बेटियों की जिस्मफरोशी से जिंदा समाज - मंदसौर से दयाशंकर मिश्र

दिन-दहाड़े सरे-राह बाछड़ा जाति करवाती है, अपनी ही बेटियों से वेश्यावृत्ति -जिस तरह देश में मंदसौर अफीम उत्पादन, तस्करी के लिए मशहूर है, उसी तरह नीमच, मंदसौर, रतलाम के कुछ खास इलाके भी बाछड़ा समाज की देह मंडी के रुप में कुख्यात है। जो वेश्यावृत्ति के दूसरे ठिकानों की तुलना में इस मायनें में अनूठे हैं, कि यहां सदियों से लोग अपनी ही बेटियों को इस काम में लगाए हुए हैं। इनके लिए ज्यादा बेटियों का मतलब है, ज्यादा ग्राहक! ऐसे में जब आप किसी टैक्सी वाले से नीमच चलने के लिए कहते हैं, तो उसके चेहरे में एक प्रश्नवाचक मुस्कुराहट स्वत: तैर आती है। इस यात्रा में अनायास ही ऐसे दृश्य सामने आने लगते हैं, जो आमतौर पर सरेराह दिनदहाड़े कम से कम मप्र में तो कहीं नहीं देखने को मिलते। हां, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जरूर कभी- कभार दिख रहते हैं। पलक झपकते ही मौसम की शर्मिला टैगोर , चांदनी बार की तब्बू , चमेली की करीना आंखों के सामने तैरने लगती हैं।

महू- नीमच राजमार्ग से गुजरते हुए जैसे ही मंदसौर शहर पीछे छूटता है। सड़क किनारे ही बने कच्चे-पक्के घरों के बाहर अजीब सी चेष्टाएं दिखने लगती हैं। वाहनों विशेषकर ट्रक, कारों को रुकने के इशारे करती अवयस्क, कस्बाई इत्र से महकती लड़कियों की कमनीय भाव-भंगिमाएं इतनी प्रवीण हैं कि पहली बार यहां से गुजरने वाले यात्री हक्का-बक्का रह जाते हैं। इस देह की खुली मंडी से गुजरना आसान है। रुककर देह की अतृप्त ग्रंथियों की वासना मिटाना सहज है। लेकिन किसी सेक्स वर्कर, महिला दलाल से बात हो जाए यह बेहद मुश्किल है। उनको पुलिस का डर नहीं है, क्योंकि वह इनकी पक्की हिस्सेदार है। किसी के देख लेने का डर नहीं, क्योंकि सारा काम सड़क के किनारे खुले में होता है। डर है, तो इस बात का कहीं टीवी चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन में उनकी तस्वीर न दिखाई जाए। ग्राहकों को यह न लगे कि उनकी ऐशगाह असुरक्षित है। समुदाय में धंधे में लगी लड़कियों की संख्या पहले ही कम नहीं थी, उस पर से गरीबी, भुखमरी के चलते अब पड़ोसी जिलों, राज्यों से भी यहां पर जमकर लड़कियां लाई जा रही हैं। इनके मां-बाप इन्हें एक मुश्त रकम देकर बेच जाते हैं। या फिर तय अवधि में आते हैं और दलाल से उसके कमीशन, बेटी के रहने,खाने का खर्च काटकर उसकी कमाई ले जाते हैं। अर्थात बेटी अपनी जिंदगी महज दाल रोटी के लिए नरक कर रही है। लेकिन ऐसी लड़कियों को स्थानीय बाछड़ा लड़कियों की भीड़ में पहचानना बेहद मुश्किल है, क्योंकि उनके इर्द-गिर्द सुरक्षा घेरा भी है।

सड़क के किनारे बसे मल्लारगढ़ में बड़ी मुश्किल से अधेड़ उम्र की भंवरीबाई बातचीत को तैयार हुईं। वैसे उन्होंने भी पहले उनके मकान की ओर मुझे आते देख एक तेरह बरस की लड़की को मेरी ओर लपकाया था। भंवरीबाई ने अपने समाज की व्यवस्थाओं, देह व्यापार से जुड़े सवालों पर लाजवाब साफगोई से बात की। साठ से अधिक की हो चलीं भंवरी को उनके परिवार ने तेरह की उमर में ही इस धंधे में उतार दिया था। वह कहती हैं कि हमारे समाज में सिसकियों, मिन्नतों का कोई मोल नहीं है। क्योंकि परिवार के मर्द चाहते हैं कि बेटियां धंधा करें ताकि वह रोज़ी की फ्रिक से दूर शराब पीने में मशगूल रह सकें।

