“विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण”
लोगों ने कहा ''विश्व बैंक'' की खुली थैली। शर्त शर्त पर शर्त विषैली ।
लोगों ने कहा ''विश्व बैंक'' की खुली थैली। शर्त शर्त पर शर्त विषैली ।
वक्ताओं ने कहा 'विश्वबैंक के कर्मचारी ही परोक्ष रूप से भारत सरकार की नीतियां बना रहे हैं'
21-24 सितम्बर 2007 को सैकड़ों लोग 'विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' के लिए इकट्ठा हुए। 4 दिन के इस सत्र में दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्थाओं में से एक विश्वबैंक के खिलाफ अपने जीवन के हर क्षेत्र की शिकायतें दर्जनों न्यायधीशों के सामने रखा। गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं और अन्य वंचित लोगों के अनुभवों और साक्ष्यों को उजागर करता हुआ यह न्यायाधिकरण विश्वबैंक के; आर्थिक और सामाजिक नीति के ज्ञान के) साधनों के खिलाफ सीधा संघर्ष है। उन्होंने विश्वबैंक की नीतियों के बारे में बताया, जिनके खेत, जंगल और घर छीन लिये गये हैं। उनकी बचत को खत्म कर दिया गया है, उनका स्वास्थ्य तक खराब कर दिया गया है, उनके परिवारों को तोड़ दिया गया है, उनसे पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा को छीन लिया गया है और उन्हें स्थानीय सूदखोरों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ संघर्ष के अखाड़े में ला दिया है। उनकी व्यक्तिगत और सामूहिक कहानियां एक दूसरी ही सच्चाई बयां कर रही थीं 'विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' में। नई दिल्ली में, वे गरीब जिनके नाम पर विकास का तमाशा किया जा रहा है उनकी आवाज ने यही कहा ''विश्व बैंक'' की खुली थैली। शर्त शर्त पर शर्त विषैली ।
विश्व बैंक की योजनाओं और उसके कामकाज को लेकर भारत ही नहीं दुनिया भर में संदेह व्यक्त किए जाते रहे हैं। बैंक की विनाशक नीतियों के खिलाफ सामाजिक संगठन प्राय: आवाज भी उठाते रहे हैं, लेकिन विश्व बैंक की गतिविधियों पर हुई स्वतंत्र जन सुनवाई के बाद यह बात अब प्रमाणिक रूप से साफ तौर पर कही जा सकती है कि बैंक की नीतियां राष्ट्रीय विकास में नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। यह बात भी सामने आई है कि भारत विश्वबैंक से सहायता प्राप्त करने वाला सबसे बड़ा कर्जदार देश है। जन सुनवाई में देश के अनेक उच्च पदस्थ अधिकारियों की सूची जारी कर विश्व बैंक से उनके संबंधों का खुलासा भी किया गया। दरअसल यह बताने की कोशिश की गई है कि ये अधिकारी मूलत: विश्व बैंक के हितों के लिए काम कर रहे हैं।
प्रशांत भूषण ने उस नग्न सच्चाई का भी खुलासा किया कि विश्वबैंक-आईएमएफ और सरकार के बीच के 'रिवॉल्विंग डोर' सम्बन्धी भारत सरकार की नीतियां नजरंदाज नहीं की जा सकतीं। ('रिवॉल्विंग डोर' यानी जब चाहा तब विश्वबैंक-आईएमएफ में और उपयुक्त अवसर के साथ भारत सरकार में)। इससे ज्यादा इसके बारे में कोई क्या कह सकता है कि पिछले 20 सालों से खासतौर से 1991 से चोटी पर बैठे बहुत से आर्थिक नीति-निर्माता विश्वबैंक और आईएमएफ के कर्मचारी रह चुके हैं। इनमें योजना आयोग, वित्तमंत्रालय के सचिव और रिजर्व बैंक के गवर्नर शामिल हैं। बिना किसी रुकावट के विश्वबैंक-आईएमएफ और भारत सरकार के बीच ऐसे आसानी से आते और जाते हैं गोया कि भारत सरकार विश्व बैंक-आईएमएफ का ही एक विभाग है।
