शिक्षा का अधिकार, राज्य और नवउदारवादी हमला

शिक्षा का अधिकार गहरे अर्थों में एक मूल अधिकार है। यह आलेख शिक्षा के अधिकार वेफ खिलाफ खड़ी व्यवस्था की जांच-पड़ताल करता है। शिक्षा से जुड़े सवालों को राजनीति के केंद्र में लाने की जरूरत पर बल देता है। इस आलेख में उठाए गए मुद्दे राजनीतिक चर्चा और पहल-कदमी की मांग करते हैं और एक सचेत नागरिक को अपनी भूमिका तय करने में मदद करते हैं।

सवा सौ साल पहले महात्मा ज्योतिराव फुले ने ब्रिटिश राज द्वारा गठित भारतीय शिक्षा आयोग (1882) को प्रस्तुत अपने ज्ञापन में एक विडंबना का जिक्र करते हुए कहा था कि सरकार का अधिकांश राजस्व तो मेहनतकश किसान-मजदूरों से आता है लेकिन इसके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का प्रमुख लाभ उच्च वर्ग और उच्च वर्ण उठा लेता है। महात्मा फुले की यह टिप्पणी भारत की आज की शिक्षा पर भी सटीक बैठेगी। सन् 1911 में इम्पीरियल असेम्बली में गोपाल कृष्ण गोखले ने मुफ्रत और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का विधेयक पेश किया। लेकिन यह विधेयक सामंती और नव-ध्नाढय ताकतों के विरोध् के कारण पारित न हो सका। विरोध् का एक आधर संसाधनों की कमी बताया गया। सन् 1937 में वर्ध (महाराष्ट्र) में आयोजित अखिल भारतीय शिक्षा सम्मेलन में महात्मा गांधी ने नव-निर्वाचित सात प्रांतीय सरकारों के शिक्षा मंत्रियों को चुनौती देते हुए कहा कि उनकी पहली प्राथमिकता है कि वे सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देना सुनिश्चित करें और वह भी उत्पादक काम पर आधारित शिक्षा। लेकिन सभी मंत्रिायों ने गांधीजी को कहा कि देश के पास इसके लिए संसाधन नहीं हैं। जब संविधान लिखा जा रहा था तब संविधान सभा के एक सदस्य ने प्रारूप समिति के अधयक्ष डा. बाबासाहेब अंबेडकर से अनुरोध् किया कि प्रस्तावित अनुच्छेद 45 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों को मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा के वायदे को घटाकर 11 साल तक का कर देना चाहिए क्योंकि भारत एक गरीब देश है और संसाधनों की कमी है। लेकिन डाअंबेडकर ने यह कहकर इस कुतर्क को नहीं माना कि आजाद भारत में इस उम्र के बच्चों के लिए सही जगह स्कूल होनी चाहिए, न कि खेत-खलिहान व कारखाने। लेकिन यह सिलसिला आज भी जारी है। जून 2006 में वर्तमान भारत सरकार ने संसाधनों की कमी का दावा करते हुए 86वें संविधान संशोधन के अनुच्छेद 21(क) के तहत प्रस्तावित शिक्षा के अधिकार विधेयक को संसद में पेश करने से इंकार कर दिया और विधेयक का एक बेहद कमजोर प्रारूप राज्य सरकारों को भेजकर अपनी संवैधानिक जवाबदेही से पल्ला झाड़ लिया।

संविधान में शिक्षा के मौलिक अधिकार की दृष्टि

डा. अंबेडकर के प्रयासों के बावजूद शिक्षा को संविधान के मौलिक अधिकार वाले खंड तीन में नहीं रखा जा सका। हालांकि 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों को मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा का वायदा देने वाला अनुच्छेद 45 संविधान के राज्य के नीति निर्देशक सिध्दांतों के खंड चार में रखा गया, लेकिन शिक्षा के बारे में संवैधानिक दृष्टि के चार महत्वपूर्ण बिंदुओं पर गौर करना जरूरी है। पहला, खंड चार में यह एकमात्रा अनुच्छेद है जिसकी पूर्ति के लिए समय सीमा रखी गई थी - संविधान लागू होने के दस साल के भीतर इस संकल्प को पूरा करना था यह आज तक नहीं हुआ है। दूसरा, 14 साल की उम्र तक में छह वर्ष से कम उम्र के भी बच्चे शामिल थे यानी जन्म से लेकर 6 वर्ष तक के बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य और पूर्व-प्राथमिक शिक्षा को राज्य की जवाबदेही में शामिल किया गया था। तीसरा, संविधान ने आठ वर्ष की प्रारंभिक शिक्षा का एजेंडा राज्य के सामने रखा था, न कि महज पांच साल की प्राथमिक शिक्षा का। चौथा, इस अनुच्छेद को अनुच्छेद 46 के साथ पढ़ा जाना चाहिए जिसमें संविधान ने दलित और आदिवासी बच्चों की शिक्षा पर विशेष धयान देने के लिए राज्य को निर्देशित किया था।

शिक्षा के अधिकार के विमर्श में नया मोड़ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन् 1993 में दिए गए उन्नीकृष्णन फैसले से आया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 45 को खंड तीन के जीवन के हक वाले अनुच्छेद 21 के साथ जोड़कर पढ़ने की जरूरत है क्योंकि ज्ञान देनेवाली शिक्षा के बगैर इंसान का जीवन निरर्थक है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों के लिए मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया।

