अधिकारों के लिए उठे कदम - राकेश मालवीय, भोपाल

बड़वानी, गर्मियों में यह जिला सबसे ज्यादा तापमान के कारण चर्चा में रहता है और बाकी समय गरीबी, भूख, कुपोषण से हो रही मौतों के कारण। इसकी थाती पर नर्मदा का पानी है और सिर के चारों ओर उंचे पहाड़ भी। लेकिन विकास की अवधारणाएं यहां के वांषिदों के लिए ठीक उल्टी ही साबित हो रही हैं। इसलिए अपने अधिकारों के लिए सबसे ज्यादा आवाज और संघर्ष के नारे भी यहां से सुनाई देते हैं। चाहे नर्मदा की लड़ाई हो अथवा रोजगार गारंटी स्कीम में काम नहीं मिलने पर बेरोजगारी भत्ता देने की मांग। इसी बीच लोगों की अपनी छोटी-छोटी कोषिषें भी हैं जो उन्हें अखबार की सुर्खियों में ला देती हैं। मामला चाहे पर्यावरण के लिए अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन का हो अथवा स्वास्थ्य के लिए आदिवासी महिलाओं की जागरूकता का। झमाझम बारि में भी इस जिले के लोग उटकर मोर्चा संभालते हैं और तहसीलदार से सवाल-जवाब करते नजर आते हैं।

आदिवासी मुक्ति संगठन सेंधवा के विजय भाई से बस के सफर के दौरान ही इस क्षेत्र के हालात पर थोड़ी बहुत चर्चा हुई। कयास यह भी लगाए गए कि बारिश के चलते शायद बहुत लोग मोर्चे में न आ पाएं। सोचा भी यही था ब्लॉक के सबसे बड़े अधिकारी को ज्ञापन सौंपने के बाद घंटे दो घंटे में कार्यक्रम तय हो जाएगा। आदिवासी कार्यकर्ता सुमली बाई और मुकेश भी सबसे पीछे की सीट पर बैठे थे। सेंधवा से तकरीबन दो घंटे की यात्रा के बाद बस जहां रूकी वहीं से मोर्चा शुरू होने वाला था। यह पानसेमल ब्लॉक है। इस जबरदस्त बारिश में भी तकरीबन आधा किलोमीटर लंबी लाइन। हर व्यक्ति के हाथ में बारिश से बचने के लिए छाता, किसी के पास वो भी नहीं और कहीं एक ही छातों के नीचे दो आदमी, सबसे आगे महिलाओं का हुजूम, सड़क के दोनों तरफ अनुशासित लाइन, लेकिन आवाज में पूरा जोषो-खरोश, बीच में एक हाथठेले पर माइक लगाकर नारों को बुलंदी दी जा रही थी। कस्बाई बस्ती की विभिन्न गलियों में लोग अपने-अपने घरों से इस मोर्चे को देख रहे थे, छोटे बच्चों को भले ही पता नहीं हो यह हो क्या हो रहा पर कुछ अलग होता देख वह भी उत्साह से नारों को दोहरा रहे थे। मोर्चा ब्लॉक ऑफिस के सामने एक सभा में तब्दील हो गया था। संचालन की कमान उत्साही कार्यकर्ता राजेश के हाथों में थी। ब्लॉक के विभिन्न हिस्सों से आए लोगों ने अपनी बोली में अपने मुददों को अपने लोगों के सामने बारी-बारी से रखा। राखी बुर्जुआ गांव में पांच महीने से पेयजल का संकट था, इसी गांव की एक महिला को रोजगार गारंटी के तहत काम मांगने पर सचिव ने जलील किया तो धुस्सोबाई के पति के देहांत के बाद दो साल से वाजिब हक के लिए भटक रही है। और तो और उसका नाम गरीबी रेखा की सूची तक में नहीं है। न उसे राष्टीय परिवार सहायता के तहत कोई सहायता मिली। सिर पर छह बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी लेकिन दो साल के बेटे राकेश को वह साथ लिए घूम रही थी, उसे देखकर कोई भी कह सकता है कि उसे भरपेट खाना भी नसीब नहीं हो रहा। धुस्सोबाई ने बताया कि उसे आंगनबाड़ी से भी किसी तरह का आहार नहीं मिल रहा। केवल धुस्सोबाई ही नहीं शासन द्वारा कराए गए बाल संजीवनी अभियान में इस जिले में 93376 बच्चे कुपोषित पाए गए थे और इसमें भी 975 बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार थे।

