फिलिस्तीन की पीठ-लोकतंत्र का नक्शा

फिलिस्तीन जमीन से ज्यादा एक जज्बा है। आजादी की एक ऐसी जंग जो आज भी जारी है। फिलिस्तीन दुनिया के बादशाहों की बिगड़ैल फौज के आगे निहत्थे मुट्ठी तानकर खड़े हो जाने के साहस का भी नाम है। आजादी-पसंद फिलिस्तीन को फिलहाल दुनिया के बादशाहों ने अपनी शतरंजी चालों से घेर दिया है और फिलिस्तीन में लोकतंत्र रोज लहूलुहान हो रहा है। शहादत की इस धरती पर राष्ट्रवाद बनाम लोकतंत्र का कठिन सवाल एक बार फिर सामने है। एक बँटे-छँटे फिलिस्तीन का नक्शा खींचकर उस पर डिजायनर लोकतंत्र का 'मेड इन अमेरिका' स्टीकर लगाने की कवायद तेज हो गई है। इस कवायद के मकसदों पर सवाल उठाता आलेख।

चंदन श्रीवास्तव

पिछले माह दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह ईद का मुबारक चाँद पेट्रोलियम से लबरेज मधय-पूर्व की धरती पर भी चमका। हमेशा की तरह मुरादों और मन्नतों से भरे हाथ दुआ में उठे। इनमें दो हाथ इरान के सर्वोच्च धर्मिक नेता अयातुल्लाह खुमैनी के भी थे। इरान अपने परमाणु कार्यक्रम को लेकर लोकतंत्र के खुदमुख्तार और दरोगा बने मुल्कों की टेढ़ी नजरों में है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में उसके खिलाफ पाबंदी लगाने की अमेरिकी कवायद अपने चरम पर है। बस रूस और चीन अपने-अपने वीटों के दम पर अमेरिका की बादशाहाना चालों को मकसद तक नहीं पहुंचने दे रहे। अमेरिका अब तक इरान के अंतर्राष्ट्रीय कारोबार पर अपनी तरफ से कई पाबंदियों का एलान कर चुका है। ऐसे दमघोंटू माहौल में जरा सोचें कि अयातुल्लाह खुमैनी ने ईद के रोज नमाज अदा करके क्या दुआ माँगी होगी?
खुमैनी ने इरान की तरफदारी में कम और अमेरिका की मुखालफत में ज्यादा कहा होगा- इसका तो कयास लगाया जा सकता है। लेकिन, खुमैनी ने इरान से दूर बसे फिलिस्तीन का सवाल उठाया और फिलिस्तीनियों के हिफाजत की अपील की-आखिर क्यों? पहली नजर में यही लगेगा कि धर्मिक राज्य की अपनी छवि के अनुकूल इरान इस्लाम का झंडा बुलंद कर रहा था और ऐसा करके वह इस कानफोड़ू अमेरिकी प्रचार को ही स्पष्ट कर रहा था कि अपफगानिस्तान में तालिबान, लेबनान में हिजबुल्लाह और फिलिस्तीन में हमास की 'काली करतूतों' के पीछे इरान का हाथ है। आखिर विश्वव्यापी आतंकवाद को लगातार साबित करते
रहने के लिए उसका कोई चेहरा होना चाहिए और क्या ही बेहतर हो कि अमेरिका को 'विश्वव्यापी आतंकवाद' का बेनकाब चेहरा इरान और खुमैनी के रूप में मिल जाय।
आखिर 'सभ्यताओं
के संघर्ष' में अगर एक तरफ अमेरिका और उसके साथी मुल्क हैं तो दूसरी तरफ अपनी सेना सजाए कोई और भी
तो नजर आना ही चाहिए। अमेरिका के हिसाब से परमाणु बम बनाने पर तुला इरान ऐसा ही प्रतिपक्ष है। चालू मुहावरे से बाहर निकलकर सोचे तो तस्वीर कुछ अलग ही नजर आएगी। इस तस्वीर में दिखेगा घायल होता लोकतंत्र-एक ऐसा मृगछौना जिसको बचाने के नाम पर दरअसल अमेरिका चौतरफा हाँक लगाए दौड़ रहा है- कहीं कूटनीति से, कहीं फौजी बूटों से तो कहीं डॉलर के जोर से वह हर उस जगह हाजिर होने पर उतारू है जहाँ या तो पेट्रोलियम हो या अमेरिकी कारोबार के लिए खुला बाजार हो।