मौलिक अधिकार और शासक वर्ग का नजरिया
सर्वोच्च न्यायालय के उक्त ऐतिहासिक फैसले के बाद भारत का शासक वर्ग लगातार इस कोशिश में लगा रहा कि किस प्रकार उन्नीकृष्णन फैसले के असर को घटाया या विकृत किया जाए। भारत सरकार की सैकिया समिति रपट (1997) और 83वां संविधान संशोधन विधेयक (1997) व उस पर मंत्रालय की संसदीय समिति की रपट इस बात के गवाह हैं कि केंद्रीय सरकार ने शिक्षा के मौलिक अधिकार के मायने को ही घटाने और विकृत करने एवं शिक्षा में बाजार की ताकतों को जगह देने के उद्देश्य से क्या-क्या चतुर उपाय किए। लेकिन सरकार के इस नजरिए की सार्वजनिक तौर पर तीखी आलोचना हुई और संसदीय समिति को भी शिक्षाविदों व जन संगठनों ने ज्ञापन पेश किए। अत: अगले चार साल के लिए शिक्षा के अधिकार का मसला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
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लेकिन अचरज तो यह है कि सभी राजनैतिक दल चुप्पी साधे रहे। नवंबर 2001 में 86वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश हुआ। संसद के अंदर और बाहर इस विधेयक के जन-विरोधी चरित्र पर व्यापक बहस हुई - जन सभाएं हुईं व रैलियां निकलीं। स्पष्ट था कि इसको पेश करने का परोक्ष उद्देश्य शिक्षा का हक देना नहीं वरन् सर्वोच्च न्यायालय के उन्नीकृष्णन फैसले से मिले हक को छीनना था। जो अधिकार उन्नीकृष्णन फैसले से जनता को मिल चुके थे वे भी 86वें संशोधन के चलते छिन गये। इसके बावजूद अंतत: सार्वजनिक आलोचना को नजरअंदाज करते हुए सभी राजनैतिक दलों में आपसी सहमति बन गयी और यह विधेयक संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से पारित हो गया। दिसंबर 2002 में विधेयक पर राष्ट्रपति के दस्तखत हो गये और यह संशोधन संविधान का अंग बन गया। इस संशोधन के जरिए खंड तीन में अनुच्छेद 21(क) जोड़ा गया जिसके तहत 6-14 आयु समूह के बच्चों को मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया तो गया लेकिन एक शर्त के साथ। पूरे खंड तीन में यह मौलिक अधिकार अकेला ऐसा मौलिक अधिकार है जो सशर्त दिया गया है। बाकि सभी मौलिक अधिकार बगैर किसी शर्त के दिए गए हैं। शर्त यह है कि शिक्षा का मौलिक अधिकार 'उस रीति से दिया गया जो राज्य कानूनन निर्धारित करेगा।' ऐसी शर्त क्यों लगाई गयी, यह समझने के लिए हमें वैश्वीकरण के चलते भारत की शिक्षा नीति और व्यवस्था में जो भारी परिवर्तन हुए हैं उनको जानना होगा।

शिक्षा पर वैश्वीकरण का हमला

भारत में वैश्वीकरण की शुरुआत की औपचारिक घोषणा तो 1991 में नई आर्थिक नीति की घोषणा के साथ हुई। लेकिन इसके एजेंडे का सूत्रपात 1980 के दशक के मधय में ही हो चुका था। इसका सबूत संसद द्वारा पारित हमारी 1986 की शिक्षा नीति में मौजूद परस्पर विरोधाभासी बयानों में देखा जा सकता है। एक ओर तो नीति में कहा गया कि कोठारी शिक्षा आयोग (1964-99) द्वारा सुझायी गयी 'पड़ोसी स्कूल' की अवधारणा पर आधारित 'समान स्कूल प्रणाली' की ओर बढ़ने के लिए कारगर कदम उठाये जायेंगे। लेकिन दूसरी ओर इस अवधारणा के ठीक विरुद्ध एजेंडा बनाया गया। आजाद भारत में शिक्षा नीति का यह पहला दस्तावेज है जिसने घोषित किया कि आठ साल की प्रारंभिक शिक्षा सभी बच्चों को स्कूल के जरिए नहीं दी जा सकेगी। संबंधित आयु समूह (यानी 6-14 आयु समूह) के कम-से-कम आधे बच्चे ऐसे होंगे जिन्हें स्कूल उपलब्ध नहीं कराया जायेगा बल्कि उन्हें औपचारिक स्कूल के समानांतर घटिया गुणवत्ता वाली औपचारिकेतर (नॉन-फॉर्मल) धारा के जरिए शिक्षित किया जायेगा। इस समानांतर धारा में नियमित शिक्षक नहीं पढ़ायेंगे - उनकी जगह बगैर अर्हता वाले ठेके पर रखे गये निर्देशक या शिक्षाकर्मी नियुक्त किये जायेंगे।

