मछली पानी में रहती है और मनुष्य भाषा में। मछली के जीवन की बुनियादी शर्त है - पानी। उसके पास पानी से अलग रहने का कोई विकल्प नहीं है। चाहें तो कह लें कि अस्तित्व के एक खास धरातल पर मछली और पानी दो नहीं एक हैं। मछली और पानी की पारस्परिकता का यही तकाजा है। मनुष्य के पास भी भाषा के सिवाय और कोई घर नहीं। जब से मनुष्य है तभी से भाषा भी है। आदमी रहता आया है दुनिया में मगर दुनिया को पाया उसने भाषा में। आदमी आधा अपनी स्मृतियों में होता है और आधा अपनी आकांक्षा में। स्मृतियां उसका भूत हैं और आकांक्षा उसका भविष्य। अपने होने के अर्थ को पाने के लिए आदमी चाहे जिस तरफ गति करे उसको पहला और अंतिम सहारा भाषा में मिलता है। यह सफर चाहे 'मैं' से 'हम' होने का हो या 'हम कौन थे और क्या होंगे अभी' का। इस सफर का एक-एक कदम भाषा के भीतर से होकर गुजरता है।
भाषा में शब्द होते हैं, शब्द में अर्थ, अर्थ में इतिहास, इतिहास में मूल्य और मूल्यों से ही जीवन का मानचित्र रचता-रंगता है। पानी कम पड़े, सूखने लगे या गंदला होता जाय। कुछ ऐसा हो कि मछली की सांसे अटकने लगे तो फिर समझिए कि मछली की जिजीविषा के आगे अब अंधी सुरंग है और इस सुरंग के आखिरी सिरे पर है एक तयशुदा मौत। दुनिया का पानी कम पड़ रहा है : तेजाब में तब्दील हो रहा है - मछलियां सड़ और मर रही हैं। हां! भाषाएं भी कम हो रही हैं और भाषाओं के बिछौने पर लेटे मानवता के कई-कई संस्करण या तो मिट गए हैं या मिटने के कगार पर हैं। अगर आपको यह बात किसी भयभीत और दुनिया के नाश की भविष्यवाणी में रस लेने वाले गपोड़ की मनोग्रंथि जान पड़े तो एक नजर प्रोफेसर हैरीसन और ग्रेगरी एंडरसन की बातों पर डालिए। खतरे में पड़ी भाषाओं की खोज-बीन से जुड़ी ओरेगांव की एक संस्था से संबध्द ये दो भाषा-प्रेमी (और भाषाविद् भी) संसार भर की खाक छान चुके हैं। नेशनल ज्यॉग्राफ्रिक सोसायटी की भाषा विषयक एक परियोजना के सिलसिले में इन दोनों ने दुनिया भर में घूम-घूम कर यह टटोला कि आखिर किन भाषाओं के सामने अब दुनिया की स्लेट से मिट जाने का खतरा है और खतरे की जद में आ चुकी इन भाषाओं के बोलने-चालने वाले कितने और कैसी दशा में हैं। प्रो. हैरीसन और एंडरसन का कहना है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएं विनाश के कगार पर हैं। पूर्वी साइबेरिया, उत्तारी आस्ट्रेलिया, मध्यवर्ती दक्षिण अमरीका और संयुक्त राज्य अमरीका के प्रशांत महासागरीय उत्तार-पश्चिमी इलाके में ऐसी सैकड़ों भाषाएं हैं जो अपनी गिनी-चुनी सांसे गिन रही हैं। पेन्सिलवेनिया स्थित वार्थमोर कॉलेज के भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डेविड हैरिसन चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि भाषाओं के अस्तित्व पर विश्वव्यापी खतरा मंडरा रहा है। भाषाओं के लुप्त होने की गति वनस्पतियों और जैव प्रजातियों के लुप्त होने की गति से कहीं अधिक तेज है और 'कहीं-कहीं तो हालत इतनी बद्तर है कि किसी-किसी भाषा का सिर्फ एक जाननहारा बचा है।' इन दोनों भाषाविदों ने अपनी खोजबीन में पाया कि कुछ भाषाएं आनन-फानन में मिट गईं। इसका कारण रही प्राकृतिक आपदा जिसने किसी छोटे-मोटे समुदाय को अपनी चपेट में लिया और उस समुदाय के साथ उसकी भाषा भी काल के गाल में समा गई। बहरहाल, ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं हुआ। अधिाकतर भाषाएं धीमे-धीमे अपने अंत को पहुंची - लोगों ने अपनी जबान छोड़ दी क्योंकि बदलते हुए हालात में उन्होंने अपने जीवन को गैरभाषा और इसके बोलने वालों से घिरा