीनों को हड़प कर जाना।
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आज श्रम का अवमूल्यन है, जबकी सट्टेबाजी और लालच ऊँचे पायदान पर बैठे हैं। कार्पोरेट सैक्टर से जुड़ी हुई देश की केवल 1 प्रतिशत आबादी उस 60 प्रतिशत आबादी से ज्यादा कमाती है जो कृषि पर निर्भर है। पिछले छ: वर्षें में पिछले 54 वर्षो के मुकाबले विषमताएँ तेजी से बढ़ी है। नौजवानों को साबुन बेचने के लिए प्रोत्साहित् किया जा रहा है, अध्यापन और शोध के द्वारा राष्ट्र निर्माण में योगदान के लिए नहीं। त्याग को मूर्खता मान लिया गया है। जिसके कारण स्वतन्त्रता सेनानियों के सम्पूर्ण प्रयत्न बेकार हो गए। उनमें से जो जीवित हैं वे दुखी मन से पूछते हैं कि क्या यह वहीं है जिसके लिए वे लड़े थे।
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देश के 3 प्रतिशत शासक अभिजात वर्ग के लोग अंतराष्ट्रीय अभिजात वर्गों से जुड़ना चाहते हैं, अपने बच्चों को बाहर पढ़ाई के लिए भेजना चाहते हैं, छुट्टियाँ मनाने, मौज मस्ती करने के लिए बाहर जाना चाहते है या इलाज कराने के लिए विदेशी अस्पतालों में जाना चाहते हैं। छपरा में एक स्कूल या घुंघरावाली में एक डिस्पेन्सरी का उनके लिए कोई मतलब नहीं है परन्तु दिल्ली में चौबीस घंटे बिजली और पानी होना चाहिए। यह विकास है। राष्ट्र के साथ भावनात्मक लगाव काफूर हो चुका है। भ्रष्टाचार चारो तरफ फैला है, निजी और सार्वजनिक क्षेत्र दोनो में। विधायिका, न्यायपालिका और नौकरशाही की संस्थाएँ टूट रही हैं। अभिजात्य विधिविरूध्द हो गए हैं जो प्रत्येक कानून को तोड़ते- ट्रेफिक कानूनों से लेकर बिल्डिंग कानूनों, औद्योगिक कानूनों और पर्यावरण कानूनो तक। ज्यादातर अमीरों ने गैर कानूनी तरीकों से धन कमाया है। राजनितिक नेता ऐशोआराम की जिन्दगी जी रहे हैं। उन्हें किसी भी रूप में लोगों का प्रतिनिधी नहीं कहा जा सकता। लोकतंत्र एक महान व्यवस्था है परन्तु भारत में इसे क्षुद्र स्वार्थ पूर्ती की कला में तब्दील कर दिया गया है। हमारे नेतृत्व के दिवालिएपन के कारण पहले तो 80 के दशक में हमने स्वतन्त्र विकास के विचार को तिलान्जली दे दी और फिर 90 के दशक में अन्त्योदय के विचार को।
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गाँधी जो अपना सबकुछ त्याग चुके थे से लेकर वर्तमान नेताओं तक जो अपना कुछ भी त्यागने को तैयार नहीं है, स्वैच्छिक गरीबी के विचार से लेकर अब समाज को हांकने वाले लालच के नारे तक, समाज और राष्ट्र से लेकर स्वयं तक, सभी के लिये राष्ट्रीय दृष्टि से कुछ के लिये स्वार्थ दृष्टि तक हमारी संक्रमण यात्रा हो चुकी है। मुकेश के गाने ''मिट्टी का भी कुछ मोल मगर इन्सानों की कीमत कुछ भी नहीं'' की विपरीत दिशा में हम जा रहे हैं। किसानों की आत्महत्याऐं बढ़ती जा रही है और उनके लिये घोषित पैकेज असरहीन है।
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गांधी की भूमि बनिया भूमि में बदल गयी है (ऐसा नहीं कि वो बनिया नही थे) और इसका सारा श्रेय उन सभी पार्टियों को जाता है जो गांधी ने बनायी। चालाक तो शर्मिंदा हुए बिना तर्क करेंगें कि गांधी होते तो वे भी आज ऐसा ही करते। क्या वे सोंचेंगे कि जो आदमी सादगी, त्याग और सच्चाई का पक्षधर है न कि दिखावा, अर्धसत्य और उपभोक्तावाद का वह इस विचार को सुनकर पीला पड़ जायेगा?