इस तरह सरकारी स्कूल के नीचे देश के आधे बच्चों के लिए घटिया शिक्षा की एक परत बिछाने का नीतिगत फैसला हुआ। इसी नीति में सरकारी स्कूल के उपर ग्रामीण क्षेत्र के मुट्ठी भर अपेक्षाकृत संपन्न तबके के बच्चों के लिए नवोदय विद्यालयों की एक और परत बिछाने की घोषणा हुई। 1986 की शिक्षा नीति ने 'समान स्कूल-प्रणाली' की जगह बहु-परती शिक्षा व्यवस्था स्थापित करने की वैधानिक घोषणा कर दी जिसने 1990 के दशक में वैश्विक बाजार की ताकतों को शिक्षा के निजीकरण व बाजारीकरण की जमीन दी। सन् 1991 में घोषित नई आर्थिक नीति के बाद वैश्विक बाजार का प्रतिनिधित्व करनेवाली दो ताकतवर संस्थाओं - अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक - ने भारत सरकार के सामने कर्ज और अनुदान पाने के लिए अपनी शर्तें रखीं। शर्तों के पैकेज का नाम रखा गया-'संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम' (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम) । इसके तहत सरकार के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह देश के शिक्षा और स्वास्थ्य समेत सभी समाज विकास और कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च घटाये। सरकार ने ये शर्तें स्वीकारीं। उल्लेखनीय है कि कोठारी शिक्षा आयोग ने कहा था कि पूर्व प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक उम्दा गुणवत्ता की शिक्षा देने के लिए जरूरी है कि देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद का कम-से-कम 6 प्रतिशत हर वर्ष खर्च किया जाए। इसके बावजूद 1991 की आर्थिक नीति के चलते अगले 15 सालों में सकल राष्ट्रीय उत्पाद के प्रतिशत के रूप में शिक्षा पर किए जाने वाला खर्च लगातार घटाया गया। 2005-06 में यह खर्च घटते-घटते बीस वर्ष पूर्व के स्तर पर आ गया यानी सकल राष्ट्रीय उत्पाद का महज 3.5 प्रतिशत। यह इसके बावजूद हुआ है कि सर्व शिक्षा अभियान का लगभग 40 प्रतिशत बजट विश्व बैंक व अन्य अंतरराष्ट्रीय वित्तापोषक संस्थाओं से आता है और वर्तमान संप्रग सरकार विगत दो वर्षों से प्रारंभिक शिक्षा के नाम पर 2 प्रतिशत उपकर अलग से इकट्ठा कर रही है। स्पष्ट है कि जनता के सभी तबकों को समतामूलक गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए शासक वर्ग की राजनैतिक इच्छाशक्ति विगत 15 वर्षों से लगातार घटती गयी है। ऐसा करने में वैश्विक बाजार की ताकतों का छिपा हुआ एजेंडा भारत की विशाल सरकारी स्कूल प्रणाली (आज लगभग 11.2 लाख स्कूल हैं) को धवस्त करना था ताकि उसकी जगह फीस लेने वाले निजी स्कूल ले सकें। इसी एजेंडे का दूसरा पहलू सरकार को शिक्षा के प्रति अपनी संवैधानिक जवाबदेही से बरी होने का मौका भी देना था। लेकिन इतनी बड़ी और स्थापित व्यवस्था को खत्म करना आसान न था। अत: विश्व बैंक ने 1993-94 से सरकारी खर्च में कटौती के फलस्वरूप हुई क्षति की आंशिक पूर्ति के नाम पर शिक्षा के लिए कर्ज व अनुदान का कार्यक्रम शुरु किया जिसको जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डी.पी.ई.पी.) के नाम से जाना जाता है। जहां पूरे भारत में केंद्रीय और राज्य सरकारें मिलकर आठ साल की प्रारंभिक शिक्षा पर लगभग 40,000 करोड़ सालाना खर्च कर रही थीं वहीं विश्व बैंक ने स्वयं द्वारा प्रायोजित डीपी. ई.पी. में मात्रा रु. 500-1,000 करोड़ सालाना खर्च करके स्कूली शिक्षा नीति पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। विश्व बैंक और इसकी सहचर अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषक संस्थाओं की इस घुसपैठ के फलस्वरूप अगले 10-15 सालों में भारत की पूरी स्कूल व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। वैश्विक बाजार की इस रण्ानीति के निम्नलिखित तत्व पहचाने जा सकते हैं - 1. शिक्षा के समग्र सामाजिक विकास के उद्देश्यों की जगह महज साक्षरता-संबंधी कौशलों ने ले ली। 2. 'समान स्कूल-प्रणाली' की जगह 'बहु-परती शिक्षा व्यवस्था' स्थापित हुई - हरेक तबके के लिए एक अलग गुणवत्ता की शैक्षिक परत बिछाने का नया समाजशास्त्रीय सिद्धांत गढ़ा गया। 3. नियमित शिक्षक की जगह अर्हता-विहीन, प्रशिक्षण-विहीन और कम वेतन पाने वाले ठेके पर नियुक्त पैरा-शिक्षक ने ली। इस नए कैडर को विभिन्न राज्यों में नाना प्रकार के लुभावने नाम देकर घटिया शिक्षा की हकीकत छिपाने की कोशिश की गयी। 4. 1986 की शिक्षा नीति में संसद द्वारा निर्देशित न्यूनतम तीन कक्षाभवन और तीन शिक्षकों वाले स्कूलों की जगह बहु-कक्षायी अधयापन जैसी 'चमत्कारिक' अवधारणा के तहत शिक्षकों को अकेले एक साथ पांच कक्षाओं को पढ़ाने का प्रशिक्षण दिया गया जिस पर सैकड़ों करोड़ रुपये का खर्च किया गया जो कर्ज के रूप में देश की अगली पीढ़ी चुकायेगी। 