पाया। हालात के दबाव में यह गैरभाषा ही उनकी भाषा बन गई। मिसाल के लिए वोलिविया का उदाहरण लिया जा सकता है। इन दो शोधकर्ताओं का कहना है कि वोलिविया में योरोप की अपेक्षा भाषाओं की संख्या दोगुनी है लेकिन भाषाओं के इस भरे-पूरे संसार को स्पेनिश का दुर्दम्य विस्तार अपनी चपेट में ले रहा है। कुछ भाषाएं इस प्रक्रिया में उतनी ही बची हैं जितने उनके बोलने वाले। अपने इतिहास और विस्तार से वंचित होती ऐसी भाषाओं में उत्तारी आस्ट्रेलिया की एक भाषा मगाटा का नाम लिया जा सकता है। इस भाषा के अब बस तीन बोलनेवाले बचे हैं। पश्चिमी आस्ट्रेलिया की एक भाषा यावुरु के भी तीन ही नामलेवा इस दुनिया में शेष हैं और अमुरदाग नाम की भाषा को तो अब बस एक आदमी का सहारा है। उस एक आदमी के साथ यह भाषा भी दुनिया से विदा हो जाएगी। भाषाओं के मिटने की इस तेज रफ्तार को एक संकेत मानें तो इन शोधकर्ताओं का यह आकलन चाहे डरावना जितना हो लेकिन अतिशयोक्ति नहीं जान पड़ता कि इस सदी के समाप्त होते-होते दुनिया की 7 हजार भाषाओं में से आधी सदा के लिए खत्म हो जायेंगी और उनके खात्मे के साथ इन भाषाओं में निबध्द प्राकृतिक जगत का जतन से जुगाया हुआ सारा ज्ञान भी मिट जाएगा। प्रो. हैरिसन की चिंता है कि किसी भाषा के मरने पर सिर्फ भाषा नहीं मरती, वह सब भी मरता है जिसका संकेत और संरक्षण भाषा करते आयी है। हैरिसन की मानें तो - 'हम पारिस्थितिकी तंत्र अथवा जैव-प्रजातियों के बारे में जितना कुछ जानते हैं वह सारा का सारा लिखित नहीं है। मनुष्य के मस्तिष्क में ही उनका वजूद है और भाषा के मिटने के साथ वह ज्ञान मिट जाएगा। जैव-प्रजातियों का अस्सी फीसदी विज्ञान का जाना हुआ नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मनुष्य इन जैव-प्रजातियों से अनजान है। किसी खास पारिस्थितिकी तंत्र का मनुष्य उस तंत्र के जैव-प्रजातियों को बड़े करीब से जानता है और इन प्रजातियों के गुण-धार्म का वर्गीकरण भी वह अक्सर विज्ञान की तुलना में कहीं ज्यादा बारीकी से करके बरत रहा होता है। हम दरअसल भाषाओं को मिटने से न बचाकर सदियों से संरक्षित ज्ञान और आविष्कार को मिटा रहे हैं।' बोलिविया में इन भाषाविदों की पहचान कलावाया समुदाय के लोगों से हुई। यह समुदाय ईसापूर्व के दिनों से जड़ी-बूटियों का जानकार रहा है। रोजमर्रा के बरताव में कलावाया समुदाय क्वेचुआ भाषा का इस्तेमाल करता है लेकिन एक कूटभाषा इनकी और भी है। इस कूटभाषा में कलावाया समुदाय के लोगों ने ऐसे हजारों पौधों और उनके औषधीय प्रयोगों का ज्ञान निबध्द कर रखा है जो चिकित्सा विज्ञान के लिए अनजाने हैं। कलावाया समुदाय और उनकी भाषा की समाप्ति के साथ मानवता इस धान से भी वंचित हो जाएगी। इसी तरह माइक्रोनेशिया के बाशिंदों ने अपनी खास भाषा में नौवहन की जानकारी निबध्द की है और सदियों के जतन से सहेजी इस जानकारी का बेड़ा उस भाषा के मिटने के साथ गर्क हो जाएगा। इन शोधकर्ताओं ने विश्व के पांच ऐसे बड़े क्षेत्रों की पहचान की है जहां की भाषाओं को सबसे बड़ा खतरा है। ये वही क्षेत्र हैं जहां से लोग अब उजड़कर कहीं और जाकर बसने लगे हैं। इस उजाड़ के कारण आज की अर्थव्यवस्था में छुपे है। पिछले 500 वर्षों में टस्कन से तस्मानिया तक के भूगोल में विश्व की कुल भाषाओं में से आधी विलुप्त हो चुकी हैं। आज की तारीख में भाषाओं के विलुप्त होने की रफ्रतार कहीं ज्यादा तेज है। प्रो. हैरिसन की मानें तो आज विश्व में 500 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें 10 से भी कम लोग बोलते हैं। भाषाओं का मिटना खुद में कोई रोग नहीं है। वह एक लक्षण हो सकता है - किसी रुग्ण सभ्यता का। भाषाओं का मिटना समुदायों के मिटने का साक्ष्य है और समुदाय की समाप्ति सहज ही हमारे सामने एक अयाचित मगर उतना ही जरूरी यह सवाल पूछने को छोड़ जाती है कि क्या हमारी सभ्यता में ऐसा कुछ है जो अनिवार्य रूप से मनुष्य विरोधी है।