21-24 सितम्बर 2007 को सैकड़ों लोग 'विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' के लिए इकट्ठा हुए। 4 दिन के इस सत्र में दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्थाओं में से एक विश्वबैंक के खिलाफ अपने जीवन के हर क्षेत्र की शिकायतें दर्जनों न्यायधीशों के सामने रखा। गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं और अन्य वंचित लोगों के अनुभवों और साक्ष्यों को उजागर करता हुआ यह न्यायाधिकरण विश्वबैंक के; आर्थिक और सामाजिक नीति के ज्ञान के) साधनों के खिलाफ सीधा संघर्ष है। उन्होंने विश्वबैंक की नीतियों के बारे में बताया, जिनके खेत, जंगल और घर छीन लिये गये हैं। उनकी बचत को खत्म कर दिया गया है, उनका स्वास्थ्य तक खराब कर दिया गया है, उनके परिवारों को तोड़ दिया गया है, उनसे पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा को छीन लिया गया है और उन्हें स्थानीय सूदखोरों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ संघर्ष के अखाड़े में ला दिया है। उनकी व्यक्तिगत और सामूहिक कहानियां एक दूसरी ही सच्चाई बयां कर रही थीं 'विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' में। नई दिल्ली में, वे गरीब जिनके नाम पर विकास का तमाशा किया जा रहा है उनकी आवाज ने यही कहा ''विश्व बैंक'' की खुली थैली। शर्त शर्त पर शर्त विषैली ।
विश्व बैंक की योजनाओं और उसके कामकाज को लेकर भारत ही नहीं दुनिया भर में संदेह व्यक्त किए जाते रहे हैं। बैंक की विनाशक नीतियों के खिलाफ सामाजिक संगठन प्राय: आवाज भी उठाते रहे हैं, लेकिन विश्व बैंक की गतिविधियों पर हुई स्वतंत्र जन सुनवाई के बाद यह बात अब प्रमाणिक रूप से साफ तौर पर कही जा सकती है कि बैंक की नीतियां राष्ट्रीय विकास में नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। यह बात भी सामने आई है कि भारत विश्वबैंक से सहायता प्राप्त करने वाला सबसे बड़ा कर्जदार देश है। जन सुनवाई में देश के अनेक उच्च पदस्थ अधिकारियों की सूची जारी कर विश्व बैंक से उनके संबंधों का खुलासा भी किया गया। दरअसल यह बताने की कोशिश की गई है कि ये अधिकारी मूलत: विश्व बैंक के हितों के लिए काम कर रहे हैं।
प्रशांत भूषण ने उस नग्न सच्चाई का भी खुलासा किया कि विश्वबैंक-आईएमएफ और सरकार के बीच के 'रिवॉल्विंग डोर' सम्बन्धी भारत सरकार की नीतियां नजरंदाज नहीं की जा सकतीं। ('रिवॉल्विंग डोर' यानी जब चाहा तब विश्वबैंक-आईएमएफ में और उपयुक्त अवसर के साथ भारत सरकार में)। इससे ज्यादा इसके बारे में कोई क्या कह सकता है कि पिछले 20 सालों से खासतौर से 1991 से चोटी पर बैठे बहुत से आर्थिक नीति-निर्माता विश्वबैंक और आईएमएफ के कर्मचारी रह चुके हैं। इनमें योजना आयोग, वित्तमंत्रालय के सचिव और रिजर्व बैंक के गवर्नर शामिल हैं। बिना किसी रुकावट के विश्वबैंक-आईएमएफ और भारत सरकार के बीच ऐसे आसानी से आते और जाते हैं गोया कि भारत सरकार विश्व बैंक-आईएमएफ का ही एक विभाग है।
उदारीकरण- भूमंडलीकरण के दूसरे दशक में जब व्यापक रूप से देश में विदेशी कंपनियों के अनुरूप ढांचागत परिवर्तन की योजनाएं बन रही हैं तो यह सवाल सहज ही खड़ा होता है कि इन योजनाओं में विश्व बैंक की भूमिका क्या है? विकास के नाम पर विश्व बैंक द्वारा पोशित अनेक योजनाओं के बावत ऐसे कई सवालों के जवाब जन सुनवाई में ढूंढने की कोशिश की गई। 21- 24 सितंबर तक दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में चली जन सुनवाई में शायद पहली ऐसी घटना है जिमसें विश्व बैंक को कटघरे में खड़ा किया गया। एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि कोरे भाषण ही नहीं साक्ष्यों के साथ विश्व बैंक की कारगुजारियों का कच्चा-चिट्ठा 'जन न्यायाधिकरण के जूरी के समक्ष रखा गया।