विडंबना यह है कि जहाँ-जहाँ लोकतंत्र होगा वहाँ-वहाँ अमेरिका के लिए बाजार होगा के इस व्याकरण को समझता हर मुल्क है लेकिन बोलने की हिमाकत इरान जैसा मुल्क ही करता है जहाँ लोकतंत्र अब भी दूर की कौड़ी है। ईद के रोज खुमैनी फिलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के लोकतांत्रिक अधिकार की आवाज बुलंद कर रहे थे जबकि खुद इरान में लोकतंत्र की सेहत
मरी-मरी सी है।
बहरहाल, खुमैनी ने ईद के रोज फिलिस्तीन के बहाने आज की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को मथता एक गहरा नैतिक सवाल उठाया। सवाल यह कि जब कोई और चारा न हो तो दो में से कौन सा रास्ता चुना जाय- लोकतंत्र या राजनीतिक आजादी? गुलाम होकर लोकतांत्रिाक राजव्यवस्था में रहना बेहतर है या किसी एक सामूहिक पहचान के साथ आजाद रहना भले ही उस
सामूहिक पहचान की बुनियाद अलोकतांत्रिक हो? तनिक सरल शब्दों में कहें तो मामला राष्ट्रवाद बनाम लोकतंत्र का है। जब दोनों आमने-आमने हों तो किसे चुना जाय? अमेरिका का चमत्कार यह है कि उसने लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद के तीसरे विकल्प को अब विश्वव्यापी लोकतंत्र की अपनी मुहिम में एकदम किनारे कर देने में सफलता पायी है।
फिलिस्तीन की आषादी के मसले पर चलने वाली अमेरिकी कारगुजारियों में इसे साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। खुमैनी ने ईद के रोज इस्लामी मुल्कों से आह्वान किया कि वे फिलिस्तीन के मसले पर न्यूयार्क में आहूत शांति सम्मेलन में शिरकत न करें। पिछली
सोलह जुलाई को बुश ने घोषणा की थी कि साल के अंत तक न्यूयार्क में एक अंतर्राष्ट्रीय शांति सम्मेलन किया जाएगा और मधय-पूर्व में शांति-प्रक्रिया की बहाली की कोशिशें फिर की जाएंगी। षाहिर है, बुश का इशारा अरब-इजराइल संबंधों के इतिहास को फिलिस्तीन की पीठ पर दुबारा लिखने की तरफ था।
बुश की यह घोषणा एक तरफा थी। मधय-पूर्व के तीन अन्य बड़े महारथियों यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र संघ और रूस से उसने शांति-सम्मेलन करवाने के बारे में पूछा तक नहीं। बुश की घोषणा मानो एक अल्टीमेटम थी कि इस सम्मेलन में वही आएँ जो
फिलिस्तीन राष्ट्र के गठन को लेकर उसके मंसूबों पर मुहर लगाने को तैयार हों और इषराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता देते हों। खुमैनी ने यहीं सवाल खड़ा किया- उनका कहना था कि अगर फिलिस्तीन खुद इस सम्मलेन में नहीं आ रहा तो बाकी
मुल्क क्यों आएँ और सम्मेलन के फैसले को केसे जायज ठहराया जाए?
इरान को लगता है कि शांति-सम्मेलन में फिलिस्तीन नहीं आ रहा। अमेरिका कह रहा है कि फिलिस्तीन का फैसला फिलिस्तीनी नुमाइंदों की सहमति से होने जा रहा है- इस उलटबासी में सफेद क्या है और स्याह क्या? कौन है फिलिस्तीनी लोगों का नुमाइंदा? क्या फिलिस्तीनी लोगों के बिना फिलिस्तीन पर लिया गया कोई फैसला लोकतांत्रिक होगा?