सबके अपने सपने थे लेकिन उनके आड़े प्रशासनिक जवाबदेहिता और भर्राशाही के संकट। इसी संकट से उनकी यह लड़ाई जारी भी थी। घड़ी का कांटा चार बजे के पार हो गया था। मोर्चे के दूसरी तरफ तहसीलदार महोदय आ चुके थे। बारिश के बावजूद उनके सिर पर छाता नहीं था न कोई दूसरा इंतजाम। उनके सामने मांगों का पर्चा पढ़ा गया। गौर से सुनने के बाद अब बारी उनकी थी। लेकिन इस बार मामला केवल आष्वासन से संभलने वाला नहीं था। एक-एक बिंदु पर बारी-बारी से सवाल-जवाब की मांग थी। कुछेक बिंदु सुलझा लिए गए। उन्हें शायद अंदाजा नहीं था मई में मोर्चे के बाद यह कार्यकर्ता इस बार इस तैयारी और हौसले के साथ आएंगे।

तहसीलदार महोदय के एक अदने कर्मचारी ने थोड़ी अषिष्टता दिखाई तो कुछ ही मिनट में लोग मुख्य सड़क पर जा बैठे। लगभग एक घंटे यातायात लोगों की जिद के आगे बंद था। चर्चा फिर शुरू हुई। मोबाइल फोन पर कलेक्टर महोदय से बातचीत हुई। शाम ढल चुकी थी बातचीत का दौर जारी था। तय हुआ कि लिखित में आष्वासन मिलने के बाद ही मोर्चा खत्म होगा। इस बीच लगभग पच्चीस महिलाएं गांव जाने की तैयारी में टैक्टर पर ही बैठी थीं। एक कार्यकर्ता ने बातचीत में बताया घर पहुंचने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हम क्या लेकर लौटे हैं। तहसीलदार महोदय सारी मांगों के जवाब और संबंधित विभागों के नाम पत्र जारी करने के उपक्रम में नौ बजे तक एक टायपिस्ट और अमले के साथ बैठे थे। मोर्चा खत्म हो गया था। लेकिन इस बार लोगों के चेहरों पर खुशी के भाव प्रगाढ़ थे क्योंकि हर बार की तरह उन्होंने केवल कोरा आष्वासन नहीं लिया था।

मोर्चे में शामिल सुमली बाई केवल एक सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से शामिल नहीं थी। उसकी एक और पहचान है। डॉक्टरनी बाई की पहचान। सुमली बाई भले ही पढ़ी-लिखी न हो पर उसे पता है बुखार में पैरासिटामोल दी जाती है और अपनी सेहत को दुरूस्त रखने के लिए क्या करना चाहिए। केवल सुमली बाई ही नहीं बड़वानी में ऐसी 26 आदिवासी महिलाएं हैं जो स्वास्थ्य चेतना और छोटी-मोटी बीमारियों में दवा देने का काम कर रही हैं। एक गैर सरकारी संस्था सेहत ने इन महिलाओं को प्राथमिक इलाज के लिए लगातार प्रषिक्षण दिया है। इन महिलाओं के पास दवाओं का एक झोला होता है। दवाओं के रंग, आकार और नाम से यह दवाओं को पहचान लेती हैं।

