मुख्य धारा से जुड़ने के लिए संघर्ष कर रही हैं- आदिवासी महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

इन दिनों मध्यप्रदेश अपने अस्तित्व का 50वाँ राज्योत्सव मना रहा है। मध्यप्रदेश का अतीत जितना गौरवशाली था उतना ही वर्तमान और भविष्य। अपने गौरवशाली इतिहास, संस्कृति और लोक कलाओं से मध्यप्रदेश का इतिहास विभिन्न सभ्यताओं की कहानी है। वर्तमान 50 वर्षों में मध्यप्रदेश ने संस्कृति और लोक कलाओं को देश और विश्वव्यापी बनाया। उन्हें परिष्कृत किया तो उन्हें उनके सीमित क्षेत्रों से निकाल कर जन-जन तक पहुँचाया। देश के किसी राज्य में इतनी विविध न तो धरोहर है, न ही कला और संस्कृति। सबसे बड़ी बात कि इनमें कहीं कोई विरोधाभास नहीं। अपनी अलग-अलग विशिष्टताएँ और समाज की उन्हें जानने-पहचानने की ललक। प्रदेश सर्वाधिक आदिवासी जनसंख्या के लिए भी जाना जाता है और आदिवासियों में भी गोंड़ आदिवासियों की संख्या सर्वाधिक है।

महात्मा गाँधी ने स्वतंत्र भारत में एक मज़बूत पंचायत राज शासन पध्दति का स्वप्न संजोया था जिसमें शासन कार्य की प्रथम इकाई पंचायतें हाेंगी। उनकी कल्पना पंचायतों की शासन व्यवस्था की धुरी होने के साथ ही आत्मनिर्भर, पूर्णतया स्वायत्त और स्वावलम्बी होने की थी। स्वतंत्रता के पश्चात् महात्मा गाँधी की इस परिकल्पना को साकार करने के लिए समय-समय पर प्रयास किए गए। कभी ग्रामीण विकास के नाम पर और कभी सामूदायिक विकास योजनाओं के माध्यम से पंचायतों को लोकतंत्र का आधार मज़बूत बनाने के लिए उपयोग किया जाता रहा। लेकिन प्रदेश में लोकतंत्र का विकेन्द्रीकरण करके बुनियादी स्तर पर पंचायत राज की स्थापना और जनता के हाथ सीधे अधिकार देने की शुरूआत संविधान के 73 वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से सम्भव हुई। वर्तमान में सफलतापूर्वक तीसरी पारी खेल रहा मध्यप्रदेश महिलाओं को तैतीस प्रतिशत आरक्षण से आगे लाने के साथ ही अब सीधे-सीधे पचास प्रतिशत आरक्षण कर महिलाओं को उनके बराबरी के हक 'आधा आसमां हमारा' को दिलवाने का सराहनीय प्रयास किया है।

अभी भी कहा यह जाता है कि तमाम प्रयासों के पश्चात भी विकास की इस दौड़ में अक्सर हमारी आदिवासी महिलाएँ पिछड़ जाती हैं और मुख्य धारा से कटे रह जाते हैं। ऐसे में उनसे नेतृत्व कर सकने की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता रहा है। इसके कारणों एवं यथास्थिति को जानने के लिए लेखक ने आदिवासी बहुल जिले मंडला और बालाघाट चुने और क्षेत्र के दौरे के पश्चात स्थितियों में बदलाव की आहट को सुना।