चार दिन में प्रस्तुत साक्ष्यों और शिकायतों के आधार पर न्यायाधिकरण ने कहा कि भारतीय राष्ट्रीय नीतियों के संदर्भ में विश्व बैंक की भूमिका नकारात्म्क और असंगत रही है। भारत दुनिया में विश्व बैंक का सबसे बड़ा कर्जदार देश है। 1947 से अब तक भारत पर 60 बिलियन डालर (दो लाख चालीस हजार करोड़ रुपए) का कर्ज हो चुका है। न्यायाधिकरण ने माना कि विश्व बैंक के कर्जों र्का प्रयोग महत्वपूर्ण नीतियों में बदलाव लाने और विभिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपनी शर्तें मनवाने के लिए किया गया है, जिनके सामाजिक, राजनैतिक रूप से उल्टे परिणाम सामने आ रहे हैं। इनमें प्रषासनिक सुधार, स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी और पर्यावरण जैसे क्षेत्र महत्वपूर्ण हैं।
हालांकि जन सुनवाई एकपक्षीय ही रही। न्यायाधिकरण के समक्ष अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के दावों के बावजूद विश्व बैंक का कोई प्रतिनिधि सुनवाई के समय जवाब देने के लिए मौजूद नहीं रहा। न तो भारत सरकार की तरफ से ही कोई अधिकारी उपस्थित हुआ, जबकि सभी मंत्रालयों को सूचनाएं आमंत्रण भेजे गए थे। अलबत्ता यह जरूर हुआ कि विश्व बैंक ने अनेक सवालों के जवाब गोल-मोल रूप में लिखित तौर पर नेट पर भेजा, जो चौंकाने वाला है। विश्व बैंक कहता है कि 'भारत में जल आपूर्ति की सेवाओं के निजीकरण के लिए उसने कभी भी सिफारिश नहीं की, वह तर्क देता है कि उसकी मंसा है कि गरीबों को स्वच्छ पानी उपलब्ध हो। इसके लिए सेवाओं में सुधार हो। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने प्रमाणों सहित उपस्थित होकर बताया कि कब-कब और किस तरह विश्व बैंक ने दिल्ली जल बोर्ड के निजीकरण का प्रयास किया। यह बात अलग है कि जागरूक नागरिक और बोर्ड के कर्मचारियों के विरोध के कारण निजीकरण संभव नहीं हो सका।
देश के 63 शहरों में वैश्विक मानकों के अनुरूप सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्यों से शुरू की गई जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन (जेएनयूआरएम) योजना के संदर्भ में विश्व बैंक की नीतियों का खुलासा किया गया। केरल राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष प्रो. प्रभात पटनायक ने बताया कि जेएनयूआरएम विश्व बैंक की ही योजना है। उन्होंने बताया कि केरल की जेएनयूआरएम योजना में राज्य सरकार पर दबाव डाला जा रहा था कि वह स्टाम्प डयूटी कम करे। 15 से 17 फीसदी स्टाम्प डयूटी को 5 फीसदी पर लाने का दबाव डाला जा रहा था। बैंगलूर स्थित 'कोलाबोरिक फार द एडवांस्मेंट ऑफ द स्टडीज इन अर्बनिज्म' के विनय बैंदूर ने प्रमाण दिया कि किस तरह राज्य सरकार और उसकी अर्थव्यवस्था को 'कर्नाटक इकोनॉमिक स्ट्रक्चररिंग लोन' में बदल कर उसका निगमीकरण कर दिया गया। लखनऊ के विज्ञान फाउंडेशन के संदीप खरे ने योजना को लागू करने के पीछे चल रही राज्य सरकार की तानाशाही के प्रमाण दिए। विनय बैंदूर ने बताया कि 250 मिलियन डालर के कर्ज के इतने दूरगामी परिणाम हुए कि सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण हो गया और स्वैच्छिक सेवानिवृत्त का भुगतान लेने के लिए दो लाख स्थायी कर्मचारियों की कटौती करने के लिए दबाव बनाया गया। इसका प्रभाव किसानों की आत्महत्या के रूप में सामने आया। ज्यादातर किसानों ने इसलिए आत्महत्या की कि वे बिजली का बिल नहीं चुका सकते थे। बिजली की दर अचानक बढ़ा दिए गए थे। खेती पर मिलने वाली सब्सिडी घटना देने से लागत में वृध्दि हो गई थी।
जूरी सदस्य के रूप में प्रसिध्द वैज्ञानिक मेहर इंजीनियर ने अपने फैसले में कहा कि साक्ष्य बताते हैं कि विश्व बैंक ने भारत पर अपनी बेकार तकनीकें कैसे थोपा। उन्होंने कहा कि गहन शोध के बाद जो सबूत यहां रखे गए उससे पर्यावरण विनाश में विश्व बैंक की भूमिका का आकलन करना आसान है। उन्होंने साफ-साफ कहा कि दरअसल बैंक अमीरों और शहरों का समर्थक व पर्यावरण विरोधी है।