5. आठ साल की प्रारंभिक शिक्षा के संवैधानिक एजेंडे की जगह पांच साल की प्राथमिक शिक्षा ने ली। 6. पाठयचर्या को ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों से काटकर बाजार के संदर्भ से जोड़ा गया (संदर्भ - मिनिमम लेवल लर्निंग की अवधारणा, भारत सरकार, 1991)। 7. शिक्षण पद्धति का निर्धारण शिक्षाशास्त्रीय सिध्दांतों पर न होकर बढ़ते क्रम में सूचना प्रौद्योगिकी एवं उसका व्यापार करने वाली कंपनियों की तर्ज पर होने लगा। 8. शिक्षा प्रणाली में प्रणालीगत परिवर्तन करके उसका देश की जरूरतों के अनुरूप फनर्निर्माण करने का उद्देश्य हाशिए पर धकेल दिया गया। इसकी जगह तदर्थ व अल्पकालीन स्कीमों और परियोजनाओं ने ले ली जिन्हें बगैर जांचे-परखे शुरु करने और बिना वैज्ञानिक आकलन के मनचाहे ढंग से बंद करने की खुली छूट मिल गई (उदाहरण - डी.पी.ई.पी. एवं सर्व शिक्षा अभियान) । 9. राज्य की संवैधानिक जवाब देही की जगह बाजार की ताकतों ने ले ली। 10. सरकार और पंचायती राज संस्थानों जैसे संवैधानिक निकायों की जगह शिक्षा की जिम्मेदारी तेजी के साथ गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) एवं धर्मिक सांप्रदायिक संगठनों को सौंपने का खतरनाक सिलसिला शुरु हुआ। 11. शिक्षा नीति के निर्णय हमारी संसद और विधान सभाओं में न होकर देशी व अंतर्राष्ट्रीय बाजार और विश्व बैंक के मुख्यालय में होने लगे। 12. शिक्षा के अधिकार वाली सोच की जगह बाजार में शिक्षा की कीमत और बच्चे के परिवार की आर्थिक हैसियत वाली सोच स्थापित हुई।
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यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि शिक्षा का विकास संवैधानिक एवं लोक कल्याणकारी परिप्रेक्ष्य में न करने का उच्च-स्तरीय राजनैतिक निर्णय लिया जा चुका है। शिक्षा बाजार में खरीद-फरोख्त की वस्तु बन चुकी है और इसे विश्व व्यापार संगठन के पटल पर रखने का फैसला बगैर किसी लोकतांत्रिक बहस के चुपचाप लिया जा चुका है। शिक्षा नीति की जगह अंतर्राष्ट्रीय वित्ता पर आधारित स्कीमों व परियोजनाओं (बहु-चर्चित 'सर्वशिक्षा अभियान' समेत) ने ले ली है जिनके तहत स्कूली शिक्षा के समानांतर निम्न गुणवत्तावाली कई शैक्षिक परतें बिछायी जा चुकी हैं। शर्त केवल एक है - यह वैकल्पिक व्यवस्था केवल गरीब जनता के लिए खड़ी की जाएगी यानी दो-तिहाई जनता के लिए इसमें प्रमुखत: दलित, आदिवासी, अति-पिछड़े, अल्पसंख्यक और विकलांग शामिल हैं और इन समुदायों में भी विशेषकर लड़कियां। इस प्रकार संविधान के समानता एवं सामाजिक न्याय के सिद्धांत का खुलकर उल्लंघन हुआ है। इस नई वैश्वीकृत बहु-परती शिक्षा नीति का छिपा हुआ एजेंडा देश की विशाल सरकारी स्कूल प्रणाली की गुणवत्ता गिराकर उसको इतना जर्जर बना देना था कि गरीब लोग भी अपने बच्चों को वहां से निकाल लें और निजी स्कूलों की तलाश करने लगें। इसमें विश्व बैंक और उनकी अनुयायी हजारों गैर-सरकारी संस्थाओं को अपेक्षित सफलता मिली है। सरकारी स्कूलों की विश्वसनीयता तेजी से गिरी और हर प्रकार के दुकाननुमा निजी स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हुए जिनमें बड़ी तादाद में मान्यता-विहीन स्कूल शामिल हैं। सरकारी स्कूल प्रणाली से 1970 के दशक से उच्च एवं मध्यम वर्गों ने जो महापलायन शुरु किया उस प्रक्रिया में अंग्रेजी माध्यम के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रेखांकित करने की जरूरत है। इसके चलते सरकारी स्कूल प्रणाली की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए आवश्यक राजनैतिक व सामाजिक रूप से प्रभावी आवाज भी लुप्त हो गयी। आज पूर्व-प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च व प्रोफेशनल स्तर तक की शिक्षा का बाजारीकरण करना सरकारी नीति बन चुकी है। नीति निर्माण की लगाम संसद और विधान सभाओं से खींचकर वैश्विक बाजार की ताकतों यानी विश्व बैंक की अगुवाई में सक्रिय अंतर्राष्ट्रीय वित्तापोषक संस्थाओं और देशी-विदेशी घरानों को सौंपी जा रही है। इसके साथ-साथ शिक्षा के जरिए वर्ग-भेद, जाति-भेद, धर्मिक कट्टरवाद, नस्लवाद, पितृसत्ताा, सामंती व गैर-तार्किक सोच, पिछड़ेपन आदि विकृतियों के खिलाफ लड़ाई आगे बढ़ाने के सरोकार गौण हो रहे हैं। शिक्षा, वैश्विक बाजार की ताकतों के हाथ में वर्चस्ववाद, शोषण, सांप्रदायि कता व विषमता फैलाने का हथियार बनती जा रही है। दरअसल, वैश्वीकरण के शिक्षा पर हुए आक्रमण को मात्रा निजीकरण व बाजारीकरण मान लेना अति-सरलीकरण होगा। पूरी सच्चाई तो यह है कि वैश्वीकरण का आक्रमण शिक्षा में निहित ज्ञान के चरित्र पर है ताकि ज्ञान के सृजन, संप्रेषण और वितरण पर बाजार की ताकतों का नियंत्राण हो सके। तभी तो जनमानस को बाजार के हित में मोड़ा जा सकेगा।