बुश ने मधय-पूर्व के सत्ता-समीकरण नए सिरे से लिखने के इस एलान के साथ आनन-फानन में सऊदी अरब, जार्डन और मिस्र के शासकों से फोन पर संपर्क साध।
जार्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर कायम महमूद अब्बास के शासन को उसने 19 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद देने की घोषणा की। 8 करोड डॉलर अलग से भी मिलेंगे अब्बास सरकार को। यह अतिरिक्त रकम फिलिस्तीनी हक के लिए लड़ रहे हिंसक संगठन 'हमास' के पर कतरने के लिए ख़ास तौर से दिए जा रहे हैं। अमेरिका एक ओर फिलिस्तीन के सवाल पर अरब मुल्कों को एक रस्से में नाथना चाहता है और दूसरी ओर अपने कठफतले महमूद अब्बास के सहारे बाकी मुस्लिम बहुत
देशों को। अब्बास इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इंडोनेशिया के दौरे पर है।
मकसद साफ है कि सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश इंडोनेशिया सम्मेलन में शिरकत करे इजराइल को मान्यता दे और फिलिस्तीन के उस नक्शे पर चुपचाप दस्तखत कर दे जिसकी रेखाएँ अमेरिका खींचने जा रहा है। आइए देखें कि फिलिस्तीन में
आजादी और लोकतंत्र के तार किस तरह उलझे हैं और किस चालाकी से उन्हें सुलझाने की कसरत हो रही है।
अमेरिका और इषराइल के लिए फिलिस्तीन की मौजूदा हालत मुनाफे का मनचाहा मौका है। गाजापट्टी पर काबिज संगठन 'हमास' और पश्चिमी किनारे पर कायम 'फतह' की सरकार के बीच खूनी जंग छिड़ी हुई है। दो बिल्लियों के इस झगड़े में पंच की भूमिका निभाने उतरे बंदरों को फायदा तो होना ही है। 'हमास' और 'फतह' नाम के दो फिलिस्तीनी गुटों के इस झगड़े में गाजापट्टी और पश्चिमी किनारे के बीच एक अघोषित सीमा रेखा खिंच गई है। अमेरिका और इषराइल ऐसे में अपने-अपने सियासी मकसदों को साधने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। अब्बास महमूद के नेतृत्व वाली फतह की सरकार के रूप में दोनों को अपना वफादार प्यादा मिल गया है।
दोनों अपने सियासी एजेंट राष्ट्रपति अब्बास और प्रधानमंत्री सलाम फैयद को एक से बढ़कर एक नजराने पेश कर रहे हैं- साथ ही 'हमास' के गढ़ गाजापट्टी पर शिकंजा कसा जा रहा है ताकि वह पूरी दुनिया से अलग-थलग पड़ जाय। जरूरी चीजों की आपूर्ति तक रुक जाय और गाजापट्टी के बाशिन्दे दम तोड़ दें।
सिर्फ पश्चिमी किनारे को फिलिस्तीन और वहाँ कायम फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण (पी.एन.ए) की सरकार को फिलिस्तीनी हितों का एकमात्रा नुमाइंदा बनाने पर तुले अमेरिका का मकसद इसी बहाने इरान को सबक सिखाना है। वह सुन्नी बहुलता वाले अरब मुल्क मिस्र, जार्डन और सऊदी अरब को शिया बहुल इरान के खिलाफ खड़ा करना चाहता है। ईराक के शिया आजादीपसंदों के हाथो मुँह की खाते अमेरिका ने बार-बार कहा है कि इरान ईराक, लेबनान और फिलिस्तीन में शिया अतिवादियों को बढ़ावा दे रहा है।
सुन्नी अरब मुल्क भी इरान के बढ़ते प्रभाव से संशय में हैं- साथ ही वहां के स्वेच्छाचारी शासकों को अमेरिका से दोस्ती गांठने की भी हड़बड़ी है। सुन्नी अरब मुल्कों को साथ लेकर अमेरिका इरान पर चौतरफा घेरा डालना चाहता है। इषराइल 'हमास' और 'फतह' की आपसी जंग का फायदा अलग उठा रहा है। गाजापट्टी और पश्चिमी किनारे किनारे के कुछ ठिकानों पर उसका
हमला तेज हो गया है। 'हमास' को नेस्तनाबूद करने पर उतारू इषराइल ने गाषापट्टी से लगती अपनी सीमा सील कर दी है। सिर्फ मानव जीवन के लिए बेहद जरूरी चीजें ही यहाँ पहुँच सकती हैं। फैक्ट्रियाँ बंद हैं, कारोबार ठप्प पड़ चुका है। गाजा के 75 प्रतिशत निजी क्षेत्र के कर्मचारी बेरोजगार हो गए हैं।