दोनों जिलों में गोंड़ और बैगा जनजातियाँ ही प्रमुखता से पाई जाती हैं और इनमें से भी बैगा जतजाति को केन्द्र से विशेष दर्जा प्राप्त है। प्रकृति की पूजा-आराधना करने वाली इन जनजातियों में अपनी परम्परा, अपने संस्कार, अपना संगीत, अपने आचार-विचार हैं और यही उन्हे दूसरों से अलग करते हुए अपना संसार रचने में मदद देते हैं। मंड़ला जिले की बिछिया तहसील की खटिया पंचायत की महिला सरपंच सुखवती बाई के रहन-सहन को देखकर यह साबित भी होता है। वे मूलत: गोंड़ हैं और उनका गाँव बैगा बहुल है। वे दूसरी बार सरपंच चुनी गई हैं। यह उस आपसी सामजस्य को दर्शाता है तो जो दूसरे वर्गों में धीरे-धीरे खत्म हो रहा है और वर्गवाद तेजी से उभर कर नासूर बनता जा रहा है। पंचायती राज की तीन पारियों में से पहली और तीसरी पारी की वे साक्षी रही हैं और दोनों पारियों में अन्तर के बारे में पूछने पर सहर्ष कहती हैं, ''पहली बार तो ज्यादा कुछ नहीं समझ में आया था और ज्यादा कुछ करने को भी नहीं था, लेकिन अब अनुभव भी हो गया है और जनता के लिए करने को भी बहुत कुछ है।''

कक्षा 8 तक पढ़ी सुखवती ने नौ महिलाओं को पछाड़ते हुए तीन गांव की सरपंची हासिल की थी और उनकी पंचायत में चार महिला पंच भी हैं और वे भी उन्हे सहयोग देती हैं। उन्हौने पिछले ढाई-तीन साल में तीन तालाब, तीन कुएँ और लगभग साढे तीन किलोमीटर सड़क के साथ ही साथ रोजगार गारंटी योजना के तहत 473 लोगों को सौ दिनों का रोजगार मुहैया करवाया है। पंचायत के सचिव बालकुमार यादव जो पिछली तीन पारियों से यहाँ के सचिव हैं कहते हैं, ''महिलाएँ अधिक संवेदनशील होती हैं और उनमें कार्य को सही ढ़ंग से करने का सलीका तथा प्रबंधन के नैसर्गिक गुण पाए जाते हैं इसलिए मैं उनके साथ कार्य करने में पुरूषों की तुलना में बहुत ज्यादा खुश रहता हूँ।''

पूछने पर सुखवती देश के प्रधानमंत्री का नाम तो नहीं बता पाती हैं लेकिन मुख्यमंत्री के नाम से वे अच्छी तरह वाकिफ हैं। पंचायत में समाचार पत्र भी आते हैं और सबसे बड़ी बात देखने में आई कि उनके पति उनके किन्ही कार्यों में कोई दखल नहीं देते पाए गए। वे तो कहती हैं, 'परिवार के सहयोग के बगैर इतना करना मुश्किल है, लेकिन कोई भी अपनी मर्जी मुझ पर नहीं थोपता है।'' यह पूछने पर कि महिला होने के नाते महिला समस्या निपटाने में उन्हौने क्या किया तो वे कई उदाहरण सामने रखते हुए कहती हैं, ''पंचायत की लड़कियों को शिक्षा के लिए विभिन्न योजनाओं का लाभ दिलवाने के अलावा सर्पदंश से एक व्यक्ति की मौत हो जाने पर उसकी विधवा हिरंती बाई को कम से कम समय में ही विवेकानंद बीमा योजना के तहत पचास हजार, राष्ट््रीय परिवार सहायता योजना से दस हजार और राजस्व दुर्घटना सहायता राशि पचास हजार, कुल मिलाकर एक लाख दस हजार की सहायता दिलवाई तो मैं जीवन में इतना खुश कभी नहीं हुई।''

