वो सुबह अभी तो नहीं आयेगी - प्रो. अरुण कुमार

नेहरू के ''नियती से मिलन'' नारे ने आशा जगाई की भारत नई चुनौतियों से मुकाबला करने के लिये जाग उठेगा। 60 वर्ष पूर्व उस ऐतिहासिक दिन के बाद से भारत ने काफी भौतिक उन्नति तो की है परंतु स्वतंत्रता संग्राम के कुछ अन्य लक्ष्य और भी थे। अनगिणत लोगो ने अपना 'आज' हमारे 'कल' के लिये कुर्बान कर दिया था। क्या वह सुंदर कल हमें मिला, क्या वह दृष्टि अलग नहीं थी उस दृष्टि से, जिसके लिये हमने काम किया। संदेह होता है क्योंकि भयंकर गरीबी, अक्षिक्षा और गंदगी एवं बिमारियाँ भारी कीमत वसूल रही हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि हमारे सामने पश्चिम का अनुसरण करने के अलावा और कोई भी दृष्टि नहीं रह गयी है और इस प्रक्रिया में हमने ये दोनो बदत्तार चीजें हीं हासिल की है।
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भौतिक दृष्टि से केवल 3 प्रतिशत आबादी तो ठीक-ठाक है बाकी के लोग निचले पायदान पर झूल रहे हैं। हम खुशी मनाते हैं कि हमारे यहां जापान से ज्यादा अरबपति हैं परंतु प्रति व्यक्ति आमदनी के हिसाब से दुनिया के 177 देशों में सबसे नीचे के 20 देशों में हमारा नंबर है। यह भयानक गैर बराबरी के अलावा कुछ नहीं दर्शाता। गरीबी रेखा के नीचे सबसे बड़ी आबादी, किसान आत्महत्याएं, विशाल शहरी झुग्गी बस्तियां, शहरों के चारो तरफ सार्वजनिक पैखाना बने विशाल मैदान, आधुनिक टैक्नोलॉजी को समझने में नाकामयाब तथाकथित शिक्षित, ये सब तथ्य बताते हैं कि एक राष्ट्र के रूप में हमें नई सुबह का अभी इंतजार है।
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1958 में बनी फिल्म ''फिर सुबह होगी'' में मुकेश का दर्द भरा गीत ''वो सूबह कभी तो आयेगी'' में 50-60 के दशक में आम भारतीय के सपने का सारांश झलखता है। हम जैसे बच्चो के मन में यह विचार बैठ गया था हम अपने देश वासियों के लिये एक बेहतर भविष्य बनायेगें और शायद एक नई सभ्यता गढ़ेगें जो पश्चिम से भी आगे निकल जायेगी। लेकिन स्वतंत्रता के 60 वर्ष बाद इस सपने का चिथरा भी उन लोगो के कूड़े दान में नहीं बचा है जो सत्ताा में बैठे हैं और देश की नियती तय कर रहे है वह सपना 9 प्रतिशत आर्थिक वृध्दि हासिल करने के नारे के तुफान में उड़ चुका है।
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यह गाना केवल गरीबी, भूख, बीमारी और अशिक्षा हटाने के बारे में ही नहीं है बल्कि एक भिन्न समाज-शांतिपुर्ण समाज, जहां प्रत्येक सम्मान के साथ जी सके- को बनाने के सपने के बारे में भी है। इस गाने में उस नई सुबह को ''जब अम्बर झूम कर नाचेगा, जब धरती नगमें गायेगी'' कहकर परिभाषित किया गया। आज निम्न स्तर के प्रतिव्यक्ति उपभोग के साथ भयानक रूप से गंदी हवा, पानी और मिट्टी नांच गा नहीं रही है बल्कि रो रही है। परम् पूजनीय गंगा और गोदावरी भयानक रूप से प्रदूषित हैं, उनकी तलहटी में जहरीले तत्वो का भयानक जमाव हो गया है जो आने वाली पीढ़ियों को प्रभावित करेगा। अब पवित्र, पवित्र नहीं रहा है।
