लोकतंत्र की सबसे छोटी लेकिन महत्वपूर्ण इकाई हैं पंचायत। यहीं से प्रारम्भ होती है लोकतंत्र की पहली सीढ़ी। प्राचीन समय से लेकर महात्मा गांधी के समय तक पंचायत की बात प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ढंग से होती रही है। वर्ष 1955 में पंचायतों की व्यवस्था की गई जो कई कारणों से असफल सिध्द हुई। इस एक बहुत बड़े अंतराल के बाद वर्ष 1993 में 73वें एवं 74वें संशोधन पर अभी तक हाशिए पर रही महिलाओं को इसमे 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया।
इस उल्लेखनीय आरक्षण का परिणाम यह रहा कि देश भर की पंचायतों मे लगभग 1,63,000 महिलाएँ विभिन्न पदों पर नियुक्त हुई तथा सरपंच के तौर पर लगभग 10,000 महिलाएँ आगे आईं। एक पुरूष प्रधान समाज में इतना बड़ा कदम और फिर अच्छा परिणाम एक बारगी तो खुश होने के लिये पर्याप्त था लेकिन, बदलाव की इस प्रक्रिया में सिक्के का दूसरा पहलू भी विद्यमान रहा। कागजों पर ऑंकड़े और धरातल का व्यवहारिक सत्य, दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर पाया गया।
महिला जनप्रतिधियों के पुरूष रिश्तेदार ही अधिकांश जगहों पर शासन करते रहे और महिलाओं को वहीं पर्दे के पीछे रखा गया। ताजा अध्ययन बताते हैं कि लगभग आधे से ज्यादा जगहों पर ऐसा खुले तौर पर हो रहा है। और-तो-और ग्रामीण समाज ने भी इसे मौन स्वीकृति दे रखी है। इन्ही सब कार्यकलापों के चलते एक तथ्य और उभर कर आया कि महिला जनप्रतिनिधियों के कंधों पर बंदूकें रख कर उनके पुरुष रिश्तेदारों ने भ्रष्टाचार प्रारंभ कर दिया और कहने, सुनने, पढ़ने को यह हो गया कि कई महिला जनप्रतिनिधियों के विरुध्द भी भ्रष्टाचार के मुद्दे चल रहे हैं।
यहाँ पर एक गंभीर भूल यह भी हो रही है कि पर्दे के पीछे रहने वाली एक निरक्षर ग्रामीण महिला को लोकतंत्र की इस निचली पाठशाला से यही सीखने को मिल रहा है कि पंचायत या सत्ता धन कमाने का एक स्त्रोत भर है। भविष्य में इसे मानसिकता बनते देर नहीं लगेगी, और हम फिर से पंचायती राज की असफलता का कारण और कहीें खोजने बैठेंगे। वास्तव में ग्रामीण महिलाओं की पंचायतों में भागीदारी को तो अपना लिया गया लेकिन, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को मूल में जाकर नहीं देखा गया। महिलाओं को एक पूर्व निर्धारित ढ़ाँचे में फिट कर दिया गया, बगैर यह देखे कि क्या अनुकूल और क्या प्रतिकूल परिस्थितियाँ हैं। जबकि होना यह था कि इन ग्रामीण महिलाओं के ढाँचे में व्यवस्थाओं को फिट होना था। इसके पश्चात् कई शिकायतें जो हम कर पर रहे है, वे नहीं होती।
अब हम उदाहरण लेते हैं शिक्षा का ही। शिक्षा की कमी उनके आत्म-विकास और आत्म-सम्मान में सबसे बाधक रही है। यद्यपि पिछले पाँच दशकों में महिला साक्षरता कई गुना बढ़ी है फिर भी उनमें शिक्षा का स्तर निम्न है। इसके साथ ही यह भी तथ्य और जुड़ जाता है कि सिर्फ साक्षर होने भर से ही महिलाओं को जागरूक होना आ जाएगा, हमेशा सही नहीं होगा। साक्षर महिला जनप्रतिनिधियों को लेकर किये गये एक अध्ययन के अनुसार अभी भी वे 'महिला समस्या' को नहीं समझ पाई है, उनमें महिला विकास जैसा कोई चिंतन ही नही हैं।