विश्व बैंक निजीकरण के सवाल से चाहे जितना भी अपने को दूर रखे। उसके हस्तक्षेप के निशान मिल ही जाते हैं। ऊर्जा क्षेत्र के निजीकरण के सवाल पर पुणे के प्रयास एनर्जी ग्रुप के श्री कुमार एन ने बताया कि 1990 के दशक में विश्व बैंक से लिए गए कर्जे का बीस से तीस फीसदी ऊर्जा क्षेत्र में लगाया गया। विश्व बैंक से कर्ज लेने वालों में उड़ीसा पहला राज्य था। श्री कुमार का मानना है कि विश्व बैंक की सलाह पर चलने के कारण स्थानीय ऊर्जा विषेशज्ञों की अनदेखी की गई, जबकि विदेशी सलाहकारों पर 306 करोड़ रुपए खर्च किए गए। इन सलाहकार एजेंसियों ने ही उड़ीसा में पानी के वितरण का निजीकरण करने की सिफारिश की। अमेरिकन फर्म 'एईएस' ने केंद्रीय क्षेत्र में पानी के वितरण का काम अपने हाथ में लिया। 2001 में फर्म ने राज्य छोड़ दिया।
विभिन्न राज्यों से आए अनेक वक्ताओं ने न्यायाधिकरण के समक्ष इस बात के सबूत रखे कि उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने में बैंक की योजनाएं कारगार साबित हो रही हैं। मद्रास के 'कॉरपोरेट एकाउंबिलिटी डेस्क' के नित्यानंद जय रामन ने न्यायाधिकरण को साक्ष्य देते हुए बताया कि बैंक पैसे और तकनीक का लालच देकर उपनिवेशवाद को बढ़ावा दे रहा है। बैंक ने 88 से ज्यादा, जिन स्थानों पर 'कॉमन एफलूएंट ट्रीटमेंट प्लांन' लगाने पर जोर दिया, उनमें से 90 प्रतिशत से अधिक ऐसे थे जो केंद्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड के पर्यावरण मानकों पर खरे नहीं उतरते थे।
मिनिसोटा विश्वविद्यालय के प्रो. माइकल गोल्डमैन ने विश्व बैंक के इतिहास और उसकी कार्यप्रणाली की चर्चा परदे पर की। प्रो. गोल्डमैन बताते हैं कि विश्व बैंक पर पांच महाशक्तियों - अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी और फ्रांस का कब्जा है। 2003 में विश्व बैंक की 4-5 फीसदी योजनाओं के ठेके इन्हीं देशों की कंपनियों को मिला। वे बताते हैं कि विश्व बैंक की योजनाएं जहां भी चल रही हैं वहां स्थानीय ढांचे में स्वत: ही असमानता पैदा हो रही है। उदाहरण के रूप में आज भारत में विश्व बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) की प्राथमिकता मेगासिटी परियोजनाओं में पैसा लगाना है। भारत के बड़े शहरों में आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक काम्प्लेक्स, सड़कों, पानी, सीवेज और बिजली जैसे 'नगरीय ढांचे' के लिए करोड़ों डालर कर्ज दिया जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि इस शहरी विकास से गरीबी दूर होगी; रोजगार बढ़ेगे और स्वास्थ्य तथा आवासीय सुविधाओं में सुधार होगा। लेकिन इस नीति को देखें तो सच्चाई कुछ और ही दिखती है। ज्यादातर कर्ज स्थानीय स्तर की जवाबदेह या लोकतांत्रिक एजेंसियों को मिलते ही नहीं। ऐसी एजेंसियों को मिलते हैं जिन्हें वास्तव में बैंक ने लोगों को भ्रमित करने के लिए बना रखा है। जैसे- बिजली बोर्ड, जल बोर्ड आदि। इन योजनाओं लिए अंतररष्ट्रीय स्तर पर बोली ऐसी शर्तों र्पर लगाई जाती है कि भारतीय कंपनियां खुद ही बाहर हो जाएं।
विश्व बैंक के पूर्व अध्यक्ष वाल्फोविटज के कारण बैंक की हुई बदनामीं से उबारने में लगे नए अध्यक्ष राबर्ट जोएलिफ (जो अमरीका के पूर्व व्यापार वाणिज्य प्रतिनिधि हैं) के प्रयासों पर सवाल खड़ा करते हुए डॉ. गोल्डमैन संकते करते हैं कि अब विश्व बैंक के मूल्यांकन के प्रयास, सुधार या समाप्ति जैसे प्रश्नों पर गम्भीरता से सोचना होगा। बैंक शैली पर आधारित विकास के 60 वर्ष बाद भी अगर कर्जदार देश, कर्ज की मूल राशि से ज्यादा बैंक को चुका रहे हैं। अगर कर्ज आज भी 'एलीट' वर्ग के विकास के लिए दिए जाते हैं और विकास के व्यवसाय में लगी प्रत्येक संस्था, लोकतंत्र और सामाजिक- आर्थिक समानता की बजाय मुनाफे के सिध्दांत पर काम करती हैं तो अब अनुकूल समय है कि इनके आधारभूत उद्देश्यों और संरचना पर सार्वजनिक बहस की जाए।
