कंपनी के चंगुल में फँसता किसान

कांट्रैक्ट खेती की बात करें तो केन्द्र सरकार ने पहले ही अपनी कृषि नीति में कांट्रैक्ट खेती को जोड़ लिया है। उत्तर प्रदेश देश का 13वॉ ऐसा है जिसने कांट्रैक्ट खेती को मंजूरी दे दी है इसके साथ ही राज्य सरकार ने नई कृषि उत्पाद, विपणन-विकास, विनियमन और अवस्थापना एवं निवेश नीति घोषित कर दी है। निजी क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों के लिए कृषि के दरवाजे भी खुल गए हैं। राज्य सरकार ने कृषि उत्पादन मंडी अधिनियम-1964 तथा कृषि उत्पादन मंडी नियमावली-1965 में संशोधन करके नए प्रावधान कर दिए हैं, जिससे राज्य में अनुबंध खेती का रास्ता साफ हो गया।
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राज्य सरकार ने कहा है कि देश में पहली बार उत्तर प्रदेश में 12 करोड़ किसानों के हित में इतना बड़ा प्रयोग किया गया है और इससे किसानों को जहाँ बिचौलियों के शोषण से मुक्ति मिलेगी, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में अभूतपूर्व पूंजी निवेश तथा बेरोजगारी दूर करने के नए रास्ते खुलेंगे। किसानों को उनकी उपज के बेहतर दाम तो मिलेंगे ही, उपभोक्ताओं को भी प्रतिस्पर्धा के कारण कम दामों पर अच्छा सामान मिल सकेगा।
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मैं सरकार से पूछना चाहता हूँ कि किसान और आम नागरिक के बीच में ये ठेला वाले, रेहड़ी वाले, थोक विक्रेता वाले बिचौलियें हैं तो ये बहुराष्ट्रीय कम्पनी वाले कौन हैं ये भी तो बिचौलियों का ही काम करने आये हैं। सरकार को सोचना चाहिए कि आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आ जाने से करोड़ों लोग बेरोजगार हो जायेंगें खासकर गरीब तबके के लोग भुखमरी के चपेट में आ जायेंगे। देशी हो या विदेशी ये सारी कम्पनियाँ केवल मुनाफा कमाना जानती हैं। ऐसा लगता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हम लोगों को आर्थिक गुलामी की ओर ले जा रही हैं। इस नीति के बारे में सरकार को जरूर सोचना चाहिए, नहीं तो अगामी कुछ वर्षों के बाद किसान के साथ-साथ आम नागरिक भी शोषित होंगे।
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अगर अपने देश की बात करें तो पंजाब के किसानों से अनुबंध खेती करवा कर उन्हें अपने जाल में फंसा लिया गया है। अब वहां के किसान काफी परेशान हैं। वहां की आम शिकायत है की कम्पनियाँ कई बार किसानों को समझौते में तय किए गए मूल्य के हिसाब से भुगतान नहीं करती हैं। यह भी देखा गया है कि कम्पनियों ने किसानों को सिर्फ इसलिए उनका बकाया नहीं चुकाया कि अगले साल भी वे उसी कम्पनी को अपना माल बेचने पर मजबूर होंगे। विदेशों की बात करें तो फिलीपींस, जिंबाब्वे, अर्जेंटीना और मेक्सिको जैसे देशों का अनुभव बहुत सुखद नहीं रहा है। अगर यही अनुबंध पूरे भारत देश में लागु हो जाय तो वह दिन दूर नहीं जब रोटी के लिए भी दूसरे देशों पर निर्भर रहना होगा।
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दूसरी बड़ी आशंका यह जताई जा रही है कि अनुबंध खेती में पैदावार बढ़ाने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जो तरीके अपना रहीं हैं उनसे जमीन की उर्वरता घटती है। निजी कम्पनियों की नजर सिर्फ और सिर्फ लाभ पर होती है। जाहिर सी बात है, ज्यादा-से-जयादा लाभ कमाने के लिए पैदावार बढ़ानी होगी, और पैदावार बढ़ाने के लिए हानिकारक रासायनिक खाद और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल करना ही होगा। सिंचाई के लिए जमीन का सीना चीरकर पानी निकालना होगा। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी वजह से जमीन बंजर हो जाएगी।
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अर्थशास्त्र समझने वालों का आकलन है कि अगर उत्तर प्रदेश में कांट्रैक्ट खेती शुरू हूई तो अगले पाँच सालों में वे इलाके रेगिस्तान में बदल जाएंगें जहाँ भू-गर्भ जल का स्तर लगातार नीचे खिसक रहा है। रासायनिक खादों का अंधाधुंध इस्तेमाल होने से खेतों की उर्वरा शक्ति इतनी कमजोर हो जाएगी कि उसमें निर्यात योग्य गुणवत्ताा वाली फसल पैदा नहीं होगी, परिणामस्वरूप कम्पनियाँ अपनी आदत के मुताबिक किसानों का साथ छोड़ देंगी। जैसे पंजाब, विदर्भ और आंध्र प्रदेश के किसान के साथ हुआ वहां के किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो गये हैं। किसानों को सावधान करते हुए कहना चाहता हूँ कि वे कम्पनियों द्वारा दिखाए जाने वाले सब्जबाग में न फंसे क्योंकि उसमें चार-पाँच साल तो फायदे के हैं, उसके बाद अंधेरा ही अंधेरा।
. संजीव ठाकुर - इलाहाबाद

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