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हमारे समाज की बीमारियों के पीछे सामाजिक कारण है इस विचार को मानने से लेकर हमारे समाज की दुविधाओं के पीछे व्यक्ति है के विचार को मानने तक एक लम्बी यात्रा हम कर चुके हैं। अब प्रत्येक व्यक्ति को जो कुछ उसे चाहिये वह लेने के लिये उसे बस बाजार जाना पड़ता है। सरकार अब गरीबी उनमूलन के लिए जिम्मेदार नहीं है।
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राष्ट्र सपनों से बनते है परन्तु हमने इस सपने को धन कमाने के सकींर्ण रूप में बदल दिया है। इसलिये हम कैसे नेहरू के 'मिलन' का वो महान देश बना सकते है या वो देश जिसे मुकेश ने अपने गीत में गाया ''जिस सुबह की खातिर युग-युग से हम सब मर मर के जीते आये हैं''। गाँधी का एक सपना था जिसे उन्हीं की बनायी पार्टी ने ध्वस्त कर दिया। गांधी शायद आने वाले समय को देख चुके थे इसलिये उन्होने उस पार्टी से अपने आप को भंग करने के लिये कहा जिससे यह स्वांग न रचा जा सके। वे चाहते थे कि राष्ट्रपति भवन को एक अस्पताल में बदल दिया जाय, केवल इसलिये नहीं कि यह एक अच्छा चलने वाला अस्पताल होगा बल्कि इसलिये कि इससे सैकड़ों नये सपने जन्म लेंगे और हमारे स्वतन्त्रता सेनानी साम्राज्यी सांचे में ढले शासक नही बन पायेंगें। इस तरह 60 साल बाद आज भी हम 9 प्रतिशत विकास वृध्दि के नारे के बीच उस नयी सुबह का इन्तजार कर रहे हैं। मुकेश को अब गाना पड़ेगा ''वो सुबह अभी तो नहीं आयेगी''

झमेला : एक-दो रुपये का

छोटे दुकानदार जिनकी दुकानदारी में खुले पैसों का बडा महत्व है, चूंकि उनकी छोटी दुकानदारी में छोटी-छोटी लेन देन के लिए छोटी मुद्रा की बडी भूमिका होती है। साथ ही छोटे खरीददार यानि जो अपनी मूलभूत आवश्यकता का सामान रोजाना खरीदते है, उनके लिए इन एक-दो रूपयों का बड़ा महत्व होता है। इन छोटे-छोटे पैसों के चक्कर में या तो दुकानदार छोटा सामान नहीं बेचे यदि उसे बेचना है तो एक-दो रूपये के खुले नोट अपने पास रखने होगें। दूसरी तरफ छोटा खरीददार या तो कम से कम 5 रूपये का सामान खरीदे या फिर अपने पास एक या दो रूपये के खुले सिक्के अपने पास रखे, जो उसके पास होते नहीं है।
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यदि इसके परिणामों पर गौर करें तो दो बातें साफ तौर पर निकलकर आती है पहली यह कि उपभोक्ता की क्रय क्षमता जो ना होते हुए भी बढेगी। क्योंकि जब एक-दो रूपये का सामान खरीदने के लिए ना तो खुले पैसे खरीददार के पास होंगे और ना ही दुकानदार के पास। तो स्वाभाविक है कि कम से कम उसे पांच रूपये का सामान खरीदना पडेगा। दूसरी छोटे दुकानदार जो गली -मौहल्लों में होते है जब इनके पास खुले पैसे नहीं होगे, तो वह 100 रूपये के बदले 85-90 रूपये के सिक्के यानि मुद्रा के बदले मुद्रा खरीदेगा। अर्थात 100 रूपये का सामान बेचने पर उसे 10-15 रूपये की हानि भुगतनी होगी। इस हानि की भरपाई के लिए वह छोटा दुकानदार सामान को मंहगा बेचना चाहेगा। लेकिन इस प्रतियोगिता वाले बाजार में वस्तु की कीमत छुपी हुई नहीं है अत: उपभोक्ता निश्चित रूप से जहाँ पर सामान सस्ता मिलेगा वहाँ से खरीदेगा। भले ही उसे क्षमता से अधिक सामान क्यों ना खरीदना पडे लेकिन मंहगा सामान कदापि नहीं खरीदेगा। इससे जाहिर है कि छोटे दुकानदार खत्म होगें और खरीददार की अस्वाभाविक क्रय क्षमता बढेगी।
