माया महाठगिनी - शाहनवाज़ आलम

20 मार्च 1927 को डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने हजारों 'अघूतों' के साथ महार के एक 'प्रतिबन्धित' तालाब से पानी पीकर इतिहास को एक नयी दिशा दी थी। लेकिन जब वो ऐसा कर रहे थे तब शायद उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि 40 साल बाद उन्हीं के नाम पर वोटों की ठगी करके सत्ता में आने वालों के शासनकाल में भी दलितों के लिए सार्वजनिक तालाब 'प्रतिबन्धित' रहेंगे।
हम बात कर रहे हैं मिर्जापुर मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर स्थित भुड़कुड़ा गाँव की। जहाँ संविधान और उसके न्यायालयों के फैसलों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है। जहाँ आजादी के 60 साल बाद भी मनुवादी ढाँचा जस का तस बना हुआ है। जहाँ आज भी दबंगो द्वारा दलितों को सार्वजनिक तालाबों के इस्तेमाल पर 'प्रतिबन्ध' लगाया जाता है, जिसके कारण दलितों को बूँद-बूँद के लिए भी दूर तक भटकना पड़ता है। तालाब के किनारे स्थित इस दलित बस्ती में सामन्ती फरमानों के आगे जिन्दगी कैसे रेंगती है इसका अनुमान आप बस्ती के ही राम सहाय कें इस बात से लगा सकते है, 'साहब! हम पानी के पास रहकर भी प्यासे रहते हैं। हम पानी को देख तो सकते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं कर सकते'।
घटना की पृष्ठभूमि बताते हुए गाँव के लोग कहते हैं कि पूरा मामला मजदूरी के पैसों को लेकर शुरू हुआ। पिछले साल दिसम्बर में गाँव के दबंग कुर्मियों ने अपनी बकाया मजदूरी माँगने पर मन्जू नामक दलित महिला की पिटाई कर दी थी। जिस पर दलितों ने पुलिसों में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की। पुलिस ने रिपोर्ट तो दर्ज नहीं की उल्टे मन्जू और उसके पति रामवृक्ष भारती को डाँटकर थाने से भगा दिया। इधर, दबंगों को जब पता चला कि दलितों ने उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत करने की जुर्रत की तो वे तिलमिला उठे। उन्होंने गाँव के प्रधान शशीलता के पति अवधेश सिंह पटेल के साथ मिलकर एक मात्र तालाब जिस पर, पूरी दलित बस्ती निर्भर थी, को कँटीले तारों से घेर कर दलितों को प्यासे मरने पर मजबूर कर दिया।
प्यास से मरते दलितों ने जब मजबूरन आन्दोलन का रूख किया तब राजनीतिक दल भी अपने मुखौटे उतारने पर मजबूर हो गए। रामराज की बात करने वाली भाजपा और दलितराज की पैरोकार बसपान दोनों ने अपने 'सैध्दान्तिक' मतभेद भुलाकर दबंग कुर्मियों के पक्ष में खड़ा होना ही फायदेमंद समझा।
क्षेत्र के रसूखदार भाजपा विधायक और विधानसभा में पार्टी के उपनेता ओमप्रकाश सिंह जहाँ शुरू से ही अपने सजातीय दबंगों के पक्ष में सक्रीय थे। तो वहीं दलित वोट बैंक को हर हाल में पक्का मानकर कुर्मियों में भी बंटवारा करा ले जाने की मंशा से बसपा प्रत्याशी रमेश दुबे भी उनके साथ खड़े हो गए। इस 'आम सहमती' की हद तो तब हो गयी जब इस पूरे मामले पर दलितों द्वारा 1 मार्च को पहले से घोषित प्रदर्शन के खिलाफ आयोजित कुर्मियों की सभा में दोनों ने एक साथ दलितों को सबक सिखाने का आहवान किया। बस्ती के राम सूरत भारती बताते है ''भाजपा तो यहाँ शुरू से ही दबंगों के साथ थी लेकिन बसपा नेता से हमें ऐसी उम्मीन नहीं थी। आखिर बहन जी को तो हमारा ही वोट मिलता है ना''।
इसी बीच इस मसले पर मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमेन राइट्स (पी0यू0एच0आर0) की तरफ से संगठन के संयोजक शरद मेहरोत्रा ने इलाहाबाद हाई कोर्ट मे रिट (संख्या- 18475, पी0यू0एच0आर0 बनाम उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य) दायर कर दी। जिस पर सुनवाई करते हुए 9 अप्रैल को न्यायमूर्ति रफत आलम और राकेश शर्मा की बेंच ने घटना को अमानवीय और स्तब्ध करने वाला बताते हुए तत्काल तालाब से घेराबन्दी हटाने और दलितों को पानी उपलब्ध कराने का आदेश दिया।
कोर्ट का आदेश आ जाने के बाद गाँव के दलितों में उम्मीद जगी कि वे एक बार फिर तालाब का पानी इस्तेमाल कर सकेंगें। यह उम्मीद इस ठोस बुनियाद पर टिकी थी कि फैसला आने के महीने भर बाद ही एक दलित की बेटी मुख्यमन्त्री बनने जा रही थी। लेकिन 13 मई को मायावती के सत्ता में आने के बाद भी कोर्ट के आदेश पर कोई कार्यवायी नही हुयी और तालाब दलितों के लिए 'निषिद' बना रहा। इस मुद्दे पर 28 दिनों तक भाव हड़ताल पर बैठने वाले भाकपा (माले) नेता रामकृत बियार कहते हैं 'मायावती के लिए अम्बेडकर द्वारा रचित संविधान और न्यायालयों के फैसलो का कोई मतलब नहीं है। वो सिर्फ अम्बेडकर के नाम पर वोट लेना जानती है।'
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया जब दबंगों ने तालाब को कंटीले तारों से घेरने की वजह तालाब के किनारे लगे पौधों की सुरक्षा करना बताया। दलित बस्ती के ही रामसूरत भारती बताते हैं 'फैसला आने के बाद दबंगों ने रातों-रात आस-पास के बागीचों से कई छोटे-बड़े पौधे काटकर तालाब के किनारे गाड़ दिया। जिसे उन्होंने महीनों बाद मुआयने पर आए अधिकारियों को भी दिखाया। मायाराज के चुस्त-दुरूस्त प्रशासनिक अधिकारी इन मुर्झाए और गिर चुके पौधों की सुरक्षा के उपाय देखकर गदगद हो गए। हालांकि, मौजूदा समय में इन 'पौधो' के अवशेष भी सड़-गल चुके हैं लेकिन प्रशासन अभी भी यही तर्क दे रहा है कि ऐसा दलितों को रोकने के लिए नहीं बल्कि पौधों की सुरक्षा के लिए किया गया है।

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