आज की हकीकत
आज 6-14 वर्ष आयु समूह के आधे से अधिक बच्चे (दो-तिहाई लड़कियां) संविधान में निर्देशित आठ वर्ष की प्रारंभिक शिक्षा से वंचित हैं। पांचवीं कक्षा तक अधिकाांश बच्चे एक भी सही वाक्य नहीं लिख पाते हैं (न अपनी भाषा में, न किसी अन्य में) और दो अंकों का गुणा-भाग तक नहीं कर पाते हैं। कुल मिलाकर एक-तिहाई बच्चे ही हाई स्कूल तक पढ़ पाते हैं (दलित, आदिवासी और अल्प-संख्यक समुदायों में यह आंकड़ा बमुश्किल 20-25 प्रतिशत है ' मात्रा 18 प्रतिशत आदिवासी लड़कियां दसवीं तक पहुंच पाती हैं और पास तो आधी ही होती होंगी) । इन्हीं समुदायों में 12वीं पास करने वाले बच्चों का प्रतिशत 5-6 प्रतिशत से अधिक नहीं है। उच्च शिक्षा, संबंधित आयु समूह (18-23 वर्ष) के मात्रा 7 प्रतिशत को ही उपलब्ध है, जबकि चीन में यह आंकड़ा 16 प्रतिशत है। एक विकसित राष्ट्र बनने के लिए यह आंकड़ा कम-से-कम 20 प्रतिशत होना चाहिए और चीन जल्द ही इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। गिने-चुने उच्च शिक्षा संस्थानों को छोड़कर अधिकांश संस्थानों की गुणवत्ता, निजी संस्थानों समेत पिछले 15-20 वर्षों में गिरती गई है।
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एक और हकीकत