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गाना आगे चलता है ''जब दु:ख के बादल पिघलेंगें, इंसानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तो ली जायेगी'', ''माना कि अभी तेरे-मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं हैं''। लेकिन एक विश्वास था कि एक दिन यह बदलेगा। विशाल सीमांत आबदी के लिये दुख तो रोज का और कभी खत्म नहीं होने वाला मामला बन गया है। निठारी में उनके दर्जनों बच्चे गायब हो जाते हैं और कुछ भी नहीं होता। शायद एकमात्र पलायन का रास्ता है जो बालीवुड उन्हें उपलब्ध करता है- सेक्स और हिंसा का। सरकार नाममात्र की मदद पहुँचाती है। गरीबो की इज्जत पैसे के सामने गिरवी रख दी जाती है क्योंकि बेरोजगारी ऊँची है और युवाओं को अपनी इच्छाओं को पुरी करने के लिए अपराध करने पड़ते हैं। वंचितों के सपनों का उन शासकों के लिए कोई अर्थ नहीं है जो अपने स्वार्थ में अंधे होकर उन वंचितों में अपनी अमीरी के संकीर्ण सपनो को पूरा करने का एक साधन ढूंढते हैं जैसे गरीब विस्थापित झुग्गी वासियों के लिए निर्धारित की गई जमीनों को हड़प कर जाना।
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आज श्रम का अवमूल्यन है, जबकी सट्टेबाजी और लालच ऊँचे पायदान पर बैठे हैं। कार्पोरेट सैक्टर से जुड़ी हुई देश की केवल 1 प्रतिशत आबादी उस 60 प्रतिशत आबादी से ज्यादा कमाती है जो कृषि पर निर्भर है। पिछले छ: वर्षें में पिछले 54 वर्षो के मुकाबले विषमताएँ तेजी से बढ़ी है। नौजवानों को साबुन बेचने के लिए प्रोत्साहित् किया जा रहा है, अध्यापन और शोध के द्वारा राष्ट्र निर्माण में योगदान के लिए नहीं। त्याग को मूर्खता मान लिया गया है। जिसके कारण स्वतन्त्रता सेनानियों के सम्पूर्ण प्रयत्न बेकार हो गए। उनमें से जो जीवित हैं वे दुखी मन से पूछते हैं कि क्या यह वहीं है जिसके लिए वे लड़े थे।
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देश के 3 प्रतिशत शासक अभिजात वर्ग के लोग अंतराष्ट्रीय अभिजात वर्गों से जुड़ना चाहते हैं, अपने बच्चों को बाहर पढ़ाई के लिए भेजना चाहते हैं, छुट्टियाँ मनाने, मौज मस्ती करने के लिए बाहर जाना चाहते है या इलाज कराने के लिए विदेशी अस्पतालों में जाना चाहते हैं। छपरा में एक स्कूल या घुंघरावाली में एक डिस्पेन्सरी का उनके लिए कोई मतलब नहीं है परन्तु दिल्ली में चौबीस घंटे बिजली और पानी होना चाहिए। यह विकास है। राष्ट्र के साथ भावनात्मक लगाव काफूर हो चुका है। भ्रष्टाचार चारो तरफ फैला है, निजी और सार्वजनिक क्षेत्र दोनो में। विधायिका, न्यायपालिका और नौकरशाही की संस्थाएँ टूट रही हैं। अभिजात्य विधिविरूध्द हो गए हैं जो प्रत्येक कानून को तोड़ते- ट्रेफिक कानूनों से लेकर बिल्डिंग कानूनों, औद्योगिक कानूनों और पर्यावरण कानूनो तक। ज्यादातर अमीरों ने गैर कानूनी तरीकों से धन कमाया है। राजनितिक नेता ऐशोआराम की जिन्दगी जी रहे हैं। उन्हें किसी भी रूप में लोगों का प्रतिनिधी नहीं कहा जा सकता। लोकतंत्र एक महान व्यवस्था है परन्तु भारत में इसे क्षुद्र स्वार्थ पूर्ती की कला में तब्दील कर दिया गया है। हमारे नेतृत्व के दिवालिएपन के कारण पहले तो 80 के दशक में हमने स्वतन्त्र विकास के विचार को तिलान्जली दे दी और फिर 90 के दशक में अन्त्योदय के विचार को।