गाजा में कार्यरत संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकारी जॉन जिंग की बात मानें तो गाजा जल्दी ही एक वीराने में तब्दील होने वाला है- अगर घेराबंदी जारी रहती है तो जल्दी ही गाजा की आबादी सिर्फ बाहरी सहायता पर निर्भर आबादी में बदल जाएगी, उसके पास न तो आत्मनिर्भरता का सपना होगा और न ही कामगर कहलाने की गरिमा।
अमेरिकी इशारे पर अब्बास की सरकार भी गाजापट्टी पर कहर ढा रही है। इसने गाजा में कायम अपनी सैन्य अदालतों के अधिकार बढ़ा दिए हैं। अपने गृहमंत्री को आदेश दिया है कि गाजा में सक्रिय गैरसरकारी संगठनों को बंद किया जाय। इसी आपा-धापी में अब्बास ने नए सिरे से चुनाव के आदेश दिए हैं जबकि चुनाव की घोषणा में संसद के सदस्यों की सहमति नहीं ली गई। संसद के 120 सदस्यों में 75 हमास के हैं। इनमें आधे सांसद इषराइल की जेलों में बंद हैं और आधे संसद में नहीं आते।
राष्ट्रपति अब्बास के नेतृत्व वाली फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण की सरकार से पहले गाजापट्टी और पश्चिमी किनारे पर 'हमास' की सरकार थी। 2006 की जनवरी में 'हमास' की सरकार बनी थी। लोगों में 'फतह' की भूमिका को लेकर संदेह था और वे
उसके भ्रष्टाचार से उकता चुके थे। कहीं न कहीं फिलिस्तीनी जनता यह समझ रही थी कि 'फतह' चंद करोड़पतियों की जमात है जिसका काम स्वायत्ता क्षेत्र में अमरीकी और इषराइली हितों की रखवाली करना है। पश्चिमी मुल्कों ने 2006 के चुनाव परिणामों को मानने से इनकार किया।
'हमास' की सरकार को गिराने के लिए पाबंदियाँ लगीं। इरादा अपने चहेते महमूद अब्बास की सरकार बनवाने का था ताकि इसी बहाने 'हमास' से 'फतह' को लड़वाया जा सके। पश्चिमी मुल्क अपने मकसद में कामयाब हुए। गाजा में 'फतह' और 'हमास' के बीच हफ्रतों तक खूनी लड़ाई चली- आपातकाल की घोषणा हुई और 'फतह' के नियंत्रण वाले पश्चिमी किनारे पर अब्बास की सरकार बनी।
अमेरिका और इजराइल से चूक यह हुई कि वे गाजा में 'हमास' की लोकप्रियता का न तो सही अंदाजा लगा सके और न ही यह आकलन कर सके कि लाख कोशिशों के बावजूद 'हमास' 'फतह' के अमेरिकापरस्त लड़ाकों पर भारी पड़ेगा।
मामला यहीं आकर उलझ जाता है। 'हमास' की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार पश्चिमी मुल्कों को पसंद नहीं क्योंकि 'हमास' अमेरिकापरस्त नहीं है। 'हमास' फिरलिस्तीनियों को पसंद है क्योंकि वह 'फतह' की मुखालफत करता है। 'फतह' फिलिस्तीन की आजादी का मसला अमेरिका के बताए रास्तों पर चलकर हल करना चाहता है। वह इजराइल की हर अपमानजनक शर्त मानने को तैयार है। 'फतह' को यह मानने में तनिक भी हिचक नहीं कि पश्चिमी किनारे पर कब्जाया गया तमाम हिस्सा इजराइल का है अथवा घर छोड़ चुके फिरलिस्तीनियों को अपनी वतन वापसी का अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ
'हमास' है, जो ऐसी शर्तें कभी नहीं मानेगा। इसी कारण फिरलिस्तीनियों में वह लोकप्रिय भी है मगर 'हमास' धर्मिक कट्टरपंथ के रास्ते पर चलता है- वह राष्ट्रवाद के एक अतिवादी रूप् का समर्थक है। यहूदीयत का कट्टर विरोधी 'हमास' आतंक और हिंसा को फिलिस्तीनी राष्ट्रवाद का पहला और आखिरी उपाय मानता है। उसका यह पक्ष बहुत से फिलिस्तीनियों को पसंद नहीं। फिलिस्तीन पर किसका अधिकार है- 'हमास' जैसे कट्टरपंथी जमात का या 'फतह' जैसे अमेरिकापरस्त मगर धर्मनिरपेक्ष धड़े का?