जी-8 (अमरीका, कनाडा, इंग्लैंड, प्रफांस, जर्मनी, जापान आदि) के उच्च-विकसित देशों में अकूत संपदा व ताकत के अलावा एक और साझी बात है - उन सभी देशों में सार्वजनिक धन पर सुचारु रूप से चलनेवाली सबको उपलब्ध पड़ोसी 'समान स्कूल व्यवस्था' है जिसके बगैर वे मुल्क वहां नहीं पहुंच पाते जहां वे आज पहुंच पाए हैं। यही बात स्कैंडेनेवियाई मुल्कों पर भी लागू होती है और अन्य कई मुल्कों पर भी। निजी स्कूल खोलना और इस स्तर पर फीस और कैपीटेशन चार्ज लेना पिछड़े मुल्कों की पहचान है। यह भारतीय 'राज्य' द्वारा अपनी संवैधानिक जवाबदेहियों से पल्ला झाड़ने की नीति का सबूत है। दरअसल, शिक्षा को मुनाफे का जरिया मान लेने से ही तमाम विकृतियों के दरवाजे खुल जाते हैं। अधिकांश विकसित देशों में उच्च शिक्षा को भी सरकार धन मुहैशया कराती है और उनका नियंत्राण भी करती है। सार्वजनिक धन पर चलनेवाली उच्च शिक्षा संस्थाओं में अमरीका में 76 प्रतिशत, प्रफांस में 88 प्रतिशत, रूस में 89 प्रतिशत, कनाडा में 100 प्रतिशत और जर्मनी में 100 प्रतिशत विद्यार्थी पढ़ते हैं। इन विकसित मुल्कों की सरकारें ज्ञान सृजन, संप्रेषण व वितरण में बाजार की भूमिका पर अपने-अपने राष्ट्र हित में सचेत नियंत्रण रखती हैं। लेकिन वे ही ताकतें भारत जैसे प्रगतिशील देशों को बाजार की वर्ग-भेद पर आधारित 'च्वाइस' यानी 'चयन के हक' का भ्रामक पाठ पढ़ाती हैं। इस तथाकथित चयन के हक का भ्रम फैलाकर देश का शासक वर्ग दो-तिहाई जनता को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित रखने के इरादे से हर स्तर पर शिक्षा को वैश्विक बाजार में खरीद-फरोख्त की वस्तु बनाने के कदम उठा चुका है। यह रणनीति ज्ञान व्यवस्था पर उच्च वर्ग और उच्च वर्ण के वर्चस्व को बरकरार रखने की रणनीति है।
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'समान स्कूल-प्रणाली'
कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) ने पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित 'समान-स्कूल प्रणाली' की अनुशंसा करते हुए कहा था कि इसके बगैर एक समतामूलक व समरस समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। यदि ऐसा नहीं हो सका तो विषमता और आपसी दूरियां बढ़ती जायगी। इसका नकारात्मक प्रभाव न केवल गरीबों पर वरन् संपन्न तबकों पर भी पड़ेगा चूंकि वे यह जान ही नहीं पायेंगे कि देश की दो-तिहाई जनता की हकीकत क्या है और उनके सरोकार क्या हैं। इससे इन तबकों की भी शिक्षा अधकचरी व अपूर्ण रह जाएगी। आयोग के अनुसार 'समान स्कूल-प्रणाली' के आधर पर ही एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का निर्माण हो सकेगा जहां सभी वर्गों व तबकों के लोग इकट्ठे पढ़ सकेंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आयोग ने चेतावनी दी कि समाज के प्रभावकारी वर्ग सरकारी स्कूल से पलायन करके निजी स्कूलों की ओर बढ़ेंगे और सरकारी स्कूल प्रणाली की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए आवश्यक दबाव खत्म हो जाएगा। 1970 के दशक के मधय से उच्च वर्गों ने अंग्रेजी के बढ़ते हुए प्रभुत्व को पहचान कर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की तलाश में निजी स्कूलों की ओर भागना शुरु किया। यदि सरकार में सही शिक्षा के प्रति राजनैतिक इच्छाशक्ति होती तो कोठारी आयोग द्वारा अनुशंसित त्रि-भाषा सूत्र की तर्ज पर पूरे देश में समान भाषा नीति लागू करती। इसके तहत हर स्कूल में सभी बच्चों को बिना किसी भेदभाव के भारत की बहु-भाषाई पृष्ठभूमि के अनुरूप मातृभाषा से शुरु करके राज्यविशेष की भाषा को माध्यम बनाते हुए उम्दा गुणवत्ता की अंग्रेजी सिखाने की सुविध दी जाती। लेकिन ऐसा करने से उच्च वर्गों और वर्णों का वर्चस्व खत्म हो जाता। अत: समान स्कूल प्रणाली के लिए आवश्यक समान भाषा नीति नहीं अपनाई गयी। जो हुआ वह अपेक्षित था। उस काल के तमाम उम्दा गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूलों में - जहां आज की बुजुर्ग और अधेड़ पीढ़ी के विद्वानों, शिक्षक, नौकरशाह और अन्य पेशेवरों ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाई है - तेजी से गिरावट आनी शुरु हुई है। जैसा कि उपर विवरण दिया है कि वैश्वीकरण के बाद गुणवत्ता को गिराना एक सचेत नीति का हिस्सा बन गया। आज इस बहु-परती सरकारी शिक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता इस कदर गिर चुकी है कि इसमें केंद्रीय व नवोदय विद्यालयों को छोड़कर, केवल उस तबके के बच्चे पढ़ते हैं जिनकी हैसियत कम फीस व घटिया सुविधाओं वाले मान्यता-विहीन दुकाननुमा स्कूलों में भी अपने बच्चों को भेजने की नहीं है। इस तरह तीस साल पहले की तुलना में समान स्कूल प्रणाली स्थापित करने का काम आज कहीं अधिक मुश्किल हो चुका है। समान स्कूल प्रणाली के बारे में तीन मनगढ़ंत धरणाएं निजी स्कूल लॉबी द्वारा जानबूझकर फैलाई जाती हैं। पहला, यह कहा जाता है कि यह प्रणाली सारे देश में एकरूपी लोचहीन प्रणाली स्थापित कर देगी। सच तो यह है कि एकरूपता की जकड़न तो वर्तमान प्रणाली की पहचान है जहां बोर्ड व प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं के चलते विविधता और लोच के खिलाफ एक अघोषित लड़ाई चलती रही है। समान स्कूल प्रणाली तभी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली बन सकेगी जब इसकी पाठयचर्या का आधारभूत सिद्धांत होगा देश में व्याप्त विविधता - हर प्रकार की विविधता - भू-सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई और नस्ली। शर्त केवल यह होगी कि हरेक स्कूल के पास न्यूनतम ढांचागत, शिक्षक-संबंधी व अन्य शैक्षिक मापदंड बरकरार रखने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों जिसकी पूरी जवाबदेही सरकार की होगी। दूसरा, जमकर दुष्प्रचार किया गया है कि इसमें निजी स्कूलों के लिए जगह नहीं होगी। उलटे, उक्त प्रणाली में निजी स्कूलों के लिए पूरी जगह होगी, लेकिन शिक्षा से मुनाफा कमाने के लिए कतई जगह नहीं होगी। ध्यान केवल यह रखना होगा कि निजी स्कूल संविधान में निहित सिध्दांतों के अनुसार चलेंगे और अनुच्छेद 21(क) के जरिए दिए गए समतामूलक व मुफ्रत शिक्षा के अधिकार के तहत पड़ोसी स्कूल की तरह काम करेंगे। तीसरा, निजी स्कूल लॉबी ने यह प्रचार भी किया है कि इस प्रणाली के लागू होते ही हर स्कूल पर सरकार का पूरा नियंत्राण हो जायेगा। हमें समझना होगा कि सरकारी धन या अनुदान का अर्थ प्रबंध्कीय या शैक्षिक नियंत्राण कतई नहीं है, हालांकि आजतक यही होता आया है। सरकारी अनुदान के बावजूद हर स्कूल की स्वायत्तता रह सकती है बशर्ते कि स्कूल संवैधानिक खाके में रहकर काम करें। 73वें और 74वें संविधान संशोधनों ने जन भागीदारी पर आधारित विकेंद्रित व्यवस्था खड़ी करने की पूरी गुंजाइश दी है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं हो सकता कि सरकार को नीति बनाने, आवश्यक संसाधन देने एवं निगरानी रखने जैसी अपनी संवैधानिक जवाबदेही से छूट मिल जायेगी। आज बाजार की ताकतें शिक्षा के निजीकरण व बाजारीकरण की रफ्तार तेज करने के इरादे से विकेंद्रीकरण की ऐसी विकृत अवधारणा को फैला रही हैं जिसके तहत सरकार को उसकी उक्त जवाबदेहियों से बरी करने का रास्ता खुल जाये। हमें बाजार की इस रणनीति के प्रति सचेत रहना होगा। अमरीका व कनाडा जैसे विकसित देशों में सार्वजनिक धन पर आधारित होने के बावजूद वहां की स्कूल व्यवस्था पूरी तरह विकेंद्रित है जिसके संचालन में आम जन और विशेषकर अभिभावकों की निर्णायक भूमिका है। हम ऐसे मुल्कों से सबक ले सकते हैं। एक और मुद्दा। बगैर समान स्कूल प्रणाली के पाठयचर्या में सुधर की बात करने का मतलब होगा कि विभिन्न परतों के स्कूलों के बीच गुणात्मक गैर-बराबरी बढ़ाना। यानी पाठयचर्या में देशव्यापी सुधर तभी संभव होगा जब सभी स्कूलों में गुणात्मक सुधर के लिए समतामूलक धरातल होगा। इसके लिए समान स्कूल प्रणाली आवश्यक शर्त है। हाल में इसी मुद्दे को लेकर तीखी बहस हुई जब एनसीईआरटी ने राष्ट्रीय पाठयचर्या की रूपरेखा-2005 (एन.सी. एफ.-2005) बनाने की कवायद की। एक पक्ष यह मानने को तैयार ही नहीं था कि पाठयचर्या में सुधर का समान स्कूल प्रणाली से कोई सार्थक रिश्ता हो सकता है। अंतत: काफी जद्दोजहद के बाद एन.सी.एफ.-2005 में समान स्कूल प्रणाली का जिक्रभर तो हो पाया लेकिन पाठयचर्या सुधर और समान स्कूल प्रणाली के रिश्ते का सिद्धांत स्थापित करवाने के लिए शासक वर्ग पर जनता का दबाव बनाना होगा। यह तय है कि हरेक स्कूल जब सच्चे मायने में पड़ोसी स्कूल बनेगा तभी हर तबके, जाति, मजहब या भाषा के बच्चे एक साथ पढ़ पायेंगे। यह पूर्व शर्त होगी एक लोकतांत्रिाक र्ध्मनिरपेक्ष एवं समतामूलक भारत के निर्माण के लिए। तभी ऐसे हालात बनेंगे कि भारत की संपूर्ण प्रतिभा का इस्तेमाल सामाजिक विकास के लिए हो पायेगा।