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भौतिकवादी बाजार चाहता भी यही है कि उसका उपभोक्ता उपभोक्तावादी बने। बाजार उपभोक्ता की क्रय क्षमता बढाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाता रहता है। कभी एक वस्तु खरीदने पर एक फ्री तो कभी कुछ प्रतिशत एक्स्ट्रा । इन सब प्रलोभनों में फंस कर उपभोक्ता गैर जरूरी चीजें और आवश्यकता से अधिक सामान खरीद लेता है। इससे गैर आवश्यक वस्तुओं का उपभोग करने की आदत बन जाती है। जिस प्रकार हमें चाय पीने की आदत बाजार ने मुफ्त में डाली थी। बाद में आदत पडने पर कीमतें आपके सामने है। फसल का उत्पादन बढाने के लिए रासायनिक खाद भी मुफ्त में बांटे थे लेकिन आज चूंकि जमीन उस खाद की आदी हो गई है तो कीमतें आसमान छू रही है। अत: उपभोक्ता उपभोक्तावादी संस्कश्ति में जीने का आदी हो जाता है।
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बड़े बाजार की इच्छाएं भी बडी होती है, वह अधिक लाभ के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग को अपना उपभोक्ता बनाना चाहता है। लेकिन निम्न-मध्यम वर्ग को लक्षित करने में छोटे दुकानदार बीच में रोडे अटकाते हैं। अत: डार्विन के सिध्दान्तानुसार जब तक छोटे दुकानदार खत्म नहीं होगे, तब तक निम्न-मध्यम वर्ग को बडे बाजार का उपभोक्ता बनाना मुश्किल है। बाजार का मूल उद्देश्य कि कैसे निम्न-मध्यम वर्ग का पैसा बाजार में आये, इसके लिए मुद्रा का अवमूल्यन मुद्रा की अपेक्षा उपभोक्ता की क्रय क्षमता को बढा कर किया जाता है। यह बाजार का नया हथियार नहीं है, क्योंकि 5 पैसे, 10 पैसे, 20 पैसे 25 पैसे, 50 पैसे के सिक्के भारतीय मुद्रा है लेकिन इनका प्रचलन धीरे-धीरे खत्म हो गया है और लोगों ने इसे अंगीकार भी कर लिया कि 25 पैसे, 50 पैसे का बनता क्या है। वस्तुएं अभी भी 25 पैसे और 50 पैसे की कीमत की होती है लेकिन चूंकि ये सिक्के प्रचलन में नहीं है तो सीधे रूपयों में खरीदना मजबूरी हो गई। इसी प्रकार इस कामयाब हथियार का प्रयोग दुबारा से किया जा रहा है, जिसका लक्ष्य है निम्न-मध्यम वर्ग के पैसे को बाजार में लाना, घरेलू बाजार को खत्म करना और उपभोक्तावादी सभ्यता में निम्न वर्ग को ढालना।
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बात वही एक-दो रूपये पर आकर ठहर जाती है कि किसी के लिए एक-दो रूपये की कोई कीमत नहीं है लेकिन एक बहुत बडा वर्ग ऐसा है जिसका एक-दो रूपये के झमेले में पूरे महिने का हिसाब बिगड जाता है। और कितने ही परिवारों का रोजगार भी संकट में पड़ सकता है। यदि छोटे घरेलू बाजार खत्म हो गये तो हमारे पास एक ही विकल्प बचेगा वह है अंतर्राष्ट्रीय या बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित सुपर मार्केट, वाल मार्ट, बिग बाजार आदि।
दिनेष शर्मा, मत्स्य मेवात षिक्षा एवं विकास संस्थान - 2/519, अरावली विहार, अलवर (राजस्थान)