बाछड़ा समुदाय में बेटियों से वेश्यावृत्ति करवाना बेहद आम रिवाज है। रतलाम, मंदसौर और नीमच जिलो के सैकड़ों गांवों में यह कुप्रथा आज भी जारी है। इनमें कचनारा, रुंडी, परोलिया, सिमलिया, हिंगोरिया, मोया, चिकलाना आदि प्रमुख हैं। किसी को नहीं मालूम यह कब से चला आ रहा है, लेकिन जब बुजुर्ग महिलाएं बताती हैं कि उनकी मां-दादी/ नानी भी धंधा करती थी, तो जाहिर है कि मामला दशकों का नहीं सदियों का है। दूसरी ओर ज्यादातर पुरुष निठल्ले, शराबखोर ही मिलेंगे। उनके लिए इस बात के कोई मायने नहीं हैं कि उनकी अपनी बेटी/बेटियों को स्लेट, कापियों की उम्र में ग्राहको को रिझाने के गुर सिखाए जाते हैं। मंदसौर से नीमच के बीच सड़कों के किनारे जिस्मफरोशी की जितनी दुकाने हैं, उससे अधिक दुकाने, अड्डे गांवों के भीतर हैं। रास्ते से गुजरते वाहनों के सामने लिपस्टिक पोते, अपने उभारों को भरसक दिखाने की अधिक चेष्टा करती लड़कियां आपकी झिझक दूर करने की पूरी कोशिश करती हैं। ऐसी ही एक बाला ने कहा, साहब पहली बार आए हो! कोई बात नहीं, यहां पहली बार आने पर लोग ऐसे ही शर्माते हैं। झिझक मिटने में अधिक देर नहीं लगती।

भंवरी की बातों में खांटी सच्चाई, अनुभव की ताप है। उस अनुभव से उपजी पीड़ा की, जिसे न चाहते हुए भी वासना की भट्टी में झोंक दिया गया था। कमसिन उम्र में उसके नाजुक बदन को दिन-रात यहां से गुजरने वाले ट्रक चालकों और इलाके के सवर्णों के सामने परोस दिया गया। यह सिलसिला तब जाकर थमा, जब भंवरी के साथ उसके ग्राहक रामसिंह ने ही दिल मिलने के बाद (यहां प्यार होने के लिए यही जुमला चलता है) शादी कर ली थी।

एक औसत बाछड़ा लड़की की नियति यही है। जब तक वे ग्राहकों को रिझाने के काबिल होती हैं, उनके परिवार के मर्दों को यह कतई मंजूर नहीं होता कि लड़कियां घर (इसे कोठा पढें) दहलीज पार करें। क्योंकि ऐसा करने से उनको हर महीने मिलने वाली मोटी रकम से हाथ धोना पड़ सकता है। अनेक प्रगतिशील विचारों के धनी ऐसे भी हैं, जिन्होंने इस मोटे अर्थशास्त्र को समझा। यहीं बस गए। वेश्यावृत्ति करने वाली किसी लड़की से शादी कर ली फिर उसको तो इस धंधे से दूर रखा, लेकिन उसके नेटवर्क का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं और उसकी दूसरी बहनों से धंधा भी करवा रहे है। चलिए इनको तो फिर भी बख्शा जा सकता है, लेकिन उन भाइयों, पिताओं को कैसे क्षमा किया जा सकता है, जो बहन, बेटी की रक्षा का दम भरते हैं। उससे रिश्तों की दुहाई देते हैं। फिर उसे विवश करते हैं कि वह अपने जिस्म से उनके लिए रोटियां सेंके। उसे मजबूर करते हैं कि वह तितलियों को पकड़ने, सपने बुनने की उम्र में ग्राहकों की बाहों में मसली जाएं। एक ग्राहक के जाने के बाद दूसरे के लिए फिर सजकर रोड़ किनारे बैठ जाए।