शिक्षा अधिकार और समान स्कूल-प्रणाली का रिश्ता
नि:संदेह 86वें संविधान संशोधन का चरित्र कई मायनों में जन-विरोधी था और इसका असली मकसद वैश्वीकरण के चलते 1990 के दशक में हमारी शिक्षा नीति व व्यवस्था में जो विकृतियां आने थीं उनका वैधानीकरण करना था। लेकिन तब भी इसके द्वारा 6-14 आयु समूह की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा मिलना भारतीय इतिहास में एक ऐतिहासिक परिघटना है। इसके निम्नलिखित व्यापक निहितार्थ हैं - 1. प्रारंभिक शिक्षा का मौलिक अधिकार तभी सार्थक होगा जब इसे अन्य मौलिक अधिकारों के साथ जोड़कर दिया जाये। यानी ऐसी प्रारंभिक शिक्षा नहीं दी जा सकती जो समानता, सामाजिक न्याय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मजहब चुनने की स्वतंत्रता या जीने के हक का उल्लंघन करे। इसके साफ मायने हैं कि पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित समान स्कूल प्रणाली के जरिए शिक्षा पाना कम-से-कम 6-14 आयु समूह के बच्चों का मौलिक अधिकार बन चुका है। यह इसलिए कि अन्य कोई भी विकल्प समानता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित नहीं करता। 2. केवल ऐसी ही प्रारंभिक शिक्षा दी जा सकती है जो संविधान के अनुरूप एक लोकतांत्रिक, समतामूलक, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रबुद्ध समाज के निर्माण के लिए कारगर हो। कोई भी शिक्षा व्यवस्था या पाठयचर्या जो ऐसे समाज के लिए सक्षम नागरिकता का निर्माण नहीं करती वह मौलिक अधिकार का उल्लंघन करेगी। 3. अनुच्छेद 21(क) के चलते किसी भी स्कूल द्वारा - चाहे वह सहायता-विहीन निजी स्कूल ही हो - 6-14 आयु समूह के बच्चों से फीस या अन्य किसी भी प्रकार का शुल्क/चार्ज लेना गैर-संवैधानिक होगा। अब निजी स्कूलों के पास केवल दो विकल्प बचे हैं - पहला, वे मुफ्त प्रारंभिक शिक्षा देने के लिए समाज से धन बटोरें- दूसरा, वे सरकार से अनुदान लें। 4. समतामूलक गुणवत्ता की प्रारंभिक शिक्षा देना राज्य की संवैधानिक जवाबदेही है जिससे बरी होने के इरादे से सरकार संसाधनों की कमी का बहाना नहीं कर सकती। संसाधनों के आबंटन में प्रारंभिक शिक्षा की तुलना में ऐसी किसी भी अन्य मद को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती जो मौलिक अधिकार न हो। इसका निहितार्थ है कि यदि संसाधन की कमी है तो राज्य की जवाबदेही है कि वह राष्ट्रमंडलीय खेल-2010, कॉर्पोरेट घरानों द्वारा लिये गये बैंक कर्जों की माफी एवं विशेष आर्थिक क्षेत्रा (सेज) के लिए सब्सिडी आदि पर रोक लगाकर प्रारंभिक शिक्षा के लिए निवेश करे चूंकि उपरोक्त में से कोई भी खर्च कॉर्पोरेट भारत के मौलिक अधिकार के लिए नहीं है। 5. सर्वोच्च न्यायालय के उन्नीकृष्णन फैसले के अनुसार अनुच्छेद 41 के तहत प्रारंभिक शिक्षा के अलावा माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा (तकनीकी व प्रोफेशनल शिक्षा समेत) भी मौलिक अधिकार के दायरे में आते हैं लेकिन इस अधिकार को राज्य अपनी आर्थिक क्षमता की सीमाओं के मद्देनजर ही मान्यता देगा। माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा को खासतौर पर मौलिक अधिकार के दायरे में लाना जन आंदोलन का तात्कालिक एजेंडा बनना चाहिए चूंकि इसके बगैर बेहतर कैरियर और उच्च शिक्षा व प्रोफेशनल कोर्सों के सब दरवाजे बंद हैं। नि:संदेह, सामाजिक विकास का सवाल केवल कैरियर और कोर्सों का सवाल नहीं है। लेकिन जब तक वर्तमान जनविरोधी पूंजीवादी विकास का खाका हावी है तब तक शिक्षा को आगे बढ़ने की उपलब्ध्ता तमाम संभावनाओं से जोड़ना मौलिक अधिकार का मुद्दा बनता है। दरअसल, उच्च शिक्षा व प्रोफेशनल संस्थानों में आरक्षण का मुद्दा दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए विकास के दरवाजे तभी खोल सकता है जब इन वर्गों के बच्चों को समान स्कूल प्रणाली के खाके में समतामूलक माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा पाने का मौलिक अधिकार मिल जाए। इस दृष्टि से अनुच्छेद 21 (क) में संशोधन करके ''18 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों'' को मुफ्रत और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार दिलाना और वह भी बिना किसी शर्त के, जनता की अगली लड़ाई होगी।