इसी क्रम में बालाघाट जिले की हट्टा ग्राम पंचायत में एक और गोंड़ आदिवासी नायिका ने तो पंचायती राज में एक अलग ही तरह से परचम फहरा रखा है। लगातार तीन पारियों से सरपंच बन रही भगलो बाई पुरूषों को हराकर अपने पद पर काबिज हुई हैं। तीन गांवों को मिलाकर बनी पंचायत की 'सरदार' भगलो बाई स्वयं पढ़ी-लिखी नहीं हैं और दंभगता से कहती हैं, ''पढे-लिखो ने अच्छाईयों की जगह बुराईयों को ज्यादा अपनाया है।'' यह उनका अपना विश्वास है लेकिन वे शिक्षा के मुद्दे पर कुछ नहीं करती ऐया नहीं है। उनकी खुद की संताने पढ़ी-लिखी हैं और पंचायत में भी शिक्षा और विशेषकर बालिका शिक्षा के लिए उन्हौने विशेष कार्य किए हैं। उनसे जब यह पूछा गया कि अपनी पहल परी और अब इस तीसरी पारी में कितना फर्क महसूस करती हैं तो एक सेनापति की तरह वे कहती हैं, ''फर्क तो आया है, और भारी फर्क आया है। पहली बार सब कुछ सहमते हुए करते थे, दस बातों से डरते थे, झिझकते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है। आत्मविश्वास हो गया है, आखिर समय तो लगता ही है.....।''

यदि भगलोबाई की अंतिम पक्ति 'आखिर समय तो लगता ही है.....' को सूत्र वाक्य बनाया जाय तो हमारी सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने का धुंधलका हटता हुआ प्रतीत होता है। सामाजिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर तुरंत बदलाव की आशा करना हमारे अधिकांश विश्लेषकों, नीति निर्धारकों की आदत सी है और यह वाक्य उनके लिए कड़ा प्रत्युत्तर है। यह हमारे समाज शास्त्र की भी सही ढंग़ से व्याख्या करता है जो कि विविधता लिए हुए है। इसी विविधता के आयाम को नया स्वर देती सोनाबाई उइके हैं, जनपद सदस्य है मंडला जिले के मोगा ब्लॉक की और गोंड़ आदिवासी हैं। वे कक्षा दसवीं तक पढ़ी हैं। पति, सास और जेठ जो कि मीडिल स्कूल में अध्यापक हैं का भरपूर सहयोग पाकर सोनाबाई अभीभूत तो हैं ही साथ ही उन्हे एक संबल मानती है।

मोबाईल हाथ में लिए वे बेरोकटोक 38 गांवों की जनपद में होने वाली सभाओं में भाग लेती हैं, महिला मंडल के गठन में सक्रिय भूमिका अदा करती हैं और शासन की विभिन्न योजनाओं के प्रति जागरूक रहते हुए कहती हैं, ''हम चाहते हैं कि हरेक को अपना हक मिले चाहे वह वृध्दावस्था पेंशन योजना हो, राष्ट्रीय परिवार सहायता योजना हो, सर्व शिक्षा अभियान हो या फिर बालिका शिक्षा के लिए कार्य हों....।'' वे स्वयं वन स्थाई समिति की सभापति भी हैं और स्वास्थ्य के लिए चलाई जाने वाली सेवा भारती योजना पर भी निगरानी रखती है। उनके पति खेती करते है और यह पूछने पर कि उन्हे कैसा लगता है, उनकी पत्नी के उच्च पदस्थ होने पर तो वे मुस्कुराते हुए कहते हैं, ''सच पूछिए तो बहुत अच्छा लगता है कि कोई तो परिवार का नाम रोशन कर रहा है....'' और सास तो बिल्कुल निहाल होकर कहती है, ''उसके आने के बाद पूरे घर की स्थितियाँ बदल गई है और जब वह गरीबों को काम दिलवाती है तो मन में बहुत संतोष होता है।''
पंचायतों में ही न्याय करने की प्राचीन परम्परा और अपनी व्यवस्थाओं को चलाने वाले आदिवासी आज समय की नब्ज को पकड़ चुके हैं। गांवों की स्थितियों में भी अच्छा-खासा बदलाव आया है। कई समस्याएँ अभी भी विद्यमान हैं लेकिन वह समय की मांग भर करती नजर आती है। आदिवासियों को भी अपनी कई अंधविश्वासी परम्पराओं से बाहर निकलने में समय लग रहा है लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि महिलाओं को लेकर यह क्षेत्र कहीं अधिक संवेदनशील और आश्चर्यजनक रूप से प्रगतीशील है।

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