बाछड़ा समाज अपनी बेटियों से ही धंधा करवाता है। इस काम में बहुओं को आमतौर पर नहीं उतारा जाता है। भंवरी जोर देकर कहती हैं कि बहुएं पराए मर्द की ओर देख लें तो हमारे बेटे उनके हाथ-पांव काटकर फेंकने से भी नहीं हिचकते हैं। वह आगे कहती हैं, “कमबख्त मर्द अपनी जोरू को संभल कर रखन चाहत हैं, और बेटी/ बहन को पैदा होत ही ग्राहक का बिस्तर गरम करन को बिठा देत हैं।”

कुल मिलाकर बाछड़ा समाज के लिए बेटी मोटी कमाई का सहज, सुलभ साधन है। परिवार के उदर पोषण के लिए रुपया लाने वाला विद्रोह की संभावना रहित, ईमानदार माध्यम। ग्राहकों को बुलाने और सौदा तय करने के काम में कहीं भी आपको कोई पुरूष नजर नहीं आएगा। इसे समाज के मर्दों की शान के खिलाफ समझा जाता है। यानि मां और उसकी बेटी/बेटियां ही धंधे के समय घर के दरवाजे और ढाबों, होटलों के इर्द-गिर्द नजर आती हैं। इनकी जाति पंचायतों की बात और भी निराली है। जहां एक ओर दुनिया के सामने मंच से शरीर के सौदे की मुखालफत की जाती है, वहीं दूसरी ओर पंचायत, सरकारी अफसर इसे बढ़ावा देते रहते हैं, ताकि उनकी दुकाने बंद न हों। वैसे भी यह सारा धंधा मर्दो के आलस और उनके निकम्मेपन की ही देन है। मर्दों के पास चूंकि एक तय रकम होती है, इसलिए वह मेहनत-मजदूरी से परहेज करते हैं। एक ओर तो वह इस पेशे के लिए औरतों को ही जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन दूसरी ओर इसी 'औरत' (उनकी बहनों) के नोच खसोट का पैसा वह बिना शर्म पीढ़ियों से डकार रहे हैं।

आमतौर पर कहा जाता है कि वेश्यावृत्ति के मूल में गरीबी, अशिक्षा है, लेकिन यहां आकर तो यह तर्क भी गले से नहीं उतरता है, क्योंकि अनेक पढे लिखे लोग इस काम को अपने घरों में अंजाम दे रहे हैं। उनके पास ऐसी संभावना, योग्यता है कि वह दूसरे पेशे को अपनाकर जीवनयापन कर सकें, लेकिन वह ऐसा करते नहीं हैं। क्योंकि उनके पास रोजगार का सबसे बढ़िया साधन है, उनकी बेटियां। इसी कारण वह ऐसी लड़कियों को भी इस धंधे में उतार देते हैं, जो पढ़ाई में जुटी हुई हैं। नीमच मार्ग पर ही बसे मुरली गांव में एक ऐसे दंपति ऐसे भी मुलाकात हुई, जिनके तीनों बच्चे सरकारी सेवा में हैं, लेकिन उसके बाद भी वह दलाली के काम में लगे हुए हैं। इसी तरह सड़क किनारे चारपाई पर बैठकर ग्राहकों को बुलाने एक प्रौढ़ महिला की कहानी भी खासी रोचक है। उसने अपनी दो बेटियों, बेटे की शादी कर दी है और अब बाहर यानि उड़ीसा, राजस्थान से आने वाली लड़कियों की दलाली खाती हैं। वह इस बात को बेहद अभिमान के साथ कहती है कि उसने अपनी बेटियों को इस धंधे में नहीं उतारा, लेकिन उसके पास इस बात का कोई उत्तर नहीं है कि फिर इस दलाली में क्यों हाथ काले कर रही हो। दरअसल इस काम के न छूटने के पीछे बिना मेहनत आने वाली रकम भी है। एक बार हराम का पैसा जीमने की आदत पड़ जाए तो जिंदगी भर नहीं छूटती। इस काम में यहां के पुरुर्षों की भूमिका बेहद अहम है, क्योंकि वही परिवार के नियंता हैं, और पूरी तरह से पर्दे के पीछे स्त्रियों को ही स्त्रियों की दलाली करने के लिए उकसाते, मजबूर करते हैं।