अपने को साम्राज्यवाद के विरोध में खड़े एक इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन के रूप में पेश करने वाले 'हमास' का गठन 1987 में गाजा के शेख अहमद यासिन के हाथ हुआ था। इजराइल और पश्चिमी मुल्कों में 'हमास' की छवि एक खूंखार लड़ाकू की है जिसे न आत्मघाती धमाकों से परहेज है और न ही इषराइली फौजियों और नागरिकों में बिना फर्क किए ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाने से। 1988 में लिखे गए हमास के घोषणापत्र में साफ कहा गया है कि जब तक इषराइल का नाश नहीं होता और मौजूदा इषराइल, पश्चिमी किनारे तथा गाषापट्टी में फिलिस्तीनी इस्लामी राष्ट्र नहीं बन जाता तब तक 'हमास' की जंग जारी रहेगी। हमास की अपनी विचारधारा अगर कोई है तो यही कि यहूदीयत के विरोध पर टिका एक आजाद इस्लामी राष्ट्र फिलिस्तीन बने।
कनाडा, जापान, इषराइल, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन की तो बात ही क्या योरोपीय यूनियन और संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे पारराष्ट्रीय संगठनों और जार्डन जैसे पड़ोसी ने भी 'हमास' को आतंकी संगठन का दर्षा दे रखा है। फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के नेता यासर अराफात की मृत्यु के बाद 'हमास' ने संसदीय राजनीति का रास्ता चुना था। गाजा, कलकिलिया, नबलूस के स्थानीय चुनावों में छिटपुट जीत दर्ज करने के बाद 2006 की जनवरी में हमास ने फिलिस्तीनी संसद के चुनाव में हैरतअंगेज जीत दर्ज की। उसे कुल 132 सीटों में 76 सीटें मिलीं जबकि फतह को केवल 43 सीटों से संतोष करना पड़ा। हमास साफ मानता है कि फिलिस्तीन की आजादी का रास्ता जेहाद का रास्ता है और कोई विकल्प नहीं है। फतह के भ्रष्ट और
अकुशल शासन से उकताए फिलिस्तीनियों को हमास का यह बागी तेवर पसंद आता है। वे मानकर चलते हैं कि हमास फिलिस्तीनी हिस्से पर इषराइल के कब्जे और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ आजादी का सशस्त्र संघर्ष चला रहा है। बाकी मुल्क अगर 'हमास' को आतंकी मानते हैं तो खुद फिलिस्तीनी उसे अपनी आजादी के सपनों का चितेरा।
'हमास' की जीत फतह को नहीं पची क्योंकि फतह का पेट पश्चिमी मुल्कों के पैसे से भरता है और दिमाग भी उन्हीं के इशारे पर चलता है। जीत के बाद हमास ने अपनी तरफ से एक तरफा युध्दविराम की घोषणा की। इजराइल को इस साल की अवधि दी कि वह पश्चिमी किनारे, गाजापट्टी और पूर्वी यरूशलम से अपना कब्जा हटा ले। लेकिन इजरायल ने अपना हवाई हमला
रोका और न ही फतह ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी इस सरकार को सत्ताा सौंपी।
हमास के निर्वाचित नुमाइंदों को फतह ने फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राध्किरण (पीएनए) के पदों से चुन-चुन कर हटाया और अपने नुमांइदे बैठाए।
2007 का जून खूनी लड़ाई का महीना साबित हुआ। 'हमास' और फतह में ठन गई। महमूद अब्बास के नेतृत्व में 'हमास' गैरकानूनी करार दिया गया। 'हमास' का कब्जा गाजापट्टी पर बरकरार है। फतह की सरकार पश्चिमी किनारे पर है और इसी पश्चिमी किनारे भर को फिलिस्तीन मानने-मनवाने की कवायद में अमेरिका ने शांति सम्मेलन बुलवाया है। अमेरिका और साथी मुल्कों की नजर में फिलिस्तीन का प्रतिनिधित्व फतह करता है।