ग्रामीण महिलाओं के संदर्भ में यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि लगभग पचपन से साठ प्रतिशत महिलाएँ घरेलू हिंसा का शिकार होती है। इसका सीधा-सादा अर्थ यही है कि महिलाएँ जहँा एक ओर लड़के व लड़की में विभेद की मानसिकता के साथ तमाम पारिवारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, रीतिरिवाज निभाते हुए तमाम जिम्मेदारियाँ वहन करती हैं तो दूसरी ओर उन्हीं के घर में उन्हें दमन चक्र के रूप में अत्याचार झेलने पड़ते हैं। ऐसे में महिलाओं से आशा करना कि वे पंचायत के कार्यों एवं उनकी समस्याओं के लिए लड़े तो यह सर्वथा बेमानी ही होगा।
इसे हम एक विडम्बना ही कहेंगे कि जहाँ हम महिला उत्थान और उनकी सत्ता में भागीदारी के लिए लड़ते रहे, वहीं उसी के समानान्तर पुरूष और महिलाओं के अनुपात में देशव्यापी गिरावट आती गई। 972 प्रति हजार पुरूष से घटकर यह स्थिति 934 प्रति हजार पुरूष तक पहँच चुकी है। ऐसे में कभी-कभी लगता है कि दबाव के चलते सब कुछ अपना रहे हैं परन्तु मन से महिलाओं को आगे बढ़ना हम अपना नहीं पा रहे हैं। कुछ जागरूक महिला सरपंचों द्वारा लिये गए निर्णयों (चाहे वे कितने ही अच्छे क्यों न हो) पर सरेआम पुरूष साथियों द्वारा नहीं माना गया। कई स्थानों पर महिलाओं को तरह-तरह से अपमानित किया जाना हमारी उसी पुरूष आधारित मानसिकता का परिचायक है।
वैसे देखा जाए तो ग्रामीण महिलाएँ जब अपने घरेलू कार्यों के साथ-साथ कृषि कार्यों को भी सही प्रबंधन कर निपटा लेती हैं तथा अपने बच्चों का भी पालन-पोषण कर लेती हैं तो ऐसी कुशल प्रबंधक को पंचायत का पोषण करने में कहाँ समस्या आ सकती है। वे अपने उद्देश्यों के प्रति अपने संस्कारों की वजह से अधिक प्रतिवध्द, ईमानदार और उत्साही रहती हैं। जरूरत इस बात की है कि संपूर्ण व्यवस्था उनके पक्ष को लेकर पुर्नव्यवस्थित हो और पारिवारिक सहमती उसमें शामिल हो। हमें पंचायती राज में महिलाआें की भागीदारी के बारह-तेरह वर्षों बाद अनुभवों को महत्व देते हुए प्रत्येक पहलू की पुर्नव्यवस्था करना होगी।
इस उल्लेखनीय आरक्षण का परिणाम यह रहा कि देश भर की पंचायतों मे लगभग 1,63,000 महिलाएँ विभिन्न पदों पर नियुक्त हुई तथा सरपंच के तौर पर लगभग 10,000 महिलाएँ आगे आईं। एक पुरूष प्रधान समाज में इतना बड़ा कदम और फिर अच्छा परिणाम एक बारगी तो खुश होने के लिये पर्याप्त था लेकिन, बदलाव की इस प्रक्रिया में सिक्के का दूसरा पहलू भी विद्यमान रहा। कागजों पर ऑंकड़े और धरातल का व्यवहारिक सत्य, दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर पाया गया।
महिला जनप्रतिधियों के पुरूष रिश्तेदार ही अधिकांश जगहों पर शासन करते रहे और महिलाओं को वहीं पर्दे के पीछे रखा गया। ताजा अध्ययन बताते हैं कि लगभग आधे से ज्यादा जगहों पर ऐसा खुले तौर पर हो रहा है। और-तो-और ग्रामीण समाज ने भी इसे मौन स्वीकृति दे रखी है। इन्ही सब कार्यकलापों के चलते एक तथ्य और उभर कर आया कि महिला जनप्रतिनिधियों के कंधों पर बंदूकें रख कर उनके पुरुष रिश्तेदारों ने भ्रष्टाचार प्रारंभ कर दिया और कहने, सुनने, पढ़ने को यह हो गया कि कई महिला जनप्रतिनिधियों के विरुध्द भी भ्रष्टाचार के मुद्दे चल रहे हैं।