नील टैंग्री बैंक की कारगुजारियों पर चलने वाली बहसों पर रोक लगाने के लिए उसके प्रयासों का खुलासा करते हैं। वे पूछते हैं कि डेढ़ दशक पूर्व नव- उदारवादी नीतियों पर चली बहस क्यों खत्म हो गई? वे बताते हैं कि बहसों को रोकने के लिए बैंक अपने ही तरीके से काम करता है। इसके कर्मचारी और सलाहकार हजारों लेख और रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं। बाहरी शोधार्थियों को वित्तीय सहायता भी देते हैं। जन संपर्क के लिए इसका एक बड़ा तंत्र है। 'द इकोनॉमिक डेवलपमेंट इंस्टीटयूट' नाम से बैंक की एक मिनी यूनिवर्सिटी है। बैंक अपनी नीतियों, उद्देश्यों को अन्य संस्थाओं तक पहुंचाने के लिए कर्मचारियों की अदला-बदली भी करता है। इसके लिए लगभग दस हजार 'डेवलपमेंट एक्सपर्ट' काम करते हैं। विकासात्मक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित पद और सर्वोत्तम वेतन देने वाली यह एकमात्र संस्था है।
प्रसिध्द अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार ने कहा सार्वजनिक वित्त के लिए हम पूरी तरह से विश्वबैंक के उपर निर्भर हो गये हैं। वही हमें निर्देशित कर रहा है कि हमें क्या करना है? हम स्वीकार भी कर लेते हैंए जैसे कि हमारे सामने कोई रास्ता ही नहीं बचा हो। विश्वबैंकए आईएमएफ और डब्लूटीओ की नीतियां एकतरफा लादी जा रही हैंए यह वैश्वीकरण का दूसरा चेहरा हमें देखने को मिल रहा है। आय में असामनताए बेरोजगारी तथा उत्पादन में कमी आई है।
विश्व बैंक की कार गुजारियों पर शुरू हुई इस बहस के पीछे एक राजनीति भी है, जिसका उदाहरण लातिन अमरीकी देशों में देखने को मिल रहा है। इसकी चर्चा में नील टैंग्री बताते हैं कि विश्व बैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण अन्याय के खिलाफ केवल विद्रोह मात्र नहीं है बल्कि उससे कहीं बढ़कर कुछ करने का प्रयास। जन न्यायाधिकरण एक सुविचारित राजनीतिक विचारधारा है, जिसका उद्देश्य नव- उदारवाद और आर्थिक नीति के मुद्दे पर बहस चलाना है।
स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण का आयोजन साठ से भी ज्यादा संगठनों ने मिलकर किया। जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, इंडियन सोशल एक्शन फोरम (इंसाफ), ह्यूमन राइटस लॉ नेटवर्क, जेएनयू छात्र संञ्, टीचर एसोसिएशन, अनेक सामाजिक कार्यकर्ता और अकादमियों के सदस्य और योजनाओं से प्रभावित लोग थे। न्यायाधिकरण के जूरी के रूप में लेखिका अरूंधति राय, सामजिक कार्यकर्ता अरूणा राय, सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीष पीवी सावंत, पूर्व वित्त सचिव एसपी शुक्ला, पूर्व जल सचिव रामा स्वामी अय्यर, वैज्ञानिक मेहर इंजीनियर, अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी, थाई आध्यात्मिक नेता सुलक्ष शिवरक्षा और मैक्सिको के अर्थशास्त्री एलियंद्रो नडाल थे।
बहरहाल इंसाफ के जनरल सेके्रटरी विल्फ्रेड डी कास्टा की बात से जनसुनवाई में शुरू हुई बहस आगे बढ़ती नजर आती है। डी कॉस्टा कहते हैं- न्यायाधिकरण उपयोगी साबित हुआ है। इसने सामाजिक आंदोलनों, संगठनों, शोधकर्ताओं, व अकादमियों के सदस्यों को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है। हमारा अगला कदम होगा कि हम इस मंच का उपयोग नव- उदारवाद के खिलाफ राजनैतिक संघर्ष पर आधारित एक लड़ाई के लिए करें और एक ऐसे भारत का निर्माण करें जहां विश्व बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक जैसी संस्थाएं न हों।