'फतह' फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चा यानी पीएलओ में शामिल कई सारे दलों में एक दल है भले ही उसका आकार सबसे बड़ा हो। अपने गठन के बाद से उग्रवादी समूह फतह ने भी खड़े किए लेकिन 'हमास' के विपरीत फतह को किसी देश ने आतंकी संगठन का दर्जा नहीं दिया है। यूरोपीय संघ और अमेरिका इसकी भरपूर मदद करते हैं। यह अपने को धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी बताने वाला संगठन है। 1954 में वजूद में आया फतह फिलिस्तीनी आप्रवासियों द्वारा गठित हुआ था। इसने एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक फिलिस्तीन के निर्माण के सपने से अपनी शुरुआत की थी लेकिन मधयपूर्व को साम्राज्यवादी चंगुल से छुड़ाने की जगह यह लगातार अमेरिकी हितों की कठपुतली बनता गया।
'सशस्त्र संघर्ष' और मूलगामी बदलाव के अपने मुहावरे के बावजूद इसकी नीति यही रही कि वह यथास्थिति के बीच सिर्फ फिलिस्तीनियों के लिए किसी तरह एक राष्ट्र हासिल कर ले भले ही मधयपूर्व के देशों पर साम्राज्यवादी हितों का शिंकजा जारी
रहे। फतह का साम्राज्यवाद विरोध 'हमास' की तरह बिला शर्त नहीं था। उसने कभी कामगर तबके के आंदोलन खड़ा नहीं होने दिए। मधयवर्गीय हितों की नुमाइंदगी करते-करते उसकी स्थिति आखिर को पूंजीपरस्त दल की हो गई। राष्ट्र का आंदोलन प्रधान बाकी सारे सवाल पीछे की टेक पर चलते फतह ने नियम बनाया कि वह 'सभी अरब राष्ट्रों से सहयोग' करेगा और मध्यपूर्व के शेष संघर्षों में तटस्थ बना रहेगा।
अरब मुल्कों के शासक तबके और उनके स्वेच्छाचार को भी चुनौती देने से इनकार करने की फतह की यह अदा पश्चिमी मुल्कों को पसंद है। सोवियत संघ के बिखरने के बाद यह तो तय ही हो गया कि मध्यपूर्व में अमेरिकी हितों का बोलबाला रहेगा और क्या ही अच्छा हो अमेरिका के लिए कि खुद जिसका शिकार किया जा रहा है वही कहे कि मेरा शिकार किया जाना मेरी बेहतरी के लिए है। फतह और अब्बास के रूप में अमेरिका को ऐसा शिकार मिल गया है। फिलिस्तीन का प्रतिनिधित्व कौन करता है- बुश-प्रशासन के शांति सम्मेलन का यक्ष प्रश्न यही है। पश्चिमी मुल्कों की सोच से यह चिंता गायब है कि खुद फिलिस्तीनी किसे अपना नुमाईदा मान रहे हैं। हमास की लोकतांत्रिक सरकार को इसी वजह से गिराया गया। गणित एकदम स्पष्ट है-
लोकतंत्र वही जो लोकतंत्र के खुदमुख्तार पहरुए बताएं। अमेरिका और साथी देशों को वही लोकतंत्रा पसंद है जो मधयपूर्व का तेल उनकी बड़ी कंपनियों के ठेके के हवाले करने में देर ना करे, जो धर्मनिरपेक्ष हो, आजादी पसंद भले न हो। पश्चिमी मुल्कों की इस षरूरत को फतह बड़ी खूबी से पूरा करता है।
मध्यपूर्व में लोकतंत्र की चिंता करते देश यह बात भूल जाते हैं कि आत्मनिर्णय लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है और आत्मनिर्णय की जमीन पर खड़ा होने से पहले हर लोकतांत्रिक देश को अपने आप ही से लड़ने में बरसों का सफर तय करना पड़ा है। लोकतंत्र दुनिया को सेंत-मेंट में मिली दौलत नहीं- पूरी उन्नीसवीं सदी खुद योरोप में कभी मजदूरों तो कभी औरतों के खून से लाल हुई तब उन्हें अपने चयन और वरण का अधिकार मिला था। ऐतिहासिक विकास की यह राह फिलिस्तीन में भी चल सकती है बशर्ते अमेरिका और साथी मुल्कों को लोकतंत्र का इतिहास याद हो।

कोई टिप्पणी नहीं:

मुद्दे-स्तम्भकार