झमेला : एक-दो रुपये का

छोटे दुकानदार जिनकी दुकानदारी में खुले पैसों का बडा महत्व है, चूंकि उनकी छोटी दुकानदारी में छोटी-छोटी लेन देन के लिए छोटी मुद्रा की बडी भूमिका होती है। साथ ही छोटे खरीददार यानि जो अपनी मूलभूत आवश्यकता का सामान रोजाना खरीदते है, उनके लिए इन एक-दो रूपयों का बड़ा महत्व होता है। इन छोटे-छोटे पैसों के चक्कर में या तो दुकानदार छोटा सामान नहीं बेचे यदि उसे बेचना है तो एक-दो रूपये के खुले नोट अपने पास रखने होगें। दूसरी तरफ छोटा खरीददार या तो कम से कम 5 रूपये का सामान खरीदे या फिर अपने पास एक या दो रूपये के खुले सिक्के अपने पास रखे, जो उसके पास होते नहीं है।
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यदि इसके परिणामों पर गौर करें तो दो बातें साफ तौर पर निकलकर आती है पहली यह कि उपभोक्ता की क्रय क्षमता जो ना होते हुए भी बढेगी। क्योंकि जब एक-दो रूपये का सामान खरीदने के लिए ना तो खुले पैसे खरीददार के पास होंगे और ना ही दुकानदार के पास। तो स्वाभाविक है कि कम से कम उसे पांच रूपये का सामान खरीदना पडेगा। दूसरी छोटे दुकानदार जो गली -मौहल्लों में होते है जब इनके पास खुले पैसे नहीं होगे, तो वह 100 रूपये के बदले 85-90 रूपये के सिक्के यानि मुद्रा के बदले मुद्रा खरीदेगा। अर्थात 100 रूपये का सामान बेचने पर उसे 10-15 रूपये की हानि भुगतनी होगी। इस हानि की भरपाई के लिए वह छोटा दुकानदार सामान को मंहगा बेचना चाहेगा। लेकिन इस प्रतियोगिता वाले बाजार में वस्तु की कीमत छुपी हुई नहीं है अत: उपभोक्ता निश्चित रूप से जहाँ पर सामान सस्ता मिलेगा वहाँ से खरीदेगा। भले ही उसे क्षमता से अधिक सामान क्यों ना खरीदना पडे लेकिन मंहगा सामान कदापि नहीं खरीदेगा। इससे जाहिर है कि छोटे दुकानदार खत्म होगें और खरीददार की अस्वाभाविक क्रय क्षमता बढेगी।
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भौतिकवादी बाजार चाहता भी यही है कि उसका उपभोक्ता उपभोक्तावादी बने। बाजार उपभोक्ता की क्रय क्षमता बढाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाता रहता है। कभी एक वस्तु खरीदने पर एक फ्री तो कभी कुछ प्रतिशत एक्स्ट्रा । इन सब प्रलोभनों में फंस कर उपभोक्ता गैर जरूरी चीजें और आवश्यकता से अधिक सामान खरीद लेता है। इससे गैर आवश्यक वस्तुओं का उपभोग करने की आदत बन जाती है। जिस प्रकार हमें चाय पीने की आदत बाजार ने मुफ्त में डाली थी। बाद में आदत पडने पर कीमतें आपके सामने है। फसल का उत्पादन बढाने के लिए रासायनिक खाद भी मुफ्त में बांटे थे लेकिन आज चूंकि जमीन उस खाद की आदी हो गई है तो कीमतें आसमान छू रही है। अत: उपभोक्ता उपभोक्तावादी संस्कश्ति में जीने का आदी हो जाता है।
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बड़े बाजार की इच्छाएं भी बडी होती है, वह अधिक लाभ के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग को अपना उपभोक्ता बनाना चाहता है। लेकिन निम्न-मध्यम वर्ग को लक्षित करने में छोटे दुकानदार बीच में रोडे अटकाते हैं। अत: डार्विन के सिध्दान्तानुसार जब तक छोटे दुकानदार खत्म नहीं होगे, तब तक निम्न-मध्यम वर्ग को बडे बाजार का उपभोक्ता बनाना मुश्किल है। बाजार का मूल उद्देश्य कि कैसे निम्न-मध्यम वर्ग का पैसा बाजार में आये, इसके लिए मुद्रा का अवमूल्यन मुद्रा की अपेक्षा उपभोक्ता की क्रय क्षमता को बढा कर किया जाता है। यह बाजार का नया हथियार नहीं है, क्योंकि 5 पैसे, 10 पैसे, 20 पैसे 25 पैसे, 50 पैसे के सिक्के भारतीय मुद्रा है लेकिन इनका प्रचलन धीरे-धीरे खत्म हो गया है और लोगों ने इसे अंगीकार भी कर लिया कि 25 पैसे, 50 पैसे का बनता क्या है। वस्तुएं अभी भी 25 पैसे और 50 पैसे की कीमत की होती है लेकिन चूंकि ये सिक्के प्रचलन में नहीं है तो सीधे रूपयों में खरीदना मजबूरी हो गई। इसी प्रकार इस कामयाब हथियार का प्रयोग दुबारा से किया जा रहा है, जिसका लक्ष्य है निम्न-मध्यम वर्ग के पैसे को बाजार में लाना, घरेलू बाजार को खत्म करना और उपभोक्तावादी सभ्यता में निम्न वर्ग को ढालना।
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बात वही एक-दो रूपये पर आकर ठहर जाती है कि किसी के लिए एक-दो रूपये की कोई कीमत नहीं है लेकिन एक बहुत बडा वर्ग ऐसा है जिसका एक-दो रूपये के झमेले में पूरे महिने का हिसाब बिगड जाता है। और कितने ही परिवारों का रोजगार भी संकट में पड़ सकता है। यदि छोटे घरेलू बाजार खत्म हो गये तो हमारे पास एक ही विकल्प बचेगा वह है अंतर्राष्ट्रीय या बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित सुपर मार्केट, वाल मार्ट, बिग बाजार आदि।
दिनेष शर्मा, मत्स्य मेवात षिक्षा एवं विकास संस्थान - 2/519, अरावली विहार, अलवर (राजस्थान)

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