'स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' में चौथे दिन न्यायाधीशों ने सुनाया अपना फैसला
विश्व बैंक के कार्यों पर हो रहे चार दिवसीय 'स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' में चौथे दिन न्यायाधीशों ने अपना फैसला सुनाया। न्यायाधिकरण में भारत में बैंक की नीतियों और बढ़ते हस्तक्षेप को लेकर कई आरोप लगाए गए। हालांकि विश्व बैंक के भारतीय कार्यालय ने स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण में शामिल होने का दावा किया था और यह भी कहा था कि वे बैंक के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करेंगे, लेकिन पर्याप्त समय और स्थान दिए जाने के बावजूद भी वे अपने दावे को सिध्द करने के लिए नहीं पहुंचे।
जन न्यायाधिकरण ने पाया कि भारतीय राष्ट्रीय नीतियों को बनाने में विश्व बैंक का प्रभाव नकारात्मक और असंगत रहा है। हालांकि भारत विश्व बैंक से सहायता प्राप्त करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार है। इस पर 1944 से अब तक 60 बिलियन डॉलर (2 लाख 40 हजार करोड़ रुपए) का कर्ज है। इस समय वार्षिक कर्ज देश के सकल ञ्रेलू उत्पाद से एक फीसदी से भी कम है (नई योजनाओं के लिए 2005 में विश्व बैंक से लिया गया कर्ज जीडीपी का 0.45 फीसदी था)इन कर्जों र्का प्रयोग महत्वपूर्ण नीतियों में बदलाव लाने और विभिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रों में शर्तें मनवाने के लिए किया गया। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से प्रशासनिक सुधार, स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी और पर्यावरण हैं, जिनका सामाजिक और राजनीतिक रूप से प्रतिकूल परिणाम भी रहा है। ये कर्ज एशियन विकास बैंक; एडीबी) और डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (डीएफआईडी) - यूके जैसे द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संस्थाओं से अतिरिक्त आर्थिक सहायता को वैधानिक रूप प्रदान करते हैं। विश्व बैंक से लिए गए कर्जे ने बहुत हद तक सामाजिक और पर्यावरणीय नुकसान किया है। इससे नर्मदा ञटी में पलायन से लेकर बड़वानी जैसे स्थानों पर परम्परागत मछुवारों की जीविका तक का नुकसान हुआ है।
न्यायाधिकरण ने इस बात पर भी ध्यान दिया कि भारत के नीति निर्माण पर यह स्वेच्छाचारी प्रभाव विश्वबैंक के अपने ही रूल्स ऑफ एसोसिएशन का उल्लंघन करता है। जिसमें इसे एक अराजनीतिक संस्था का दर्जा दिया गया है और यह भी साफ तौर पर कहा गया है कि यह किसी भी सदस्य देश के राजनीतिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। न्यायाधिकरण में याचियों ने यह भी बात रखी कि भारत सरकार के वरिष्ठ पदों पर विश्व बैंक के पूर्व अधिकारियों की उपस्थिति अस्वीकार्य है, क्योंकि इसमें स्वार्थ शामिल हैं।
विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' के उद्देश्य का समापन सत्र को संबोधित करते हुए ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क की निदेशक दीपिका डिसूजा ने कहा कि जन न्यायाधिकरण का उद्देश्य 'उदारीकरण और नव-आर्थिक नीति' के मुद्दे पर बहस को कोशिश जगाना था। मुख्य रूप से यह विश्वबैंक और एलीट वर्ग की 'ज्ञान पर तानाशाही' के खिलाफ सीधा प्रहार है।
स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण (आईपीटी)' के बारे में और जानने के लिए वेवपेज 'वर्ल्डबैंकट्रिब्यूनल डॉट कॉम' पर देख सकते हैं।
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