भाषा में शब्द होते हैं, शब्द में अर्थ, अर्थ में इतिहास, इतिहास में मूल्य और मूल्यों से ही जीवन का मानचित्र रचता-रंगता है। पानी कम पड़े, सूखने लगे या गंदला होता जाय। कुछ ऐसा हो कि मछली की सांसे अटकने लगे तो फिर समझिए कि मछली की जिजीविषा के आगे अब अंधी सुरंग है और इस सुरंग के आखिरी सिरे पर है एक तयशुदा मौत। दुनिया का पानी कम पड़ रहा है : तेजाब में तब्दील हो रहा है - मछलियां सड़ और मर रही हैं। हां! भाषाएं भी कम हो रही हैं और भाषाओं के बिछौने पर लेटे मानवता के कई-कई संस्करण या तो मिट गए हैं या मिटने के कगार पर हैं। अगर आपको यह बात किसी भयभीत और दुनिया के नाश की भविष्यवाणी में रस लेने वाले गपोड़ की मनोग्रंथि जान पड़े तो एक नजर प्रोफेसर हैरीसन और ग्रेगरी एंडरसन की बातों पर डालिए। खतरे में पड़ी भाषाओं की खोज-बीन से जुड़ी ओरेगांव की एक संस्था से संबध्द ये दो भाषा-प्रेमी (और भाषाविद् भी) संसार भर की खाक छान चुके हैं। नेशनल ज्यॉग्राफ्रिक सोसायटी की भाषा विषयक एक परियोजना के सिलसिले में इन दोनों ने दुनिया भर में घूम-घूम कर यह टटोला कि आखिर किन भाषाओं के सामने अब दुनिया की स्लेट से मिट जाने का खतरा है और खतरे की जद में आ चुकी इन भाषाओं के बोलने-चालने वाले कितने और कैसी दशा में हैं। प्रो. हैरीसन और एंडरसन का कहना है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएं विनाश के कगार पर हैं। पूर्वी साइबेरिया, उत्तारी आस्ट्रेलिया, मध्यवर्ती दक्षिण अमरीका और संयुक्त राज्य अमरीका के प्रशांत महासागरीय उत्तार-पश्चिमी इलाके में ऐसी सैकड़ों भाषाएं हैं जो अपनी गिनी-चुनी सांसे गिन रही हैं। पेन्सिलवेनिया स्थित वार्थमोर कॉलेज के भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डेविड हैरिसन चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि भाषाओं के अस्तित्व पर विश्वव्यापी खतरा मंडरा रहा है। भाषाओं के लुप्त होने की गति वनस्पतियों और जैव प्रजातियों के लुप्त होने की गति से कहीं अधिक तेज है और 'कहीं-कहीं तो हालत इतनी बद्तर है कि किसी-किसी भाषा का सिर्फ एक जाननहारा बचा है।' इन दोनों भाषाविदों ने अपनी खोजबीन में पाया कि कुछ भाषाएं आनन-फानन में मिट गईं। इसका कारण रही प्राकृतिक आपदा जिसने किसी छोटे-मोटे समुदाय को अपनी चपेट में लिया और उस समुदाय के साथ उसकी भाषा भी काल के गाल में समा गई। बहरहाल, ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं हुआ। अधिाकतर भाषाएं धीमे-धीमे अपने अंत को पहुंची - लोगों ने अपनी जबान छोड़ दी क्योंकि बदलते हुए हालात में उन्होंने अपने जीवन को गैरभाषा और इसके बोलने वालों से घिरा पाया। हालात के दबाव में यह गैरभाषा ही उनकी भाषा बन गई। मिसाल के लिए वोलिविया का उदाहरण लिया जा सकता है। इन दो शोधकर्ताओं का कहना है कि वोलिविया में योरोप की अपेक्षा भाषाओं की संख्या दोगुनी है लेकिन भाषाओं के इस भरे-पूरे संसार को स्पेनिश का दुर्दम्य विस्तार अपनी चपेट में ले रहा है। कुछ भाषाएं इस प्रक्रिया में उतनी ही बची हैं जितने उनके बोलने वाले। अपने इतिहास और विस्तार से वंचित होती ऐसी भाषाओं में उत्तारी आस्ट्रेलिया की एक भाषा