लगभग छह साल शुरू हुआ यह प्रयोग इतना कारगर साबित हुआ है कि पहले जहां इन आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य पर लोगों का प्रतिव्यक्ति खर्च 136 रूपए था वहीं दूसरे सर्वे के बाद यह महज 35 रूपए के आसपास ठहर गया। सेहत के मकरंद और संतकुमार ने बताया कि महिलाओं को इलाज के लिए प्रषिक्षण देना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन महिलाओं की मेहनत से यह आसान हो गया। पहाड़ी गांवों से छोटी-मोटी बीमारियों में भी इन्हें कई किलोमीटर चलकर आना पड़ता था। महाराष्ट सीमा से सटे गांव पीपरपुल, बल, आंवली, बुडडी, सोरियापानी सरीखे कई गांवों की महिलाओं ने इसमें हिस्सा लिया। इनके उत्साह को इसी बात से समझा जा सकता है कि प्रंषिक्षण के लिए आने-जाने का खर्च भी इन महिलाओं ने ही उठाया और दवाओं के लिए कई बार आपस में चंदा भी किया। आदिवासी इलाकों में जड़ी-बूटियों से इलाज की एक समृदध परंपरा भी रही है। इस प्रयोग के दौरान ऐसी जड़ी-बूटियों को भी चिन्हित कर उपयोग किया गया। इससे आदिवासियों को सस्ता इलाज मिलना शुरू हो गया। सरकार ने भी महिलाओं की गंभीरता को समझा और कुछ स्वास्थ्य साथियों की नियुक्ति आशा कार्यकर्ता के रूप में की। जिले की मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डा लक्ष्मी बघेल कहती हैं कि आदिवासी इलाकों में इलाज के लिए यह अपनी तरह का एक प्रयोग है। हमने स्वास्थ्य विभाग के निर्देश पर ही इनमें से कुछ को आशा कार्यकर्ता के रूप में नियुक्ति दी है।

कुपोषण के लिए चर्चा मे रहा पाटी ब्लॉक बड़वानी से एक घंटे की दूरी पर है। यहां से महज छह किलोमीटर दूर लिंबी और लगभग 11 किलोमीटर दूर गुडी गांव के वाषिदें अब विकास को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं। इन्होंने समझ लिया है कि अपनी आजीविका के लिए अपने संसाधनों को विकसित करना होगा। इसके लिए इन्होंने अपने बंजर पहाड़ों पर हरियाली लाने का संकल्प लिया है। लिंबी गांव में लगभग 12 हेक्टेयर जगह में आठ हजार पौधे रौपे जा चुके हैं। वहीं दो हजार की आबादी वाले गुडी गांव में तो लोगोें ने अपने लगाए गए पौधे की रक्षा के लिए एक चौकीदार भी तैनात किया है। बड़ी बात यह है कि लोग आपस में चंदा करके उसकी पगार का इंतजाम करते हैं।
लिंबी गांव के निवासी वालसिंह ने बताया कि हमारे इलाके में पहाड़ों पर कुछ नहीं होता। उल्टे इनमें मिटटी का कटाव होता है और गर्मी में यह गर्म हो जाते हैं। बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि कभी यहां भी बहुत हरियाली हुआ करती थी लेकिन धीरे-धीरे सब खत्म हो गया। इसके लिए हमने गांव की ग्राम पंचायत में पहाड़ों पर आपसी प्रयासों से पेड़ लगाने का प्रस्ताव रखा। सभी की सहमति बनी और जनपद पंचायत के माध्यम से पेड़ भी मिल गए। गुड़ी गांव के बलराम बताते हैं कि जंगल से जीवन है, हमने समझ लिया है कि जंगल बचेगा तो हम भी बचेंगे। इसलिए अब हमारी कोषिश यही है कि किसी भी तरह यहां पिफर से हरियाली आए। इस काम में महिलाएं भी बराबरी से हिस्सेदारी कर रही हैं। बड़वानी की सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी बताती हैं कि यहां की बड़ी समस्या मजदूरी के लिए पलायन करने की हैं। इसका बड़ा कारण इनके अपने संसाधनों का खत्म होना है लेकिन अब इन आदिवासी महिला और पुरूषों की आंखों में एक अलग तरह का सपना पल रहा है और इसके लिए इनकी जमीनी कोशिश भी काबिले तारीफ है। जनपद पंचायत के अतिरिक्त कार्यपालन अधिकारी नीलेश पारिख ने भी इन लोगों के सपने को समझा और पंचायत की तरफ से मांग के मुताबिक पौधे उपलब्ध करवाए हैं। कहते हैं कि यदि पहाड़ों पर हरियाली आ गई तो बहुत सारी समस्याएं स्वत: ही हल हो जाएंगी।

-एई 115, राजीव नगर बायपास रोड, भोपाल
मोबाइल -9303244301
फैलो- विकास संवाद, भोपाल

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