लंदन के गार्जियन अखबार से लेकर अंग्रेजी के अखबार 'द हिन्दू' ने एक खबर छापी जिसे पढ़ने में तो अच्छा लगा, लेकिन जिसने सोच में डाल दिया, पहले खबर देख लें :
23 अगस्त को लंदन में उस शहर के मेअर केन लिविंग स्टोन ने दास प्रथा की समाप्ति की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए आयोजित सभा में भावुक और ऑंखों में ऑंसू भरकर राजधानी नगर और उसकी संस्थाओं की तरफ से माफी माँगी।
23 अगस्त को लंदन में उस शहर के मेअर केन लिविंग स्टोन ने दास प्रथा की समाप्ति की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए आयोजित सभा में भावुक और ऑंखों में ऑंसू भरकर राजधानी नगर और उसकी संस्थाओं की तरफ से माफी माँगी।
लंदन के मेअर रो पड़े जब वे स्मारक सभा में अफ्रीका से ढोकर लाये गये दसियों लाख लोगों पर ढाये गये जुल्मों और उसकी विरासत को आज भी भोगते लोगों के हालात बयान कर रहे थे। मौजूद राजनेताओं, लेखकों और विशिष्टजनों की सभा में अमरीका के मानवाधिकार नेता रेवरेंड जैस जैक्सन ने मेअर के पास जाकर उनके कन्धे पर हाथ रखकर सांत्वना दी।
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जो कोई यह खबर पढ़ेगा, यही कहेगा, चलो, देर आयद् दुरुस्त आयद।' सदियों तक अफ्रीका में ही नहीं, एशिया, भारत में भी घिनौने, निकृष्ट कर्मों और अवर्णनीय जुल्मों को करने वाले अंग्रेजों की सन्तान ने अपने देश की गलती तो मानी। लंदन का मेअर माफी मांग रहा है, माफ कर दो, भूल जाओ पुरानी बातों को। रिश्तों का नया अध्याय शुरू करो।
पर क्या अंग्रेज बच्चे का दिमाग सचमुच बदल गया है, क्या सचमुच उसका हृदय परिवर्तन' हो गया है?जो घटनाएँ देश और दुनिया में घट रही हैं, उनसे तो ऐसा नहीं लगता। हमें तो केन के ऑंँसू घड़ियाली ऑंसू लग रहे हैं। क्यों?
इसलिए कि इसी समय अंग्रेजों का एक दल भारत आया है। भारत में अंग्रेजों ने 1857 की आजादी की पहली जंग के बाद कम से कम पश्चिम उत्तार प्रदेश और आस-पास के इलाकों में बेकसूर, निहत्थे एक करोड़ से ज्यादा लोगों का कत्लेआम किया था। उन जुल्मों की याद करके आज भी दिल काँप उठता है। हमारे इलाहाबाद में ही आन्दोलनकारियों को शहर के बीच पेड़ों से उल्टा लटकाकर मारा था और लाशें कई दिन तक लटकती रही थीं। अंग्रेजों का यह दल भारत में अपने पुरखों के जुल्मों के लिए माफी माँगने नहीं आया है, उल्टे जुल्म ढाने वालों की कब्र पर फूल चढ़ाने आया है। अगर इन्हें अपने पुरखों की याद करनी थी तो कभी चले आते। उस समय आने का क्या मतलब है जब पूरा देश आजादी की पहली लड़ाई की 150वी वर्षगाँठ मना रहा है। क्या अंग्रेजों का इस समय भारत आना जले पर नमक छिड़कना नहीं कहा जायेगा? लंदन के मेअर को इन्हें भारत जाने से रोकना चाहिए था।
लेकिन यह घटना तो बहुत मामूली है। यही अंग्रेज हैं जिसने अमरीकियों के साथ मिलकर लाखों इराकियों को मार डाला, कोई 42 लाख इराकी परिवार बेघर-बार हो गये हैं और दर-दर के भिखारी बनकर शरणार्थियों की जिन्दगी दूसरे देशों में बिता रहे हैं। यही अंग्रेज हैं जिन्होंने 1991 में भी अमरीकियों के साथ इराक पर हमला किया था और फिर उस पर यूएनओ की तरफ से सेंक्शन लगवा दी थी जिनकेि तहत उस छोटे से देश को दवा भेजना बन्द करा दिया। नतीजन उस देश के आठ लाख बच्चे दवाएँ न मिलने से मौत के घाट उतर गये। जितने आरोप इराक सरकार पर लगाये गये थे हमला करने के लिए,वे सब बेबुनियाद और झूठे साबित हुए। जो जुल्म लोगों पर ढाये गये हैं जिनकी गवाह इराक और अमरीका की जेलें हैं, वे दासों पर ढाये गये जुल्मों से किसी माने में कम नहीं हैं।
दरअसल अंग्रेजों का, यूरोपियनों का, अमरीकियों का दास-व्यापार (स्लेव ट्रेड) के वक्त था, उससे फर्क दिमाग इस समय भी नहीं है। इनके दिमाग में दो बातें बस गयी हैं- एक तो यह कि यूरोप और अमरीका के बाहर जो लोग रहते हैं, वे बर्बर हैं, उन्हें 'सभ्य' बनाना इनका धर्म है और दूसरे बात यह कि यूरोप अमरीका के बाहर देशों में सम्पत्तिा के खजाने भरे पड़े हैं, उन पर इनका अधिकार होना ही चाहिए। पहले यह हमला बोलते थे, पुलिस-फौज के बल पर लूटते-खसोटते थे। अब समय के बदलने से अपने तौर-तरीकों का बाहरी ढाँचा बदल दिया है, अन्दर से वही रवैया चल रहा है। जैस जैक्सन ठीक कहते हैं- उन्होंने रस्सी और गोलियों का इस्तेमाल करना बन्द कर दिया है, अब वे विश्व बैंक, मुद्राकोष (और डब्लूटीओ) का इस्तेमाल करते हैं' हाँ लक्ष्य वही है। पहले राज्य उपनिवेशवाद था, उसकी जगह अब कारपोरेट उपनिवेशवाद आ गया है। इन पुराने उपनिवेशवादी देशों की आबादी कुल दुनिया की आबादी का 15 फीसदी है और ये इस्तेमाल कर रहे हैं दुनिया के कुल संसाधन, सम्पत्ति का 85 फीसदी। ये संसाधन कहाँ से आयेंगे? हमारे जैसे देशों से ही इनका वैभव टिकेगा। ऊपर से घड़ियाली ऑंसू बहाकर, हमारे प्रति हमदर्दी दिखाकर ये पेशेवर ठग हमारे उद्योग, सेवा, व्यापार और खेती सभी में घुस आये हैं और हमारी अर्थव्यवस्था को खोखला कर रहे हैं।
पहले भी हमने इन्हें समझाने में गलती की थी, राजा राममोहन राय जैसे समाजसेवी भी अंग्रेजी शिक्षा को देश के लिए वरदान मानते थे, मिली उसके एवज में घोर गुलामी और भुखमरी। आज भी सरकारें और तथाकथित बड़े लोग इस कारपोरेटी व्यवस्था को देश के लिए वरदान मान रहे हैं। दिन-रात उसके गीत गा रहे हैं, पर वे देश के गले में पहले से भी कठोर फन्दा डाल रहे हैं। देश को खासतौर से नौजवानों को फिर से भूल नहीं करनी है।
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