विकसित विश्व: आर्थिक लोकतंत्र का विरोधी - मार्टिन खोर

मुद्रा कोष: विकसित देशों का वायसराय
(विकसित देश यूं तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था के पक्षधर नजर आते हैं। परंतु अपनी स्वार्थ सिध्दि हेतु वे किसी भी विश्व आर्थिक संस्थान को प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं लाना चाहते। पिछले दिनों विश्व बैंक एवं अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के उच्चतम पदों पर होने वाली संभावित नियुक्तियों ने पूरी प्रक्रिया को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। चयन की इस अलोकतंत्रीय प्रक्रिया को उजागर करता संक्षिप्त आलेख। का.स.)
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पिछले कुछ हफ्तों के दौरान हम सभी दुनिया की दो सबसे शक्तिशाली संस्थाओ, विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ.) के नेतुत्व परिवर्तन प्रक्रिया के साक्षी रहे हैं। परंतु इससे कोई अच्छा संदेश नहीं गया अपितु यह सिध्द हो गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप जैसी महाशक्तियां मुख्य पदों को बजाय योग्यता के नागरिकता के आधार पर अपने राष्ट्रों के अंतर्गत हथियाएं रखने पर आमादा हैं।
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'प्रजातंत्र' के नाम पर चीख-पुकार मचाने वाली ये पश्चिमी ताकतें इस बात का आग्रह तो करती हैं कि तीसरे विश्व की सरकारें और संस्थान तब तक प्रजातांत्रिक प्रक्रिया, जिसमें चुनाव भी शामिल हैं का पालन नहीें किया गया हो। ये बात खासकर एक राष्ट्रपति (अध्यक्ष) या सरकार द्वारा सत्ता के हस्तांतरण से संबंधित हो तो अनिवार्य मान ली जाती है।
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पर जब बात अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों और संबंधों की आती है तो लगता है कि प्रजातंत्र ठहर सा गया है। इन पर पश्चिमी शक्तियों का वर्चस्व है और वे उसे बनाए भी रखना चाहती हैं। अमेरिका और यूरोपियन देशों का अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के संचालक मंडल में बहुमत है और इसी के माध्यम से ये आपस में गठजोड़ करके अपनी पसंदीदा नीतियों को चलाए रखते हैं। दशकों पहले इनके बीच यह गठजोड़ करके अपनी पसंदीदा नीतियों को चलाए रखते हैं। दशकों पहले इनके बीच यह गठजोड़ हो गया था कि विश्व बैंक का अध्यक्ष अमेरिकन होगा और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रबंध निदेशक यूरोपीय। तब से यह क्रम चला आ रहा है।
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अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अंतर्गत कार्यरत विकासशील देशों के अधिकारियों ने इस बात की ओर इशारा किया है कि वे अपने उम्मीदवार को सामने लाने के इच्छुक हैं। परंतु उन्होंने किसी के भी नाम की घोषणा नहीं की है। कोष में यूरोपीय देशों और अमेरिका के कुल 53 प्रतिशत मत हैं अतएव यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि यूरोपीय उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित है।

मुद्दे-स्तम्भकार