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गाँधी जो अपना सबकुछ त्याग चुके थे से लेकर वर्तमान नेताओं तक जो अपना कुछ भी त्यागने को तैयार नहीं है, स्वैच्छिक गरीबी के विचार से लेकर अब समाज को हांकने वाले लालच के नारे तक, समाज और राष्ट्र से लेकर स्वयं तक, सभी के लिये राष्ट्रीय दृष्टि से कुछ के लिये स्वार्थ दृष्टि तक हमारी संक्रमण यात्रा हो चुकी है। मुकेश के गाने ''मिट्टी का भी कुछ मोल मगर इन्सानों की कीमत कुछ भी नहीं'' की विपरीत दिशा में हम जा रहे हैं। किसानों की आत्महत्याऐं बढ़ती जा रही है और उनके लिये घोषित पैकेज असरहीन है।
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गांधी की भूमि बनिया भूमि में बदल गयी है (ऐसा नहीं कि वो बनिया नही थे) और इसका सारा श्रेय उन सभी पार्टियों को जाता है जो गांधी ने बनायी। चालाक तो शर्मिंदा हुए बिना तर्क करेंगें कि गांधी होते तो वे भी आज ऐसा ही करते। क्या वे सोंचेंगे कि जो आदमी सादगी, त्याग और सच्चाई का पक्षधर है न कि दिखावा, अर्धसत्य और उपभोक्तावाद का वह इस विचार को सुनकर पीला पड़ जायेगा?
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हमारे समाज की बीमारियों के पीछे सामाजिक कारण है इस विचार को मानने से लेकर हमारे समाज की दुविधाओं के पीछे व्यक्ति है के विचार को मानने तक एक लम्बी यात्रा हम कर चुके हैं। अब प्रत्येक व्यक्ति को जो कुछ उसे चाहिये वह लेने के लिये उसे बस बाजार जाना पड़ता है। सरकार अब गरीबी उनमूलन के लिए जिम्मेदार नहीं है।
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राष्ट्र सपनों से बनते है परन्तु हमने इस सपने को धन कमाने के सकींर्ण रूप में बदल दिया है। इसलिये हम कैसे नेहरू के 'मिलन' का वो महान देश बना सकते है या वो देश जिसे मुकेश ने अपने गीत में गाया ''जिस सुबह की खातिर युग-युग से हम सब मर मर के जीते आये हैं''। गाँधी का एक सपना था जिसे उन्हीं की बनायी पार्टी ने ध्वस्त कर दिया। गांधी शायद आने वाले समय को देख चुके थे इसलिये उन्होने उस पार्टी से अपने आप को भंग करने के लिये कहा जिससे यह स्वांग न रचा जा सके। वे चाहते थे कि राष्ट्रपति भवन को एक अस्पताल में बदल दिया जाय, केवल इसलिये नहीं कि यह एक अच्छा चलने वाला अस्पताल होगा बल्कि इसलिये कि इससे सैकड़ों नये सपने जन्म लेंगे और हमारे स्वतन्त्रता सेनानी साम्राज्यी सांचे में ढले शासक नही बन पायेंगें। इस तरह 60 साल बाद आज भी हम 9 प्रतिशत विकास वृध्दि के नारे के बीच उस नयी सुबह का इन्तजार कर रहे हैं। मुकेश को अब गाना पड़ेगा ''वो सुबह अभी तो नहीं आयेगी''

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