मगाटा का नाम लिया जा सकता है। इस भाषा के अब बस तीन बोलनेवाले बचे हैं। पश्चिमी आस्ट्रेलिया की एक भाषा यावुरु के भी तीन ही नामलेवा इस दुनिया में शेष हैं और अमुरदाग नाम की भाषा को तो अब बस एक आदमी का सहारा है। उस एक आदमी के साथ यह भाषा भी दुनिया से विदा हो जाएगी। भाषाओं के मिटने की इस तेज रफ्तार को एक संकेत मानें तो इन शोधकर्ताओं का यह आकलन चाहे डरावना जितना हो लेकिन अतिशयोक्ति नहीं जान पड़ता कि इस सदी के समाप्त होते-होते दुनिया की 7 हजार भाषाओं में से आधी सदा के लिए खत्म हो जायेंगी और उनके खात्मे के साथ इन भाषाओं में निबध्द प्राकृतिक जगत का जतन से जुगाया हुआ सारा ज्ञान भी मिट जाएगा। प्रो. हैरिसन की चिंता है कि किसी भाषा के मरने पर सिर्फ भाषा नहीं मरती, वह सब भी मरता है जिसका संकेत और संरक्षण भाषा करते आयी है। हैरिसन की मानें तो - 'हम पारिस्थितिकी तंत्र अथवा जैव-प्रजातियों के बारे में जितना कुछ जानते हैं वह सारा का सारा लिखित नहीं है। मनुष्य के मस्तिष्क में ही उनका वजूद है और भाषा के मिटने के साथ वह ज्ञान मिट जाएगा। जैव-प्रजातियों का अस्सी फीसदी विज्ञान का जाना हुआ नहीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मनुष्य इन जैव-प्रजातियों से अनजान है। किसी खास पारिस्थितिकी तंत्र का मनुष्य उस तंत्र के जैव-प्रजातियों को बड़े करीब से जानता है और इन प्रजातियों के गुण-धार्म का वर्गीकरण भी वह अक्सर विज्ञान की तुलना में कहीं ज्यादा बारीकी से करके बरत रहा होता है। हम दरअसल भाषाओं को मिटने से न बचाकर सदियों से संरक्षित ज्ञान और आविष्कार को मिटा रहे हैं।' बोलिविया में इन भाषाविदों की पहचान कलावाया समुदाय के लोगों से हुई। यह समुदाय ईसापूर्व के दिनों से जड़ी-बूटियों का जानकार रहा है। रोजमर्रा के बरताव में कलावाया समुदाय क्वेचुआ भाषा का इस्तेमाल करता है लेकिन एक कूटभाषा इनकी और भी है। इस कूटभाषा में कलावाया समुदाय के लोगों ने ऐसे हजारों पौधों और उनके औषधीय प्रयोगों का ज्ञान निबध्द कर रखा है जो चिकित्सा विज्ञान के लिए अनजाने हैं। कलावाया समुदाय और उनकी भाषा की समाप्ति के साथ मानवता इस धान से भी वंचित हो जाएगी। इसी तरह माइक्रोनेशिया के बाशिंदों ने अपनी खास भाषा में नौवहन की जानकारी निबध्द की है और सदियों के जतन से सहेजी इस जानकारी का बेड़ा उस भाषा के मिटने के साथ गर्क हो जाएगा। इन शोधकर्ताओं ने विश्व के पांच ऐसे बड़े क्षेत्रों की पहचान की है जहां की भाषाओं को सबसे बड़ा खतरा है। ये वही क्षेत्र हैं जहां से लोग अब उजड़कर कहीं और जाकर बसने लगे हैं। इस उजाड़ के कारण आज की अर्थव्यवस्था में छुपे है। पिछले 500 वर्षों में टस्कन से तस्मानिया तक के भूगोल में विश्व की कुल भाषाओं में से आधी विलुप्त हो चुकी हैं। आज की तारीख में भाषाओं के विलुप्त होने की रफ्रतार कहीं ज्यादा तेज है। प्रो. हैरिसन की मानें तो आज विश्व में 500 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें 10 से भी कम लोग बोलते हैं। भाषाओं का मिटना खुद में कोई रोग नहीं है। वह एक लक्षण हो सकता है - किसी रुग्ण सभ्यता का। भाषाओं का मिटना समुदायों के मिटने का साक्ष्य है और समुदाय की समाप्ति सहज ही हमारे सामने एक अयाचित मगर उतना ही जरूरी यह सवाल पूछने को छोड़ जाती है कि क्या हमारी सभ्यता में ऐसा कुछ है जो अनिवार्य रूप से मनुष्य विरोधी है।
1 टिप्पणी:
अत्यंत महत्वपूर्ण लेख। भई, इन चंदन श्रीवास्तव जी से परिचय करवाया जाए।
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