शिक्षा अधिकार और समान स्कूल प्रणाली पर हमले

देश की शिक्षा नीति व व्यवस्था पर वैश्वीकरण के कारण हुए दुष्प्रभावों का विवरण ऊपर दिया गया है। लेकिन विगत 2-3 वर्षों में वैश्विक बाजार की ताकतों के हौसले सब हदों को पार कर रहे हैं। इसलिए शिक्षा के अधिकार और 'समान स्कूल-प्रणाली' पर हो रहे निम्नांकित नये हमलों को पहचानना जरूरी हो गया है - शिक्षा के अधिकार का विधेयक बनाने के लिए हाल में जो बहस चली है उसमें 'समान स्कूल-प्रणाली' और पड़ोसी स्कूल की अवधारणा को हाशिए पर धकेलने के लिए एक नया शगूफा छोड़ा गया - निजी स्कूलों में पड़ोस के कमजोर तबके के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का शगूफा। सारी बहस 'समान स्कूल-प्रणाली' और पड़ोसी स्कूल के महत्वपूर्ण मुद्दे से हटकर निजी स्कूलों के मालिकों की दिक्कतों, वहां के अभिजात माहौल में गरीब व पिछड़ी जातियों के बच्चों को आनेवाली सांस्कृतिक व मनोवैज्ञानिक परेशानियों और ऐसे आरक्षण के लिए संसाधनों के स्रोतों पर फोकस हो गयी। यह मुद्दा गौण हो गया कि यदि इस प्रावधान के अनुसार 25 प्रतिशत गरीब बच्चे पड़ोस से आयेंगे तो जाहिर है कि 75 प्रतिशत फीस देनेवाले संपन्न बच्चे पड़ोस से नहीं आयेंगे - तो फिर यह बराबरी हुई या खैरात? क्या संपन्न बच्चों से फीस लेना अनुच्छेद 21 (क) का उल्लंघन नहीं होगा? इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि इस प्रावधन से कितने गरीब बच्चों को लाभ मिलने की उम्मीद है। आज देश भर में प्रारंभिक स्तर पर निजी स्कूलों में बच्चे कुल संख्या का बमुश्किल 20 प्रतिशत हैं। यानी तमाम निजी स्कूलों की प्रारंभिक शिक्षा देने की क्षमता 6-14 वर्ष आयु समूह के कुल 20 करोड़ बच्चों में से मात्रा 4 करोड़ बच्चों की है। यदि निजी स्कूलों की इस क्षमता का पड़ोस के 25 प्रतिशत कमजोर तबके के लिए आरक्षित कर दिया जाये तो इससे लाभान्वित होने वाले बच्चों की संख्या 1 करोड़ से अधिक की नहीं हो सकती। तो शेष 19 करोड़ बच्चों के मौलिक अधिकार का क्या होगा? जाहिर है कि 25 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधन का न तो शिक्षा के अधिकार से कोई संबंध है, न 'समान स्कूल- प्रणाली' से और ना ही 86वें संशोधन के अनुरूप शिक्षा प्रणाली के फनर्निर्माण से। तब भी न केवल नीति निर्माण करनेवाला राजनैतिक नेतृत्व और सरकारी तंत्रा बल्कि पूरा मीडिया, गैर-सरकारी संगठन और यहां तक कि न्यायपालिका भी इसमें ऐसी उलझी हुई है जैसे कि मौलिक अधिकार का सारा दारोमदार इसी 25 प्रतिशत आरक्षण में है। शायद इसलिए क्योंकि इसके चलते शासक वर्ग के पक्ष में खड़ी देश की आर्थिक व्यवस्था और अन्य सुविधाओं में कोई परिवर्तन नहीं करने पड़ेंगे और साथ में शिक्षा के बाजारीकरण की रफ्तार भी यथावत बनी रहेगी। जून 2006 में योजना आयोग ने 11वीं पंचवर्षीय योजना का दृष्टिपत्र जारी किया। इसमें अचानक बगैर किसी शैक्षिक विमर्श के वाउचर प्रणाली का प्रस्ताव रखा गया। वाउचर प्रणाली क्या है? इसके अनुसार कमजोर तबके के बच्चों को (कितने बच्चों को, यह नहीं बताया) वाउचर दे दिये जायेंगे जिसको लेकर ये बच्चे जिस भी निजी स्कूल में प्रवेश पा लें, उसकी फीस सरकार अदा कर देगी। यह कोई नहीं बता रहा है कि क्या ये वाउचर 20 करोड़ बच्चों को दिये जायेंगे। ना ही यह बताया जा रहा है कि इन वाउचरों के जरिए किसी निजी स्कूल की फीस के कितने बड़े अंश का भुगतान किया जायेगा। क्या यह वाउचर कैपीटेशन फीस, भवन विकास फंड और अभिजात तर्ज पर आयोजित वार्षिक पिकनिक/डांस के खर्च का भी भुगतान करेगा? और उस स्थिति में क्या होगा जब अलग-अलग निजी स्कूलों की फीस अलग-अलग होगी? यह भी कोई नहीं बता रहा कि वाउचर प्रणाली कई देशों में असफल हो चुकी है। हाल में कुछ लोग वाउचर प्रणाली की जगह निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण का शगूफा छोड़कर मौलिक अधिकार की बहस को भ्रमित करने की कोशिश में हैं। योजना आयोग की इस मुद्दे पर अस्पष्टता या चुप्पी की एक ही व्याख्या हो सकती है - वाउचर प्रणाली निजी स्कूलों को पिछले दरवाजे से सरकारी धन उपलब्ध कराने और वैश्विक बाजार को संतुष्ट करने का नायाब तरीका है। जैसा कि उपर बताया है कि विगत 15 वर्षों में वैश्वीकरण के तहत सरकारी स्कूल प्रणाली को धवस्त करने की नीति लागू की गयी । इसमें जब काफी सफलता मिल गयी तो विश्व बैंक और बाजार की अन्य ताकतें विभिन्न सहचर गैर-सरकारी एजेंसियों के जरिए तथाकथित शोध्-अधययन आयोजित करके ऐसे आंकड़े पैदा करवा रही हैं कि किसी तरह सिद्ध हो जाये (यानी भ्रम फैल जाए) कि सरकारी स्कूल एकदम बेकार हो चुके हैं और इनको बंद करना ही देश के हित में होगा। आये दिन रिपोर्ट छप रही हैं यह बताते हुए कि सरकारी स्कूल कितने बदहाल हैं, सरकारी स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं, यदि हैं तो वे पढ़ाते नहीं हैं और वहां जाने वाले विद्यार्थी न लिखना जानते हैं और न हिसाब करना। कोई रपट यह नहीं बताती कि ये बदहाल कैसे हुए और इस प्रक्रिया में देश के शासक वर्ग एवं बाजार की ताकतों की क्या भूमिका रही है।

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