यहाँ पर एक गंभीर भूल यह भी हो रही है कि पर्दे के पीछे रहने वाली एक निरक्षर ग्रामीण महिला को लोकतंत्र की इस निचली पाठशाला से यही सीखने को मिल रहा है कि पंचायत या सत्ता धन कमाने का एक स्त्रोत भर है। भविष्य में इसे मानसिकता बनते देर नहीं लगेगी, और हम फिर से पंचायती राज की असफलता का कारण और कहीें खोजने बैठेंगे। वास्तव में ग्रामीण महिलाओं की पंचायतों में भागीदारी को तो अपना लिया गया लेकिन, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को मूल में जाकर नहीं देखा गया। महिलाओं को एक पूर्व निर्धारित ढ़ाँचे में फिट कर दिया गया, बगैर यह देखे कि क्या अनुकूल और क्या प्रतिकूल परिस्थितियाँ हैं। जबकि होना यह था कि इन ग्रामीण महिलाओं के ढाँचे में व्यवस्थाओं को फिट होना था। इसके पश्चात् कई शिकायतें जो हम कर पर रहे है, वे नहीं होती।
अब हम उदाहरण लेते हैं शिक्षा का ही। शिक्षा की कमी उनके आत्म-विकास और आत्म-सम्मान में सबसे बाधक रही है। यद्यपि पिछले पाँच दशकों में महिला साक्षरता कई गुना बढ़ी है फिर भी उनमें शिक्षा का स्तर निम्न है। इसके साथ ही यह भी तथ्य और जुड़ जाता है कि सिर्फ साक्षर होने भर से ही महिलाओं को जागरूक होना आ जाएगा, हमेशा सही नहीं होगा। साक्षर महिला जनप्रतिनिधियों को लेकर किये गये एक अध्ययन के अनुसार अभी भी वे 'महिला समस्या' को नहीं समझ पाई है, उनमें महिला विकास जैसा कोई चिंतन ही नही हैं।
ग्रामीण महिलाओं के संदर्भ में यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि लगभग पचपन से साठ प्रतिशत महिलाएँ घरेलू हिंसा का शिकार होती है। इसका सीधा-सादा अर्थ यही है कि महिलाएँ जहँा एक ओर लड़के व लड़की में विभेद की मानसिकता के साथ तमाम पारिवारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, रीतिरिवाज निभाते हुए तमाम जिम्मेदारियाँ वहन करती हैं तो दूसरी ओर उन्हीं के घर में उन्हें दमन चक्र के रूप में अत्याचार झेलने पड़ते हैं। ऐसे में महिलाओं से आशा करना कि वे पंचायत के कार्यों एवं उनकी समस्याओं के लिए लड़े तो यह सर्वथा बेमानी ही होगा।
इसे हम एक विडम्बना ही कहेंगे कि जहाँ हम महिला उत्थान और उनकी सत्ता में भागीदारी के लिए लड़ते रहे, वहीं उसी के समानान्तर पुरूष और महिलाओं के अनुपात में देशव्यापी गिरावट आती गई। 972 प्रति हजार पुरूष से घटकर यह स्थिति 934 प्रति हजार पुरूष तक पहँच चुकी है। ऐसे में कभी-कभी लगता है कि दबाव के चलते सब कुछ अपना रहे हैं परन्तु मन से महिलाओं को आगे बढ़ना हम अपना नहीं पा रहे हैं। कुछ जागरूक महिला सरपंचों द्वारा लिये गए निर्णयों (चाहे वे कितने ही अच्छे क्यों न हो) पर सरेआम पुरूष साथियों द्वारा नहीं माना गया। कई स्थानों पर महिलाओं को तरह-तरह से अपमानित किया जाना हमारी उसी पुरूष आधारित मानसिकता का परिचायक है।
वैसे देखा जाए तो ग्रामीण महिलाएँ जब अपने घरेलू कार्यों के साथ-साथ कृषि कार्यों को भी सही प्रबंधन कर निपटा लेती हैं तथा अपने बच्चों का भी पालन-पोषण कर लेती हैं तो ऐसी कुशल प्रबंधक को पंचायत का पोषण करने में कहाँ समस्या आ सकती है। वे अपने उद्देश्यों के प्रति अपने संस्कारों की वजह से अधिक प्रतिवध्द, ईमानदार और उत्साही रहती हैं। जरूरत इस बात की है कि संपूर्ण व्यवस्था उनके पक्ष को लेकर पुर्नव्यवस्थित हो और पारिवारिक सहमती उसमें शामिल हो। हमें पंचायती राज में महिलाआें की भागीदारी के बारह-तेरह वर्षों बाद अनुभवों को महत्व देते हुए प्रत्येक पहलू की पुर्नव्यवस्था करना होगी।
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