बाछड़ा समुदाय पर काम कर रहे अनेक इस संगठनों और सरकार को यह बात चौंकाने वाली लग सकती है कि देह की इस मंडी में अब राजस्थान और उड़ीसा की लड़कियां उतारी जा रही हैं। तेरह साल की अनीता हालात की मारी एक ऐसी ही बेबस है, जिसे राजस्थान से उसका परिवार यहां छोड़ गया है। यह वही लड़की है, जिसे मेरी पीछे भंवरी बाई ने लपकाया था। वह दिनभर में कम से कम पांच ग्राहकों की वासना को संतुष्ट करती है। यह सारा इलाका ऐसी हजारों लड़कियों से भरता जा रहा है। इसके साथ ही महाराष्ट्र से बेकार होने के बाद बार बालाओं के ठुमके और जिस्म के सौदों के लिए भी यह राजमार्ग नया ठिकाना है। देह के कारोबार में तीस साल से अधिक बिताने के बाद उम्र के अंतिम पड़ाव पर जा पहुंची सेमरी बाई बताती हैं, हम लोग अपनी बच्चियों को सात की उम्र से ही ग्राहकों को पटाने के तरीके सिखाने लगते हैं। यह समय लड़कियों के 'प्रशिक्षण' का होता है। कम उम्र में उनके विरोध का खतरा नहीं होता और इनकी कीमत भी मोटी मिलती होती है।

देह की इस मंडी में उतारी गई लड़कियों की साक्षरता के बारे में कोई स्पष्ट आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन इन दिनों अनेक एसी लड़कियां खुद को ग्राहकों के सामने परोसने में लगीं हैं जो दसवीं और बारहवीं की छात्राएं हैं। अब वे इसके लिए तकनीक का भी भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। मोबाइल नंबरों की पहुंच इंदौर के अनेक माालदारों तक है। जो कभी यहां आते हैं, तो कभी लड़कियों की आपूर्ति बिजनेस मीटिंग के लिए इंदौर आने वाले सफेदपोश लोगों के लिए होती है। वासना के प्यासे धनकुबेरों और वैश्वीकरण की कथित कमाई से फूल कर कुप्पा हुए लोगों के सामने देह की ऐसी मंडी है, जिसका सारा कारोबार मासूम उम्र की लड़कियों के इर्द-गिर्द ही सिमटा है। जिनकी औसत उम्र नौ से पैंतीस साल है।

जिस तरह दिनदहाड़े सड़क पर बने कच्चे-पक्के मकानों में जिस्मफरोशी होती है, उससे जाहिर है कि पुलिस इस कारोबार में बराबर की हिस्सेदार है। बार-बार ग्राहकों, धंधा करने वालों को होने वाली दिक्कतों से अच्छा है एक मुश्त रकम एक बार दो। टेंशन फ्री होकर काम करो। पहरे में चलने वाले कारोबार का शाम गहराते ही नज़ारा ही बदल जाता है। दोपहर में सौ से दो सौ रुपए की मांग करने वाली लड़कियां बीस से पचास रुपए में ही राजी हो जाती हैं। वजह, रात को यहां कोई भी वाहन नहीं रुकता, साथ ही अब यहां लड़कियों की संख्या अधिक हो गई है, जिनके अनुपात में ग्राहक कम आते हैं। इस तरह रतलाम, मंदसौर, नीमच जिलों में बाछड़ा समुदाय की लड़कियां, महिलाएं एक ऐसा जीवन जीने को अभिशप्त हैं, जो उनके अपनों ने ही उनके लिए चुना है। इसलिए उनके नारकीय जीवन से मुक्ति के लिए भी महिला नेतृत्व को ही आगे आना होगा।


(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विकास संवाद, भोपाल द्वारा सामाजिक बहिष्कार एवं भेदभाव विषय पर फैलोशिप के तहत अध्ययनरत हैं।)

कोई टिप्पणी नहीं:

मुद्दे-स्तम्भकार